मुझे बहुत ही ज्यादा आपत्ति है उन सारे शिक्षण संस्थानों से जो अपने प्रोस्पैक्ट्स महंगे महंगे मोलों पर बेचते हैं कि कईं बार डिसर्विंग छात्र इसलिये ही इन प्रोस्पैक्ट्स को खरीद ही नहीं पाते। इन का मोल जो अकसर दिखता है...पांच सौ रूपये, हज़ार रूपये..........यह इन संस्थानों की डकैती है, लूट है, सरे-आर धांधली है। और जब उस प्रोस्पैक्ट्स को देखो तो इतना अजीब सा लगता है कि यार इन चार पन्नों की कीमत पांच सौ रूपये। दरअसल होता ऐसा है कि इन संस्थानों ने अप्लाई करने की फीस भी इस में शामिल की होती है। एक बार जब प्रोस्पैक्ट्स लोग खरीद लें,तो कालेज, यूनिवर्सिटी एवं संस्थानों की बला से........अप्लाई करें या न करें, इलिजिबल हैं कि नहीं ....उन से इस से क्या लेना-देना.....उन का तो सीधा सा काम है रूपये इक्ट्ठा करने .....सो वे पहले ही से कर चुके हैं।
एक बार इतने महंगे महंगे प्रोस्पैक्ट्स खरीदने के बाद छात्रों के पास इन कोर्सों के लिये अप्लाई करने के सिवाय कोई विकल्प रहता ही नहीं। बस, यह सब धांधली देख कर बहुत दुख होता है। अकसर इस समय मैं यही सोच रहा होता हूं कि लोग डाक्टरो का तो कईं बार रोना रोते हैं लेकिन इस तरह के रोने राते किसी को देखा नहीं......न तो कभी प्रिट मीडिया में ही इस तरह से आवाजें उठती देखीं, न ही शायद इलैक्ट्रोनिक मीडिया में ही इस के बारे में कभी कुछ सुना.......................पता नहीं लोग अपनी बात कहने के लिये किस बात का इंतजार कर रहे हैं।
मैं मानता हूं कि किसी मैकडोनाल्ड में जाकर पांच सौ रूपये के बर्गर -फिंगर चिप्स खाने वाले लोगों पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन आम आदमी किसे अपना दुखडा सुनाये।
मुझे ही बतलाईये की इस के लिये किस को अपनी बात लिख कर भेजनी होगी.......मैं ही करूं थोड़ी शुरूआत। मेरे विचार में यह बहुत गंभीर मसला है। आप क्या सोचते हैं इस के बारे में।