रविवार, 11 मई 2008

तुझे सब है पता, है न मां !!


आज सुबह अखबार देख के पता चला कि कुछ भारतीयों को कल पद्म-श्री, पद्म-विभूषण जैसे अवार्डों से नवाज़ा गया है....कुछ की फोटो भी छपी थी....लेकिन आज मां-दिवस होने की वजह से मैं समाचार-पत्र में ढूंढ रहा था कि शायद कहीं किसी मां को भी कोई छोटा-मोटा इनाम मिल गया हो। लेकिन फिर सोचा कि मैं भी क्या बचकानी बातें सोचने लगता हूं कभी कभी ....अब यह सर्वोत्तम मां, अद्वितीय मां......अब इस तरह के अवार्ड भी क्या सरकार घोषित करेगी क्या!! क्योंकि मां तो हम सब की लाइफ में वो शख्स है जिस के जिम्मे तो बस सब तरह के काम ही आते हैं और हमारा फर्ज़ सिर्फ़ इतना ही है कि हम ने इस को हमेशा टेकन-फॉर-ग्रांटड ही लेना है।

तो, चलिये आप को अपनी मां ( हम इन्हें बीजी) से मिलवाता हूं....ये हमारी बीजी हैं...श्रीमति संतोष चोपड़ा जी....इस देश की करोड़ों माताओं की तरह की ही एक मां। पता नहीं मुझे इस देश की सारी मातायें हमेशा एक जैसी ही क्यों दिखती हैं....इन की सोच एक जैसी होती है ....बस जिस में सब का भला हो ये जगह जगह बारम्बार यही दुआयें करती रहती हैं।

जब से होश संभाला है मैंने तो बीजी को बार-बार पाठ-पूजा करते पाया है, बार-बार रामायण पढ़ते देखा है। कुछ विचार आज मां-दिवस पर मन में आ रहे हैं जो लिख रहा हूं। सब से बहुत बढ़िया विचार तो यही आ रहा है कि मेरी मां ने मेरी एक बार भी पिटाई नहीं की है........बीजी कहती हैं कि तुम थे ही इतने अच्छे कि इस की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। लेकिन यह बिल्कुल सच्चाई है कि अपनी मां के हाथों पिटे हों, इस की कोई धुंधली याद भी नहीं है।

एक बार और कहना चाह रहा हूं कि जब भी मैं अपनी बीजी के साथ बचपन में सब्जी या राशन लेने जाया करता था तो कभी अपनी मां के पर्स की फिकर किये बिना कोई न कोई फरमाईश रख दिया करता था...लेकिन आज तक याद नहीं कि कभी भी मां ने उस फरमाईश को तुरंत पूरा न किया हो। एक बात और भी है ना कि स्कूल-कालेज के दिनों में जब भी मां से 10-15 रूपये मांगे मुझे पता नहीं अपनी अलमारी के किस कौने से एमरजैंसी के लिये रखे पैसे निकाल कर तुरंत हाज़िर कर देती थीं............जैसे जैसे मैं बड़ा हुया तो मुझे अहसास हुया कि यार ,इस से मां के बजट को झटका तो ज़रूर लगता होगा...........लेकिन इस मां ने कभी भी इस बात को मुझे महसूस नहीं होने दिया। लेकिन इतना तो तय ही था कि मांगने पर पैसा तो मिलना ही है।

एक बात और याद आ रही है कि मेरे दो मामे बिल्कुल यौवनावस्था में चल बसे...एक मामे की उम्र तो मात्र 28 साल की थी और जब वे गुज़रे तो मैं 10-12 साल का था, दूसरे मामा के इंतकाल का 30 साल की आयु में ही हो गया था। मैं यह सब इसलिये यहां लिख रहा हूं कि इन मौकों पर मुझे अपनी मां के मजबूत होने का एक नमूना दिखा.....इतने युवा भाईयों के अचानक चले जाने के सदमे में मां पता नहीं कितना विर्लाप, क्रंदन करती होगी....लेकिन यकीन मानिये, जब हम भाई-बहन सामने होती तो बीजी बिल्कुल नार्मल-सा ही बिहेव करतीं ......मां चाहे कुछ कहे या न कहे लेकिन वे बच्चे भी क्या जो मां के चेहरे की खुली किताब को ही न पढ़ पायें......मुझे तब से ही यही लगता रहा मां बिल्कुल नार्मल-सा दिखने की कोशिश केवल हम बच्चों की सलामती के लिये करती हैं....वे सोच रही हैं कि कहीं उसे रोते देख बच्चों को कुछ न हो जाये। तो, देखिये इस देश की मातायें जो अपनों के चले जाने पर बच्चों की सलामती के लिये खुल कर रोती भी नहीं हैं। मेरे पिता जी के स्वर्गवास होने पर भी मैंने अपनी मां का यही रूप देखा......अंदर से दुःख, बाहर से काफी हद तक नार्मल सा दिखने की कोशिश।

और हर एक पर इतनी जल्दी विश्वास करने वाली कि क्या बताऊं....मुझे याद है कि मैं तब तीसरी-चौथी कक्षा में पढ़ता होऊंगा जब मैं और मेरी मां अमृतसर से अंबाला( जहां मेरे नानी-नाना रहते थे).... जा रहे थे तो जब ट्रेन लुधियाना स्टेशन पर पहुंची तो मैं लगा पानी के लिये मचलने । हमारे सामने की सीट पर बैठे एक व्यक्ति ने कहा कि मैं भी पानी पीने जा रहा हूं तो मेरी मां ने मुझे भी उस के साथ प्लेटफार्म पर पानी पीने भेज दिया था......( नल हमारे डिब्बे से काफी दूर था...)...और मुझे याद है उस बंदे ने मुझे बुक से ( बहते नल से अपनी हथेलियों को जोड़ कर पानी पिलवाया था। और गाड़ी छूटने से पहले हम लोग वापिस सीट पर पहुंच भी गये थे।

लिखने को तो दोस्तो इतना कुछ है कि मां-बच्चों के संबंधों पर पोथियां लिखी जा सकती हैं.....हमारी सब की मातायें एक जैसी ही हैं.....कोई फर्क नहीं है.....पहरावे का फर्क हो सकता है , बोली थोड़ी भिन्न हो सकती हैं लेकिन दिल इन सब का एक जैसा ही है। आज मां-दिवस पर मैं अपने आप से कुछ सवाल पूछ रहा हूं.....

जब हम लोग बचपन में पहला कदम चलते हैं तो हमारे मां-बाप की खुशी का कोई ठिकाना नहीं होता...ऐसा लगता है कि मानो खुशी के मारे उन की सांसे ही थम गई हैं। और फिर उन की तपस्या शुरू होती है बच्चे की अंगुली थाम कर छोटे छोटे कदमों से उसे चलना सिखाने की। लेकिन,दोस्तो, मैं जब किसी नौजवान को अपनी मां-बाप का हाथ थामे देखता हूं तो मुझे वह अपनापन, वह स्नेह नज़र नहीं आता......अकसर ऐसा लगता है कि भीड़ भाड़ वाले एरिये से अपनी मां को सेफ्ली निकाल कर या सेफ्ली सड़क क्रास करवा कर उस पर कोई एहसान सा किया जा रहा है। मैं भी कौन सा कम हूं......सोचता हूं कि मां के साथ घर के बाहर रोज़ थोड़ा टहलूं .....लेकिन तब विचार आता है कि यार, बीजी तो बहुत धीमा चलती हैं और मैं इतनी तेज़। ध्यान फिर यही आता है कि अगर बचपन में मां-बाप भी कुछ ऐसी ही सोच रखते तो तेरा क्या होता कालिया !!

दूसरी बात यह कि जब बच्चा बिल्कुल ही छोटा होता है तो झट से उस के कानों के सामने चुटकी बजा कर चैक किया जाता है कि वह ठीक तरह से सुन भी पाता है कि नहीं। यही नहीं , मां-बाप तरह तरह की छोटी छोटी बातें उस से करते नहीं थकते.......वह कोई जवाब थोड़े ही देता है....लेकिन बस मां-बाप के इसी मेहनत का रिज़ल्ट यह निकलता है कि वह धीरे धीरे बोलना शुरू कर देता है......मां......मां.........पा...पा....., पा.....पा। लेकिन आज मां –दिवस के दिन अपने आप से यह पूछने की इच्छा हो रही है कि यार, मां को अगर अब थोड़ा ऊंचा सुनाई देता है और कईं बार कोई बात दूसरी बार दोहराने में मुझे कभी कभी थोड़ी तकलीफ़ सी क्यों होती है.............मां को तो बचपन में अपने नन्हों मुन्नों के साथ तोतली भाषा में घंटों बतियाते न तो कोई तकलीफ ही होती है और ना ही झुंझलाहट।

दोस्तो, आप सब बहुत पढ़े-लिखे ज्ञानी लोग हो, आप सब कुछ समझते हो...कुछ उदाहरणें ही यहां मैंने दी हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि दोस्तो हमारी मातायें वे यूनिवर्सिटियां हैं जिन से हम हर रोज़ सीखते हैं..........दुनियावी यूनिवर्सिटी तो चुस्त-चलाकी सिखाती हैं, अपनी उल्लू कैसे सीधा करना है सिखाती हैं.................लेकिन यूनिवर्सिटी जो हमारे घर में बसती हैं यह हमें जीने का सलीका सिखाती हैं, हमें सिखाती हैं कि सब इंसान एक जैसे हैं, जात-पात कुछ नहीं होती, गिरे को कैसे उठाया जाता है यह सिखाती हैं, रोते हुये के आंसू पोंछने का आर्ट भी तो यही सिखाती है, चोरी से बचने के लिये वह मां के कान कुतरने वाली बात भी सब से पहले यही सुनाती है, रामायण-महाभारत की कहानियां सुनाती भी ये नहीं थकतीं....................और क्या क्या लिखूं......सीधी सी बात है कि मां-दिवस पर अगर हम लोग मां की महानताओं का बखान करना चाहते हैं तो फिर समुंदर जितनी तो दवात चाहिये और दुनिया के सभी सरकंड़ों से तैयार की गई कलम भी छोटी पड़ जायेगी।

हां, लिखते लिखते ध्यान आया कि जब हम लोग स्कूल से लौटकर अपनी मां के साथ छोटी छोटी बातें करते थे तो उस ने तो अपने सारे काम रोक-राक कर हमारी बातें सुनीं......और हम ने इन बातों को एक ही बार थोड़े ही सुनाया, जब तक हम लोग इन बातों को बार बार सुनाते थक नहीं जाते थे , वह भी कहां हां में हां मिलाते हुये थकती थी। लेकिन अपने आप से पूछ रहा हूं कि आज जब मेरी मां किसी धार्मिक पुस्तक से कोई प्रसंग सुनाना शुरू करती है तो मुझे क्यों यह लगता है कि यार, बीजी ने तो बहुत लंबा प्रंसग चुन लिया है....................सीधा सा मतलब है दोस्तो कि मेरे मन में ही कुछ गड़बड़ है, और कुछ नहीं। बेचारी मां का क्या है, उसे लगता है कि बच्चे ध्यान नहीं दे रहे.....या टीवी में ज्यादा इंटरैस्ट ले रहे हैं तो वह अपने किसी दूसरे काम में लग जाती हैं।

पोस्ट लंबी ही हो गई है...लेकिन एक दो बातें करनी अभी बाकी हैं.......एक तो यह कि ये जो वृद्ध आश्रम हैं .....क्या आप को लगता है कि वहां लोग खुशी से रहते हैं....नहीं ना, तो फिर केवल यही प्रार्थना है कि जिन मां –बाप के भी बच्चे जिंदा हैं अगर इस देश में भी ऐसे मां-बाप को इन ओल्ड-एज होम्ज़ में रहना पड़ रहा है.......तो मैं समझता हूं कि अपने मां-बाप को इस से बड़ी गाली हम दे ही नहीं सकते, इस से ज़्यादा अपमानित हम उन्हें कर ही नहीं सकते। मां-दिवस है आज.....एक बात का और ध्यान आया है कि यह जो वूमैन रिज़र्वेशन बिल आने वाला है..........इस को पास करने वालों को काश आज ही मातृ-शक्ति के ऊपर लिखी विभिन्न पोस्टों के बारे में भी पता लगे ताकि इस बिल का किसी तरह का भी विरोध करने से पहले ये मातृ-शक्तियों की कुरबानियों की तरफ तो थोड़ा ध्यान कर लें। इस देश की अधिकांश माताओं का दिन तो सुबह मुंह-अंधेरे ही रोटियां सेंकने और बार-बार चाय के पतीले आंच पर रखने से ही शुरू हो जाता है.......लेकिन यह आज की बात थोड़े ही है......आज तो गैस के बटन का कान मरोड़ा और हो गये शुरू......लेकिन बात तो उन दिनों की थी दोस्तो जब सुबह सुबह ठिठुरती ठंडी में जब मैं और आप रजाई में दुबके पड़े होते थे और हमारी मातायें हमारे स्कूल का डिब्बा बनाने में लगी होती थीं..............जिस के परिणामस्वरूप आज मैं और आप सब अचानक इतने महान हो गये कि ब्लॉगर ही बन बैठे।

एक बात और करनी है कि ठीक है यार अंग्रेज़ों ने हमें एक दिन दिया तो अपनी मां की भूमिका को याद करने के लिये। लेकिन हमारे देश की तो दोस्तो संस्कृति ही कुछ ऐसी है कि हम सब के लिये तो शायद रोज़ ही मां-दिवस होता है। ये हमारे पुरातन संस्कार हैं..............। रोज़ाना ही मां –दिवस वाली बात कुछ ज़्यादा ही नहीं लग रही.....यह कैसे संभव होगा..............उस का सीधा सादा फार्मूला यही है जो कि मैं समझा हूं कि हमें अपनी मां को अपने सब से छोटे बच्चे की तरह ही समझना होगा और उस से वैसा ही व्यवहार भी करना होगा.....कहीं भी गड़बड़ हो रही हो तो हम यही मानक तय कर लें...........तो आप भी मेरी तरह इस से सहमत हैं तो दें ताली............वरना कैसा मां-दिवस और कैसा मदर्स-डे !!

पुनश्चः --- अब पोस्ट लंबी है, खफ़ा न हों....अब मुझे इस देश की सारी मातायों की महानता बखान करने की चाह हुई थी तो इतनी लंबाई की तो छूट दे ही दीजिये। और हां, देखिये, इस समय भी मेरी मां ने ही मुझे ( या आपको ?) बचा लिया क्योंकि बेटे ने आकर बुलावा दे दिया है कि बीजी बुला रही हैं , खाना खा लो, वरना मेरा क्या है.............मैं तो पता नहीं कहां कहां की गप्पें हांकता रहता !

शनिवार, 10 मई 2008

हिंदी चिट्ठाजगत की सेवा...


कल रात सोने से पहले में दीपक भारतदीप जी के ब्लॉग दीपकबाबू कहिन की एक ताज़ा-तरीन पोस्ट पढ़ रहा था जिस में उन्होंने उड़न तश्तरी ब्लॉग के लेखक श्री समीर लाल जी के अभियान के बारे में लिखा है जिस के अंतर्गत समीर जी हिंदी चिट्ठाजगत की प्रगति के लिये प्रयास कर रहे हैं।
मैं भी पिछले दो तीन दिन से नोटिस तो कर रहा था कि समीर लाल जी की जहां भी टिप्पणीयां दिखती थीं तो साथ में दो-तीन ये लाइनें भी नज़र आती थीं...जिन्हें देख कर यही लगता रहा कि समीर जी बिल्कुल ठीक फरमा रहे हैं, हमें भी तो इस यज्ञ में अपना योगदान देना चाहिये।
समीर जी लिखते हैं कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें ...यही हिंदी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है। वह आगे लिखते हैं कि एक नया चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरू करवायें और हिंदी चिट्ठों की संख्या और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।
मैं अपनी ही बात बताता हूं...मुझे इंस्क्रिप्ट हिंदी टाइपिंग तो पिछले पांच-छः साल से आती है लेकिन मुझे यह हिंदी ब्लॉगिंग के बारे में बिलकुल पता न था ....पता तब लगा जब मेरा 16वर्षीय बेटा कुछ सर्च कर रहा था तो उसे रवि रतलामी जी का हिंदी ब्लॉग दिखा जिस के बारे में उस ने मुझे बतलाया कि हिंदी में भी ब्लॉगिंग शुरु हो चुकी है। फिर एक –दो दिन बाद ही उस ने बताया कि अब नेट पर सीधे ही हिंदी में भी लिखा जा सकता है......और मैंने भी इंस्क्रिप्ट स्टाइल से ट्राई किया तो सफलता मिली और इस तरह से मैंने ब्लॉगिंग की दुनिया में पांव रखा।
अब इस पोस्ट के माध्यम से मैं कुछ सुझाव आप सब बलॉगरवीरों को देना चाहता हूं( यह शब्द ब्लागरवीर मैंने लवली कुमारी जी के ब्लोग से चुराया है, मुझे अच्छा लगा था कि किसी ने हम लोगों को वीर तो कहा !!!)……ऐसा समझता हूं कि देश-विदेश में बहुत से लोग हिंदी चिट्ठाजगत में कूदना तो चाहते हैं लेकिन शायद उन्हें भी मेरी तरह इस के बारे में जानकारी नहीं है।
----सब से पहला सुझाव तो मेरा यही है कि आप सब लोग मिल कर एक दो-तीन पेज का हिंदी चिट्ठों के बारे में एक परिचय सा तैयार करें। आप सब लोग कलम के मंजे हुये खिलाड़ी हैं ....इस काम में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये।
होता हूं है ना कि किसी को हिंदी चिट्ठों के बारे में पूरे विस्तार से बतलाना मुझ जैसे कम-पेशेन्स वाले बंदों के लिये थोड़ा मुश्किल सा काम लगता है । अगर हम लोग दो –तीन पेज का एक डाक्यूमैंट तैयार कर के रखें और इस के प्रिंट-आउट हम अपने पास रखें और जहां भी ज़रूरत हो इसे अपने मित्रों, संबंधियों एवं परिचितों में बांटते चलें ताकि दूसरे लोगों को इस हिंदी चिट्ठाकारी का पता लग सके।
इन दो –तीन पन्नों में पहले तो यही बताया गया हो कि आप कंप्यूटर पर हिंदी बिना हिंदी टाइपिंग सीखे हुये भी लिख सकते हैं......यह यूनिफोंट, कृतिदेव आदि के बारे में भी बताया जाना चाहिये---सीधे सादे शब्दों में और संक्षेप में।
उस के बाद ब्लागिंग के बारे में थोड़ा बतलाया जाना चाहिये और हिंदी में ब्लागिंग के बारे में भी कुछ लिखा जाना चाहिये।
सोच रहा हूं कि कईं धुरंधर लेखक और साहित्यकार हैं जिन्हें कंप्यूटर-नेट से कुछ भी लेना देना नहीं है...इन लोगों के लिये हम इंक-ब्लोगिंग कंसैप्ट की भी बात करनी चाहिये कि शुरूआत तो आप हस्त-लेखन से भी कर सकते हैं।
हमें यह प्रचार-प्रसार खास कर ऐसी जगहों पर करना चाहिये जहां हिंदी के प्रतिभाशाली चाहवान पाये जाने की विशेष उम्मीद होती है जैसे कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग, पत्रकारिता संस्थानों के छात्र आदि आदि......देखा जाये तो रास्ते तो बहुत हैं लेकिन बस हमारे मन में हिंदी चिट्ठों की सेवा करने की तमन्ना होनी चाहिये।
यह जो दो-तीन पन्नों का डाक्यूमैंट तैयार हो उस में अगर थोड़ा सा वैब-राइटिंग के कायदों के बारे में भी थोड़ी बात कर ली जाये तो बेहतर होगा।
मुझे तो यह भी लग रहा है कि इस तरह की कोई सामूहिक ब्लाग ही हम लोग क्यों न शुरू करें जिस में हम लोग हर नये आने वाले का स्वागत करें और अपने तजुर्बे उस के साथ बांट कर उसे उत्साहित करें क्योंकि शुरू शुरू में यह हौंसला-अफज़ाई की बहुत ज़्यादा ज़रूरत रहती है।
मुझे लगता है कि ऐसी कुछ चिट्ठे पहले से ही हैं तो जिन में हिंदी ब्लागिंग के विभिन्न पहलुओं की जानकारी हिंदी में दी तो गई है.....लेकिन वे तो हो गई पोथियां.......हमें नये लोगों को इधर खींचने के लिये एक कायदा( छोटी सी पुस्तक जिस हम लोग पहली क्लास में पढ़ते थे जिस में टेबल्स और वर्णमाला रहती थी....कुछ कुछ याद आया???)….भी तो तैयार करना होगा।
हां, अगर हिंदी ब्लागिंग से परिचय करवाने हेतु जो हम दो-तीन पन्ने तैयार करें अगर उस को अंग्रेज़ी वर्ज़न भी साथ हो तो अच्छा होगा....क्योंकि कुछ लोगों को इतने वर्षों बाद हिंदी जगत में वापिस आने में थोड़ी दिक्कत होना स्वाभाविक ही तो है।
जाते जाते मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि ठीक है नेट पर तो सूचनाओं का अंबार है लेकिन हम-आप सब लोग मिल कर जो पिछले कुछ अरसे से इस हिंदी चिट्ठाजगत की चारागाह में चरते चले जा रहे हैं हम क्यों ना मिल जुल कर हिंदी चिट्ठाजगत के बारे में दो-तीन पन्नों तैयार करें और फिर उन के चालीस-पचास प्रिंट आउट निकाल कर अपने पास रखें जिन्हें किसी भी जिज्ञासु को थमा दिया जाये। और हां, इन पन्नों में हिंदी चिट्ठों के ऐग्रीगेटर्ज़ के बारे में बताया जाना ज़रूरी है।
अब यह सुझाव मन में आ रहा था लिख दिया है.....अब गेंद आप सब के पाले में है.....आप क्या कहते हैं ?....लेकिन एक बात तो तय है कि आंकड़े तो बहुत हैं कि इस साल के अंत तक इतने हिंदी ब्लाग हो जायेंगे, अगले साल के अंत तक इतने हो जायेंगे और हिंदी चिट्ठाकार इतनी इतनी कमाई करनी भी शुरू कर देंगे....लेकिन क्या यह हम सब के हाथ-पैर मारे बिना संभव हो जायेगा.......कहीं ये भी कोरे भविष्यवाणी के आंकड़े ही ना बन कर रह जायें............इसलिये कुछ तो सक्रिय भूमिका इस में भी हमें निभानी होगी..........और यह भूमिका क्या होगी...यह हम सब मिल जुल कर तय करेंगे !!!

शुक्रवार, 9 मई 2008

इंक ब्लॉगिंग के साथ प्रयोग...भाग 3


आज की इस पोस्ट में थोड़ी गड़बड़ यह हो गई है कि इंक-ब्लोगिंग के लिये मैं पेज तो बहुत बड़ा इस्तेमाल कर बैठा लेकिन जब पोस्टिंग से पहले स्कैनिंग करने लगा तो पता चला तो कि यह साइज़ तो मेरा स्कैनर लेता ही नहीं है। इसलिये इन दोनों पन्नों की फोटो लेकर ही पोस्ट पर डालनी पड़ी....इसलिये अगर इन को पढ़ने के लिये अगर इन पर क्लिक करने की ज़हमत उठानी पड़े तो तकलीफ सह लीजिये...वैसे मैं आगे से इस का खास ध्यान रखूंगा कि आप को इंक-ब्लागिंग में बार बार क्लिक करने की ज़रूरत न पड़े। बाकी के कुछ अनुभव अगली पोस्टों में डालता हूं।






मंगलवार, 6 मई 2008

सारे नियम तोड़ दो ....नियम पे चलना छोड़ दो !!

ये लाईनें पढ़ कर आप को शायद फिल्म अभिनेत्री रेखा एवं छोटे-छोटे बच्चों के ऊपर फिल्माया गया वह प्यारा-सा खूबसूरत फिल्म (1980) का वह सुपर-डुपर हिट गाना याद आ गया होगा। सचमुच कभी कभी इन नियमों-वियमों को ताक पर रख कर बड़ा मज़ा आता है......

सोमवार, 5 मई 2008

आज मौसम बड़ा बेइमान है !!

यकीन मानिये, आज यहां यमुनानगर में मौसम बेहद खुशगवार बना हुया है। पिछले कईं दिनों से चिलचिलाती गर्मी से सब लोग बेहद परेशान थे। लगता है रात में लिखी मेरी उस पोस्ट पखी से लेकर ए.सी तक के सफरनामे वाली पोस्ट ने दुआ का काम किया है। और इस समय बहुत अच्छा लग रहा है.....थोड़ी थोड़ी बूंदाबांदी हो रही है, लगता है सभी पेढ़-पौधे जश्न के mode में हैं......अभी अभी दस मिनट पहले घर में खींची फोटो यहां डाल रहा हूं....इसलिये उन्हें देखने के बाद लिखने को बचता ही कुछ नहीं है। मैं बहुत खुश हूं और मुझे वो वाला गाना याद आ रहा है....आज मौसम बड़ा बेईमान है !!

रविवार, 4 मई 2008

मेरे इस पंखी से ए.सी तक के सफरनामे ने खोल दी विकास की पोल !

जब आप उस पंखी से ए.सी तक का मेरा सफरनामा सुनेंगे ना तो आप भी मेरी तरह यह सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि आखिर यह कैसा विकास है जिस का हम ढोल पीट रहे हैं.....अगर यही विकास है तो यार हम लोग तो अविकसित ही भले थे।

याद आ रही है अपने प्राइमरी स्कूल के दिनों की....वाह, वे दिन भी क्या खूब थे.....गर्मियों के दिनों में शाम के समय सूरज ढलते ही इस बात का बड़ा शौक हुया करता था कि अब हम ने सारे आंगन में पानी का छिड़काव करना है…उस के बाद सारे आंगन में ठंडक सी हो जाती करती थी। फिर, अगला काम होता है रात पड़ते पड़ते चार-पांच चारपाईयां( हम इन्हे मंजियां कहते हैं) ...बिछाने का......और उन के बीच में अपने खटोला (छोटी चारपाई) भी कहीं फिट करना होता था.......और उस के नीचे मैं अपनी एक बिल्कुल छोटी सी पानी की सुराही ज़रूर रखा करता था।
हां, हां, उन दिनों गर्मी की शुरूआत का मतलब होता था बाज़ार में तरह तरह की सुराहीयां एवं मटके मिलने शुरू हो जाया करते थे....और ये ही क्यों वे हाथ से घुमाने वाली छोटे पंखे भी तो खूब बिका करते थे ....क्योंकि ना तो तब हम लोगों के पास फ्रिज ही हुया करते थे और ना ही इन्वर्टर के बारे में ही सुना था, वैसे सुन भी लेते तो क्या कर लेते !! मैं ये बातें 1969-70 की कर रहा हूं।

बस, उस समय हम लोग बहुत मज़े से बाहर ही सोया करते थे....बहुत मज़ा आता था नीले नीले आसमान के नीचे सितारों की चादर ओढ़ कर सोने में.....कोई मच्छर नहीं, कोई पंखा नहीं....कोई मच्छर भगाने वाली क्रीम नहीं। हां, एक दो हाथ से घुमाने वाली पंखियां चारपाईयों पर ज़रूर रख लिया करते थे।

फिर थोड़े समय बाद मच्छर वच्छर काटने जब शुरू हुये तो घर में जो दो-तीन मच्छऱदानियां हुया करती थीं वे चारपाईयों पर लगा दी जाती थीं.......उन को लगाने में भी बहुत मज़ा आया करता था। मुझे तो उन के अंदर सो कर उस से भी ज़्यादा मज़ा आया करता था.....क्योंकि मैं अपने आप को तब महाराजा पटियाला से कम ना समझा करता था।

तो, इस खुले वातावरण में सो कर जब सुबह उठते थे तो बहुत फ्रैश महसूस करते थे और बहुत जल्दी उठ जाया करते थे। वैसे सो भी तो जल्दी ही जाया करते थे क्योंकि तब हमारा दिमाग खराब करने के लिये ये घटिया किस्म के सीरियल्स नहीं हुया करते थे...और ना ही दिमाग खराब कर देने वाले इन खबरिया चैनलों ने नाक में दम ही किया होता था जो कि जब तक आजकल सोने से पहले दो-चार खौफनाक सी घटनायें ना दिखा लें....शायद उन्हें लगता है कि जब तक हमारे दर्शकगण खौफ़ से सहम नहीं जायेंगे , उन्हें नींद कैसे आयेगी !!

एक-दो साल बाद यानि की 1970 के दशक के शुरू शुरू में यह देखा कि अब सोने से पहले आंगन में एक बिजली का पंखा भी एक स्टूल पर रख दिया जाता था.......यह पंखा फिक्स किस्म का था.....इसे कईं बार मकैनिकों को दिखाया गया कि इस के घूमने वाला मकैनिज़्म दुरूस्त हो जाये, लेकिन यह भी ढीठ किस्म का था.....दो-तीन दिन घूमता और फिर बस एक ही तरफ हवा फैंकता। खैर, अब हमें इस का मिजाज पता लग चुका था...सो, हमने इस के सामने एक ही कतार में सारी मंजियां लगानी शुरू कर दीं।

खैर, अच्छी खासी कट रही थी.....कुछ सालों बाद ही अमृतसर में उग्रवाद ने सिर उठाना शुरू कर दिया.......इस का एक असर यह हुया कि लोगों ने बाहर आंगन में सोना धीरे धीरे बंद कर दिया.....खौफ़ सा पैदा हो गया लोगों के दिलों में....क्योंकि बहुत सी ऐसी वारदातें हुईं कि कईं लोगों को बाहर सोते-सोते ही खत्म कर दिया गया। तो, हम लोगों ने कमरों के अंदर पंखे लगाकर सोना शूरू कर दिया.....लेकिन तब भी कमरों में कोई जाली वाले दरवाज़े नहीं थे.......लेकिन फिर से मच्छर से इतने परेशान ही हम कभी ना थे। कारण शायद यही होगा कि तब ये पोलीथीन न होने की वजह से इतनी गंदगी न हुया करती थी, सो सब ठीक ठाक ही चल रहा था।

दो-चार साल बाद फिर हम लोगों को इन बिजली के पंखों के चलने के बावजूद गर्मी लगती रहती......तो फिर आ गये ये कूलर...जिन्हें सुबह तो कमरे में कर लिया जाता....और रात के समय वही मंजियों के सामने इसे इक्सटैंशन वॉयर इत्यादि लगा कर इसे सरका दिया जाता। यह क्या, यार, इस कूलर की वजह से भी आंगन में सोने का मज़ा आने लगा। लेकिन सुबह उठने पर वो पहले जैसी चुस्ती गायब होती गई

धीरे धीरे कुछ ही सालों में पता नहीं हम लोगों की टीवी या वीसीपी पर फिल्में देखने की आदतें कुछ इस तरह की हो गईं कि हमें अपने अपने कमरों में ही सोना अच्छा लगने लगा...एक कूलर की जगह अब हर कमरे में कूलर लग गया। लेकिन मौसम में बदलाव कुछ इस तरह से ज़ारी रहा कि अब कूलर भी गर्मी के शुरू शुरू के कुछ दिन ही ठंडक पहुंचा पाता......अब ह्यूमिडिटी से परेशानी होने लगी.......ऊपर से मच्छरों ने भी अब तक अपने पैर पक्के कर लिये थे......ये आडोमास, कछुआ-छाप....खूब इस्तेमाल होने लगी थीं......आजकल तो कहते हैं ना कि कछुआछाप से तो इन मच्छरों की दोस्ती हो गई है......इसलिये पिछले कईं सालों से मच्छरों को भी गुड-नाइट कहने के लिये मशीनें आ गईं हैं।

धीरे धीरे अब हाल यह है कि बाहर सोने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता, मच्छर ही मच्छर हैं सब तरफ.......जिस जगह हम लोग रहते हैं वहां पर बहुत साफ-सफाई है तो यह हाल है......साफ-सुथरे घर हैं.....हर दरवाज़े के साथ जाली का दरवाजा भी है जो हमेशा बंद रहता है.....ए.सी भी लगे हुये हैं......लेकिन हालात यह है कि रात पड़ते ही बुखार चढ़ना शुरू हो जाता है कि यार, अब फिर इन हालातों में सोना पड़ेगा....क्योंकि ए.सी कमरों में भी मच्छर परेशान किये रहते हैं। सोचता हूं कि यार, जीवन की इतनी यात्रा कर लेने के बाद भी पाया तो क्या पाया......पहले चैन से मज़े से नींद आ जाया करती थी, सुबह प्रसन्नचित उठा करते थे.......लेकिन अब एसी कमरे में सो कर जब उठते हैं तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने बैंत के डंडों से पीटा हो.....सुबह सारा शरीर दुःख रहा होता है जिस के अंदर जब तक एक-दो कड़क चाय रूपी पैट्रोल नहीं पहुंच जाता, तब तक वह ना तो गेट तक जाकर अखबार ही उठा पाने के योग्य नहीं होता और ना ही ब्राड-बैंड लगाने की हिम्मत होती है। अकसर सोचता हूं यार अगर विकास यही है तो वे बिना विकास वाले दिन ही बढ़िया थे......ऐसे विकास का क्या करना जो रातों की नींद ही उड़ा ले। लेकिन किसी और को दोष भी तो नहीं दे सकते....यह सब कुछ हमारा अपना ही तो किया-धरा है....हम ही तो प्रकृति के साथ इतने पंगे ले रहे हैं और इतने मौसमी बदलाव के बावजूद भी कहां बाज आ रहे हैं।

जब हम बच्चे थे तो सुना करते थे कि गर्मी के दो महीने ही होते हैं...मई-जून और होता भी कुछ ऐसा ही था क्योंकि जुलाई के मिडल पर बरसात होनी शुरू हो जाया करती थी। फिर धीरे धीरे जुलाई भी गर्मी में शामिल हो गया.......पिछले 6-7 सालों से देख रहा था कि मई से लेकर अगस्त तक ही गर्मी की वजह से नाक में दम हुया रहता है.....लेकिन पिछले साल तो ऐसा अनुभव रहा कि 15 सितंबर तक ही गर्मी चलती रही । और इस साल तो सुभान-अल्ला 15 अप्रैल से ही मौसम के तेवर बदले हुये हैं.......इतनी गर्मी , इतनी तेज़, चिलचिलाती धूप, इतना सेक.......। इसलिये अब तो कम से कम पांच महीने गर्मी के ही समझें............15 अप्रैल से 15 सितंबर.....लेकिन सोचता हूं अगर इसी तरह यह गर्मी की अवधि बढ़ती रही तो क्या होगा हमारा...........वैसे हमारा क्या है, हम तो अब लगभग चले हुये कारतूस के समान है......बात है अगली जेनरेशन की......वैसे तो मैं बेहद नान-इंटरफियरिंग किस्म का फादर हूं....बच्चों को प्रोफैशन चुनने के मामले में अपने मन को फॉलो करने की छूट दे रखी है....लेकिन मैं उन्हें यह बात अकसर याद दिलाता रहता हूं कि देखो भई कुछ भी करना..लेकिन इतना तो ज़रूर कमाने की हैसियत रखना कि जिन चीज़ों को इस्तेमाल करने की आदत आप लोगों को पड़ चुकी है .....उन्हें अपने दम पर अफोर्ड करने की हैसियत तो कैसे भी बनानी ही होगी......और उन में से एसी आइटम नंबर वन है।

शुक्रवार, 2 मई 2008

ऐसा क्यों कि खौफ़नाक सपना टूटने पर भी खुशी न हो !!


अभी ठीक डेढ़ घंटा पहले मैं अपना लैपटाप लेकर अपने बेड-रूम में आया...मुझे कुछ काम करना था....लेकिन आजकल तो इधर यमुनानगर में लिटरली आग बरसने के कारण मेरी कुछ करने की इच्छा नहीं हुई और मैं अपना सारा सामान पास ही में रख कर सो गया। लेकिन अभी पांच मिनट पहले उठ गया हूं....क्योंकि एक बेहद खौफ़नाक सा सपना देख लिया।

हुया कुछ इस तरह से है कि मैं कहीं बाहर से घर आया हूं....जब मेरा खाना-पीना हो गया है तो मैं थोड़ा दूसरे कमरों की तरफ़ जब रूख करता हूं तो पाता हूं कि मेरे पिता जी पीड़ा में हैं....मुझे दिखने में ही लगता है कि वे थोड़े डिस्टर्ब हुये हुये हैं....उन का पैर टेढ़ा हुया हुया है....और पैर पर सूजन के साथ-साथ एक काला सा काटे का निशान सा भी है। मुझे मेरे पिता जी बताते हैं कि मुझे आज काला बड़ा सा सांप काट गया है। उसी समय मेरी पत्नी भी मुझे बताती हैं कि हास्पीटल से मंगवा के सांप के काटे का इंजैक्शन लगा दिया है। लेकिन पता नहीं पिता जी ने फिर से अपनी कुछ तकलीफ़ ब्यां की जिस पर मैंने कहा कि कोई बात नहीं किसी डाक्टर को दिखा आते हैं।

शायद मेरे यह बात कहने में इतना दम नहीं था क्योंकि मेरी मां ने उसी समय मुझे कहा कि हां, हां, चलते हैं ......कोई बात नहीं, डाक्टर के पैसे ही खर्च होंगे ना।

खैर, उसी समय मेरे पास ट्यूशन के लिये एक एक कर के छात्र आने शुरू हो जाते हैं......मेरा सारा ध्यान अपने पिता जी की तरफ ही है कि मैंने अभी उन को डाक्टर के पास लेकर जाना है.....उन बच्चों का यह मेरे साथ ट्यूशन का पहला दिन है......( वैसे मैं भी बहुत हैरान हूं कि यह ट्यूशनों का कैसा चक्कर.......फिर ध्यान आया कि आज खाना खाते वक्त एक सीरियल से दो-तीन मिनट दिखा था जिस में एक औरत 8-10 बच्चों को घर पर ट्यूशन पढ़ा रही थी!)…….मैं उन बच्चों के साथ यूं ही एक-एक बात कर ही रहा था कि मेरी मां उस कमरे में किसी बहाने आती हैं......मैं उन ट्यूशन पढ़ने आये हुये बच्चों के साथ बातें करते करते सोचने लगता हूं कि यार बचपन में जब मुझे कहीं सोच लगती थी तब तो मेरी मां और मेरे पिता जी की फर्स्ट तो परायर्टी यही होती थी कि जल्द से जल्द इसे कैसे डाक्टर तक पहुंचा जाये......और यहां मैं इन बच्चों के साथ बातें करने में मसरूफ हूं कि कहीं आज पहले दिन ही मेरा यह टरकाऊ रवैया देख कर इन के माता-पिता कल से इन्हें ट्यूशन भेजना ही ना बंद कर दें !!)…..इसलिये मैंने उन पांच-छःबच्चों को कहा कि आज का दिन तो बस इंट्रो का समझो.....कल से ही महीना शुरू कर लेंगे....आज आप लोग घर जायें।

उन बच्चों को इतना कह कर मैं अपनी कार निकालता हूं और अपनी मां और पिता जी को कार में बिठा कर किसी डाक्टर की तरफ़ निकल पड़ता हूं.....लेकिन गाड़ी चलने पर भी यह मन नहीं बना पा रहा हूं कि किस डाक्टर के पास ले कर जाऊं......क्योंकि मुझे मन ही मन यह लग रहा है कि सांप के कटे का टीका तो शुक्र है लग ही चुका है .....अब वैसे तो सब ठीक ही है, लेकिन मैं अपने मां एवं पिता जी की संतुष्टि के लिये इन्हें डाक्टर के पास ले कर जा रहा हूं...................लेकिन अभी कहीं रास्ते में ही हूं और पसीने से लथ-पथ अपने बिस्तर पर उठ कर बैठ जाता हूं........क्योंकि मेरे बेटे की मस्तियों से मेरी नींद खुलने के बाद सपना भी कहीं टूट कर, बिखर कर रह गया.................लेकिन एक बात तय है कि ऐसा शायद पहली बार हुया है कि एक भयानक सपना टूटने के बाद भी राहत सी महसूस न हुई हो.......खुशी न पहुचीं हो.......इस का कारण यही कि मेरे पिता जी को तो गुजरे हुये 13 साल हो चुके हैं !!

अभी मैंने यह पोस्ट लिखनी ही शुरू की थी कि मेरा बेटा चादर खींच रहा था लेकिन दो-चार मिनटों के बाद ही नींद में खोते खोते उस की टांग हिली और वह उठ कर बैठते बैठते पूछने लगा कि ऐसा क्यों होता है कि मुझे सपना आ रहा था कि हम मनाली के एक मंदिर में गये हैं.....वहां पर ठंडा पानी बह रहा है और जैसे ही वह मेरी टांग के ऊपर गिरता है, मेरी टांग हिल जाती है.......इतना कह कर वह फिर से सो जाता है।

लेकिन मैं अब सोच रहा हूं कि हमारी बड़ों की और इन छोटे छोटे बच्चों की दुनिया भी कितनी अलग है.....हमें सपने भी सांपों के आते हैं और इन के सपनों की दुनिया में भी मंदिर, झरने, कुदरती वादियां........यह सब कुछ है!!.....तभी मुझे ध्यान आता है कि उस बेहद सुंदर गीत का ....जिसे सुन कर इन बच्चों की दुनिया की एक झलक ज़रूर मिलती है.........आप भी ज़रूर सुनिये और अपने बचपन के दिन दोबारा जी लीजिये।


गुरुवार, 1 मई 2008

वैसे आप एक वर्ष में पिस्ते की कितनी गिरीयां खा लेते हैं ?....(मैडीकल व्यंग्य)

इस से पहले कि आप मेरा यह बेहूदा सा प्रश्न पढ़ कर आक्वर्ड महसूस करें और यह सोच कर मुझ से खफ़ा होने लगें कि क्या अब और कुछ लिखने को बचा नहीं जो......, इस प्रशन का जवाब सब से पहले मैं ही अपने आप से पूछता हूं। तो,सुनिये, मैं भी पूरे वर्ष में पिस्ते की आठ-दस गिरीयां खा ही लेता हूं। मेरा यह कोटा तो लगभग फिक्स ही है......दो-तीन गिरीयां मैं जब अपने ससुराल जाता हूं तब खाता हूं, दो-तीन फिर मुझे अपने दीदी के यहां जाकर भी खानी होती हैं......और वैसे मैं कोई इतना ज़्यादा सोशल-प्राणी हूं नहीं, ज्यादा कहीं आता जाता नहीं.....अब जैसा भी हूं, आप के सामने हूं.....अब अपने द्वारा खाई गई पिस्ते की गीरियों का स्कोर बढ़ाने के लिये तो इधर-उधर जाने से रहा.............लेकिन मेरे तक आप के मन का प्रश्न पहुंच गया है कि यार, तू अब हमें बातों में मत उलझा, पहले तो अपनी आठ-दस गिरीयों का ब्रेक-अप पूरा कर.....सो, चार गिरियां तो मैं गिना ही चुका हूं.....बाकी की खाता हूं दिवाली के दिनों में.....जब कोई भूला-भटका हमारा चाहने वाला ड्राई-फ्रूट के एक डिब्बे का उपहार हमें दे जाता है..( खुद खरीद कर तो पिछले बीस वर्षों में घर में एक-दो बार ही 50-100 ग्राम पिस्ते के दर्शन हुये हैं !!).. तो फिर उस के बाद आने वाले दस-बीस शुभचिंतकों के बीच जब उन पिस्ते की गीरियों को घुमा कर अपनी साधन-संपन्नता का परिचय दिया जाता है तो ऐसे ही कईं बार फार्मैलिटी के राउंड पे राउंड चल पड़ते हैं जब मेजबान कहता है कि लीजिये ना, यह पिस्ता तो आप छू तक नहीं रहे हैं, प्लीज़ लीजिये....फिर मेहमान का वही रटा-रटाया हुया फिकरा कसना.......डाक्टर साहब, सुबह से कईं जगह हो कर आये हैं.....पेट में बिल्कुल भी जगह नहीं है.....लेकिन इतने पर भी मेजबान कैसे हार मान ले....वह फिर अपने संभ्रांत होने का परिचय देने पर मजबूर हो जाता है......क्या यार, इंद्रजीत, इस ड्राई-फ्रूट के लिये भी क्या पेट में खाली जगह होने की ज़रूरत होनी जरूरी है ??( वो बात अलग है कि जब गेस्ट के जाने के बाद बच्चे इन गिरियों की मुट्ठियां भरना चाहते हैं तो हम ही उन के कान खींच कर कहते हैं कि अब तू इन से पेट भरेगा क्या ?.. दाल-रोटी को तो तू मुंह लगा के राज़ी नहीं).........बस, उस एक अदद ट्रे की घुमाई-फिराई के चक्कर में समझ लो पांच-छः गिरीयां विवशता वश खानी ही पड़ जाती हैं.....हां तो हो गया ना मेरा एक साल का कोटा पूरा....आठ-दस गिरीयां, अब तो आप खुश हैं ना .....वैसे एक बात यहां बता दूं कि यह गिरीयां खाने की विवशता मैंने इसलिये लिखी है क्योंकि मेरा इन को इतनी कम मात्रा में खाने से कुछ नहीं होता....वो कहते हैं ना ज़ुबान भी गीली नहीं होती........मैं तो अकसर व्यंग्य का एक बाण यह छोड़ा करता हूं कि अव्वल तो किसी को ट्रे इत्यादि में ड्राई-फ्रूट परोसो नहीं.......अगर किसी भी कारणवश हमारी ड्राई-फ्रूट परोसने की औकात हो ही जाये तो सीधे-सादे ठेठ पेंडू तरीके से कटोरियों में डाल कर सभी मेहमानों के हाथों में एक एक कटोरी थमा दो..................यकीन मानिये, मेरे ये कटोरी में ड्राई-फ्रूट परोसने वाले विचार मेरे बेटों को बहुत भाते हैं.....उन की तो बांछे ही खिल जाती हैं....लेकिन आप अभी तक यह समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर मैं कहना क्या चाह रहा हूं !!

कहने को ऐसा कुछ खास भी नहीं है....बस परसों की इंगलिश की अखबार में एक हैल्थ-कैप्सूल देख लिया जिसे नीचे दे रहा हूं.....

चलिये ज़रा अपनी टूटी-फूटी हिंदी में इस का अनुवाद भी किये देता हूं.....
प्रश्न है.....क्या गिरीयां खाने से मेरा ब्लड-प्रैशर कम हो जायेगा ?
जवाब दिया गया है कि हां, पिस्टाशिओ की गिरीयां तुम्हारा यह काम कर सकती हैं। मुट्ठी भर पिस्टाशिओ की गिरीयां...डेढ़ आउंस के लगभग रोज़ाना खाने से ब्लड-प्रैशर कम हो जाता है।
मुझे गिरी और अंग्रेज़ी नाम से शक सा तो हो गया कि शायद यह कैप्सूल रोज़ाना चालीस-पचास ग्राम पिस्ता खाने की ही बात कर रहा है मैंने यह हैल्थ-कैप्सूल पढ़ कर अपने पास बैठी श्रीमति जी से पिस्टाशिओ का मतलब पूछा। लेकिन जब उन्होंने भी इस संबंध में अपनी अनभिज्ञता ज़ाहिर की तो फिर मुझे फ़ादर कामिल बुल्के के अंगरेजी हिन्दी कोश का रूख करना ही पड़ा....जहां से यह तो तय हो गया कि यह पिस्टाशिओ नाम की बला कोई और नहीं अपना पिस्ता ही है। अब पता नहीं अंग्रेज़ों ने इस का इतना नटखट नाम क्यों रख दिया .....या मुझे तो यह भी नहीं पता कि यह हिंदी नाम ही पिस्टाशिओ से ही चुराया गया है....वैसे संभावना मुझे इस की ज़्यादा लग रही है।
लेकिन क्या आप को लगता है कि मैं अपने किसी मरीज़ को यह सलाह देने की ज़ुर्रत कर सकता हूं कि देख, तूने अगर अपना ब्लड-प्रेशर कम करना है ना तो मेरी बात मान जो कि मैंने कल इंगलिश के अखबार में पढ़ी है ....तू रोज़ाना 40-50 ग्राम पिस्ते की गिरीयां तो खा ही डाला कर...........पता है मैं इस तरह की सलाह क्यों नहीं देना चाहता, क्योंकि मुझे पता है कि मुझे शायद उसी समय उस के मुंह से नहीं भी तो उस की आंखों से यह जवाब मिल ही जायेगा......डाक्टर, तू तो अच्छा भला होता था, तू तो पहले हमेशा से सस्ते, सुंदर और टिकाऊ देसी पौष्टिक खाने की बातें किया करता था, आज तेरे को क्या हो गया है...तू ठीक तो है ना......तेरे को पता है कि पिस्ता 500 रूपये किलो और ऐसे में घर में एक-दो सदस्य 50 रूपये का पिस्ता ही खाने लगेंगे तो बच्चों को या तो पास के किसी गुरूद्वारे में भेजना पड़ेगा या कटोरा पकड़वा कर नुक्कड़ पर खड़ा करना होगा......डाक्टर तू जानता है जिस मुट्ठीभर पिस्ते की गीरियों की तू बात कर रहा है.......यह तो हमारे लिये किसी सपने के बराबर है.......डाक्टर, तू तो जानता है कि अब तो हालत इतनी पतली है कि आसमान को छूते इस साली दाल के दामों की वजह से यह दाल भी इस मुट्ठी से सरकी जा रही है, तू इन में पिस्ता भरने की बातें कर रहा है...मेरे किसी भी बच्चे ने पिस्ते की शकल तक नहीं देखी...यहां तक कि सब्जी लेने बाज़ार में जाना ही बंद कर दिया है...न रेट पूछो..ना ही किसी तरह की हीन भावना का अहसास ही हो.....बच्चे भी बेचारे सारा दिन वह बढ़िया बढिया सीरियल देख कर खुश हो लेते हैं जिस में औरतें ने कईं किलो मेक-अप चढ़ाया होता है, जिस में सब लोग बढिया बढिया कपड़े पहन कर, पूरी तरह सज कर , बढ़िया खाना खाने के लिये कुछ इस तरह से बैठते हैं मानो कि हमें चिढ़ा रहे हों .....ऐसे हालातों में सच बता, डाक्टर तू हम लोगों से इस तरह का बेहूदा मज़ाक भला करता ही क्यों है ?....अब इस का है कोई मेरे जैसे डाक्टर के पास जवाब ??....नहीं, यार, अब क्या जवाब दूं मैं इस का।

ऐसे मौकों पर मुझे मेरे पेरेन्ट्स द्वारा बचपन में कईं बार सुनाया गया वह बाहर के किसी अमीर देश का किस्सा ज़रूर याद आ जाता है ....उस देश में जब अकाल पड़ा तो वहां की जनता बेहाल होकर जब रानी साहिबा के पास पहुंची तो उस ने उन्हें यह लापरवाही से कह डाला.......कोई बात नहीं अनाज नहीं है तो क्या, आप बिस्कुट खा लिया करें। कहते हैं कि उस की इस स्टेटमैंट्स से उस देश में एक गदर हो गया। सोच रहा हूं कि ये काजू-पिस्ते-चिल्गोज़े जैसी खाने वाली चीज़ों के इस्तेमाल के ज़्यादा मशवरे अपने मरीज़ों को ना ही देने में ही मेरी भलाई है.....और मेरे मरीज़ों की भी !!!

बुधवार, 30 अप्रैल 2008

बिल्कुल चंदू के चाचा और चाची वाली बात की ही तरह ....(व्यंग्य-बाण)

वैसे तो मैं टीवी देखता नहीं.....अपना प्रोफैशन ही ऐसा है कि फुर्सत ही कहां है...बचा खुचा टाइम लिखने-पढ़ने में निकल जाता है। लेकिन कल ही कुछ घंटे पहले ही उस सैटेलाइट टीवी का रिचार्ज कूपन डलवाया था। दोपहर में खाना खाते वकत उस सैटेलाइट टीवी सर्विस के सर्विस सैंटर से फोन भी आ गया था कि आप का कार्ड खत्म हुया हुया है, क्या दिक्कत है......मैंने तो फोन पर बात ही ना करना चाहता था लेकिन जब श्रीमति जी ने फोन मेरी तरफ़ सरका ही दिया तो मैंने सोचा कि इस दाल-चावल का क्या है....कहां भाग जायेगी.....पहले ज़रा इस की क्लास ले लूं। मैंने उस से कहा कि भई, तुम्हारी यह क्या सर्विस है कि बाज़ार में चार-पांच चक्कर लगाने के बाद भी रिचार्ज कूपन नहीं मिल पाता। और भी जो मैंने अपनी तरफ़ से उसे फीड-बैक देनी थी, दे दी। संक्षेप में कहूं तो कल शाम को आखिर घूम घूम कर रिचार्ज-कूपन मिल ही गया और टीवी चलना शुरू हो गया।

वैसे दूसरे टीवी तो चल ही रहे थे .....हमारे यहां वैसे तो बिजली की सप्लाई अच्छी ही है...बहुत ही कम जाती है..कोई ब्रेक-डाउन ही हो तभी ......लेकिन केबल वाले के यहां जब भी बिजली गुल होती थी, केबल टीवी चलना बंद हो जाता था। इसी परेशानी से बचने के लिये एक टीवी पर सैटेलाइट टीवी वाली डिश की व्यवस्था पिछले साल की थी।
अच्छा तो मैं कह रहा था कि मुझे टीवी देखने से एक तरह की एलर्जी है.....लेकिन शायद नये नये रिचार्ज कूपन के चाव में मैंने अपने बेटे से रिमोट लिया और शायद चार-पांच महीने बाद टीवी देखने का मूड बना लिया था। रात के नौ-साढ़े नौ बज रहे थे। बेटे राघव ने भी बेहद आसानी से रिमोट मेरी तरफ थमा दिया....वह बड़ा सेंसेटिव किस्म का है......शायद वह भी सोच रहा होगा कि बापू वैसे तो टीवी देखता नहीं, पता नहीं आज तो इस की कुछ ज़्यादा ही इच्छा लगती है।

मैं बस ऐसे ही चैनल-सर्फिंग करने लगा.....लेकिन मेरी किस्मत ही खराब थी....इतने लंबे समय बाद टीवी देखने के लिये बैठा और एक अच्छे-खासे हिंदी न्यूज़-चैनल पर अटक गया.....वहां पर जो दिखाया जा रहा था, बताया जा रहा था.......रोचक लगा.....एक उभरते नेता के बारे में बताया जा रहा था कि कैसे उस ने एक छोटी सी चाय की दुकान में जाकर कर चाय की चुस्कीयां लीं....किस तरह वह गांव वालों से घुल-मिल गया....किस तरह से उस ने एक गांव-वाले के कंधे पर हाथ रखा, किस तरह से वह भी गांव वालों के साथ धरने पर बैठ गया, किस तरह से उस ने अपने सुरक्षा घेरे की परवाह ना की....किस तरह से जाते जाते वह उस चाय की दुकान वाले के बच्चे की कापी में धन्यवाद के 12 शब्द हिंदी में लिख कर लौट गया। और, फिर जिस तरह से ये चैनलों वाले विश्लेषण करते हैं....उन हिंदी में लिखे 12 शब्दों का विश्लेषण होने लगा....पहले तो स्पैलिंग चैक किये इन चैनल वालों ने, फिर इन 12 शब्दों वाले धन्यवाद-नोट पर पूरा विश्लेषण हुया कि उस नोट के एक एक शब्द के पीछे क्या उद्देश्य हो सकता है। शायद इतना सब कुछ दो-तीन मिनटों तक चलता तो मैं पचा लेता......क्या करें, अब आदत सी ही हो गई है। लेकिन यह क्या यह कार्यक्रम तो भई लगभग आधे-पौन घंटे से चला ही जा रहा था.......बार-बार वही रिकार्डिंग देख कर मेरा तो सिर भारी हो गया.....मुझे तो मलाल इसी बात हो रहा था कि वहां तो हिंदी के 12 शब्दों की इतनी पूछ है और यहां हम ब्लागिये हैं जिन्हें एक-एक लाख शब्द हिंदी में लिखने पर भी कोई नहीं पूछता......किसी और से क्या गिला-शिकवा....हमारे अपने ही टिपियाने से भी कन्नी कतराते हैं।

ओ..हो....हो गया ना यह सब कुछ .....लेकिन यह क्या... यह तो कोई तगड़ी पब्लिक-रिलेशन एक्सर-साइज़ चलती लग रही थी....किसी झोंपड़े में जाने से पहले उस युवा-नेता को बूट खोलते हुये भी बार-बार दिखाया जा रहा था....( जैसा कि मैं और आप ही क्या, हमारे देश का जन-मानस करता है!) ..और साथ में किसी निर्धन के बच्चे को कंधे पर उठाये हुये भी बार बार दिखाया जा रहा था......और बैकग्राउंड में चैनल वालों ने वह गीत भी तो चला रखा था......धरती सुनहरी अंबर नीला.....हर मौसम रंगीला.......ऐसा देश है मेरा...........( वीर-ज़ारा फिल्म से )। मैं सब कुछ ठीक से समझ रहा था लेकिन अब मेरी तबीयत जवाब दे रही थी और जैसे ही उस चुस्त-सी एंकर ने कहा कि बाकी देखते हैं ...थोड़े से ब्रेक के बाद.......बस उस का इतना कहना था कि मैंने भी रिमोट पर स्टॉप बटन दबा कर टीवी किया बंद और खाट पकड़ पर मच्छरों से जूझने की तरकीब लड़ाने में मसरूफ हो गया।

लेकिन मुझे तब ध्यान आया कि जब इस नेता ने कुछ दिन ही पहले किसी आदिवासी महिला के झोंपड़े में जाकर दाल-रोटी-चटनी खाई थी तो भी चैनल वालों को अपनी टीआरपी बढ़ाने का बढ़िया मसाला मिल गया था। लेकिन यह उस दिन की चटनी वाली बात और आज की ये क्लिपिंग्ज़ जो पता नहीं मैं कितनी बार ही आधे-पौन घंटे में देख चुका था.......ये सब देख कर रह रह मुझे अपनी पांचवी कक्षा के वे दिन याद आने लगे जब हम दोस्त आपस में वह वाली गेम खेला करते थे जिस में हमें ये टंग-ट्विस्टर तेज़ी तेज़ी से बिल्कुल रूके बिना बोलने होते थे.......चंदू के चाचा ने चंदू की चाची को चांद की चांदनी में चांदी के चम्मच से चटनी चटाई.............मुझे भी कल वह हिंदी न्यूज़-चैनल बार बार वह क्लिपिंग दिखाता हुया ऐसा ही लग रहा था जैसे कि कोई यही कहे जा रहा है....चंदू के चाचा ने चंदू की चाची को..........। खैर, जो भी हो, कल का यह प्रोग्राम देख कर मेरे मन में उस चैनल के बारे में एक पक्का इंप्रेशन बन गया है........नो, नो, वह मैं आप से शेयर नहीं करना चाहूंगा। क मच्छरों से मुकाबला करते करते कब नींद हावी हो गई पता ही नहीं चला।

सोमवार, 28 अप्रैल 2008

मेरी अस्थियों की वसीयत...

आज मैं अपनी अस्थियों की वसीयत करने जा रहा हूं....नहीं..नहीं..बिल्कुल किसी प्रकार के भी दबाव में नहीं....बल्कि स्वयं अपनी मर्जी से होशो-हवास में यह सब कुछ कर रहा हूं.....नहीं, नहीं, मेरे सारे परिवार वाले, मेरे बीवी-बच्चों को भी इस में रती भर भी आपत्ति नहीं होगी.....इस का कारण यही है कि उन सभी के विचार मुझ से भी कहीं ज़्यादा क्रांतिकारी किस्म के हैं, प्रगतिशील हैं, रूढ़िपन से कोसों दूर हैं........किसी भी कर्म-कांड से कोसों दूर....इन ढकोंसलों को सिरे से नकारने वाले विचार रखते हैं मेरे घर के सारे बाशिंदे। वैसे पहले तो मेरा विचार था कि अपने पार्थिव शरीर को किसी मैडीकल कॉलेज को दान दे दूंगा.....ताकि कम से कम मैडीकल छात्रों के कुछ तो काम आये.....( वैसा ऐसा मेरे मरहूम नानाससुर ने दो-एक साल पहले किया था, उन के ये भाव जान कर मेरा मन बहुत उद्वेलित हुया था...).....लेकिन आज की अखबार पढ़ कर मुझे लगने लगा है कि यार, इन अस्थियों की तो अभी कुछ लोगों को विशेष ज़रूरत है.......चलिये अब मैं पूरी बात पर आता हूं।

आज हिंदी के तीन अखबारों के पहले पन्नों पर छपी तीन खबरों ने बहुत परेशान किया। एक अखबार के पहले पन्ने पर खबर दिखी कि कुछ बेटों ने किसी तांत्रिक के प्रभाव में आकर अपनी मां की ही बलि दे दी । अब इस के बारे में क्या कहूं.......खबर पूरी पढ़ ही क्या , सुन कर ही बोलती बंद हो जाती है ना !!

दूसरी अखबार के पहले पेज़ पर खबर थी कि महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी, रोहतक द्वारा आयोजित एमडी-एमएस प्रवेश परीक्षा का पेपर एक दिन पूर्व लीक हुआ था। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि चयनित स्टूडेंट्स को अलग अलग स्थानों पर प्रश्न रटवाए गये थे। अब कुछ छात्र समूह इस की एंक्वायरी की मांग कर रहे हैं..........छोटी मोटी एंक्वायरी ही क्यों, मेरे विचार में तो इस तरह के घोटाले में सीबीआई जांच होनी चाहिये। समझ नहीं आता कि किस तरह के स्पैशलिस्ट तैयार होंगे इस तरह की चयन परीक्षा के द्वारा........जो सीरियस किस्म के छात्र बेचारे कईं कईं साल तैयारी कर के इन कोर्सों में प्रवेश प्राप्त करने के सपने बुनते हैं.........वे तो बेचारे बेवकूफ़ हो गये....और जो लोग अपने कंटैक्ट एवं पैसे के ज़ोर पर इस तरह की प्रवेश-परीक्षा पर ही धावा बोल देते हैं........एक तरह से इन परीक्षाओं को सैबोटॉज कर लेते हैं.......वे अकलमंद हो गये। शायद ही आप इस बात का अंदाज़ा लगा सकें कि इस तरह की धांधली की वजह से किसी भी प्रतिभावान डाक्टर को कितनी घुटन, कुंठा, कितना आक्रोश, कितनी फ्रस्ट्रेशन, कितनी आग लगती होती......मेरे पास तो ये सब लिखने के शब्द भी नहीं हैं.....लेकिन ये बातें लिखने-पढ़ने की बात भी है नहीं.....अनुभव करने की बातें हैं।

तीसरी खबर.....यह भी एक अखबार के पहले पन्ने पर ही थी....इसे देख कर तो मेरा दिमाग 360 डिग्री ही घूम गया.....और मैंने अपने अस्थियों की वसीहत करने का फैसला कर लिया । हुया यूं कि अंबाला में गांव की किसी महिला की अस्थियां जेब में डालकर ले जाने वाले एक दिहाड़ी मज़दूर को ग्रामवासियों ने न केवल मुंह काला करने घुमाया बल्कि गांव से निकाल दिया। हां, हां, अस्थियां तो उस की जेब से निकाल ही लीं। पुलिस को भी फोन भी हो गया , तुरंत पंचायत भी बैठ गई....और उस मज़दूर को गांव-निकाला भी दे दिया और उस से यह भी कह दिया गया कि आज के बाद वह गांव में नज़र नहीं आना चाहिये। लेकिन मजदूर की बात तो सुनिये.....सुन कर आप भी पिघल जायेंगे.....उस ने कहा कि उस को किसी ने कहा था अस्थि बच्चे के गले में डाल दो तो बीमारी नहीं लगती है, इसलिये वह अस्थि ले कर जा रहा था।

तो, क्या आप को इन खबरों से आज के समाज की भयानक तसवीर की एक झलक नहीं दिखी......मुझे तो अच्छी खासी दिखी.....इसीलिये मैंने झट से अपनी अस्थियों की वसीयत कर देने में ही समझदारी समझी। वैसे भी मैं तो यह बिल्कुल नहीं समझता हूं कि इन अस्थियों के द्वारा ही मुझे मुक्ति मिलने वाली है.....नहीं, नहीं, मैं नहीं पड़ना चाहता इस तरह के मिथ्या आडंबरों में.....वैसे भी मुझे मुक्ति नहीं चाहिये.......मैं तो बस यूं ही पाखंडियों के आस-पास मंडराता रहना चाहता हूं.....मर कर भी उन की नींद हराम किये रखना चाहता हूं...........और वैसे भी इस न्यूज़-रिपोर्ट जैसे पता नहीं अभी कितने हज़ारों-लाखों लोग होंगे जिन्हें अब बच्चों के गले में डालने के लिये अस्थियां चाहिये होंगी........चलो, कुछ के तो काम आ ही जायेंगी....और इसी बहाने मुझे अपनी इस हार को मानने का एक अवसर तो मिलेगा कि ये वे महान आत्मायें हैं जिन को मैं अपनी ज़िंदगी के दौरान भ्रमजाल से मुक्त नहीं कर सका, इसलिये ये अब जो भी मेरी अस्थियों के साथ करना चाहें, इन्हें मनमानी कर लेने दो।

वैसे जब मैं ये अस्थियां चुराने वाली खबर पढ़ रहा था तो मेरा ध्यान हमेशा की तरह रोटी फिल्म के उस बेहद सुंदर गीत की तरफ एक बार फिर चला गया..........यार, हमारी बात सुनो, ऐसा इक इंसान चुनो....जिस ने पाप ना किया हो.......जो पापी न हो...........सचमुच आप पूरे मन से वह वाला गीत सुनेंगे तो आप की आंखें भर आयेंगी... दोस्तो, यह रोटी फिल्म भी कमबख्त ऐसी है कि पता नहीं लाइफ में किस घड़ी में देखी है कि ये मेरे लिये कईं अहम् फैसले लेने के लिये भी एक बैंच-मार्क का काम करती हैं......मुझे अकसर रोज़ाना कईं महत्वपूर्ण फैसले करने होते हैं.....तो अकसर मैं अपने इस बैंच-मार्क को ज़रूर कंसल्ट कर लेता हूं.......। धिक्कार है इस समाज पर, इस समाज के ठेकेदारों पर, इन धर्म के सौदागरों पर जिन्होंने एक मजलूम से इंसान को इतनी छोटी सी भूल के लिये इतनी बड़ी सज़ा देकर पता नहीं किस इलाही धर्म का पालन कर डाला। मैं मज़बूर बंदों पर इस तरह से अत्याचार करने की खुल कर, बिल्कुल खुल कर, ओपनी....घोर निंदा करता हूं।.........समाज से और कौन से अपराध नहीं हो रहे....घूसखोरी, भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, जालसाजी, फरेब, बलात्कार, हत्यायें, आतंकवाद की घटनायें......इन का फैसला कभी इतनी तुंरत नहीं ( पता नहीं कब आता है...!!) आया जितना कि इस बेसहारा मज़दूर का आ गय़ा।

बस, अभी आप से क्षमा चाहता हूं....क्योंकि मैं ये तीनों खबरें पढ़ कर बहुत शर्मसार हूं.........मुझे सैटल होने के लिये थोड़ा एकांत चाहिये।

रविवार, 27 अप्रैल 2008

पावडर वाले दूध की मलाई मार गई !!

कुछ दिन पहले मेरी मुलाकात एक मिठाई-विक्रेता से हुई। मैंने उस से निवेदन किया कि तुम मुझे ईमानदारी से यह बताओ कि ये जो इतनी बर्फी -इतना पनीर बाज़ार में बिक रहा है, यह सब आखिर है क्या !...उस ने बताया कि ज्यादातर मिठाईयां वगैरा तो पावडर-वाले दूध से ही तैयार हो रही हैं..........


शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008

क्यो ले ली इस खसरे के टीके ने नन्हे-मुन्नों की जान ?

आज के अखबार में एक खबर तो बेहद दुःखदायी दिखी कि तमिलनाडू के थिरूवल्लूर ज़िले में चार शिशु खसरे(मीज़ल्स) का इंजैक्शन लगवाने के बाद अचानक चल बसे। अब इस की जांच तो होगी....लेकिन इस जांच का फायदा तभी ही होगा अगर हम इन जांच-रिपोर्टों से कम से इतना तो सीख ही लें कि भविष्य में ऐसा हादसा फिर कभी भी न होने पाये। हम ज़रा उन चार परिवार वालों की हालत की कल्पना करें कि वे अपने हंसते-खेलते शिशु लेकर बड़े चाव से उन्हें खसरे से बचाव का टीका लगवाने जाते हैं और कुछ समय बाद ही कुछ भी शेष नहीं रहता। रही बात, उस हर परिवार को तीन-तीन लाख देने वाली बात.....जिस तरह से इस राशि के बारे में अखबारों में आ जाता है, मुझे बेहद ओछापन लगता है जैसे कि उन शोकग्रस्त परिवारों को मुंह बंद रखने का मुआवजा दिया जा रहा हो......कि देखो, अब जो गया सो गया, वह तो वापिस आने से रहा, लेकिन अब तुम लोग अपनी जुबान पर ताला लगाये रखने का यह मोल रख लो।.... खैर, अपना अपना नज़रिया है.....शायद इस काम का ढिंढोरा पिटवाना भी उन की मजबूरी रहती होगी.......क्योंकि यह एक अच्छी खासी पब्लिक-रिलेशन एक्सर-साइज़ भी तो है। खैर, इस बात को इधर ही समाप्त करते हैं क्योंकि मेरा तो इस तरह की मदद-वदद की बातें देख-सुन-पढ़ कर सिर दुःखता है। जिस मां की गोद ही उजड़ गई, उस की आखिर क्या मदद हो सकती है!!.

ध्यान रहे कि मीज़ल्स का टीका बच्चों को केवल एक ही बार 9महीने की उम्र पर लगाया जाता है और यह टीका उसे मीज़ल्स से 95प्रतिशत सुरक्षा प्रदान करता है। सुनने में तो लगता है कि क्या है खसरा ही तो है.....बच्चों में अकसर हो ही जाता है और फिर ठीक भी हो जाता है। लेकिन ऐसी बात नहीं है....क्योंकि खसरा विकासशील देशों में हर साल लाखों बच्चों की जान ले लेता है। होता यूं है कि खसरा रोग से पैदा होने वाली जटिलतायों( कम्पलीकेशन्ज़).. जैसे कि डायरिया(दस्त रोग), निमोनिया, और एनसैफेलाइटिस ( दिमाग की सूजन)....की वजह से बहुत सी मौतें हो जाती हैं। पांच साल से कम उम्र के बच्चे तो इस के बहुत ज़्यादा शिकार हो जाते हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि मीजल्ज़ का टीका तैयार होने के बाद तीन घंटे के बाद इस्तेमाल हो जाना चाहिये। तैयार करने से यहां मतलब है ....रिकंस्टीच्यूशन ....( Reconstitution)….इस का मतलब यह है कि मीजल्ज़ का टीका फ्रीज़-ड्राइड फार्म ( freeze-dried form) अर्थात् एक पावडर जैसे रूप में हमें मिलता है और इसे इस्तेमाल करने से पहले लिक्विड-फार्म में लाया जाता है। और एक बार जब यह लिक्विड-फार्म में आ जाये तो तीन-घंटे के अंदर अंदर इस का इस्तेमाल किया जाना लाज़मी है.....जो बच जाये उसे फैंकना होता है।

टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में आल-इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ मैडीकल साईंस के कम्यूनिटी मैडीसन विभाग के एक प्रोफैसर का यह स्टैटमैंट भी दिया है कि ऐसी रिपोर्टें कभी नहीं आई कि मीज़ल्स के टीके लगने से बच्चों की मौत हो गई क्योंकि इंजैक्शन खराब था। लेकिन उन्होंने यह भी बताया कि इस तरह के इंजैक्शन जिन्हें रिकंस्टीच्यूट करने के बाद गर्म-वातावरण में अथवा सीधी धूप( exposed to heat or direct sunlight) में ऱखा जाता है.....इस तरह का इंजैक्शन लगने से शिशुओं में एनाफाईलैक्टिक शॉक ( एक तरह का वैसा ही रिएक्शन जो पैनेसिलिन टीके के तुरंत बाद कभी कभी हो जाता है) ...हो जाता है जिस से ह्दय काम करना बंद कर देता है और सांस लेने में दिक्कत हो जाती है।

रोग-प्रतिरक्षण के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले टीकों के बारे में इतना जानना भी बहुत ज़रूरी है कि हर स्टेज पर इन्हें एक खास तापमान ( 2 से 8 डिग्री-सैंटीग्रेड) मुहैया करवाया जाता है। हर स्टेज पर इस तापमान को कायम रखने के लिये जो कड़ी है , जो सुदृढ़ ढांचा विकसित है उसे कोल्ड-चेन कहा जाता है.....एक तरह से यह समझ लें कि यह कोल्ड-चेन किसी भी टीकाकरण कार्यक्रम की सफलता की रीढ़ की हड्डी है......इस के साथ किसी भी स्टेज पर थोड़ा भी समझौता हुया नहीं कि यह सारा प्रोग्राम फेल हुया समझो। हमेशा से ही चिकित्सा विभाग के आगे यह चैलेंज रहा है कि इस कोल्ड-चेन को किसी भी तरह से कैसे टूटने से बचाया जाये.......क्योंकि जैसे ही यह कोल्ड-चेन टूटती है, टीके में खराबी ( contamination) के चांस बहुत बढ़ जाते हैं।

अब इस सारे एपीसोड की जांच तो होगी ही ....और यह भी पता लगाने की कोशिश की जायेगी कि क्या यह दुर्घटना कोल्ड-चेन में किसी किस्म की ब्रेक होने की वजह से हुई या इंजैक्शन के खराब ( contaminated) होने की वजह से चार शिशुओं ने अपनी जानें गंवा दीं।

जिस तरह से इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की कवरेज समाचार-पत्रों में आज मैंने देखी है उस से एक बार फिर मुझे यह लगा है कि अंग्रेज़ी प्रिंट मीडिया में इस तरह की कवरेज का स्तर बहुत ज़्यादा अच्छा है....इस रिपोर्ट ने पाठक को अच्छी तरह से समझाने की और उस के मन में उठ रहे कईं प्रश्नों का जवाब देने की अच्छी कोशिश की है। दा हिंदु अंग्रेज़ी अखबार ने तो पहले पेज़ पर यह रिपोर्ट छापने के साथ साथ इस दुर्घटना पर पहला सम्पादकीय लेख छाप कर सारे पाठकों का ध्यान इस तरह आकर्षित किया है। मैं उस सम्पादकीय लेख में से कुछ लाइनें यहां दे रहा हूं......काफी बातें इन लाइनों से ही स्पष्ट होती दिखती हैं..........

..... The involvement of the vaccine belonging to the same batch in different health centres seems to indicate problems with quality, which could have occurred at the point of manufacture, during transfer or storage. Laboratory investigations can determine whether the vaccine produced by the Human Biologicals Institute, Hyderabad, was contaminated, but the death of the infants is bound to shake public confidence in the immunization programme. The priority must now be to restore faith in the system in order to maintain wide vaccination coverage. The benefits of good quality vaccines for diseases such as measles, mumps, diphtheria, polio, and tetanus are universally acknowledged and heavily outweigh the very rare adverse reactions.

जाते जाते, हिंदी समाचार-पत्र की इस न्यूज़-रिपोर्ट पर भी एक नज़र मार ही लें......आप को भी ऐसा लगेगा कि जैसे किसी सरकारी प्रैस-विज्ञप्ति को पढ़ रहे हैं। शायद हिंदी मीडिया ने सिर्फ़ एक सरकारी फरमान के रूप में ही इतनी अहम खबर को छापना सही समझा होगा लेकिन इतनी भी क्या जल्दी कि खसरे की दवा के टीके की जगह इस अखबार ने तो खसरे की दवा को पीने वाली बतला दिया। बात छोटी सी है......कवरेज हिंदी अखबारों का ज़्यादा है....ऐसे में इस तरह की आधी-अधूरी खबर का असर दो-दिन बाद होने वाले पल्स-पोलियो रविवार पर भी पड़ सकता है कि नहीं ?....आप का क्या ख्याल है.......इसीलिये तो कहता हूं कि अब समय आ गया है कि हिंदी अखबारों को भी हैल्थ-कवरेज को ऊंचा उठाने के यत्न करने चाहिये......क्या है..बात केवल इतनी सी है कि किसी क्वालीफाइड डाक्टर से बेसिक बातें तो चैक करवाई ही जा सकती हैं........ताकि खसरे का टीका टीका ही रहे.....पीने वाली दवा तो ना बने।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

डिस्पोज़ेबल सिरिंजों एवं सूईंयों के बारे में इसे जरूर पढ़ें...

दो-चार दिन पहले मैं जब एक पारिवारिक समारोह में जयपुर गया हुया था तो वहां मुझे अपने मामा को टैटनस का टीका लगाना था। टीका लगाने के बाद मेरी वही उलझन कि उस डिस्पोज़ेबल सिरिंज एवं सूईं को कहां फैंकूं.....यानि कि इन डिस्पोज़ेबल्स को कैसे डिस्पोज़ ऑफ करूं!!....खैर, आप अगर मेरी जगह होते तो क्या करते ?....शायद आप दिमाग पर इतना ज़्यादा ज़ोर दिये बिना उस सूईं पर टोपी लगाकर किसी कूड़ेदान में फैंक देते। लेकिन मैं एक डाक्टर होने के नाते ऐसा न कर सका !
मैंने उस दिन भी वही किया जो मुझे थोड़ा सा ठीक लगा ( पूरा ठीक तो यह भी नहीं था ! )….मैं कुछ समय बाद बाज़ार जाते समय उस सिरिंज एवं नीडल को साथ ले गया और घर के पास ही एक कैमिस्ट की दुकान के सामने जहां इस तरह का कूड़ा पड़ा हुया था वहां मैंने इसे भी फैंक कर थोड़ी राहत महसूस की। वहां फैंकने का कारण यही था कि वहां से जो भी रैगुरर्ली इस तरह का कचरा उठाता होगा, वह तो सावधानी पूर्वक ही यह सब करता होगा। लेकिन गहराई से सोचता हूं तो यही पाता हूं कि यह सब एक खुशफहमी ही है......कहां ये सफाई वाले इतनी बातों का ध्यान रख पाते होंगे.....इन में कहां इतनी अवेयरनैस कि ये सब समझ पाते होंगे।
मैं अकसर सोचता हूं कि हम मैडीकल प्रोफैशन वाले अकसर मीडिया में ढींगे तो बहुत लंबी लंबी मारते हैं कि हम ने लिवर ट्रांस्पलांट कर दिया, रक्त की नाड़ी की रुकावट समाप्त कर दी..........लेकिन अकसर हम छोटी-छोटी बातों के ( जो वास्तव में बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं) बारे में लोगों की जागरुकता का स्तर बढ़ा नहीं पाये......इस के कारण तो बहुत से हैं....लेकिन एक उदाहरण यह ही लीजिये......कि बड़े हस्पतालों में तो बॉयोमैडीकल वेस्ट मैनेजमेंट के बड़े लंबे चोड़े कानून तैयार हो गये....अब इन पर कितना चला जा रहा है, यह एक अलग मुद्दा है.......लेकिन घर में एक डिस्पोज़ेबल सीरिंज एवं सूईं का डिस्पोज़ल ही एक सिरदर्दी बन जाता है....हां, हां, सिरदर्दी उस के लिये जो सोचते हैं.....अन्यथा, कूड़ेदान में फैंक कर ही फारिग !!
अब जब हम तो इस नीडल-सीरिंज को कूड़ेदान में फैंक कर फारिग हो लिये लेकिन सब से पहले तो इस से हमारे यहां काम करने वाले सफाई कर्मचारी को यह चुभेगी.....फिर जहां पर बाहर बड़े डस्ट-बिन में इसे फैंका जायेगा ....वहां से भी इसे उठाते हुये कोई न कोई इस से चोट खायेगा......फिर आगे चल कर जहां पर सारे शहर का कूड़ा डाला जाता है वहां पर ये सूईंयां रैग-पिकर्जं की सेहत के साथ खिलवाड़ करेंगी। उस के बाद इन का क्या अंजाम होता है .....अब उस के बारे में क्या लिखूं...इन सीरिंजों एवं सूईंयों की रीसाईक्लिंग की खबरें अकसर चैनलों वाले दिखाते ही रहते हैं जहां पर एक टब में इस तरह डिस्पोज़ेबल मैडीकल वस्तुयें एक बड़े से टब में उबलती हुई दिखाई जाती हैं ...जिस के बाद इन्हें पैक कर के वापिस मार्कीट में बेचा जाता है....यह तो हुई इस रीसाईक्लिंग के गोरख-धंधे की बातें।
इसी तरह की क्रॉस-इंफैक्शन पर लगाम कसने के लिये ही और इस तरह की लोगों की सेहत को बर्बाद करने वाली री-साईक्लिंग को रोकने के लिये ही हर एक अच्छे क्लीनिक, दवाखाने या ओपीडी में जहां भी इंजैक्शन लगते हैं उन के पास एक नीडल एंड सिरिंज कटर होता ही है या होना ही चाहिये....ऐसे ही एक नीडल कटर एवं सिरिंज कटर की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं।
इस तस्वीरों में आप देखिये कि एक इस्तेमाल की गई सूईं को नीडल-बर्नर में डाल कर जलाया जा रहा है और अंत में वह नीडल पूरी तरह जल जाती है जिस की आप तस्वीर भी आप यहां पर देख रहे हैं।
यह तो हो गया इस्तेमाल की गई नीडल का काम तमाम, अब बारी आती है सिरिंज की.......ध्यान रहे कि इन सीरिंजों की भी बहुत ज़्यादा री-साईक्लिंग होती है । ऐसे में हम लोग इसी मशीन के द्वारा ही इस सिरिंज की नोज़ल ही काट देते हैं.............कितनी बढ़िया बात है ना कि ना रहेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी। इस सिरिंज की नोज़ल कटने की तस्वीरें भी आप इधर देख सकते हैं।
अब, आप शायद यह सोच रहे होंगे कि बस यह सब करके काम खत्म हो गया। नहीं, फिर इस तरह के इकट्ठे हुये प्लास्टिक को डिस्पोज़ ऑफ करना होता है। या तो इस तरह के प्लास्टिक को एक हाट-एयर ओवन में डाल कर कुछ इस तरह से पिघला सा दिया जाता है कि यह एक प्लास्टिक का छोटा मोटा गोला सा ही बन जाता है ...फिर इसे या तो हास्पीटल के आस पास खुदे किसी गड्ढे में डाल दिया जाता है या बड़े-बड़े हास्पीटलों में इंसीनेरेटर में इसे डाल कर राख बना दिया जाता है। यह तो मैंने सिर्फ़ सीरिंज और नीडल की ही बात की है ....पर अस्पतालों में तो रोज़ाना ही सैंकड़ो तरह के इस तरह के डिस्पोज़ेबल्ज़ इस्तेमाल होते हैं......अब आप भी सोचिये कि इन का सेफ़- डिस्पोज़ेबल कितना बड़ा चैलेंज है।
अब आप का यह सोचना भी मुनासिब है कि इतना सारा मैडीकल ज्ञान आखिर हमें क्यों परोसा जा रहा है। इस का केवल इतना उद्देश्य है कि एक तो आप को इस बॉयो-मैडीकल वेस्ट मैनेजमैंट के दहकते मुद्दे के बारे में सैंसेटाइज़ किया जा सके और दूसरा जब हम लोग घर में सीरिंज और सूईं इस्तेमाल करते हैं तो उस के डिस्पोज़ल के बारे में भी सोचें। अब आप स्वयं ही बतायेंगे कि आप क्या सोचते हैं कि आप इस इस्तेमाल की हुई सूईं को कैसे डिस्पोज़ ऑफ कर सकते हैं....हां, हां, मैं आप की इस बात से सहमत हूं कि अब घर में कभी-कभार इस्तेमाल होने वाली सिरिंजो-सूईंयों के लिये हम तो नहीं इस नीडल-सिरिंज कटर को खरीद सकते !!!......तो फिर आप भी कोई रास्ता निकालिये और मुझ से भी साझा करिये। वैसे, प्लास्टिक सिरिंज के बारे में मैं इतना कहना चाहूंगा कि अब कुछ हास्पीटलों में इस की जगह कांच की सिरिंजें इस्तेमाल हो रही हैं जिन्हें अगली बार इस्तेमाल करने से पहले अच्छी तरह स्टैरीलाइज़ कर लिया जाता है। कम से कम इन सीरिंजों के कारण इक्ट्ठा हो रहे प्लास्टिक के ढ़ेरों पर तो अंकुश लगेगा ........और इन की री-साईक्लिंग के दुष्परिणामों से भी जनता बची रहेगी।
मैंने इस विषय पर इतना लंबा चौड़ा इसलिये भी लिख दिया है कि अकसर घरों में कभी कभार सिरिंजे-सूईंयां दिख ही जाती हैं......चाहे तो किसी को कोई टीका वगैरह लगना हो या किसी का कोई ब्लड-सैंपल लेने के लिये ही........और हां, एक बहुत ही ज़रूरी बात का यह तो खास ध्यान रखें कि इस्तेमाल की गई सूईं पर उस की टोपी चढ़ाने से गुरेज करें( जैसा कि आप इस तस्वीर में देख रहे हैं) ......क्योंकि मैडीकल सैटिंग्स में देखा गया है कि चिकित्साकर्मीयों को ज़्यादातर इन सूईंयों से नीडल-प्रिक इंजरी इन को वापिस कैप चढ़ाते समय ही होती हैं। और अभी एक बात का ध्यान आ रहा है कि जब किसी चिकित्सा कर्मी को किसी मरीज़ पर इस्तेमाल की गई सूईं अचानक चुभ जाती है तो वह उस चिकित्सा कर्मी एवं उस के परिवार की ज़िंदगी में किस तरह से खलबली मचा देती है.....इस का खुलासा कभी मूड में हुया तो करूंगा...जिस से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। मैंने तो एक राष्ट्रीय संस्था के साथ भी ये बेहद खौफ़नाक अनुभव बांटने चाहे थे ताकि सभी तरह के चिकित्साकर्मी इस से कुछ सीख ले सकें...........लेकिन उन्होंने कोई खास रूचि नहीं दिखाई........अब किसी के पीछे पड़ने वाले तो हम भी नहीं.......लेकिन ये सारे अनुभव किसी न किसी प्लेटफार्म पर साझे जरूर करने हैं.....देखते हैं ये सब कुछ कब संभव हो पाता है।
मैं भी कहां का कहां पहुंच गया.....और जाते जाते एक बात यह भी करनी है कि अब डिमांड कर के इंजैक्शन लगवाने वाले दिन लद गये हैं......ऐसी डिमांड कभी नहीं करनी चाहिये। और हां, मेरे मामा के टैटनस के टीके वाली बात तो कहीं पीछे ही छूट गई.........क्योंकि यह जो हर छोटी-मोटी चोट के बाद टैटनस का टीका लगवाने का एक क्रेज़ सा है......यह भी कितनी उचित है , कितना अनुचित.........इस की चर्चा भी शीघ्र ही करूंगा।
जाते जाते यह भी ज़रूर कहना चाहूंगा कि जब भी कभी डिस्पोज़ेबल सिरिंज एवं नीडल की ज़रूरत पड़े तो बढ़िया क्वालिटी की ही सिरिंज एवं नीडल खरीदें.......पहले मैं सोचता था कि इस का नाम मुझे नहीं लेना चाहिये....लेकिन अब लगने लगा है कि अगर मैं किसी आइटम को ज़रूरत पड़ने पर अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिये इस्तेमाल कर रहा हूं और उस स संतुष्ट हूं तो इस को आखिर आप लोगों के साथ शेयर करने में दिक्कत क्या है.........ओबवियस्ली कोई नहीं.....तो, फिर मैं आप को यह बताना चाहता हूं कि मैं कभी भी अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिये DISPOVAN नामक सीरिंजों एवं सूईंयों का ही इस्तेमाल करता हूं......और भी बहुत ही अच्छी कंपनियां होंगी, लेकिन मैं तो इस प्रोडक्ट को ही इस्तेमाल करता हूं और मेरा इस में पूर्ण विश्वास है। मुझे यह लगने लग गया है कि मैंने क्या लेना देना है इन कंपनियों से .....जो भी मेरे अनुभव हैं मुझे बिल्कुल बेपरवाह होकर पूरी इमानदारी से आप से बांटने चाहिये क्योंकि आप लोग अकसर मेरी बातों को बहुत सीरियस्ली लेते हो............Thank you, so very much !!

गुरुवार, 17 अप्रैल 2008

क्या आप को भी कभी ग्राहक राजा लगा है ?

अगर ग्राहक राजा है तो उस का यह हाल क्यों ?
वैसे तो शायद आजकल एक फैशन सा ही हो गया है या बदलते समय की मांग के कारण यहां वहां कईं संस्थाओं में कस्टमर किंग है.....अर्थात् ग्राहक राजा है....के बहुत बड़े बड़े पोस्टर लगे हुये दिख जाते हैं। मैं अकसर अपने आप से ही पूछता रहता हूं कि क्या यह एक तरह की फार्मैलिटी सी है या इस में कुछ ठोस बात भी है।
जनता का जिस तरह का हाल मैं विभिन्न जगहों पर देखता हूं ...वह देख कर मुझे तो कुछ और ही लगता हू। अगर मेरी बात पर ज़रा सा भी शक हो तो देश में कहीं भी उस पंक्ति की तरफ़ नज़र दौड़ा के देख लीजियेगा....सारी बात समझते देर न लगेगी। मैं एक ऐसी खिड़की पर जा कर बिजली का बिल जमा करता रहा हूं....( करता रहा हूं क्या, अभी भी करता हूं) जिस को खिड़की कहना ही बेवकूफ़ी होगी......वह तो सिर्फ़ आधे फुट के करीब का एक झरोखा सा है.....जो लगभग साढ़े-चार या पांच फीट की ऊंचाई पर है, उसी झरोखे के रास्ते से ही हमें अपना बिल उचित राशि के हाथ अंदर पकड़ाना होता है। यह जो सुरंगनुमा तंग सा रास्ता जिस से होकर हाथ उस सर्वेसर्वा बाबू तक पहुंचता है....यह रास्ता बहुत ही संकरा है....एक बार थमा देने पर आप आप अपने द्वारा जमा की गई राशि की काउंटिंग होती भी नहीं देख पाते। हां, कभी कभार जब बाबू कुछ पूछता है तो आप को उस झरोखे के लैवल पर झुकना पड़ता है.......अब सदियों से इतना झुकते आये हैं कि हमें तो इस तरह से बिना वजह ऐसी किसी भी ऐरी-गैरी जगह पर झुकना एकदम नागवारा है..........पता नहीं मुझे तो इस तरह से बिल जमा करवाने में बड़ी ज़िल्लत का सा अहसास होता है। पैदाइश तो चाहे आज़ाद हिंदोस्तान की है, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों मैं इस तरह की लाइनों में लगे लोगों को देख कर गुलामी के अंधेरे दिनों की कल्पना ज़रूर कर लेता हूं।
कुछ दिन पहले बीमे की किश्त जमा करने गया......वहां पर भी एक तंग सी खिड़की....और बाकी सारी जगह पर कांच और उस के बाहर एक ग्रिल सी लगी हुई थी......सीधी सीधी बात करूं तो इन जगहों पर जाकर मेरा सिर दुःखने लगता है.........नहीं, नहीं, इसलिये तो बिलकुल नहीं कि मुझे लाइन में लगना पड़ता है। वैसे मैं तो इस सामाजिक बराबरी का इस हद तक पक्षधर हूं कि ऐसी किसी जगह पर लोग अगर मुझे पहचान कर लाइन में आने के लिये कहते हैं तो मैं ऐसा सोचना भी पाप मानता हूं.....और मैं इस नियम का अपनी ओपीडी में भी सख्ती से पालन करता हूं.......इस नियम के साथ अपने सारे कैरियर के दौरान न तो कभी समझोता किया और न ही कभी करूंगा।
इन पब्लिक जगहों पर जहां बिल वगैरह भरे जाते हैं .....क्या इन्हें डाका डलने का खौफ़ बना रहता है....लेकिन मैं तो ऐसी जगहों की भी बात कर रहा हूं जहां पर ये कलैक्शन-सैंटर किसी इमारत के अंदर होते हैं और आसपास सैक्यूरिटी गार्ड भी तैनात होते हैं।
अकसर आप ने भी पब्लिक जगहों पर देखा होगा कि जहां पब्लिक का किसी तरह का इंट्रेक्शन सा होता है वहां खिड़की के बाहर खड़े लोगों को एक खुशामदीद का अहसास नहीं हो पाता.......हां, हां, उन ग्राहक राजा है वाले नारों की बात अभी थोडा भूल ही जाइये.......बाहर, देखता हूं कि कुछ लोग विभिन्न कारणों से लाइन जंप कर ही लेते हैं। कहने को तो कईं जगह पर स्त्रियों की लाइन अलग से होती है लेकिन इन जगहों पर भी मैंने देखा है कि खिड़की अलग नहीं होती.................आप समझ गये ना, तो फिर कुछ अवसरवादी लुच्चे किस्म के शोहदों को अपने मन की थोड़ी सी मनमानी करने से इस से बेहतर मौका कहां मिलता है।
शायद एक नियम और जिस के अंतर्गत बैंक के गेट पर ज़ंजीरें सी बांधी जाती हैं....मुझे तो वह भी बेहद अजीब सा नियम लगता है .....न तो किसी की उम्र का ध्यान करो और न ही करो किसी की सेहत का ....बस कोरे नियमों की पालना करो। मैं ऐसा इसलिये भी लिख रहा हूं क्योंकि मैंने बहुत बार बुजुर्ग लोगों को इन संगलियों से उलझकर गिरते गिरते बचते देखा है....लेकिन क्या करे......उस की सुनने वाला है कौन !! आना है तो आ बैंक में, वरना घर बैठ.....तू नहीं तो और सही, आज के दौर में बैंकों में ग्राहकों की भला कोई कमी है।
चलिये, मैं तो कईं दिनों से मन में दबी बात को लिख कर हल्का सा हो गया हूं ....लेकिन फिर सोचता हूं कि इस से क्या फर्क पड़ेगा ......लेकिन उसी समय फिर उसी चीनी कहावत की तरफ़ ध्यान चला जाता है जो कहती है ......तीन हज़ार किलोमीटर के सफर की शुरूआत भी तो पहले कदम से ही होती है !!