रविवार, 4 मई 2008

मेरे इस पंखी से ए.सी तक के सफरनामे ने खोल दी विकास की पोल !

जब आप उस पंखी से ए.सी तक का मेरा सफरनामा सुनेंगे ना तो आप भी मेरी तरह यह सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि आखिर यह कैसा विकास है जिस का हम ढोल पीट रहे हैं.....अगर यही विकास है तो यार हम लोग तो अविकसित ही भले थे।

याद आ रही है अपने प्राइमरी स्कूल के दिनों की....वाह, वे दिन भी क्या खूब थे.....गर्मियों के दिनों में शाम के समय सूरज ढलते ही इस बात का बड़ा शौक हुया करता था कि अब हम ने सारे आंगन में पानी का छिड़काव करना है…उस के बाद सारे आंगन में ठंडक सी हो जाती करती थी। फिर, अगला काम होता है रात पड़ते पड़ते चार-पांच चारपाईयां( हम इन्हे मंजियां कहते हैं) ...बिछाने का......और उन के बीच में अपने खटोला (छोटी चारपाई) भी कहीं फिट करना होता था.......और उस के नीचे मैं अपनी एक बिल्कुल छोटी सी पानी की सुराही ज़रूर रखा करता था।
हां, हां, उन दिनों गर्मी की शुरूआत का मतलब होता था बाज़ार में तरह तरह की सुराहीयां एवं मटके मिलने शुरू हो जाया करते थे....और ये ही क्यों वे हाथ से घुमाने वाली छोटे पंखे भी तो खूब बिका करते थे ....क्योंकि ना तो तब हम लोगों के पास फ्रिज ही हुया करते थे और ना ही इन्वर्टर के बारे में ही सुना था, वैसे सुन भी लेते तो क्या कर लेते !! मैं ये बातें 1969-70 की कर रहा हूं।

बस, उस समय हम लोग बहुत मज़े से बाहर ही सोया करते थे....बहुत मज़ा आता था नीले नीले आसमान के नीचे सितारों की चादर ओढ़ कर सोने में.....कोई मच्छर नहीं, कोई पंखा नहीं....कोई मच्छर भगाने वाली क्रीम नहीं। हां, एक दो हाथ से घुमाने वाली पंखियां चारपाईयों पर ज़रूर रख लिया करते थे।

फिर थोड़े समय बाद मच्छर वच्छर काटने जब शुरू हुये तो घर में जो दो-तीन मच्छऱदानियां हुया करती थीं वे चारपाईयों पर लगा दी जाती थीं.......उन को लगाने में भी बहुत मज़ा आया करता था। मुझे तो उन के अंदर सो कर उस से भी ज़्यादा मज़ा आया करता था.....क्योंकि मैं अपने आप को तब महाराजा पटियाला से कम ना समझा करता था।

तो, इस खुले वातावरण में सो कर जब सुबह उठते थे तो बहुत फ्रैश महसूस करते थे और बहुत जल्दी उठ जाया करते थे। वैसे सो भी तो जल्दी ही जाया करते थे क्योंकि तब हमारा दिमाग खराब करने के लिये ये घटिया किस्म के सीरियल्स नहीं हुया करते थे...और ना ही दिमाग खराब कर देने वाले इन खबरिया चैनलों ने नाक में दम ही किया होता था जो कि जब तक आजकल सोने से पहले दो-चार खौफनाक सी घटनायें ना दिखा लें....शायद उन्हें लगता है कि जब तक हमारे दर्शकगण खौफ़ से सहम नहीं जायेंगे , उन्हें नींद कैसे आयेगी !!

एक-दो साल बाद यानि की 1970 के दशक के शुरू शुरू में यह देखा कि अब सोने से पहले आंगन में एक बिजली का पंखा भी एक स्टूल पर रख दिया जाता था.......यह पंखा फिक्स किस्म का था.....इसे कईं बार मकैनिकों को दिखाया गया कि इस के घूमने वाला मकैनिज़्म दुरूस्त हो जाये, लेकिन यह भी ढीठ किस्म का था.....दो-तीन दिन घूमता और फिर बस एक ही तरफ हवा फैंकता। खैर, अब हमें इस का मिजाज पता लग चुका था...सो, हमने इस के सामने एक ही कतार में सारी मंजियां लगानी शुरू कर दीं।

खैर, अच्छी खासी कट रही थी.....कुछ सालों बाद ही अमृतसर में उग्रवाद ने सिर उठाना शुरू कर दिया.......इस का एक असर यह हुया कि लोगों ने बाहर आंगन में सोना धीरे धीरे बंद कर दिया.....खौफ़ सा पैदा हो गया लोगों के दिलों में....क्योंकि बहुत सी ऐसी वारदातें हुईं कि कईं लोगों को बाहर सोते-सोते ही खत्म कर दिया गया। तो, हम लोगों ने कमरों के अंदर पंखे लगाकर सोना शूरू कर दिया.....लेकिन तब भी कमरों में कोई जाली वाले दरवाज़े नहीं थे.......लेकिन फिर से मच्छर से इतने परेशान ही हम कभी ना थे। कारण शायद यही होगा कि तब ये पोलीथीन न होने की वजह से इतनी गंदगी न हुया करती थी, सो सब ठीक ठाक ही चल रहा था।

दो-चार साल बाद फिर हम लोगों को इन बिजली के पंखों के चलने के बावजूद गर्मी लगती रहती......तो फिर आ गये ये कूलर...जिन्हें सुबह तो कमरे में कर लिया जाता....और रात के समय वही मंजियों के सामने इसे इक्सटैंशन वॉयर इत्यादि लगा कर इसे सरका दिया जाता। यह क्या, यार, इस कूलर की वजह से भी आंगन में सोने का मज़ा आने लगा। लेकिन सुबह उठने पर वो पहले जैसी चुस्ती गायब होती गई

धीरे धीरे कुछ ही सालों में पता नहीं हम लोगों की टीवी या वीसीपी पर फिल्में देखने की आदतें कुछ इस तरह की हो गईं कि हमें अपने अपने कमरों में ही सोना अच्छा लगने लगा...एक कूलर की जगह अब हर कमरे में कूलर लग गया। लेकिन मौसम में बदलाव कुछ इस तरह से ज़ारी रहा कि अब कूलर भी गर्मी के शुरू शुरू के कुछ दिन ही ठंडक पहुंचा पाता......अब ह्यूमिडिटी से परेशानी होने लगी.......ऊपर से मच्छरों ने भी अब तक अपने पैर पक्के कर लिये थे......ये आडोमास, कछुआ-छाप....खूब इस्तेमाल होने लगी थीं......आजकल तो कहते हैं ना कि कछुआछाप से तो इन मच्छरों की दोस्ती हो गई है......इसलिये पिछले कईं सालों से मच्छरों को भी गुड-नाइट कहने के लिये मशीनें आ गईं हैं।

धीरे धीरे अब हाल यह है कि बाहर सोने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता, मच्छर ही मच्छर हैं सब तरफ.......जिस जगह हम लोग रहते हैं वहां पर बहुत साफ-सफाई है तो यह हाल है......साफ-सुथरे घर हैं.....हर दरवाज़े के साथ जाली का दरवाजा भी है जो हमेशा बंद रहता है.....ए.सी भी लगे हुये हैं......लेकिन हालात यह है कि रात पड़ते ही बुखार चढ़ना शुरू हो जाता है कि यार, अब फिर इन हालातों में सोना पड़ेगा....क्योंकि ए.सी कमरों में भी मच्छर परेशान किये रहते हैं। सोचता हूं कि यार, जीवन की इतनी यात्रा कर लेने के बाद भी पाया तो क्या पाया......पहले चैन से मज़े से नींद आ जाया करती थी, सुबह प्रसन्नचित उठा करते थे.......लेकिन अब एसी कमरे में सो कर जब उठते हैं तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने बैंत के डंडों से पीटा हो.....सुबह सारा शरीर दुःख रहा होता है जिस के अंदर जब तक एक-दो कड़क चाय रूपी पैट्रोल नहीं पहुंच जाता, तब तक वह ना तो गेट तक जाकर अखबार ही उठा पाने के योग्य नहीं होता और ना ही ब्राड-बैंड लगाने की हिम्मत होती है। अकसर सोचता हूं यार अगर विकास यही है तो वे बिना विकास वाले दिन ही बढ़िया थे......ऐसे विकास का क्या करना जो रातों की नींद ही उड़ा ले। लेकिन किसी और को दोष भी तो नहीं दे सकते....यह सब कुछ हमारा अपना ही तो किया-धरा है....हम ही तो प्रकृति के साथ इतने पंगे ले रहे हैं और इतने मौसमी बदलाव के बावजूद भी कहां बाज आ रहे हैं।

जब हम बच्चे थे तो सुना करते थे कि गर्मी के दो महीने ही होते हैं...मई-जून और होता भी कुछ ऐसा ही था क्योंकि जुलाई के मिडल पर बरसात होनी शुरू हो जाया करती थी। फिर धीरे धीरे जुलाई भी गर्मी में शामिल हो गया.......पिछले 6-7 सालों से देख रहा था कि मई से लेकर अगस्त तक ही गर्मी की वजह से नाक में दम हुया रहता है.....लेकिन पिछले साल तो ऐसा अनुभव रहा कि 15 सितंबर तक ही गर्मी चलती रही । और इस साल तो सुभान-अल्ला 15 अप्रैल से ही मौसम के तेवर बदले हुये हैं.......इतनी गर्मी , इतनी तेज़, चिलचिलाती धूप, इतना सेक.......। इसलिये अब तो कम से कम पांच महीने गर्मी के ही समझें............15 अप्रैल से 15 सितंबर.....लेकिन सोचता हूं अगर इसी तरह यह गर्मी की अवधि बढ़ती रही तो क्या होगा हमारा...........वैसे हमारा क्या है, हम तो अब लगभग चले हुये कारतूस के समान है......बात है अगली जेनरेशन की......वैसे तो मैं बेहद नान-इंटरफियरिंग किस्म का फादर हूं....बच्चों को प्रोफैशन चुनने के मामले में अपने मन को फॉलो करने की छूट दे रखी है....लेकिन मैं उन्हें यह बात अकसर याद दिलाता रहता हूं कि देखो भई कुछ भी करना..लेकिन इतना तो ज़रूर कमाने की हैसियत रखना कि जिन चीज़ों को इस्तेमाल करने की आदत आप लोगों को पड़ चुकी है .....उन्हें अपने दम पर अफोर्ड करने की हैसियत तो कैसे भी बनानी ही होगी......और उन में से एसी आइटम नंबर वन है।

5 टिप्‍पणियां:

  1. चोपडा जी,आप भी यादो मे कहां से कहा ले जाते हे, वो पानी का छिडकाव, ओर वो सुराही ओर उस का पानी, शेर वाले मुह वाली सुराही, अरे हम तो जब पंजाब मे गाव मे मिलने जाते थे दादा दादी को तो एक सुराही पानी की साथ ले जाते थे, फ़िर वो पखीं, सच वो दिन भी कया दिन थे,बहुत बहुत ध्न्यवाद यादों मे लेजाने के लिये.कभी आप सब से मिले गे जरुर, ओर कभी आप का प्रोगराम बने तो हमारे जहा जरुर आये.

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  2. आ तो बहुत पुराने सफर पर ले गये, पर मुझे लगता है की ये हालत पिछले कुछ दिनों में ज्यादा बदले हैं... एसी का कॉमन होना ९0 के दसक की ही देन लगती है मुझे तो. yf

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  3. बहुत दूर डुबो कर ले गये यादों के सागर में.

    पिछले साल मैने भी इसी विषय पर कुछ कोशिश की थी, हालांकि आप जितनी उम्दा तो नहीं. :)

    http://udantashtari.blogspot.com/2007/09/blog-post_21.html

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  4. बहुत खूब
    मजा आ गया सर
    कुछ परिवर्तन तो हमारे सामने भी हो ही गए।

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  5. चोपड़ा जी ये गर्मी और मच्छरों से युद्ध का इतिहास तो हमने भी झेला है।
    अब तो सोने का कमरा बिलकुल बन्द रहता है, एसी भी आ गए हैं। फिर भी मच्छर! वह तो टपक ही पड़ता है खून पीने को। मर्द हुआ तो केवल खून ही पियेगा, और मादा हुई तो, अल्लाह खैर करे।

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