सुबह सुबह का एक घँटा हमें अपने लिए ऱखना चाहिए...यही तो सुनते हैं हम लोग प्रवचनों में दिन भर...दिन में कुछ वक्त अपने आप को भी देना चाहिए...
लेकिन मैंने यह देखा है कि यह शोर हमारा पीछा वहां भी नहीं छोड़ता...शोर..अंदरूनी भी और बाहरी भी ...अंदरूनी शोर तो शांत होते होते होगा..लेिकन यह बाहरी शोर भी हमें अपने आप से मिलने नहीं देता...
जिस पार्क में टहलने जाता हूं वहां पर लोग योगाभ्यास कर रहे होते हैं...अच्छा लगता है, एक बार मैं भी एक जगह गया, योगाभ्यास करते करते बीच बीच में राजनीति का तड़का लगते देखा तो अजीब सा लगा...फिर से इच्छा नहीं हुई...ऐसा भी नहीं है कि राजनीति की बात ही करना मुनासिब नहीं है, लेकिन वह समय इस के लिए मुफीद नहीं था....बिना वजह उत्तेजित हो जाना...
आज भी देखा कि पार्क में मेरे आगे एक ७०-७५ वर्ष के बुज़ुर्ग टहल रहे थे, अचानक एक फोन...बातचीत से लग रहा था कि किसी "अपने"का ही होगा..लखनऊ के बाशिंदों का बातचीत करने का लहज़ा तो नफ़ीस है ही, बेशक, वे भी कुछ समय तक बड़े आराम से किसी घरेलू समस्या के बारे में फोन करने वाले से बात करते रहे...फिर वे थोड़ा ऊंचा बोलने लगे...फिर उन्हें शायद यह ज़रूरत महसूस हुई कि ये बातें टहलने वाले ट्रैक पर करने की बजाए, पार्क के अंदर किसी बेंच में बैठ कर की जानी चाहिए... लेकिन तब तक उन का स्वर बहुत उग्र हो चुका था... मुझे उन की सेहत की चिंता हो रही थी...
मुझे यह देख कर बहुत बुरा लगा ..इसलिए कि एक बंदा सुबह सवेरे घर से अपने आप से कुछ लम्हे बिताने आया है लेिकन ये फोन करने वाले कमबख्त वहां भी उस का पीछा नहीं छोड़ते ... और वह सुबह पौने सात बजे के करीब का
समय तो इन सब पचड़ों के लिए होता ही नहीं है...
वह बुज़ुर्ग बंदा कुछ समय पहले पेड़ों पर नये नये कपोलों को निहारते हुए ...उन की कोमलता और रंग-रूप का आनंद लेते हुए मजे ले रहा था...लेिकन उस कमबख्त फोन करने वाले ने इस रंग में भंग डाल दिया हो जैसे...कितनी भी ज़रूरी फोन क्यों न हो, इतना ज़रूरी नहीं हो सकता कि यह आधा घंटा इंतज़ार न कर सकता हो..
नईं फूटी कोमल हरी पत्तियां देख कर बहुत खुशी हुई |
लेकिन लिखते लिखते यह भी ध्यान आ रहा है कि हर शख्स की अपनी मजबूरियां हैं....अपनी अलग परिस्थितियां हैं, ऐसे में क्या टिप्पणी करें!
मैं जिस योग कक्षा की बात कर रहा हूं...वहां पर मैंने जाते जाते सुना एक बंदा वाट्सएप पर वॉयरल हुई उस बात की चर्चा कर रहा था कि पाकिस्तानी क्रिकेट टीम भारत आने से पहले भारत से यह कहती थी कि पहला सुरक्षा दो तभी आएंगे ..लेकिन हारने के बाद अपने देश से यह कहने लगी कि सुरक्षा दो तभी लौटेंगे....यह सुन कर सारे लोग ठहाके लगाने लगे....सारे लोग तो वाट्सएप से जुड़े नहीं होते, ऐसे में जो लोग पहली बार यह सुनते हैं वे भी एंज्वाय करते हैं।
सुबह सुबह का समय अपने लिए तो होता ही है, लेकिन मैंने देखा है कि कुछ यार-दोस्त जो मस्ती से टहल रहे होते हैं वे खूब हंसी मज़ाक करते हुए टहलते हैं ...उन्हें खुश देख कर अपना मन भी खुश हो जाता है ... आज प्रातःकालीन भ्रमण से लौटने के बाद पेपर में इसी विषय पर एक अच्छा सा छोटा लेख दिख गया...ओशो की बात करता हुआ..हंसी मज़ाक के मायने बताता हुए...आप भी पढ़िए.....
एक बार मेरे मन में यह इच्छा हुई कि उन बुज़ुर्ग को कहूं कि भाई साहब, आप करिए इस फोन को बंद कुछ लम्हों के लिए ..और लीजिए मैं आप को एक नुस्खा देता हूं..