दो दिन पहले मुझे अपने हाथ से एक ६० साल पुराने एफिडेविट को छूने का और अच्छे से पढ़ने का मौका मिला...तब से मैं बहुत हैरान हुआ....
यह एफिडेविट पचास नए पैसे के स्टांप पेपर पर लिखा हुआ था- जी हां, हाथ से लिखा हुआ था...जिस पर १ रूपए की कोर्ट फीस की टिकट भी लगी हुई थी....और इस शपथ-पत्र में लिखा यह था .....
मैं .......(नाम) , उम्र लगभग ५५ साल, (पूरा पता) बम्बई का रहने वाला हूं - do hereby state on solemn affirmation as under -
१. मेरी पैदाइश बंबई की है ...तारीख लिखी थी ...और मैं तभी से बंबई का नागरिक हूं।
२. मुझे लिकर-परमिट की ज़रूरत है, डाक्टरी प्रमाण पत्र (नाम एवं इलाके सहित) दिनांक .......(१९६४) के अनुसार मेरी सेहत ठीक नहीं है।
Whatever is stated above is true to my knowledge and belief.
प्रार्थी के हस्ताक्षर
किसी वकील ने भी उस की शिनाख्त करते हुए हस्ताक्षर किए हैं।
और उस पर बंबई के रजिस्ट्रार और प्रेज़ीडेंसी मैजिस्ट्रेट के भी हस्ताक्षर हैं।
यह सारा एफिडेविट इंगलिश में हाथ से फाउंटेन पेन या होल्डर से लिखा हुआ है, केवल प्रार्थी के हस्ताक्षर ही हिंदी में हैं।
यह १९६४ का है, पूरे ६० साल पुराना एफिडेविट ....मैं अपनी हैरानी को बहुत से लोगों के साथ बांट चुका हूं कि दारू पीने के लिए भी ऐसा परमिट लगता था ...
उत्सुकतावश मैंने फिर गूगल सर्च किया ....यह लिख कर के महाराष्ट्र लिकर परमिट १९६४ शपथ-पत्र, एफिडेविट ....इंगलिश में लिख कर सर्च किया....बहुत से रिजल्ट आए लेकिन ऐसा एफिडेविट कहीं दिखा नहीं ....परमिट तो होते ही होंगे ....उस दौर को परमिट राज भी कहते थे ....हर जगह परमिट, कोटा बंधा हुआ होता था ...राशन की दुकान में मिट्टी के तेल, शक्कर, आटे, चावल का और सीमेंट की दुकान में सिमेंट का, शायद कोयले का भी ...कोयले का तो मुझे अच्छे से पता नहीं ...लेकिन कोयले की दलाली करने वालों - 😎(दुकानदारों) को तो परमिट लगता ही था, मुझे किसी पुराने कोयले के डिपो का एक लड़का एक बार बता रहा था....
हम लोग बचपन में देखा करते थे, और बाद में भी कि कईं जगह पर किसी दारु की दुकान के साथ थोड़ी-बहुत जगह का जुगाड़ कर के उसके अंदर बैंच लगे होते, बाहर एक टॉट का टुकड़ा लटका होता और उस के बाहर बोर्ड लगा होता ....देसी दारु का मंज़ूरशुदा अहाता .....पंजाब ही में नहीं, हरियाणा में भी देखा ....ड्राई राज्यों को छोड़ कर सभी जगह होते ही होंगे ....अब देसी के साथ अंग्रेज़ी भी लिखा होता है ....
आज कल वैसे भी शराब की बिक्री को एक तरुह से बढ़ावा दिया जा रहा है ....गाड़ी कमाई हो रही है, एक्साईज़ टैक्स ही होता है न, इस की बिक्री से खूब कमाई होती है ...अब दारु ठेकों पर ही नहीं, दूसरी दुकानों या मॉल-वॉल में भी मिलने लगी है ....
लिखते वक्त भी उस ६० साल पुराने एक एफिडेविट का ख्याल आ रहा है कि इतने से काम के लिए भी लोग कैसे कानून का पालन करते थे ...और सरकारों को भी दारू की बिक्री से हासिल होने वाले टैक्स की ज़्यादा परवाह न थी....अब तो एक तथाकथित दारु घोटाले ने नेताओं की नींद उड़ा रखी है, कुछ तो नप चुके हैं कब के ....कुछ पर कार्रवाई की प्रक्रिया चल रही है ...
खैर, क्या वह पुराना दौर ही लाईसैंस, परमिट का था....आप को याद ही होगा िक पहले घर में रेडियो सुनने के लिए भी लाईसेंस बनता था डाकखाने में और रेडियो की क्वालिटी के मुताबिक (इंडियन है, या इंपोर्टेड या कितने बैंड का है, बैटरी वाला है या बिजली से चलता है) उस की लाईसेंस फीस तय होती थी.....मैंने एक बार उस लाईसैंस की फोटो भी साझा की थी, फिर कभी कर देंगे....१५ रूपये साल के लगते थे बढ़िया रेडियो को घर में रखने के लिए, और मैं जिस दौर की बात कर रहा हूं ....१९७० के आस पास की, उन दिनों मैंने भी डाकखाने में रेडियो के लिए ३-४ या पांच रूपए की लाईसैंस फीस भरी हुई है ........
सही बात है हमने दूरी तो काफी तय की है ....बड़े चेलेंज रहे हैं हमारे लोगों के सामने, खैर, वे तो हैं अभी भी, रहेंगे भी....बस, उन की टाईप बदल गई है....और जब कभी देसी दारु की बात चलती है या खुद ही याद आते हैं वे देसी दारु के अहाते, आम के अचार या उस के मसाले के ही साथ, तली हुई नमकीन दाल, या फिर सादे नमक को ही दारु के साथ थोड़ा चाट लेने वाले मंज़र याद आते हैं, अखबारों में देसी दारु से अचानक बीसियों लोगों का अपनी जान खो देना और अपनी आंखें खो देना याद आता है .....तो उसी वक्त एक अहाते में ही फिल्माया गया यह सुपर-डुपर ...सुपर-सुपर -डुपर गीत भी याद आए बिना नहीं रहता ...
अपने घर में दारु पीने के लिए भी परमिट की ज़रुरत वाली बात तो कभी भूलने वाली नहीं मुझे.....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
इस पोस्ट पर आप के विचार जानने का बेसब्री से इंतज़ार है ...