“यू”?…….यह कहते हुए जज साहब ने मेरी तरफ़ सवालिया नज़रों से देखा…
मैं एक दम हक्का-बक्का…
मुझे क्या पड़ी थी यहां इस वक्त इन की गुफ्तगू में खामखां टांग फ़साने की…
“सर, मैं पंकज शर्मा….” झिझकते-सिमटते हुए बडी़ मुश्किल से मेरी आवाज़ निकली…
अभी भी जज साहब की मेरे बारे में जिज्ञासा शांत न हुई थी कि यह बंदा है कोन जो मेरे चैंबर में मेरे सामने कुर्सी पर बैठा हुआ है …
शायद उन के चेहरे के भाव पढ़ते हुए जज साहब का स्टॉफ कुछ ज़्यादा ही सक्रिय हो गया….उन में से किसी ने मेरा मोबाइल नंबर भी पूछा …और जल्दी जल्दी से नोट कर लिया….
इतने में उन काली वर्दी धारी पांच छः लोगों में से किसी ने अपनी समझदारी दिखाई…”पता भी ले लो ….”
जिसने मेरा फोन नंबर लिखा था मैंने उसे अपना पता भी लिखवा दिया …
यह सारा घटना क्रम बस कुछ लम्हों में मुकम्मल हो गया….
“यू कैन लीव” ….इतने में जज साहब ने मेरी तरफ सरसरी नज़र डालते हुए फरमान जारी किया और मैं उसी वक्त उन के चेंबर से निकल कर बाहर कंपाउंड में आ गया….
दरअसल जब मैं जज साहब के सामने उन के चेंबर में बैठा था तो उन की और उन के स्टॉफ की किसी अहम् मु्द्दे पर गुफ्तगू चल रही थी ….
इतने में जज साहब ने कहा …अभी तो मैंने फलां फलां मुद्दों की स्टडी भी करनी है …मुझे जल्दी पढ़ना है उन के बारे में …
बस, उन दो मुद्दों के नाम सुनने की देर थी कि मैंने भी यह कहते हुए अपनी समझदारी दिखा दी …..जी हां, वह यूसीसी वाला तो …..(मुद्दों के नाम मुझे ठीक से याद नहीं आ रहे इस वक्त ….जहां तक मुझे याद है एक तो कोई यूसीसी था …और दूसरा याद नहीं) ….
अभी मेरी बात, बात भी क्या यार, मेरी आवाज़ मुंह ही में थी कि जज साहब की नज़रें मेरी तरफ़ घूम गई ….और मेरा नाम पता लिख लिया गया और चेंबर से बाहर होने का संकेत दे दिया गया….
हां, मैं उस विशाल से कोर्ट परिसर से बाहर आते वक्त (मुझे नहीं पता वह कौन सी कोर्ट थी, लेकिन कोई बड़ी कोर्ट ही लग रही थी, ईमारत और आंगन की भव्यता से…..)यही सोच रहा था कि बैठे बैठे एक नया पंगा पड़ गया….
फिर मैं सोचने लगा कि एक बात तो अच्छी है कि जज साहब के चेले-चपाटों को मेरे कार्य-स्थळ का पता पूछने का ख्याल नहीं आया…..और अगर यहां से दस-बीस शब्दों की कोई चिट्ठी या कोई अप्रसन्नता भी ये मेरे दफ्तर में भेज देते तो मुझे तो वहां पर उल्टा लटका देते ….फिसड्डी से फिसड्डी बाबू लोगों की सब से उत्तम कार्यदक्षता इसी तरह के मौकों पर ही तो प्रदर्शित होती है ….( व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित और यह मेरा पक्का विश्वास भी है) …
फिर अगले ही पल मुझे ख्याल आया कि यार, तू इस बात को इतना भी लाइटली न ले, तेरा पता और मोबाइल नंबर उस स्टॉफ के पास है, उस ने भी जज साहब को अपनी ऐफिसिएंसी का परिचय तो देना है, फोन मेरा उस के पास है, कर लेगा पता मेरे दफ्तर का कहीं से भी …..
उस के बाद ख्याल आया कि कोर्ट-कचहरी के स्टॉफ वैसे ही इतने अस्त व्यस्त होते हैं कि एक पेपर के किनारे लिखा मेरा नाम और पता यह कहां संभाल कर रखेगा….जज साहब ने मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया और मैंने हुक्म मान लिया….बस, बात आई गई हो गई….बात रफा दफा हो गई …
केस-क्लोज़्ड…..
इतने में मैं कोर्ट के गेट के पास आ पहुंचा ….लेकिन मुझे वहां पहुंच अचानक एक ठोकर सी महसूस हुई ….
अरे नहीं यार, कोई ठोकर वोकर नहीं थी, जैसे ही मैंने करवट बदलनी चाही मेरी दुखते हुए घुटनों की वजह से मेरी नींद खुल गई……..और थैंक-गॉड एक परेशान सा करने वाला सपना भी उस के साथ टूट गया….
उठ कर मैं रसोई घर में पानी पीने जा रहा था तो यही सोच रहा था कि मैं अपनी बात ठीक ठाक रख लेता हूं, शायद मुखर भी समझता हूं अपने आप को …….लेकिन फिर भी एक जगह मेरी आवाज़ अभी पूरी बाहर भी न निकली थी कि मुझे बाहर का रस्ता दिखा दिया गया…और तो और, अभी एक दो शब्द मुख से झड़े ही थे कि मेरी तो भई जैसे घिग्घी बंध गई …और वह भी सपने में ……
बिस्तर पर वापिस लेटते वक्त मैं यही सोच रहा था कि यहां तो आवाज़ अभी मुंह से निकली नहीं थी …गनीमत थी ………सच में जो लोग किसी मुद्दे पर आवाज़ निकालते ही नहीं, उठाते हैं, जनमानस की आवाज़ बनते हैं ………..वे किस मिट्टी के बने रहते होंगे…..।
यही सोचते सोचते मैं फिर से नींद की आगोश में कब चला गया…मुझे पता नहीं।
देसी दवाईयों के नाम पर भी जो गड़बड़ घोटाला हो रहा है, उस के बारे में कभी कभी खबरें आती तो हैं लेकिन हम लोगों को वाट्सएप से कहां इतनी फुर्सत है कि हम उस के बारे में ज़्यादा सोचें….जो करेगा सो भरेगा …या जो इन को खाने की हिमाकत कर रहा है, वह देखे, हमें क्या….यही सोच के चलते हम आगे बढ़ जाते हैं….हां, इतना हुआ तो हुआ कि कभी कभी किसी चर्चा के दौरान इस का बात का यह ज़िक्र कर देते हैं कि ऐसी खबरें आ रही हैं….
देसी से मेरा मतलब आयुर्वेदिक नहीं है, वह तो एक भारतीय चिकित्सा पद्धति की एक अहम् पद्धति है जिस के ऊपर मैं कोई टिप्पणी करने में न तो सक्षम हूं और न ही अधिकृत….लेकिन कुछ स्वार्थी तत्व देसी के नाम पर ऐसे ही कुछ अजीबोगरीब बेचते रहते हैं जिस से कुछ फायदा होना तो दूर, खतरनाक नुकसान ज़रूर हो जाते हैं…रोग बिगड़ जाते हैं, लेने के देने पड़ जाते हैं….
पिछले तीस चालीस साल पहले सुनते थे …सुनते क्या थे, होता ही था ऐसे कि घुटने के दर्द के लिए शर्तिया इलाज की दुहाई ये देसी दवाई बेचने वाले देते थे ..बाद में पता चलता था कईं बरसों बाद कि जो घुटनों के दर्द के लिए या दूसरे अन्य जोड़ों के दर्द के लिए जो यह दवा देते थे …वही नीम हकीम….उसमें ये स्टीरॉयड नाम की दवाईयां मिला देते थे ….
अब स्टीरॉयड दवाईयां ऐसी हैं जिन को अच्छे पढ़े-लिखे अनुभवी ऐलोपेथिक डाक्टर भी बहुत सावधानी पूर्वक अपने मरीज़ों को लेने की सलाह देते हैं….बहुत ही सावधानी से, एहतियात से …..जहां ज़रूरत वहीं पर …और न ही एक टेबलेट ज़्यादा और न ही एक दिन भी ज़्यादा …..और यह बात हर ऐलोपैथिक डाक्टर पर लागू होती है….
लेकिन ये नीम-हकीम खतराए जान वाले नीम-हकीम जो पुड़िया मरीज़ों को देते रहे हैं उन में ये स्टीरॉयड की टेबलेट का पावड़र मिला कर देते हैं…..और ये इतनी पावरफुल दवाईयां होती हैं….कि दर्द वर्द तो गायब कर ही देंगी, कुछ समय के लिए, बुखार भी उतार देंगी कुछ समय के लिए …लेकिन ये झोलाछाप नीम हकीम जो इस तरह की दवाईयां मरीज़ों को पुड़िया में परोस देते हैं वे उन्हें तरह तरह के जटिल रोग…कईं बार जानलेवा भी…साथ में परोस रहे होते हैं….
यह तो एक मिसाल है….लेकिन ऐसा और क्या क्या कहां कहां हो रहा है, कोई कुछ कह नहीं सकता….जहां पर आप की कल्पना की उड़ान है, वहां तक सब गोरखधंधे हो ही रहे होंगे, ऐसा मान कर चलिए….सब से ज़्यादा सस्ती जान है आज के दौर में आम आदमी की….
आज मुझे लंबे अरसे के बाद यह स्टीरॉयड वाली बात इसलिए याद आई कि हमारे एक साथी डाक्टर ने एक अखबार की क्लिपिंग शेयर की ….जिसे पढ़ कर किसी के भी पैरों तले से ज़मीन खिसक जाए…ज़मीन खिसकने के साथ साथ मेरा तो दिमाग चकरा गया….वैसे उस क्लिपिंग की फोटो नीचे लगा रहा हूं, अगर आप चाहें तो उसे इत्मीनान से पढ़िए…(अगर पढ़ने में दिक्कत हो तो उस फोटो पर क्लिक करिए, फिर उसे आराम से पढ़ सकेंगे..)
यह कतरन 30 नवंबर 2024 की है, पत्रिका समाचार पत्र, रायगढ़
हां, तो खबर में बताया गया है कि देसी दवाईयां जो मधुमेह के लिए बेची जा रही थीं उन में मधुमेह की ऐलोपैथिक दवाईयों की दस गुणा मात्रा पाई गई …..और यह दावा करती कंपनियां कि हमारी दवाई शुरू करते ही आप को इंसुलिन का इंजेक्शन लेने की ज़रूरत न पड़ेगी….इंसुलिन आप की ज़िंदगी से निकल जाएगी…..
इस गोलमाल का पर्दाफाश तब हुआ जब कोई व्हीआईपी ऐसी दवाई ले रहा था ….और तीन दिन के बाद ही उस का ब्लड-शुगर स्तर इतना नियंत्रण हो गया कि उसे इंसुलिन लेने की ज़रूरत ही न पड़ी….उसने आयुर्वैदिक विशेषज्ञों से बात की….वे भी इस चमत्कार पर हैरान हुए….उन्होंने दवाई टैस्टिंग की सलाह दी…और फिर आगे जो गड़बड़ और खतरनाक स्तर पर ऐलोपैथिक दवाई से मिलावट का मामला सामने आया वह हम ऊपर लिख ही चुके हैं और आप अखबार की इस कतरन में पढ़ भी सकते हैं…
सोचने वाली बात तो यह है कि ऐलोपैथिक डाक्टर तो इस तरह की दवाईयां लिखते वक्त कईं तरह के जमा-घटा करते हैं, मरीज़ की उम्र, वज़न, उस से जुड़े कीं तरह के अन्य पैरामीटर्ज़ देख कर, जांच कर…मधुमेह की दवाई की डोज़ तय करते हैं….लेकिन देखिए किस तरह से दस गुणा डोज़ देसी दवाई के नाम पर उन को परोसी जा रही थी ……..थी क्या, है, बेशक यह सब कहीं न कहीं बिना रोक-टोक के चल ही रहा होगा….एक छोटी सी खबर आ गई ……But it is just tip of an ice-berg!!
ऐसे नहीं लगता कि जैसे आज कल जालसाज़ किस्म के लोग सीधे-सादे लोगों के पीछे हाथ धो कर पड़े हुए हैं….ऑन-लाइन फ्रॉड से कोई बच जाता है तो किसी दूसरे चक्कर में पड़ जाता है …ऑन-लाइन फ्रॉड से भी कहीं ज़्यादा घिनौना है यह देसी दवाईयों को इतने खतरनाक ढंग से मिलावट करने का गोरख-धंधा….
आप को क्या लगता है इन की क्या सज़ा होनी चाहिए…इस तरह के अपराधों के लिए आप के आसपास या दूर किसी को इस तरह के क्रूर कृत्यों के लिए सख्त सज़ा मिली हो तो उस के बारे में जानकारी कमैंट-बॉक्स में लिखिए…..
रोटी फिल्म का एक गीत था ...1974 में आई थी, मैं पांचवी छठी कक्षा में था, मुझे उस के सभी गाने बहुत रोमांचित करते थे ...खास कर के यह वाला ...यह जो पब्लिक है, सब जानती है ..इस फिल्म को मैं बीसियों बार देख चुका हूं और इस गीत को कम से कम सैंकड़ों बार ....लेकिन आज पचास साल बाद यही लगता है कि पब्लिक कुछ नहीं जानती, बड़ी ताकतें, राजनीतिक, व्यापारिक और धार्मिक सब कुछ जानती हैं कि कैसे जनता का इस्तेमाल करना है ....और कुछ नहीं....बस, आराम से गाना सुनिए...
"हां हा, पता है, चलो, यार" …..जैसे ही जयेश ने कहा आटो वाले ने मीटर डाउन किया और चलने लगा …
जयेश मोबाईल पर गाने लगा कर सुनने लगा ….
बीच रास्ते में आटो वाले को फोन आया …उसने अपना बेसिक फोन कमीज़ की जेब से निकाला और बात करने लगा …
"बेटा, चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा…."
दूसरी तरफ से जो बात सुनाई दी …वह सुन कर आटोवाला थोड़ा परेशान हो गया…."बेटा, ..बस, थोड़े वक्त की बात है, अभी धंधा कर के आता हूं तो टीका लगवा लेंगे…"
एक आध बात और कर के आटो वाले ने फोन बंद कर के जेब में रख दिया…जयेश ने देखा उसने जेब से रूमाल निकाल कर अपनी आंखों को एक झटके से पोंछा हो जैसे…
जयेश भी अकसर किसी भी अनजान से, राह चलते बंदे से, किसी रिक्शा-आटो वाले से बात करने लगता है …यही मानता है कि बंदा अगर ज़िंदा है तो उसे ज़िंदा लोगों की तरह बर्ताब भी तो करना चाहिए…संवेदनाएं तो सभी की एक जैसी हैं….ऊंच नीच और जात पात, धर्म-मजहब के वॉयरस के हमले से बचा रह गया, पता नहीं कैसे ..
दो चार मिनट तक आटो आगे चलता रहा …
जयेश से रहा नहीं गया…."क्या हुआ, किस से बात हो रही थी, सब ठीक तो है…."
आटो वाले ने बताया …"साहब, आज सुबह बेटा सीढ़ियों से फिसल गया….14 साल का है, उसे गुम चोट आई है, सुबह एक्सरे तो करवा लिया था…क्रेक नहीं है, डाक्टर ने बताया है। दवाईयां लेकर दे आया था, 380 रुपए लिए डाक्टर ने। अभी उसी का फोन था कि दर्द हो रहा है। डाक्टर ने कहा था कि अगर दर्द गोली से कम न हुआ तो शायद टीका लगवाना पड़ेगा, ….अभी रोते रोते वही बता रहा था कि दर्द बहुत है…..सुबह से खाना भी नही खा रहा दर्द के मारे … मैंने उसे यही कहा है कि अभी आता हूं ……बेटे की बात सुन कर मेरी भी आंखें ….बस………." आटो वाले ने बात अधूरी छोड़ दी….
"चिंता मत करो, इतनी उम्र में चोटें बहुत जल्द ठीक भी हो जाती हैं, टीका लगवा लेना….क्रेक तो नहीं है, इस बात का तो इत्मीनान है…."जयेश ने उसे हौसला दिया…
फिर अगले 5-7 मिनट तक चुप्पी छाई रही…..अब मोबाइल में गीत भी न बज रहा था ….
एवन बेकरी पर पहुंच कर जयेश ने किराया चुकता किया और अलग से एक सौ रुपए आटो वाले को थमाते हुए कहा …."यह तुम्हारे बेटे के टीके के लिए। चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा…."
"प्रार्थना करना, साहब"…..आटो वाले से इतना ही कहते बना…
बेकरी की तरफ़ बढ़ते हुए जयेश को लग रहा था जैसे उसने सब से पहले केक का एक टुकड़ा उस आटो-वाले के बेटे में मुंह डाला हो …,संयोगवश, आज जयेश के बेटे का जन्मदिन था जिस के लिए वह केक लेने बेकरी की तरफ़ आया था….एक सौ रूपए की कीमत वहां मिलने वाले केक की एक बाइट से ज़्यादा कतई न थी....
उस दिन दिल्ली-मुंबई फ्लाईट के लिए जैसे ही उसने प्लेन के अंदर प्रवेश किया तो मुझे पहली नज़र में तो यही लगा कि यह कोई कव्वाल है जो अपने साथियों के साथ मुंबई में कोई प्रोग्राम करने जा रहा है….यही कोई 35-40 वर्ष का युवक, एक दम सफेद, कल्फ लगा, इस्तरी किया हुआ कुर्ता-पायजामा, पैरों में सफेद गुरगाबी (बेली) और कड़क वेशभूषा के साथ उससे मेल खाती उस की ऐंठन। साथ में तीन-चार चेले-चपाटे से दिखने वाले युवक बहुत सारा सामान सेट करने में लग गए..
उस की आइल सीट थी - पहले नंबर वाली बाईं तरफ की…और मेरी थी तीन नंबर सीट आइल सीट दाईं तरफ़ वाली….प्रीमियम सीट थी…इस के लिए भी एयरलाईन वाले एक हज़ार रूपया अलग से वसूलते हैं, अब यह एक नई सिरदर्दी है….मुझे तो अपने घुटनों की सलामती के लिए इस तरह की कोई न कोई सीट लेने की मजबूरी है…
खैर, किताब पढ़ते पढ़ते मेरा ध्यान बीच बीच में उस बाबा की तरफ़ चला जाता…बाबा मैंने इसलिए कहा कि अचानक उस के किसी चेले ने उस के लिए कुछ ऐसा ही संबोधन किया था….इसलिए, इन को कव्वाल एंड पार्टी समझने वाला मेरा अंदाज़ा गलत निकला….ठीक है, बाल तो उस के बहुत लंबे थे …और जैसे महिलाएं बालों की स्ट्रेटनिंग करवाया करती हैं, ठीक उसी तरह से लगता है उसने भी करवाए हुए थे….बार बार उन को संभाल रहा था ….और एक बात जो उस के बाबा या कथा-वाचक होने की तरफ़ इशारा कर रही थी वह उस की वेश-भूषा …आज कल टीवी आदि पर कथा-वाचक इसी वेश-भूषा में दिखाई देते हैं…खैर, मुझे अब वह कथा-वाचक ही लग रहा था…
खाना आया…पेमेंट पर था ..शायद टिकट लेते वक्त ही आर्डर किया गया होगा…जैसे ही उस के आगे वह ट्रे रखी गई, कहने लगा कि मैं यह नहीं खाता, मैं वो नहीं खाता….उस का एक विशेष सहायक दिखने वाला उस के पास खड़ा चीज़ों को समेटने में लगा हुआ था ….और उस के बाद भी लगभग आधा घंटे तक हाथ बांधे उस की सीट के पास ही खड़ा रहा …एक दम समर्पण भाव…पता नहीं बातें क्या कर रहे थे, मैं भी एक बडी रोचक किताब में गढ़ा पड़ा था….
हां, बीच बीच में उस कथा-वाचक टाइप बंदे की तरफ नज़रे जातीं तो पहले तो मैं यही सोचने लगा कि इस शक्ल का कोई बाबा या कथा-वाचक अभी तक न तो कभी टीवी पर दिखा है और न ही वाट्सएप विश्वविद्यालय ने ही ऐसी कोई सूचना दी है …खैर, मैंने देखा कि उसने दाएं पैर के टखने पर एक कड़ा पहना हुआ था…मैं बेकार में अपने दिमाग पर यह लोड लेने लगा कि यह इसने पहना कैसे होगा…जैसे गांव-देहात की महिलाों में विशेषकर जनजाति इलाकों में यह प्रथा प्रचलित है…
इतने में उसने आंखों पर वह काली सी पट्टी लगा ली….जो रोशनी में सोने के लिए आज कल कईं लोग लगाने लगे हैं…लेकिन यह क्या, वह तो पट्टी लगाने के बाद भी नीचे से जो थोड़ी जगह रह जाती है, उस की मदद से निरंतर अपने मोबाइल पर लगा हुआ था…
खैर, हम लोग मुंबई पहुंच गए…और हां, एक बात तो मैं बतानी भूल ही गया कि उस के साथ एक आधुनिक वेश-भूषा में एक 30-35 की उम्र के करीब एक मॉड दिखने वाली महिला भी थीं…उस की साथ वाली सीट पर ही वह बिराजमान थीं…बस, इतना ही…क्योंकि उन्होंने रास्ते में कोई बातचीत नहीं की …वह तो जब प्लेन से नीचे उतरने लगा तो उन को पास खड़े देख कर मुझे यह पता चला कि वह भी इन के साथ ही हैं…विचार यही आया कि प्रोग्राम की ओ-आर्डीनेटर, इवेंट मेनेजर होंगी ….क्योंकि इस तरह के प्रोग्रामों के लिए ये सब लोग भी लगते हैं, भाईं….आज कल वह नाई वाला ज़माना नहीं रहा कि सारी पब्लिसिटी का जिम्मा नाई के पास होता था …
जिस जगह खड़ा मैं अपने सामान के आने की इंतज़ार कर रहा था, वहीं से दिखा कि वह बंदा आ रहा है….उसने वहां पहुंचते ही अपने चेले को एक हैंड-बैगेज (अभी चैक्ड-इन सामान नहीं आया था) खोलने को कहा ….उस के बाद मेरा उधर ध्यान नहीं गया….वैसे भी सामान आने में वक्त थोड़ा ज़्यादा ही लग रहा था …उस के चार पांच चेले भी वहीं थे….बस, मैंने इतना नोटिस किया कि वह बंदा वहां नहीं है, यही सोचा कि वह बाहर निकल गया होगा, अब इतने सारे लोग हैं सेवा के लिए तो उस का वहां पर क्या काम….
तभी पांच मिनट में वही इंसान सामने वाले एक वॉश-रूम से निकल कर चला आ रहा था ….उस का मेक-ओवर, पूरा काया कल्प …उसने जगह जगह से फटी जीन (जिस का आज कल रिवाज़ है) पहनी हुई थी, साथ में कोई महंगी सी टी-शर्ट और नीचे महंगे से कोई स्पोर्ट्स-शूज़….बालों को चोटी कर के रबड-बैंड लगा हुआ था ...उस के चेले तो पहले ही से तैयार थे, उस की बाट जोह रहे थे …सब का सामान अलग हो चुका था ….इतने में एक चेले ने मिठाईयों वाला थैला जब उस के सामान के साथ रखना चाहा तो उस ने उस कहा …ये सब आप ले जाओ….मैं तो वैसे भी इन्हें खाता नहीं…।
मैं यह सोचने लगा कि न वह बंदा खाना खाता है, न यह सब …….तो आखिर खाता क्या है। चलिए, उस से हमें क्या लेना देना …पता नहीं बंदा अपने ज्ञान से, अपनी कथा से कितने लोगों का मार्ग-दर्शन कर के वापिस लौट रहा था…जो भी हो, मैंने कल पहली बार इतनी जल्दी किसी का मेक-ओवर होते देखा था....मैं भी क्या मेक-ओवर, मेक-ओवर की रट लगाए जा रहा हूं...सीधी सपाट बात करूं तो भेष-बदलना....या और भी देसी ज़ुबान में कहूं तो बहु-रुपिया....। वैसे मुझे बाद में उस बंदे के बारे में सोच कर जो फिल्मी गीत याद आ रहा था, यह रहा उस का यू-ट्यूब लिंक ... दरबार में ऊपर वाले के ....अंधेेर नहीं पर देरी है।
निदा फ़ाज़ली की बात याद आ गई….
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी…
जिसे भी देखना हो कईं बार देखना …
हां, मैं जिस किताब को पढ़ रहा था वह भी कम रोचक न थी….उसमें बड़ा ज्ञान है, गौहर रज़ा जो एक बहुत बड़े वैज्ञानिक हैं उन की किताब है यह….कुछ दिन पहले उन को सुनने का मौका मिला …एक दम वैज्ञानिक सोच, वैज्ञानिक बातें …न किसी को अंधविश्वास की गर्त में फैंकने वाला कोई काम ..सब कुछ सच लिखा है….
पहले तो मैं सत्संग में सुनता था कि मेरा वजूद एक रेत के कण के बराबर भी नहीं है लेकिन उस महान वैज्ञानिक ने यह अच्छे से समझा दिया कि सारी की सारी धरती का ही जो वजूद है वह सारे ब्रह्मांड की तुलना में एक रेत के कण के बराबर है…क्या कह रहे थे ….पानी का एक बुलबुला या उस से भी कम ……….और हम हैं कि हमारी ऐंठन कम होने का नाम ही नहीं लेती, हम बंदे को बंदा ही नहीं समझते……अगर यह किताब कहीं ऑन-लाइन दिखे तो इसे ज़रूरी पढ़िए….ऐंठन की, अकड़ की निरर्थकता समझ आ जाएगी…..
सी.टी स्कैन की रिपोर्ट वाला लिफाफा लेकर मां को स्कूटर की पिछली सीट पर बैठा कर महेश जब पीजीआई में डाक्टर के पास जा रहा था तो उसी यही लग रहा था कि जैसे सुप्रीम कोर्ट का फैसला मिलने वाला है …बेशक, बडे़ डाक्टरों के फैसले किसी तरह से सुप्रीम कोर्ट से कम भी तो नहीं होते….शायद उन से भी बड़े …
उस बड़े डाक्टर ने सीटी स्कैन रिपोर्ट देखी…मां के पेट को तो वह दो दिन पहले ही टटोल चुका था…डाक्टर के कहने पर महेश ने मां को बाहर बैंच पर बिठा दिया…अंदर आया तो डाक्टर ने कहा कि दरअसल इन का केस बहुत होपलैस है, अग्नाशय का यह कैंसर काफ़ी फैल चुका है, इसलिए इन के पास वक्त बहुत थोड़ा है, आप समझ रहे होंगे, आप्रेशन हो नहीं सकता…
महेश ने सुन रखा था कि कुछ कीमोथेरेपी या रेडियोथेरिपी भी होती है…उसने झिझकते-२ डाक्टर से इन के बारे में जब पूछा तो उसने इतना ही कहा … वह यह सब न झेल पाएंगी। एक तरह का जवाब ही था….
महेश का दिल एक दम बैठ सा गया…बाहर मां बैठी हुई है, ऊपर से बार बार बहन का फोन आ रहा था मां का हाल पूछने के लिए ….किस को क्या बतलाए….
अभी हारे हुए जुआरी की तरह वह सीटी स्कैन की फिल्में और रिपोर्ट वापिस लिफाफे में डाल ही रहा था कि उस बड़े डाक्टर ने अपने जूनियर डाक्टरों को कहा ….देख लो, जो भी जांच वांच करना चाहते हो तो कर लो….कोलनोस्कोपी करवा लो, अल्ट्रासॉनिक गाईडिड बॉयोप्सी भी कर लो किसी दिन …..वेरी गुड केस…
महेश अचानक चौंका कि देखते ही देखते होपलैस केस कैसे वेरी गुड केस बन गया …….पर उसे मां से झूठ बोलने का एक रास्ता मिल गया….बीबी, डाक्टर कहता है सब अच्छा है, कुछ खास नहीं, थोड़ी सूजन है….कुछ टेस्ट करेंगे फिर दवाईयां देंगे, सब ठीक हो जाएगा।
कोलनोस्कोपी हुई तो मां ने समझा कि सारी आंतड़ियों की सफाई हुई है और अल्ट्रासाउंड गाईडेड बॉयोप्सी को समझा कि किसी दवाई का टीका लगा रहे हैं….लेकिन इलाज विलाज तो कुछ था नहीं ….असहाय दर्द को काबू करने के लिए वही मारफीन के पैच छाती के ऊपरी हिस्से में लगने लगे …कुछ ही दिनों में वह सारा दिन बेसुध ही पड़ी रहती ….न खाने का होश न किसी और बात का ….
एक दिन महेश बंबई के एक कैंसर अस्पताल के बहुत बड़े डाक्टर के पास जब मारफीन के पैच लेने गया तो उसने नुस्खा लिखने से पहले पूछा कि कैसे हैं वह अब……महेश ने बताया कि बस, सोती रहती हैं ….सुस्त सी पड़ी रहती हैं……
उस बहुत बडे़ डाक्टर ने जो कि शायद विभागाध्यक्ष था, पर्चा लिखने के बाद महेश से कहा ……देखना, माता कहीं सोती सोती हमेशा के लिए ही न सो जाए….
महेश अवाक रह गया….इस तरह के मरीज़ों के रिश्तेदार भी तो पहले ही से थोड़े मरे होते हैं, ऊपर से इस तरह की बात और वह भी इतने बडे़, अनुभवी डाक्टर के मुंह से ….
महेश खुद यूनिवर्सिटी में कम्यूनिकेशन का छात्र है, मां तो दिनों ही में यह गई, वो गई …जैसे उड़ गई हो कहीं… लेकिन उन दोनों के अल्फ़ाज़ …’वेरी गुड केस’ और ‘सोते सोते सदा के लिए न सो जाए कहीं’ …..उस को बरसों बाद भी तंग करते हैं…
मुन्नी बहुत बेचैन थी...दादी को घर लौटने में इतनी देर तो कभी लगती न थी- बुज़ुर्ग पड़ोसिनों से गपशप के बाद अंधेरा होने से पहले लौट आती…फिर धूप-बत्ती करने के बाद मुन्नी के साथ बैठ कर उसे पुराने कहानी किस्से सुनाने बैठ जाती…उस के अपनी मां के, मुन्नी के बापू के और दादू के भी।
आज कल तो शाम 6 बजे वैसे ही अंधेरा हो जाता है, अब तो रात के साढ़े आठ बज रहे थे। मुन्नी के साथ साथ उस का छोटा भाई सोनू भी बेचैन था…दादी लौटते वक्त उस के लिए जो टॉफी-गोली, एक लड्डू-बूंदी ले लाती थी, उसे वह इंतज़ार भारी लग रहा था।
मुन्नी ने डरते डरते मां से कुछ कहा तो उसने चूल्हे पर कड़ाही रखते हुए कहा … “तुझे कितनी बार कहा है मुन्नी बेकार में छोटी छोटी बातों के लिए परेशान न हुआ कर। अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे... पांचवी कक्षा की पढ़ाई है तेरी, आ जाएगी तेरी लाडली दादी, जिन टांगों से गई है, उन्हीं से लौट आएगी…”
मुन्नी किताब हाथ में खोल कर बैठ गई ..लेेकिन उस का मन टिक ही न रहा था।
साढ़े नौ बज गए…उस का बापू रामदीन भी घऱ लौट आया। उस का ध्यान मईया की खाली पड़ी खटिया पर गया तो मुन्नी झट से उस की तरफ भागी …”बापू, दादी अभी तक टहल कर लौटी नहीं।मुझे बहुत डर लग रहा है।”
रामदीन का भी सिर घूम गया…वह बाहर भागा, मुन्नी भी उस से साथ हो ली। अड़़ोस-पड़ोस में देखा पूछा- लेकिन कुछ पता नहीं… दुखते घुटने, आंखों में मोतिया बिंद, थोड़ा सा चलने पर ही सांस फूलने के चलते वह कभी दूर तो जा ही न पाती थी….
बदहवास से वे दोनों यूं ही चलते चलते नाले के पास पहुंच गए…अंधेरा घुप था…तभी मुन्नी किसी चीज़ से टकरा कर गिर गई …और उस तेज़ आवाज़ के कारण जब रामदीन पीछे मुड़ा तो उस ने देखा कि कोई कटा हुआ पैर पडा़ था…उन्होंने ने समझा कि किसी जानवर का पैर होगा….
इतने में दूर से आता एक युवक रुक गया….उस ने जब फोन की टॉर्च चलाई तो वहां पर दो कटे हुए पैर पड़े थे…..साथ में एक चप्पल भी पड़ी हुई थी….रामदीन और मुन्नी तो मूर्छित होते होते बचे…..उन्होंने मां के पैर और उस की चप्पल पहचान ली थी…
दोनों का बुरा हाल था…वे दोनों कटे हुए पांव उठा कर वे पुलिस स्टेशन पहुंच गए….लेकिन वहां पर वही कठोर पुलिसिया रुआब, कठोर रवैया, बिना सिर पैर के सवाल…..”माई को घऱ से बाहर निकलने ही क्यों दिया?” “बुज़ु्र्गों के ऐसे खुला छोड़ देते हैं क्या?”.... बार बार यही सवाल। खैर, सुबह होते ही दादी की लाश भी उसी नाले में पड़ी मिल गई….अभागिन की कटी टांगों से रात में खून रिसता रहा ….और उस के प्राण निकल गए।
घर में मातम छाया हुआ था….दादी के टखने के कंगनों ने उस की जान ले ली थी …आधा आधा किलो चांदी के दोनों कंगन थे …। रामदीन अकसर मां को कहता भी था ….”अम्मा, ज़माना बडा़ खराब है। ज़िंदगी की कीमत अठन्नी जितनी भी नहीं बची। इन कंगनों को निकलवा कर अपने ट्रंक में रख दो न।”
हर बार दादी खिलखिला कर हंसती - “पगला तो नहीं गया तू बचुवा, उम्र हो गई इन को पहने अब तक …मेरे साथ ही जाएंगे ये तो ….ऐसी बेकार की बातें न सोचा कर।”
राम दीन का रो रो कर बुरा हाल था। आस-पड़ोस वाले भी बैठे हुए थे। इतने में उसे अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस हुआ। मुन्नी ने अपने कानों में पहनी हुई चांदी की बालीयां उतार कर अपने हाथ में दबा रखी थीं….उन को बापू के हाथ में रखते हुए धीरे से कहा …..”बाबा, मुझे बहुत डर लगता है.”
रामदीन ने बच्ची को अपनी गोद में ले लिया, उस का माथा चूमा और दोनों फड़फड़ा कर रोने लग पड़े।
पता नहीं मुझे इस सफारी सूट से क्यों शुरु से इतनी चिढ़ सी रही है ….इस के बारे में सोच कर ही अजीब सा लगने लगता है, गर्मी लगने लगती है, जाडे़ में भी पसीने छूटने लगते हैं….मैंने अपनी ज़िंदगी में दो सफारी सूट सिलवाए थे कभी…
पहला था जब मैं अभी कॉलेज से बाहर ही निकला था …कोका कोला कलर का सफारी सूट किसी महंगे से दर्जी से सिलवा लिया था…अब 20-22 साल की उम्र में बढ़िया सिलवाया हुआ सफारी सूट तो बढ़िया ही लगेगा न ….पहन कर अच्छा लगता था, कपडा़ इतना मोटा था, सिंथेटिक टाइप लेकिन उस उम्र में तो बस टशन ज़रूरी होता है… ..उसी रंग के मैंने गॉगल्स ले लिए थे ..और साथ में येज़्दी मोटरसाईकिल थी ….ऊपर से हेल्मेट पहनने का पंजाब में कोई कानून न था उन दिनों…बस, एक ही फ़िक्र पेट्रोल की लगी रहती थी…ऐसे लगता था कि हो न हो, यह येज़्दी ज़रूर पेट्रोल पी जाती होगी…झट से खत्म हो जाता था।
फिर मैंने अपनी शादी के मौके पर एक रेमन्डस का बहुत बढ़िया सफारी सिलवा लिया….पूरी बाजू का ….स्टाईलिश टाइप …उसे भी पहनना अच्छा लगता था…
इन दोनों सफारी सूटों के अलावा मैंने कभी सफारी सूट नहीं पहना….बहुत बार सलाह भी दी गई यहां वहां कि आज कर रिवाज़ है, एक दो सिलवा लेने चाहिए….लेकिन मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई। हिम्मत तो क्या, कभी इच्छा ही नहीं हुई।
दरअसल जैसे हमारे अनुभव होते हैं किसी चीज़ के बारे में …उन से भी तो बहुत सी चीज़ें मुतासिर होती हैं….कोका कोला कलर वाले सफारी का कपड़ा इतना मोटा था कि क्या कहूं….पसीना बहुत आता था….येज़्दी मोटरसाईकिल पर सवारी करते वक्त तो ठीक था, लेकिन दिन भर उसे पहनना एक यातना से कम न था….
और शादी के वक्त सिलवाया ब्लू सफारी ने भी परेशान ही किया …हनीमून की फोटो तो बढ़िया आ गईं ….लेकिन फिर वही मैं उस की बाजू को फोल्ड कर के ऊपर करने लगा…
बस, ऐसे ही कभी कभी पहन लेता था ….लेकिन वह यातना ज़्यादा देर झेलनी न पड़ी क्योंकि अगले एक-दो साल ही में मैं पंजाबी भाषा की हेल्दी की परिभाषा के अनुरुप हेल्दी हो गया…पेट बाहर निकलते ही, सफारी को पहनने से दम घुटने लगता…गर्मी, पसीने वाली दिक्कत तो थी ही, लेकिन अब बटन भी मुश्किल से बंद होते थे ….बस, सफारी ज़िंदगी से बाहर हो गए…
सफारी सूट अब भी नये ही दिखते थे …जहां मैं जहामत करवाने जाता था, वहां पर जो लड़का दुबला पतला था, उसे पूछा कि सफारी पहनोगे, मुझे टाइट हो गए हैं। उसने कहा कि ज़रूर पहनेंगे….अगली बार उसे दे दिए।
यह सब मैं क्यों लिख रहा हूं…क्योंकि मैं सफारी सूट के नाम ही से बहुत चिढ़ता हूं ….सब से ज़्यादा परेशानी मुझे इन को देख कर यह लगती है कि ये इतने मोटे मोटे टैरीकॉट के कपड़ों से बने होते हैं कि गर्मी तो लगती ही है। आज से तीस-चालीस पहले भी एक दौर था कि अगर किसी की शादी में जा रहे हैं तो भी लोग एक नया सफारी सूट सिलवा लिया करते थे …और दुल्हा मियां भी अकसर सफारी सूट में ही फंसा दिखा करता था।
मुझे इन सफारी सूटों से एक शिकायत यह भी है कि ये 40-50 साल खराब नहीं होते ….पहनने वाला बंदा पूरा घिस जाता है …लेकिन सफारी सूट के घिसने का कोई लक्ष्ण दिखाई नहीं देता, वही चमक-दमक, वही बिना इस्तरी किए भी कोई सिलवट नहीं दिखती …जब के पहनने वाले का शरीर आधा घिस चुका होता है, घुटनों की ग्रीस खत्म हो चुकी होती है….और इतना ढीला ढाला, सुथरा, शाईनिंग सफारी अजीब सा लगने लगता है …इसलिए भी यह एक बोरिंग सी ड्रेस है। मेरे पिता जी के पास भी एक दो सफारी सूट थे …वे जब भी उसे पहनते तो गर्मी मुझे लगने लगती यह सोच कर कि यह इस को पहन कैसे लेते हैं…।
जो सफारी शादी से पहले सिलवाए जाते हैं ….उन की लाइफ कम होती है क्योंकि अकसर एक दो साल में ही जैसे ही बंदे का पेट बाहर का रुख करता है, उस के बटन बंद नहीं हो पाते ..न पतलून के, न ही कमीज़ के। फिर उसे रख दिया जाता था ….नेकी की दीवार पर टांगने के लिए या वॉचमैन, माली, ड्राईवर को देने के लिए।
सफारी सूट को हवाई चप्पलों के साथ पहने देखना, शादी में बारातियों को नए नए सफारी सूट पहन कर उपद्रव करते देखना…
जैसे हम लोग प्लास्टिक के बारे में कहते हैं न कि यह नष्ट नहीं होता और सदा के लिेए पर्यावरण को प्रदूषित करते हुए हमारी छाती पर मूंग दलने का काम करता है। सफारी सूट का भी जीवन-चक्र अद्भुत है….पहले तो 50-60 साल तक यह पहनने वाले को परेशान किए रहता है, फिर उस के बाद घर वाले कुछ सालों पर इन को एक इमोशनल धरोहर के तौर पर अलमारी या ट्रंक में धरे रहते हैं, फिर कभी किसी को ध्यान आता है कि इन को किसी को दे दो, किसी के काम तो आएंगे। फिर वह माली, धोबी, वॉचमैन उस को पहन कर परेशान हुआ रहता है….कम से कम अगले बीस बरसों तक ….। एक बात और नोटिस की होगी आपने कि जब ये सफारी सूट बहुत पुराने भी हो जाते हैं तो इन की पतलून घिस जाए या फट जाए तो भी इन की शर्ट का कुछ नहीं बिगड़ता….फिर लोग इस के ऊपर वाले हिस्से को अलग से पहनने लगते हैं, उस के ऊपर स्वैटर भी पहन लेते हैं। लेकिन अकसर यह तबका मजबूरी वश ऐसा करता है….इसलिए इन पर कोई टीका-टिप्पणी करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
जैसा कि मैंने पहले ही लिख दिया है, सफारी सूट मुझे बहुत बोरिंग लगते हैं….होटल के बाहर खड़े बाऊंसर, बडे़ बड़े लीडरों के आगे पीछे चलने वाले लोग…. ये सब भी सफारी सूट में नज़र आते हैं।
लेकिन मुझे कुछ सफारी सूट अच्छे भी लगते हैं….कौन से? -सूती कपड़े से, लीनिन कपड़े से तैयार हुए सफारी क्योंकि ये माहौल को ठंडा रखते हैं और इन को एक बार ही पहना जा सकता है और वैसे भी दो-तीन साल में पीछा छोड़ देते हैं…..बहुत बार ख्याल आया कि इस तरह के एक-दो सफारी सूट सिलवा लूं, लेकिन कभी सबब ही नहीं बना….और इस वक्त भी ऐसा कुछ सिलवाने-पहनने का विचार नहीं है।
पोस्ट लिखने के बाद एक और ख्याल आया कि पहले ब्याह-शादियों मेंं रिश्तेदारों को सफारी सूट के या गर्म सूट के कपड़े मिलते थे….मुझे नहीं याद कि मुझे या मेरे आस पास जिन लोगों को भी ऐसे तोहफ़े मिले, उन्होंने कभी उन को सिलवाया ….कभी नहीं। क्योंकि पहले तो तोहफे में मिली चीज़ का रंग पसंद नहीं आता, फिर कपड़ा …फिर कुछ ..फिर कुछ और ….और सब कुछ ठीक भी होता तो सिलाई के भारी भरकम दाम सुन कर वे सभी पीस अल्मारी में ही दुबके रहते ….और कईं बार उन को आगे किसी रिश्तेदार को चिपका दिया जाता …वैसे भी ब्याह-शादियों में मिले इस तरह के कपड़ों के बारे में किसी ने ठीक ही कहा है कि इन की किस्मत में सिलना लिखा ही नहीं होता….ये आगे से आगे सरकते सरकते ही अपना जीवन-चक्र भोग लेते हैं, दर्ज़ी की दुकान तक पहुंचना शायद इन के नसीब में होता ही नहीं …..।
हम लोग चिट्ठी-पत्री वाले उस पुराने ज़माने से हैं जब हमारे अपने सगे-संबंधी या हम लोग खुद कोई हिंदी फिल्म देखते थे तो उस का नशा कुछ दिन तक ऐसा छाया रहता था कि चिट्ठी लिखते वक्त यह भी लिखा जाता था कि मैंने कर्मयोगी फिल्म देखी है, ऐसे ही उधर से जवाब में आता था कि हमने घरौंदा देखी है और उस के फलां फलां बहुत बढ़िया हैं…..
अब इतना जूना-पुराना बंदा अगर किसी म्यूज़िक कंसर्ट में हो कर आए और ब्लॉगिंग के इस दौर में उसे अपने लोगों के साथ शेयर न करे तो यह तो बड़ी नाइंसाफी सी हुई, एक दम शेल्फिश फील आने लगे….इसलिए मेरी कोशिश रहती है कि जहां भी हो कर आऊं, उस का थोड़ा बहुत नज़ारा तो अपनी डॉयरी में लिख ही दूं….
जी हां, 28 सितंबर को मुंबई के गोरेगांव स्थित नेस्को सेंटर में लता जी के 95 वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में एक संगीत संध्या का प्रोग्राम था. शाम साढ़े छः बजे से रात दस बजे तक का समय दिया गया था, लेकिन मुझे यही लग रहा था कि प्रोग्राम शुरू होने और रंग जमने में सात तो बज ही जाते हैं …
लेकिन रोड से जाना अब मुंबई में अजीब सा ही अनुभव है, इतनी भीड़, जगह जगह ट्रैफिक जॉम….यह सब मेरे वश की बात नहीं है…उस दिन भी शाम पौने छः बजे के करीब टैक्सी बांद्रा से लेकर चल तो पड़ा और यही लगा कि पहुंचने में ज़्यादा से ज़्यादा एक घंटा लग जाएगा…लेकिन वहां पहुंचते पहुंचते पौने आठ बज गए…बस, मुंबई में आजकल ट्रैफिक ऐसा ही है …इसीलिए मेरे जैसे लोग अकसर लोकल ट्रेन में सफर करना ही पसंद करते हैं…. बैठने की जगह मिले न मिले…खड़े खड़े हवा के झोंके तो मिलते हैं….
हां, उस दिन मैंने जो नेस्को सेंटर में नज़ारा देखा, वैसा म्यूज़िकल कंसर्ट मैंने इस से पहले शायद ही कहीं देखा हो….बहुत अच्छी ...व्यवस्था, कोई धक्का-मुक्की नहीं, प्रसाधन की सुविधाएं, खाने-पीने के स्टॉल….और हाल में भी पेय पदार्थ बेचने वाले बीच बीच में आ जा रहे थे…उस से बचपन में रामलीला के दिन याद आ रहे थे ….खुले आकाश के नीचे बैठ कर रामलीला का अंतिम दृश्य देखने तक मजाल था कि हम हिल जाते …रामलीला के दौरान गंडेरियां (गन्ने के छोटे छोटे टुकड़े) चूसते, मूंगफली खाते रहते थे …
चलिए आगे चलते हैं, यहां तो भूमिका ही खत्म होने का नाम नहीं ले रही ….
जैसे ही हाल के अंदर गए, वैसे तो बाहर ही से पता चल गया कि सुरेश वाडेकर अपने फ़न से जनता को लुत्फ़-अंदोज़ कर रहे हैं ….और गाना वही मेरा फेवरेट….मेघा रे मेघा रे …मत परदेस जा रे ….। अकसर यह गीत मैं ट्रेवल करते वक्त सुनता रहता हूं …जब भी यह फिल्म प्यासा सावन का गीत याद आता है…खास कर बारिश के दिनों में ….सुरेश वाडेकर को हम पहले भी कईं प्रोग्रामों के दौरान सुन चुके हैं…जैसे समय बंध जाता है जब उन की बुलंद आवाज़ से लोग मंत्र-मुग्ध से हुए उन को ताकते रहते हैं….सुरेश वाडेकर ने मराठी गीत भी गाए…जिन को लोगों ने बहुत पसंद किया….और वह खालिस मराठी में बोल रहे थे….हम ने तो उन की फिल्मों की कैसेटें खरीद खरीद कर उन का इतना सुना की टेपरिकार्डर का हैड घिस जाता था…बार बार ….प्रेमरोग के गीत अभी भी एवरग्रीन हैं…
शब्बीर कुमार आए उस के बाद …उन्होंने आते ही लता दीदी के बारे में एक बात शेयर की ..कोविड के दौरान उन्होंने लता जी की एक तस्वीर बनाई. वह उन को देने गए मुंबई के पैडर रोड (जसलोक हास्पीटल के सामने) स्थित उन के निवास स्थान पर। लेकिन वॉचमैन ने रोक दिया। शब्बीर कुमार ने कहा कि आप लता जी से बात करवाइए, वॉचमैन ने करवाई तो शब्बीर ने दीदी को कहा कि मैंने पैंसिल से आप की एक तस्वीर बनाई है जो मैं आप को भेंट करना चाहता हूं। लता जी ने कहा कि कोविड की वजह से किसी से मिलती नहीं हूं। खैर, उन्होंने कहा कि आप उस तस्वीर को वॉचमैन को दे दीजिेए, मैं उन से ले लूंगी। शब्बीर ने बताया कि उसने सोचा कि तस्वीर तो लता जी को दूंगा …आज नहीं तो फिर कभी। इसलिए वह तस्वीर वह वापिस ले आया….और कह रहा था कि उस के बाद मौका ही नहीं मिला…आज तक मलाल है कि मैं वो तस्वीर लता जी तक पहुंचा नहीं पाया….इसलिेए उस तस्वीर को वह लेकर आया था, भेंट-स्वरूप।
शब्बीर ने अपने सुपर डुपर गीत गाए…जब हम जवां होंगे, तुम से मिल कर …कुछ याद आता है, ज़िहाले-मस्किन …सुनाई देती है जो दिल की धड़कन, प्यार किया नहीं जाता हो जाता है ….उन की बुलंद आवाज़ में गाए गीत बहुत पसंद किये जाते हैं….शायद वह भी उन का ही गीत है …मेरा फेवरेट ….ज़िंदगी हर कदम इक नई जंग है….
अनन्या वाडेकर सुरेश वाडेकर की सुपुत्री ने भी गीत गाया ..घर आया मेरा परदेसी …खूब तालियां बजीं। वह भी बहुत अच्छी गायिका है, कल मैंने पहली बार उस का गीत सुना…. उस के बाद ये गीत भी पेश किए गए….आ जाने जां…ओ ज़ालिम आ जा ना…और जिया जले जां जले…रात भर धुआं …..
अब स्टेज पर आए शैलेंद्र सिंह …जी हां, वही मै शायर तो नहीं, मगर ए हसीं जब से देखा तुमको, मुझको शायरी आ गई।…क्या गीत है…स्कूल के दिनों से सुनते आ रहे है…उन्होंने बॉबी फिल्म का ही वह गीत …हम तुम इक कमरे में बंद हों….और झूठ बोले कौवा काटे अपनी मधुर आवाज़ में पेश किया ..एक फिमेल सिंगर के साथ ….तालियों की बरसात होने ही थी।
नितिश मुकेश आए …और उन्होंने लता दीदी के बारे में अपनी यादें साझा कीं…जब 1976 में उस के पिता जी चल बसे तो दीदी ने पूरा सहारा दिया। बता रहे थे कि शायद उन्होंने दीदी के साथ सब से ज़्यादा शो किए हैं। उन्होंने गीत भी गाया…तू धार है नदिया की, मैं तेरा किनारा हूं….और उस के बाद वह गीत जिसने उन को कामयाबी की बुलंदियों तक पहुंचा दिया….ज़िंदगी की न टूटे लड़ी …..
उस के बाद फिर अनन्या वाडेकर ने कुछ गीत गाए …लोगों ने बहुत पसंद किए….नैनों में कजरा छाए, तेरे लिए हम हैं जिए…, हम को मिली हैं आज घडियां नसीब से …दिल ढूंढता है फुर्सत के रात दिन…जाड़ों की गर्म धूप और आंंगने में लेट कर …
उस के बाद लता जी के सुपर डुपर गीत (अजीब लग रहा है यह लिखना भी, उन का तो कौन सा गीत सुपर-डुपर नहीं था)....पेश किए गये…..आएगा आने वाला, साजन की गलियां छोड़ चले, तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है, कुछ दिल ने कहा ….कुछ दिल ने सुना…यह मुलाकात इक बहाना है, तुम्हें देखती हूं तो लगता है ऐसे ….
और फिर लता जी के गीतों की एक मेडली …दिल तो दिल है ..दिल का एतबार क्या कीजे, जा रे उड़ जा रे पंछी, दिल हूम हूम करे, मेघा छाए आधी रात …, चलते चलते यूं ही कोई मिल गया था …(पाकीज़ा), सुन साहिबा सुन…..
वहां बैठा बैठा मैं यह भी सोच रहा था कि क्या इतनी पब्लिक सिर्फ़ गीत ही सुनने आती है …..हां, वह तो है ही ..साथ ही वह उन सब फ़नकारों के दीदार करने भी आती है जिन्होंने यह जादू किया…..मैं भी इतने म्यूज़िक कंसर्ट देख चुका हूं कि अब कभी कभी बोरियत सी होने लगती है ….लेकिन जिस कलाकार को अभी देखा नहीं या सुना नहीं होता, वहां ज़रूर जाता हूं। नितिन मुकेश को अमीन सयानी की मैय्यत पर देखा था….आज पहली बार उन को सुनने का मौका मिला….
और हां बीच बीच में मराठी गीत भी पेश किए गए..जिन को भी लोगों ने बहुत ज़्यादा पसंद किया….मैं भी समझ नहीं पा रहा था लेकिन आस पास बैठे बड़ी उम्र के लोगों की खुशियां देख कर, उन का उत्साह देख कर मैं भी खुश हो रहा था …भाषा कोई बैरियर थोडे़ ही न है, यह तो जोड़ती है…
उषा मंगेश्कर का जब आगमन हुआ स्टेज पर तो उन का तालियों से स्वागत हुआ ….आप को वह हैलेन पर फिल्माया गीत …मुंगडा…मुंगड़ा …मुंगड़ा ….यह उन्हीं का गाया हुआ ..सुपर…सुपर..सुपर…डुपर डुपर
हिट गीत है
प्रोग्राम के बाद लता जी के 95 वें जन्म दिन के उपलक्ष्य में केक काटा गया….इस साल मो रफी की 100वीं बरसी है, और मुकेश की 101वीं, और उषा मंगेश्कर 90 बरस की हो रही हैं…सब ने एक साथ मिल कर इन सब के लिए केक काटा….वह नज़ारा देखने वाला था जब ऐसे गायक एक फ्रेम में थे…मोहम्मद रफी के साहिबज़ादे शफी मोहम्मद भी पधारे हुए थे ..इस तस्वीर में दिख रहे हैं ....
इस प्रोग्राम में जाना एक बहुत अच्छा अनुभव था…इतना विशाल जनसमूह और इतना बड़ा हाल ….अगर मैं सच में कहूं तो इस तरह के प्रोग्राम को पंजाब की भाषा में अखाड़ा लगाना कहते हैं….पंजाब में इस तरह के अखाड़े लगाने की रीत है …बडे़ बड़े गायकों के गांव-कसबों में अखाड़े लगते हैं…मोहम्मद सदीक-रंजीत कौर, जसविंदर बराड़, गुरदास मान, चमकीला तो आपने देख ही ली होगी ज़रूर …किस किस का नाम लिखूं …किस का न लिखूं….बस, अखाड़े पंजाब के सभ्याचार की जान लगते हैं….बस, फर्क इतना है कि वहां पर कोई टिकट नहीं होती…न कोई व्ही आई पी...न कोई वीवी आई पी...सब एक साथ बैठो, खुशियां मनाओं....
ये खुले मैदानों में लगते हैं, ऊपर आसमां की नीली छत के नीचे, जिसे जहां भी जगह मिलती है, चुपचाप बैठ कर प्रोग्राम का आनंद लेता है …इन अखाड़ों की कैसेटें बाज़ार में बिका करती थीं, मैं इन कैसेटों के पीछे शैदाई था…बहुत सी कलेक्शन थी मेरे पास …और मैं होस्टल में अकसर इन को तेज़ आवाज़ में सुनना पसंद करता था….मेरे होस्टल के साथी मुझे कईं बार टिच्चर भी करते थे कि डाक्टर साहब नूं अखाड़े सुनने बहुत पसंद ने ….मैं उन को उस वक्त क्या बताता, सुनना ही नहीं, मुझे तो इस तरह के गीत गाने भी बहुत पसंद हैं….यह मेरी विश-लिस्ट की एक आइटम है…इन अखाड़ों में पंजाबी लोकगीत गाना ……
चलो जी हुन जांदे जांदे तुहानूं पंजाब की रुह ऐन्नां अखाड़ेयां दा इक ट्रेलर विखा के रूबरू करवाईए....सुनो ते आनंद मानो....