सी.टी स्कैन की रिपोर्ट वाला लिफाफा लेकर मां को स्कूटर की पिछली सीट पर बैठा कर महेश जब पीजीआई में डाक्टर के पास जा रहा था तो उसी यही लग रहा था कि जैसे सुप्रीम कोर्ट का फैसला मिलने वाला है …बेशक, बडे़ डाक्टरों के फैसले किसी तरह से सुप्रीम कोर्ट से कम भी तो नहीं होते….शायद उन से भी बड़े …
उस बड़े डाक्टर ने सीटी स्कैन रिपोर्ट देखी…मां के पेट को तो वह दो दिन पहले ही टटोल चुका था…डाक्टर के कहने पर महेश ने मां को बाहर बैंच पर बिठा दिया…अंदर आया तो डाक्टर ने कहा कि दरअसल इन का केस बहुत होपलैस है, अग्नाशय का यह कैंसर काफ़ी फैल चुका है, इसलिए इन के पास वक्त बहुत थोड़ा है, आप समझ रहे होंगे, आप्रेशन हो नहीं सकता…
महेश ने सुन रखा था कि कुछ कीमोथेरेपी या रेडियोथेरिपी भी होती है…उसने झिझकते-२ डाक्टर से इन के बारे में जब पूछा तो उसने इतना ही कहा … वह यह सब न झेल पाएंगी। एक तरह का जवाब ही था….
महेश का दिल एक दम बैठ सा गया…बाहर मां बैठी हुई है, ऊपर से बार बार बहन का फोन आ रहा था मां का हाल पूछने के लिए ….किस को क्या बतलाए….
अभी हारे हुए जुआरी की तरह वह सीटी स्कैन की फिल्में और रिपोर्ट वापिस लिफाफे में डाल ही रहा था कि उस बड़े डाक्टर ने अपने जूनियर डाक्टरों को कहा ….देख लो, जो भी जांच वांच करना चाहते हो तो कर लो….कोलनोस्कोपी करवा लो, अल्ट्रासॉनिक गाईडिड बॉयोप्सी भी कर लो किसी दिन …..वेरी गुड केस…
महेश अचानक चौंका कि देखते ही देखते होपलैस केस कैसे वेरी गुड केस बन गया …….पर उसे मां से झूठ बोलने का एक रास्ता मिल गया….बीबी, डाक्टर कहता है सब अच्छा है, कुछ खास नहीं, थोड़ी सूजन है….कुछ टेस्ट करेंगे फिर दवाईयां देंगे, सब ठीक हो जाएगा।
कोलनोस्कोपी हुई तो मां ने समझा कि सारी आंतड़ियों की सफाई हुई है और अल्ट्रासाउंड गाईडेड बॉयोप्सी को समझा कि किसी दवाई का टीका लगा रहे हैं….लेकिन इलाज विलाज तो कुछ था नहीं ….असहाय दर्द को काबू करने के लिए वही मारफीन के पैच छाती के ऊपरी हिस्से में लगने लगे …कुछ ही दिनों में वह सारा दिन बेसुध ही पड़ी रहती ….न खाने का होश न किसी और बात का ….
एक दिन महेश बंबई के एक कैंसर अस्पताल के बहुत बड़े डाक्टर के पास जब मारफीन के पैच लेने गया तो उसने नुस्खा लिखने से पहले पूछा कि कैसे हैं वह अब……महेश ने बताया कि बस, सोती रहती हैं ….सुस्त सी पड़ी रहती हैं……
उस बहुत बडे़ डाक्टर ने जो कि शायद विभागाध्यक्ष था, पर्चा लिखने के बाद महेश से कहा ……देखना, माता कहीं सोती सोती हमेशा के लिए ही न सो जाए….
महेश अवाक रह गया….इस तरह के मरीज़ों के रिश्तेदार भी तो पहले ही से थोड़े मरे होते हैं, ऊपर से इस तरह की बात और वह भी इतने बडे़, अनुभवी डाक्टर के मुंह से ….
महेश खुद यूनिवर्सिटी में कम्यूनिकेशन का छात्र है, मां तो दिनों ही में यह गई, वो गई …जैसे उड़ गई हो कहीं… लेकिन उन दोनों के अल्फ़ाज़ …’वेरी गुड केस’ और ‘सोते सोते सदा के लिए न सो जाए कहीं’ …..उस को बरसों बाद भी तंग करते हैं…
मुन्नी बहुत बेचैन थी...दादी को घर लौटने में इतनी देर तो कभी लगती न थी- बुज़ुर्ग पड़ोसिनों से गपशप के बाद अंधेरा होने से पहले लौट आती…फिर धूप-बत्ती करने के बाद मुन्नी के साथ बैठ कर उसे पुराने कहानी किस्से सुनाने बैठ जाती…उस के अपनी मां के, मुन्नी के बापू के और दादू के भी।
आज कल तो शाम 6 बजे वैसे ही अंधेरा हो जाता है, अब तो रात के साढ़े आठ बज रहे थे। मुन्नी के साथ साथ उस का छोटा भाई सोनू भी बेचैन था…दादी लौटते वक्त उस के लिए जो टॉफी-गोली, एक लड्डू-बूंदी ले लाती थी, उसे वह इंतज़ार भारी लग रहा था।
मुन्नी ने डरते डरते मां से कुछ कहा तो उसने चूल्हे पर कड़ाही रखते हुए कहा … “तुझे कितनी बार कहा है मुन्नी बेकार में छोटी छोटी बातों के लिए परेशान न हुआ कर। अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे... पांचवी कक्षा की पढ़ाई है तेरी, आ जाएगी तेरी लाडली दादी, जिन टांगों से गई है, उन्हीं से लौट आएगी…”
मुन्नी किताब हाथ में खोल कर बैठ गई ..लेेकिन उस का मन टिक ही न रहा था।
साढ़े नौ बज गए…उस का बापू रामदीन भी घऱ लौट आया। उस का ध्यान मईया की खाली पड़ी खटिया पर गया तो मुन्नी झट से उस की तरफ भागी …”बापू, दादी अभी तक टहल कर लौटी नहीं।मुझे बहुत डर लग रहा है।”
रामदीन का भी सिर घूम गया…वह बाहर भागा, मुन्नी भी उस से साथ हो ली। अड़़ोस-पड़ोस में देखा पूछा- लेकिन कुछ पता नहीं… दुखते घुटने, आंखों में मोतिया बिंद, थोड़ा सा चलने पर ही सांस फूलने के चलते वह कभी दूर तो जा ही न पाती थी….
बदहवास से वे दोनों यूं ही चलते चलते नाले के पास पहुंच गए…अंधेरा घुप था…तभी मुन्नी किसी चीज़ से टकरा कर गिर गई …और उस तेज़ आवाज़ के कारण जब रामदीन पीछे मुड़ा तो उस ने देखा कि कोई कटा हुआ पैर पडा़ था…उन्होंने ने समझा कि किसी जानवर का पैर होगा….
इतने में दूर से आता एक युवक रुक गया….उस ने जब फोन की टॉर्च चलाई तो वहां पर दो कटे हुए पैर पड़े थे…..साथ में एक चप्पल भी पड़ी हुई थी….रामदीन और मुन्नी तो मूर्छित होते होते बचे…..उन्होंने मां के पैर और उस की चप्पल पहचान ली थी…
दोनों का बुरा हाल था…वे दोनों कटे हुए पांव उठा कर वे पुलिस स्टेशन पहुंच गए….लेकिन वहां पर वही कठोर पुलिसिया रुआब, कठोर रवैया, बिना सिर पैर के सवाल…..”माई को घऱ से बाहर निकलने ही क्यों दिया?” “बुज़ु्र्गों के ऐसे खुला छोड़ देते हैं क्या?”.... बार बार यही सवाल। खैर, सुबह होते ही दादी की लाश भी उसी नाले में पड़ी मिल गई….अभागिन की कटी टांगों से रात में खून रिसता रहा ….और उस के प्राण निकल गए।
घर में मातम छाया हुआ था….दादी के टखने के कंगनों ने उस की जान ले ली थी …आधा आधा किलो चांदी के दोनों कंगन थे …। रामदीन अकसर मां को कहता भी था ….”अम्मा, ज़माना बडा़ खराब है। ज़िंदगी की कीमत अठन्नी जितनी भी नहीं बची। इन कंगनों को निकलवा कर अपने ट्रंक में रख दो न।”
हर बार दादी खिलखिला कर हंसती - “पगला तो नहीं गया तू बचुवा, उम्र हो गई इन को पहने अब तक …मेरे साथ ही जाएंगे ये तो ….ऐसी बेकार की बातें न सोचा कर।”
राम दीन का रो रो कर बुरा हाल था। आस-पड़ोस वाले भी बैठे हुए थे। इतने में उसे अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस हुआ। मुन्नी ने अपने कानों में पहनी हुई चांदी की बालीयां उतार कर अपने हाथ में दबा रखी थीं….उन को बापू के हाथ में रखते हुए धीरे से कहा …..”बाबा, मुझे बहुत डर लगता है.”
रामदीन ने बच्ची को अपनी गोद में ले लिया, उस का माथा चूमा और दोनों फड़फड़ा कर रोने लग पड़े।
पता नहीं मुझे इस सफारी सूट से क्यों शुरु से इतनी चिढ़ सी रही है ….इस के बारे में सोच कर ही अजीब सा लगने लगता है, गर्मी लगने लगती है, जाडे़ में भी पसीने छूटने लगते हैं….मैंने अपनी ज़िंदगी में दो सफारी सूट सिलवाए थे कभी…
पहला था जब मैं अभी कॉलेज से बाहर ही निकला था …कोका कोला कलर का सफारी सूट किसी महंगे से दर्जी से सिलवा लिया था…अब 20-22 साल की उम्र में बढ़िया सिलवाया हुआ सफारी सूट तो बढ़िया ही लगेगा न ….पहन कर अच्छा लगता था, कपडा़ इतना मोटा था, सिंथेटिक टाइप लेकिन उस उम्र में तो बस टशन ज़रूरी होता है… ..उसी रंग के मैंने गॉगल्स ले लिए थे ..और साथ में येज़्दी मोटरसाईकिल थी ….ऊपर से हेल्मेट पहनने का पंजाब में कोई कानून न था उन दिनों…बस, एक ही फ़िक्र पेट्रोल की लगी रहती थी…ऐसे लगता था कि हो न हो, यह येज़्दी ज़रूर पेट्रोल पी जाती होगी…झट से खत्म हो जाता था।
फिर मैंने अपनी शादी के मौके पर एक रेमन्डस का बहुत बढ़िया सफारी सिलवा लिया….पूरी बाजू का ….स्टाईलिश टाइप …उसे भी पहनना अच्छा लगता था…
इन दोनों सफारी सूटों के अलावा मैंने कभी सफारी सूट नहीं पहना….बहुत बार सलाह भी दी गई यहां वहां कि आज कर रिवाज़ है, एक दो सिलवा लेने चाहिए….लेकिन मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई। हिम्मत तो क्या, कभी इच्छा ही नहीं हुई।
दरअसल जैसे हमारे अनुभव होते हैं किसी चीज़ के बारे में …उन से भी तो बहुत सी चीज़ें मुतासिर होती हैं….कोका कोला कलर वाले सफारी का कपड़ा इतना मोटा था कि क्या कहूं….पसीना बहुत आता था….येज़्दी मोटरसाईकिल पर सवारी करते वक्त तो ठीक था, लेकिन दिन भर उसे पहनना एक यातना से कम न था….
और शादी के वक्त सिलवाया ब्लू सफारी ने भी परेशान ही किया …हनीमून की फोटो तो बढ़िया आ गईं ….लेकिन फिर वही मैं उस की बाजू को फोल्ड कर के ऊपर करने लगा…
बस, ऐसे ही कभी कभी पहन लेता था ….लेकिन वह यातना ज़्यादा देर झेलनी न पड़ी क्योंकि अगले एक-दो साल ही में मैं पंजाबी भाषा की हेल्दी की परिभाषा के अनुरुप हेल्दी हो गया…पेट बाहर निकलते ही, सफारी को पहनने से दम घुटने लगता…गर्मी, पसीने वाली दिक्कत तो थी ही, लेकिन अब बटन भी मुश्किल से बंद होते थे ….बस, सफारी ज़िंदगी से बाहर हो गए…
सफारी सूट अब भी नये ही दिखते थे …जहां मैं जहामत करवाने जाता था, वहां पर जो लड़का दुबला पतला था, उसे पूछा कि सफारी पहनोगे, मुझे टाइट हो गए हैं। उसने कहा कि ज़रूर पहनेंगे….अगली बार उसे दे दिए।
यह सब मैं क्यों लिख रहा हूं…क्योंकि मैं सफारी सूट के नाम ही से बहुत चिढ़ता हूं ….सब से ज़्यादा परेशानी मुझे इन को देख कर यह लगती है कि ये इतने मोटे मोटे टैरीकॉट के कपड़ों से बने होते हैं कि गर्मी तो लगती ही है। आज से तीस-चालीस पहले भी एक दौर था कि अगर किसी की शादी में जा रहे हैं तो भी लोग एक नया सफारी सूट सिलवा लिया करते थे …और दुल्हा मियां भी अकसर सफारी सूट में ही फंसा दिखा करता था।
मुझे इन सफारी सूटों से एक शिकायत यह भी है कि ये 40-50 साल खराब नहीं होते ….पहनने वाला बंदा पूरा घिस जाता है …लेकिन सफारी सूट के घिसने का कोई लक्ष्ण दिखाई नहीं देता, वही चमक-दमक, वही बिना इस्तरी किए भी कोई सिलवट नहीं दिखती …जब के पहनने वाले का शरीर आधा घिस चुका होता है, घुटनों की ग्रीस खत्म हो चुकी होती है….और इतना ढीला ढाला, सुथरा, शाईनिंग सफारी अजीब सा लगने लगता है …इसलिए भी यह एक बोरिंग सी ड्रेस है। मेरे पिता जी के पास भी एक दो सफारी सूट थे …वे जब भी उसे पहनते तो गर्मी मुझे लगने लगती यह सोच कर कि यह इस को पहन कैसे लेते हैं…।
जो सफारी शादी से पहले सिलवाए जाते हैं ….उन की लाइफ कम होती है क्योंकि अकसर एक दो साल में ही जैसे ही बंदे का पेट बाहर का रुख करता है, उस के बटन बंद नहीं हो पाते ..न पतलून के, न ही कमीज़ के। फिर उसे रख दिया जाता था ….नेकी की दीवार पर टांगने के लिए या वॉचमैन, माली, ड्राईवर को देने के लिए।
सफारी सूट को हवाई चप्पलों के साथ पहने देखना, शादी में बारातियों को नए नए सफारी सूट पहन कर उपद्रव करते देखना…
जैसे हम लोग प्लास्टिक के बारे में कहते हैं न कि यह नष्ट नहीं होता और सदा के लिेए पर्यावरण को प्रदूषित करते हुए हमारी छाती पर मूंग दलने का काम करता है। सफारी सूट का भी जीवन-चक्र अद्भुत है….पहले तो 50-60 साल तक यह पहनने वाले को परेशान किए रहता है, फिर उस के बाद घर वाले कुछ सालों पर इन को एक इमोशनल धरोहर के तौर पर अलमारी या ट्रंक में धरे रहते हैं, फिर कभी किसी को ध्यान आता है कि इन को किसी को दे दो, किसी के काम तो आएंगे। फिर वह माली, धोबी, वॉचमैन उस को पहन कर परेशान हुआ रहता है….कम से कम अगले बीस बरसों तक ….। एक बात और नोटिस की होगी आपने कि जब ये सफारी सूट बहुत पुराने भी हो जाते हैं तो इन की पतलून घिस जाए या फट जाए तो भी इन की शर्ट का कुछ नहीं बिगड़ता….फिर लोग इस के ऊपर वाले हिस्से को अलग से पहनने लगते हैं, उस के ऊपर स्वैटर भी पहन लेते हैं। लेकिन अकसर यह तबका मजबूरी वश ऐसा करता है….इसलिए इन पर कोई टीका-टिप्पणी करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
जैसा कि मैंने पहले ही लिख दिया है, सफारी सूट मुझे बहुत बोरिंग लगते हैं….होटल के बाहर खड़े बाऊंसर, बडे़ बड़े लीडरों के आगे पीछे चलने वाले लोग…. ये सब भी सफारी सूट में नज़र आते हैं।
लेकिन मुझे कुछ सफारी सूट अच्छे भी लगते हैं….कौन से? -सूती कपड़े से, लीनिन कपड़े से तैयार हुए सफारी क्योंकि ये माहौल को ठंडा रखते हैं और इन को एक बार ही पहना जा सकता है और वैसे भी दो-तीन साल में पीछा छोड़ देते हैं…..बहुत बार ख्याल आया कि इस तरह के एक-दो सफारी सूट सिलवा लूं, लेकिन कभी सबब ही नहीं बना….और इस वक्त भी ऐसा कुछ सिलवाने-पहनने का विचार नहीं है।
पोस्ट लिखने के बाद एक और ख्याल आया कि पहले ब्याह-शादियों मेंं रिश्तेदारों को सफारी सूट के या गर्म सूट के कपड़े मिलते थे….मुझे नहीं याद कि मुझे या मेरे आस पास जिन लोगों को भी ऐसे तोहफ़े मिले, उन्होंने कभी उन को सिलवाया ….कभी नहीं। क्योंकि पहले तो तोहफे में मिली चीज़ का रंग पसंद नहीं आता, फिर कपड़ा …फिर कुछ ..फिर कुछ और ….और सब कुछ ठीक भी होता तो सिलाई के भारी भरकम दाम सुन कर वे सभी पीस अल्मारी में ही दुबके रहते ….और कईं बार उन को आगे किसी रिश्तेदार को चिपका दिया जाता …वैसे भी ब्याह-शादियों में मिले इस तरह के कपड़ों के बारे में किसी ने ठीक ही कहा है कि इन की किस्मत में सिलना लिखा ही नहीं होता….ये आगे से आगे सरकते सरकते ही अपना जीवन-चक्र भोग लेते हैं, दर्ज़ी की दुकान तक पहुंचना शायद इन के नसीब में होता ही नहीं …..।
हम लोग चिट्ठी-पत्री वाले उस पुराने ज़माने से हैं जब हमारे अपने सगे-संबंधी या हम लोग खुद कोई हिंदी फिल्म देखते थे तो उस का नशा कुछ दिन तक ऐसा छाया रहता था कि चिट्ठी लिखते वक्त यह भी लिखा जाता था कि मैंने कर्मयोगी फिल्म देखी है, ऐसे ही उधर से जवाब में आता था कि हमने घरौंदा देखी है और उस के फलां फलां बहुत बढ़िया हैं…..
अब इतना जूना-पुराना बंदा अगर किसी म्यूज़िक कंसर्ट में हो कर आए और ब्लॉगिंग के इस दौर में उसे अपने लोगों के साथ शेयर न करे तो यह तो बड़ी नाइंसाफी सी हुई, एक दम शेल्फिश फील आने लगे….इसलिए मेरी कोशिश रहती है कि जहां भी हो कर आऊं, उस का थोड़ा बहुत नज़ारा तो अपनी डॉयरी में लिख ही दूं….
जी हां, 28 सितंबर को मुंबई के गोरेगांव स्थित नेस्को सेंटर में लता जी के 95 वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में एक संगीत संध्या का प्रोग्राम था. शाम साढ़े छः बजे से रात दस बजे तक का समय दिया गया था, लेकिन मुझे यही लग रहा था कि प्रोग्राम शुरू होने और रंग जमने में सात तो बज ही जाते हैं …
लेकिन रोड से जाना अब मुंबई में अजीब सा ही अनुभव है, इतनी भीड़, जगह जगह ट्रैफिक जॉम….यह सब मेरे वश की बात नहीं है…उस दिन भी शाम पौने छः बजे के करीब टैक्सी बांद्रा से लेकर चल तो पड़ा और यही लगा कि पहुंचने में ज़्यादा से ज़्यादा एक घंटा लग जाएगा…लेकिन वहां पहुंचते पहुंचते पौने आठ बज गए…बस, मुंबई में आजकल ट्रैफिक ऐसा ही है …इसीलिए मेरे जैसे लोग अकसर लोकल ट्रेन में सफर करना ही पसंद करते हैं…. बैठने की जगह मिले न मिले…खड़े खड़े हवा के झोंके तो मिलते हैं….
हां, उस दिन मैंने जो नेस्को सेंटर में नज़ारा देखा, वैसा म्यूज़िकल कंसर्ट मैंने इस से पहले शायद ही कहीं देखा हो….बहुत अच्छी ...व्यवस्था, कोई धक्का-मुक्की नहीं, प्रसाधन की सुविधाएं, खाने-पीने के स्टॉल….और हाल में भी पेय पदार्थ बेचने वाले बीच बीच में आ जा रहे थे…उस से बचपन में रामलीला के दिन याद आ रहे थे ….खुले आकाश के नीचे बैठ कर रामलीला का अंतिम दृश्य देखने तक मजाल था कि हम हिल जाते …रामलीला के दौरान गंडेरियां (गन्ने के छोटे छोटे टुकड़े) चूसते, मूंगफली खाते रहते थे …
चलिए आगे चलते हैं, यहां तो भूमिका ही खत्म होने का नाम नहीं ले रही ….
जैसे ही हाल के अंदर गए, वैसे तो बाहर ही से पता चल गया कि सुरेश वाडेकर अपने फ़न से जनता को लुत्फ़-अंदोज़ कर रहे हैं ….और गाना वही मेरा फेवरेट….मेघा रे मेघा रे …मत परदेस जा रे ….। अकसर यह गीत मैं ट्रेवल करते वक्त सुनता रहता हूं …जब भी यह फिल्म प्यासा सावन का गीत याद आता है…खास कर बारिश के दिनों में ….सुरेश वाडेकर को हम पहले भी कईं प्रोग्रामों के दौरान सुन चुके हैं…जैसे समय बंध जाता है जब उन की बुलंद आवाज़ से लोग मंत्र-मुग्ध से हुए उन को ताकते रहते हैं….सुरेश वाडेकर ने मराठी गीत भी गाए…जिन को लोगों ने बहुत पसंद किया….और वह खालिस मराठी में बोल रहे थे….हम ने तो उन की फिल्मों की कैसेटें खरीद खरीद कर उन का इतना सुना की टेपरिकार्डर का हैड घिस जाता था…बार बार ….प्रेमरोग के गीत अभी भी एवरग्रीन हैं…
शब्बीर कुमार आए उस के बाद …उन्होंने आते ही लता दीदी के बारे में एक बात शेयर की ..कोविड के दौरान उन्होंने लता जी की एक तस्वीर बनाई. वह उन को देने गए मुंबई के पैडर रोड (जसलोक हास्पीटल के सामने) स्थित उन के निवास स्थान पर। लेकिन वॉचमैन ने रोक दिया। शब्बीर कुमार ने कहा कि आप लता जी से बात करवाइए, वॉचमैन ने करवाई तो शब्बीर ने दीदी को कहा कि मैंने पैंसिल से आप की एक तस्वीर बनाई है जो मैं आप को भेंट करना चाहता हूं। लता जी ने कहा कि कोविड की वजह से किसी से मिलती नहीं हूं। खैर, उन्होंने कहा कि आप उस तस्वीर को वॉचमैन को दे दीजिेए, मैं उन से ले लूंगी। शब्बीर ने बताया कि उसने सोचा कि तस्वीर तो लता जी को दूंगा …आज नहीं तो फिर कभी। इसलिए वह तस्वीर वह वापिस ले आया….और कह रहा था कि उस के बाद मौका ही नहीं मिला…आज तक मलाल है कि मैं वो तस्वीर लता जी तक पहुंचा नहीं पाया….इसलिेए उस तस्वीर को वह लेकर आया था, भेंट-स्वरूप।
शब्बीर ने अपने सुपर डुपर गीत गाए…जब हम जवां होंगे, तुम से मिल कर …कुछ याद आता है, ज़िहाले-मस्किन …सुनाई देती है जो दिल की धड़कन, प्यार किया नहीं जाता हो जाता है ….उन की बुलंद आवाज़ में गाए गीत बहुत पसंद किये जाते हैं….शायद वह भी उन का ही गीत है …मेरा फेवरेट ….ज़िंदगी हर कदम इक नई जंग है….
अनन्या वाडेकर सुरेश वाडेकर की सुपुत्री ने भी गीत गाया ..घर आया मेरा परदेसी …खूब तालियां बजीं। वह भी बहुत अच्छी गायिका है, कल मैंने पहली बार उस का गीत सुना…. उस के बाद ये गीत भी पेश किए गए….आ जाने जां…ओ ज़ालिम आ जा ना…और जिया जले जां जले…रात भर धुआं …..
अब स्टेज पर आए शैलेंद्र सिंह …जी हां, वही मै शायर तो नहीं, मगर ए हसीं जब से देखा तुमको, मुझको शायरी आ गई।…क्या गीत है…स्कूल के दिनों से सुनते आ रहे है…उन्होंने बॉबी फिल्म का ही वह गीत …हम तुम इक कमरे में बंद हों….और झूठ बोले कौवा काटे अपनी मधुर आवाज़ में पेश किया ..एक फिमेल सिंगर के साथ ….तालियों की बरसात होने ही थी।
नितिश मुकेश आए …और उन्होंने लता दीदी के बारे में अपनी यादें साझा कीं…जब 1976 में उस के पिता जी चल बसे तो दीदी ने पूरा सहारा दिया। बता रहे थे कि शायद उन्होंने दीदी के साथ सब से ज़्यादा शो किए हैं। उन्होंने गीत भी गाया…तू धार है नदिया की, मैं तेरा किनारा हूं….और उस के बाद वह गीत जिसने उन को कामयाबी की बुलंदियों तक पहुंचा दिया….ज़िंदगी की न टूटे लड़ी …..
उस के बाद फिर अनन्या वाडेकर ने कुछ गीत गाए …लोगों ने बहुत पसंद किए….नैनों में कजरा छाए, तेरे लिए हम हैं जिए…, हम को मिली हैं आज घडियां नसीब से …दिल ढूंढता है फुर्सत के रात दिन…जाड़ों की गर्म धूप और आंंगने में लेट कर …
उस के बाद लता जी के सुपर डुपर गीत (अजीब लग रहा है यह लिखना भी, उन का तो कौन सा गीत सुपर-डुपर नहीं था)....पेश किए गये…..आएगा आने वाला, साजन की गलियां छोड़ चले, तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है, कुछ दिल ने कहा ….कुछ दिल ने सुना…यह मुलाकात इक बहाना है, तुम्हें देखती हूं तो लगता है ऐसे ….
और फिर लता जी के गीतों की एक मेडली …दिल तो दिल है ..दिल का एतबार क्या कीजे, जा रे उड़ जा रे पंछी, दिल हूम हूम करे, मेघा छाए आधी रात …, चलते चलते यूं ही कोई मिल गया था …(पाकीज़ा), सुन साहिबा सुन…..
वहां बैठा बैठा मैं यह भी सोच रहा था कि क्या इतनी पब्लिक सिर्फ़ गीत ही सुनने आती है …..हां, वह तो है ही ..साथ ही वह उन सब फ़नकारों के दीदार करने भी आती है जिन्होंने यह जादू किया…..मैं भी इतने म्यूज़िक कंसर्ट देख चुका हूं कि अब कभी कभी बोरियत सी होने लगती है ….लेकिन जिस कलाकार को अभी देखा नहीं या सुना नहीं होता, वहां ज़रूर जाता हूं। नितिन मुकेश को अमीन सयानी की मैय्यत पर देखा था….आज पहली बार उन को सुनने का मौका मिला….
और हां बीच बीच में मराठी गीत भी पेश किए गए..जिन को भी लोगों ने बहुत ज़्यादा पसंद किया….मैं भी समझ नहीं पा रहा था लेकिन आस पास बैठे बड़ी उम्र के लोगों की खुशियां देख कर, उन का उत्साह देख कर मैं भी खुश हो रहा था …भाषा कोई बैरियर थोडे़ ही न है, यह तो जोड़ती है…
उषा मंगेश्कर का जब आगमन हुआ स्टेज पर तो उन का तालियों से स्वागत हुआ ….आप को वह हैलेन पर फिल्माया गीत …मुंगडा…मुंगड़ा …मुंगड़ा ….यह उन्हीं का गाया हुआ ..सुपर…सुपर..सुपर…डुपर डुपर
हिट गीत है
प्रोग्राम के बाद लता जी के 95 वें जन्म दिन के उपलक्ष्य में केक काटा गया….इस साल मो रफी की 100वीं बरसी है, और मुकेश की 101वीं, और उषा मंगेश्कर 90 बरस की हो रही हैं…सब ने एक साथ मिल कर इन सब के लिए केक काटा….वह नज़ारा देखने वाला था जब ऐसे गायक एक फ्रेम में थे…मोहम्मद रफी के साहिबज़ादे शफी मोहम्मद भी पधारे हुए थे ..इस तस्वीर में दिख रहे हैं ....
इस प्रोग्राम में जाना एक बहुत अच्छा अनुभव था…इतना विशाल जनसमूह और इतना बड़ा हाल ….अगर मैं सच में कहूं तो इस तरह के प्रोग्राम को पंजाब की भाषा में अखाड़ा लगाना कहते हैं….पंजाब में इस तरह के अखाड़े लगाने की रीत है …बडे़ बड़े गायकों के गांव-कसबों में अखाड़े लगते हैं…मोहम्मद सदीक-रंजीत कौर, जसविंदर बराड़, गुरदास मान, चमकीला तो आपने देख ही ली होगी ज़रूर …किस किस का नाम लिखूं …किस का न लिखूं….बस, अखाड़े पंजाब के सभ्याचार की जान लगते हैं….बस, फर्क इतना है कि वहां पर कोई टिकट नहीं होती…न कोई व्ही आई पी...न कोई वीवी आई पी...सब एक साथ बैठो, खुशियां मनाओं....
ये खुले मैदानों में लगते हैं, ऊपर आसमां की नीली छत के नीचे, जिसे जहां भी जगह मिलती है, चुपचाप बैठ कर प्रोग्राम का आनंद लेता है …इन अखाड़ों की कैसेटें बाज़ार में बिका करती थीं, मैं इन कैसेटों के पीछे शैदाई था…बहुत सी कलेक्शन थी मेरे पास …और मैं होस्टल में अकसर इन को तेज़ आवाज़ में सुनना पसंद करता था….मेरे होस्टल के साथी मुझे कईं बार टिच्चर भी करते थे कि डाक्टर साहब नूं अखाड़े सुनने बहुत पसंद ने ….मैं उन को उस वक्त क्या बताता, सुनना ही नहीं, मुझे तो इस तरह के गीत गाने भी बहुत पसंद हैं….यह मेरी विश-लिस्ट की एक आइटम है…इन अखाड़ों में पंजाबी लोकगीत गाना ……
चलो जी हुन जांदे जांदे तुहानूं पंजाब की रुह ऐन्नां अखाड़ेयां दा इक ट्रेलर विखा के रूबरू करवाईए....सुनो ते आनंद मानो....
आज कल सुबह नींद बहुत जल्दी खुल जाती है…यही कोई चार बजे के आसपास …अब न तो वह वक्त फिर से सोने का होता है और न ही जागे रहने का….कोई किताब, अखबार या कोई फिल्म देखने लगो तो कुछ ही समय के बाद…यही कोई एक डेढ़ घंटे के बाद…फिर से नींद घेर लेती है …सोने पर फिर आठ बजे के आस पास ही उठ पाता हूं…
आज भी यही हुआ…लेकिन आज दूसरी बात जब सोया तो एक सपना आया…अकसर मैं उसी दिन ही सपना भूल जाता हूं। लेकेिन आज तो मैंने चंद अल्फ़ाज़ में उसे लिख लिया एक नोट-पैड पर…।
हां, तो सपना सुनिए…..मेरे एक साथी हैं डा जय कुमार ..दिल्ली के रहने वाले हैं, कभी कभी जाते हैं, जाने से पहले और वहां से लौटने के बाद खुशी उन के चेहरे पर टपकती है. मैं यह बात कहता हूं तो कहते हैं कि सारी यादें, दोस्त, सारा बचपन-जवानी वहां बीता है…बहुत खुशी होती है वहां जा कर …अपनों के साथ वक्त बिता कर ….
दिल्ली तो मैं भी कुछ समय रहा …और मुझे भी दिल्ली के खान-पान और बेवजह घूमने में बहुत मज़ा आता था।
हां, आज का सपना ऐसे था कि मैं और डा जय कुमार दिल्ली के किसी मेेले में घूम रहे हैं…हां, आगे लिखने से पहले यह तो लिख दूं कि डा जय हर वक्त बहुत जल्दी में रहते हैं, हमेशा…..मैंने बहुत बार समझाने की कोशिश तो की है, लेकिन यह तो संसार की समस्या है कि हम लोग कहां किसी की सुनते हैं….मैं भी कहां सुनता हूं…
हां, हम दोनों उस मेले में घूम रहे हैं जो दिल्ली की सर्दी में ओपन-ग्राउंड में धूप में लगते हैं ….खाना, पीना, नाच, गाना, शॉपिंग …हर किसी के लिए कुछ….हम लोग बस अभी ऐसे ही टहल रहे हैं तो डा जय ने अचानक कहा कि मैं अभी आता हूं…। इतना कहते ही वह वहां से निकल लिए। उन के जाने के बाद मेरी नज़र पास ही के टेबल पर पड़ी …एक मोबाइल वहां पड़ा हुआ था….मैंंने मन ही मन सोचा कि यह बंदा हमेशा जल्दबाजी में रहता है, अभी यह अपना मोबाइल छोड़ कर निकल गया है…खैर, मोबाइल मैंने उठा लिया….अभी मुझे मोबाइल उठाए चंद लम्हे ही हुए होंगे कि मेरा हाथ मेरी पेैंट की जेब पर गया तो मेरा मोबाईल वहां था ही नहीं। और मेेज पर पडे़ इस मोबाइल को उठाते ही मुझे लगा कि यह तो हल्का सा है, यह नहीं है मेरा, इस की पैमाइश और स्क्रीन-कवर भी मेरे फोन जैसा नहीं है। और फिर मुझे लगा कि इस को चार्ज ही कर के देख लूं..बंद पड़ा है…मैंने देखा उस का चार्जिंग पिन तो बीसियो साल पुराना नोकिया के फोन जैसा था…
खैर, मुझे इतना तो लगता रहा कि चलो, डा जय कुमार अपना फोन भूल गया है और मेरा ले गया है…लेकिन यह सिर्फ अपने दिल को समझाने वाली बात थी …क्योंकि ऐसा हुआ ही नहीं था…हां, यह फोन डा जय का था, लेकिन मेरा कहां चला गया था, मुझे नहीं पता था।
ये सब बातें दोस्तो सपने में ही चल रही हैं, जमा-घटा सब कुछ सोते सोते चल रहा है….
हां, अभी मैं इसी इस परेशानी से जूझते हुए डा जय के लौटने का इंतज़ार कर ही रहा था कि थोड़ी दूरी पर एक कुर्सी पर जब नज़र पड़ी तो वहां एक और मोबाईल पडा़ दिखा….और मैंने उसे भी उठा लिया….कि क्या पता किसी दूसरे के हाथ में पड़ जाए, जो इसे उठा कर नौ-दो-ग्यारह हो जाए….हां, यह दूसरा फोन तो तुरंत खुल गया ….और उस पर एक भोजपुरी स्टॉर की तस्वीर लगी हुई थी ….चलिए, यह भी मेरा फोन न था….
मैं फिर सोचने लगा कि ये दोनों फोन तो उस मेले के आर्गेनाईज़र को थमा के आ जाऊं …ताकि जिस के भी हों, उस तक पहुंच जाएं….लेकिन मेरे मन में अपने फोन के बारे में बहुत उलझन हो रही थी…और मैं सपने में ही यही सोच रहा था कि बहुत हो गया इन महंगे फोनों को खरीदने, संभालने का फितूर….बेकार में इन की टेंशन लगी रहती है, अब हो गया न मेरे साथ भी बैठे बिठाए यह कांड…..एक बात विचार आया कि अनांउसमैंट करवा दूं…….लेकिन अगले ही पल दिल से आवाज़ आई क्यों भाई तू रूई में सूईं ढूंढ़ने की कोशिश कर रहा है….खैर, अभी सोए सोए सपना देखता देखते इतना मन बनाया ही था कि अब तो एक दो हज़ार वाला बेसिक फोन ले कर काम चला लूंगा…….और मैं फोन में मेरे डैटा के बारे में बड़ा परेशान था….खैर, वह परेशानी तुरंत खुशी में बदल गई …जब अखबार वाले की घंटी से नींद खुल गई …….और यह देख कर राहत मिली की मेरा फोन तो मेरे पास ही पड़ा चुपचाप चार्ज हो रहा था …..
दोस्तो, जब नींद से उठ गया तो अचानक ध्यान आ गया कि यह क्या,अभी तक किसी फोन की पहचान नहीं …लोग देखते ही ताड़ लेते हैं कि यह आई-फोन है, यह सैमसंग गलैक्सी है …यह फलां है, यह ढिमका है …लेेकिन अपने पास ऐसा कोई हुनर नहीं …बिल्कुल इस बारे में ज्ञान शून्य है….
फिर ख्याल आया कि फोन ही क्यों, तेरा तो भाई हाल हर तरफ ही बुरा है …मोटरकारें मुझे सब एक तरह की ही लगती हैं, किसी का भी ब्रांड नहीं पता…..बस, एक तो मुझे मारूती 800 का पक्का पता है ….और एक मेरी सब से फेवरिट कार …फिएट …। दरअसल मुझे कोई रूचि भी तो नहीं, अगर इतना वक्त लगाऊं और पूरा सचेत रहूं तो यह भी पता कर ही लूं…..लेकिन फिर वही लगता है कि जिस गांव जाना ही नहीं उस का पता पूछ के क्या करना। मोटरसाईकिल का भी यही हाल है…जवानी में येज़्दी खूब चलाई….जेब में पचास रूपए होते थे पैट्रोल के अलावा लेकिन फिर भी येज़्दी खूब चलाई …कईं बार डर भी लगता था कि बंद हो गई तो क्या करूंगा…लेकिन उन दिनों काला और ब्राउन चश्मा लगा के जो सुख मिलता था येज़्दी को चला कर …वह ब्यां नहीं किया जा सकता….
बहुत सी बातों में ज्ञान शून्य है ….यह कांटीनेंटल, इटालियन, मैक्सिकन…ये अलग अलग तरह के व्यंजन क्या होते हैं, क्या नहीं, बिल्कुल भी ज्ञान नहीं मुझे ….वही बात है कि दाल रोटी खाने से फुर्सत मिले तो बंदा इन चीज़ों की तरफ़ ध्यान दे, कुछ खोजबीन करे….बात अपनी अपनी रूचि की है, अपनी पसंद-नापसंद की है…..
आज सपने में एक फोन गुम हो जाने पर इतनी बातों का अहसास हो गया…वैसे तो अहसास तो हमेशा ही से है, बस इस अहसास को कलमबद्ध करने का एक मौका मिल गया ….सपने की वजह से …
वैसे मैं तो ऐसा सोचता हूं कि सपने लिख लेने चाहिए ….और नींद से उठते ही जैसे ही सपने के बारे में पता चले, उसे दो चार पंक्तियों में लिख लेना चाहिए। वो भी बात ठीक है, उम्र के एक दौर में सपनों में लिखने लायक कुछ नहीं होता, बस उन का मधुर अहसास ही काफी होता है…लेकिन पकी उम्र के सपने भी पक्के ही होते हैं, कभी मां आ जाती है सपने में, कभी नानी-दादी, कभी पिता जी ….बस, सब कुछ सच सा लगता है ….आज तो जो सपना देखा, जब नींद टुूटने पर वह बिखर गया तो खुशी हुई क्योंकि मोबाइल वहीं पास ही पड़ा था…लेकिन मां के साथ जब सपने में बाज़ार घूम रहे होते हैं, उस की रसोई में उस के हाथ की बनी कड़क रोटियां खा रहे होते हैं और अचानक वह सपना बिखर जाता है तो बहुत अफसोस होता है कि काश, यह सब सच होता है …..
घिसे पिटे घुटने दादू के दुखते हैं, परेशान यह है ...
कल अखबार में ख़बर थी कि एक बड़े वैज्ञानिक श्रीमान विनायक कोलवंकर मुंबई के बांद्रा से 5 तारीख से लापता हैं…..पूरी जानकारी आप इस न्यूज़-क्लिप में देख सकते हैं..पढ़ भी लीजिए….
यह बीएआरसी के बहुत वरिष्ठ वैज्ञानिक रहे हैं…बहुत महान काम किए हैं इन्होंने और राष्ट्रपति महोदय से अपनी सेवाओं के लिए अवार्ड भी ले चुके हैं…इन की बहुत सी उपलब्धियां हैं विज्ञान में ..
इन्हें डिमेंशिया है …यादाश्त खो चुके हैं पिछले चार वर्षों से …
आज सुबह अखबार उठाया तो उसमें यह पर्चा नीचे गिरा जिसे आप पढ़ रहे हैं, मेरा भी आपसे अनुरोध है कि अगर ये बुज़ुर्ग आप को कहीं भी दिखे तो उस पर्चे पर दिए गए नंबरों पर संपर्क करें…
यही प्रार्थना है कि ये बुज़ुर्ग अपने परिजनों के पास सकुशल लौट आएं…
अच्छा, पढ़ लिया है ...तो फिर बाज़ार जा कर उस आई-ड्रॉप्स को खरीदने से पहले इसे भी थोड़ा देख लीजिए....
चलिए...एक पंजाबी कहावत से शुरु करते हैं....पाइए जग-भाउंदा, खाईए मन-भाउंदा ....यह कहावत हम लोग बचपन से सुनते आ रहे हैं....मतलब इस का यही है कि अपना पहरावा तो वैसा हो जो दुनिया को अच्छा लगे, और अपना खान-पान ऐसा हो जिसे खा कर मन खुश हो। मुझे हमेशा ही से इस कहावत से बड़ी चिढ़ रही है, क्यों भाई खाना अपनी पसंद का खाना है तो अपनी पसंद का पहनने में क्या दिक्कत है....इसलिए मैंने कभी इस बात को नहीं माना....हमेशा वही पहना है जिसे पहन कर मुझे खुशी होती है..दुनिया का क्या है...बस, मुझे चश्मा पहनने से दिक्कत है क्योंकि मुझे पसीना बहुत आता है तो चश्मा धुंधला हो जाता है बार बार ...खैर, इस उम्र में कंटैक्ट लेंस क्या डालें, हां, अच्छे से प्रोग्रेसिव लैंस लगवा लेता हूं...लेकिन चश्मा पहनने से बहुत खीझ जाता हूं ...
कल जैसे ही अखबार को हाथ में लिया तो पहले पन्ने पर ही खबर देख कर खुशी तो हुई एक बार कि कुछ ऐसी आई-ड्रॉप्स को सरकारी मंजूरी मिल गई है जिन्हें अगर आप अपनी आंख में डाल लेंगे तो नज़दीक के चश्मे की ज़रूरत महसूस न होगी....अच्छी भी लगी खबर, लेकिन थोडे़ समय के लिए ही ...क्योंकि इस तरह की खबरें पता नहीं क्यों आसानी से पचती नहीं ....क्योंकि वैसे भी हम एकतरफ़ा दावे ही तो सुन रहे होते हैं....
वही बात हुई ..दिन चढ़ते हमारे अस्पताल के चिकित्सकों का जो वाट्सएप ग्रुप है उसमें किसी ने इसी खबर को टैग कर के यह लिखा कि इस के बारे में नेत्र-रोग विशेषज्ञों का क्या कहना है....
ग्रुप में से ही एक सुप्रशिक्षित नेत्र रोग विशेषज्ञ ने जवाब दिया....भारत के ड्रग कंट्रोलर द्वारा पाईलोकॉरपिन नामक दवाई को मंजूरी तो दी है. लेकिन नेत्र रोग विशेषज्ञों की राय यही है कि चश्मा पहनना ही ठीक है। वैसे भी आंखों में डालने वाली दवाई नज़दीक की नज़र को ठीक करने के लिए कोई स्थायी समाधान नहीं है, इस तरह की दवाई रोज़ाना अगर आंखों में डाल रहे हैं और वह दवाई जिस के कुछ दुष्प्रभाव भी हैं, इसलिए सोच-समझ के ही कोई फैसला करने की सलाह दी। और एक बार जब ड्राप्स डाले जाते हैं तो उन का असर 4-5 घंटे तक ही रहता है, यानि दिन में तीन तीन बार आंखों में इन को डालना पड़ेगा...
समझदार को इशारा ही काफ़ी होता .... और जब कोई विशेषज्ञ इस तरह के विषय पर अपनी राय देता है तो वह अनमोल होती है....
शाम होते होते एक अन्य बहुत अनुभवी एवं सुशिक्षित नेत्र रोग विशेषज्ञ ने ग्रुप में यह जानकारी शेयर की ऑल-इ़ंडिया ऑपथोमोलॉजी सोसाइटी के प्रधान ने इस मुद्दे पर एक विशेषज्ञ एक्सपर्ट ग्रुप बनाया है जो इस विषय पर विचार-विमर्श करेगा और अपने सुझाव देगा ....और यह भी लिखा था ...
यह एक्सपर्ट ग्रुप इस बात का भी अध्ययन करेगा कि कि जिस तरह से इस की मार्केटिंग की जा रही है (या होगी) उस में मरीज़ों की सुरक्षा कैसी होगी, अगर बिना किसी नुस्खे के लोग खुद ही कैमिस्ट से खरीद कर इस का अंधाधुंध इस्तेमाल करने लगेंगे।
और भी कुछ बातें यह एक्सपर्ट ग्रुप तय करेगा जिस में एकदम वैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित कुछ दिशा निर्देश दिए जाएंगे ...इस तरह की डॉप्स (के इस तरह के इस्तेमाल) से होने वाले दुष्परिणामों के बारे में और जिन लोगों को इस तरह के ड्रॉप्स बिल्कुल ही इस्तेमाल नही ंकरने हैं, उन के बारे में भी जानकारी दी जाएगी (absolute contraindications).
और हां, यह एक्सपर्ट ग्रुप इस बात की भी सिफारिश करेगा कि नेत्र रोग विशेषज्ञों की यह सोसायटी अपने सदस्यों और जनता जनार्दन की इस मामले में जागरुकता बढ़ाने के लिए क्या कदम उठाए।
तो, कहने की बात यह है कि रात होते होते यह बात तो समझ में आ चुकी थी कि बेटा, इतना मत उछल, तुझे चश्मा पहनना ही है....यह जो तू ख्वाब देख रहा था कि रोज़ाना यह ड्राप्स डाल कर ऊपर से रे-बैन के गागल्स लगा लिया करेगा ...और वह भी दूर के नंबर के साथ, अभी अपनी इस प्लॉनिंग को ठंडे बस्ते में डाल के रख...जैसे एक्सपर्ट लोग बताएंगे, वैसे ही करना होगा ...और करना भी वही चाहिए....आंखों का मामला है, आंखें हैं तो जहां है, किसी भी तरह की छोटी से छोटी बेवकूफी सारी ज़िंदगी के लिए भारी पड़ सकती है....यह किसी सयाने की झाड़-फूंक से रोग दूर करने वाली बात नहीं है, अगर बिना किसी नेत्र रोग विशेषज्ञ की सलाह के कुछ भी आंखों में डाल दिया जाता है तो उस के ऐसे-वैसे नतीजे के लिए भी तैयार रहना होगा...
अभी भी वाट्सएप पर एक तीन पन्ने का पीडीएफ घूम रहा है जिस में ड्रग कंट्रोलर के नाम कोई चिट्ठी लिखी है .....उसमें यही लिखा है कि अगर यह दवाई लोग अपने आप खरीद कर अंधाधुंथ इस्तेमाल करने लगेंगे तो इस से आंख के परदा भी फट सकता है ...(रेटिनल डिटेचमेंट) ..उस पत्र में यह भी लिखा गया है कि किन कारणों से भारतीय लोगों में इस तरह की दवाई आंखों में अपनी मर्ज़ी से इस्तेमाल करने में क्या क्या नुकसान हो सकते हैं, इस के साथ साथ उन्होंने यह भी अनुरोध किया है कि इस दवाई पर कुछ समय तक रोक लगा दी जाए....और एम्स जैसे शीर्ष संस्थानों के विशेषज्ञों, नेत्र रोग विशेषज्ञों की प्रोफैशनल बॉडी (सोसाएटी), रेटिना (आंख के पर्दे) और काले मोतिये के विशेषज्ञों से राय मशविरा कर के ही इस के आम इस्तेमाल की मंजूरी दी जाए....
और एक बात यह भी है कि इस पत्र में कोई भी बात ऐसे ही हवा में नहीं की गई है...अच्छे से पहले तो उन्होंने सारी अखबारों की इस न्यूज़-स्टोरी के लिंक दिए हैं और फिर जो अपनी बात कही है उस के समर्थन में मेडीकल लिटरेचर के रेफरेंस भी दिए हैं.....कुछ कुछ बातें बहुत टैक्नीकल भी हैं, लेकिन उस से आप को इतना मतलब भी नहीं है, मुद्दे की बात यही है कि अभी इस तरह की ़्ड्राप्स को खुद ही खरीद कर अपने आप मत डालने न लग जाइए, जैसा मैंने भी कल सुबह एक बार तो मंसूबा बना लिया था ....बस, आप को यही करना है...बाकी, विशेषज्ञ करेंगे जो भी करना होगा, आप की आंखों की हिफ़ाज़त के लिए ....विशेषज्ञ करेंगे, सरकारी व्यवस्था सब देखेगी, पड़ताल करेगी ...ऐसी उम्मीद हम कर सकते हैं।
इस विषय पर आज ही लिखना ज़रूरी इसलिए था कि जैसे हम लोग तुरंत खाना या दूसरी चीज़ें आर्डर कर देते हैं, कईं बार दवाईयां भी ...पांच दस मिनट में हमारे द्वार पर पहुंच जाती हैं, इतनी बात करने का मकसद यही है ताकि जल्दबाजी में अपने आप आर्डर न करें, अपने नेत्र रोग विशेषज्ञ से मिलें, जैसा वह कहें, वैसा ही करें.....बड़ी मेहनत करते हैं ये विशेषज्ञ इतनी इतनी बारीक पढ़ाई करने के लिए....
अखबार में छपी हर ख़बर को थोड़े से नमक के साथ लेने की आदत डालें.....
पंजाबी की एक और मशहूर कहावत ....आंखें गईं जहान गया, दंद गए स्वाद गया...(इतनी पंजाबी तो आप समझते ही होंगे ..पंजाबी गीत समझ लेते हैं और उन की धुन पर नाच भी लेते हैं अगर ...) 😎 Stay safe, stay healthy...take care ....
पोस्ट का लिफाफा बंद करते वक्त मैंने जब आंखों पर फिल्मी नगमों के बारे में सोचा तो दर्जनों दिख गए...मैंने सोचा एक फिल्म भी तो थी..'अखियों के झरोखों से' ....उसी फिल्म का एक गीत सुनते हैं....हम भी बॉलीवुड के गोल्डन दौर के साक्षी रहे हैं....बहुत किस्मत वाला मानते हैं खुद को इस मामले में ....😎
कोप भवन....पता नहीं कितने बरसों बाद यह शब्द मुझे कल अचानक याद आ गया ….मैं इसे मां के मुंह से सुना करता था…और वह भी जब हमारे बच्चे छोटे थे तब….बच्चे बड़े हो गए …और मां भी न रहीं तो यह शब्द फिर से कहने वाला कोई था नहीं।
मां कब कहती थीं इस लफ़्ज़ को …..जब बच्चे छोटे थे, इतने भी छोटे नहीं …उन के स्कूल-कॉलेज के दिनों की बातें हैं….जब कभी आपस में भिड़ जाते, तो फिर जो उस दिन का विक्टम कार्ड जिस के पास होता, वह मां के कमरे में जा कर उस के डबल-बेड पर पड़ी एक एक्स्ट्रा रज़ाई में जा कर दुबक जाता ….और वैसे भी जब कोई किसी दूसरे कारण की वजह से भी गुस्से में होता तो भी यही रास्ता अपनाया जाता ….और मां खुल कर हंसते हंसते उन को मनाते हुए ठेठ पंजाबी में कह देतीं…वे तुसीं इस कमरे नूं कोप भवन समझया होया ए, जेहड़ा गुस्से चा हुंदै, ओही एत्थे आ के पै जांदै….(तुम लोगों ने इस कमरे को कोप भवन तो नहीं समझा हुआ, जो भी गुस्से में होता है, परेशान होता है, इस की शरण में आ जाता है ….)
मैं नहीं कहता .....किताबों में लिखा है यारो....
खैर, मां की सीख से और वक्त के मलहम से कुछ ही घंटों में वह बात आई-गई हो जाती और भूख सताने लगती तो कोप भवन से बाहर निकल कर, सुलह-सफाई हो जाती। कईं बार अगर कोप-भवन में प्रवेश रात के वक्त किया जाता तो फिर सुबह उठने पर ही वहां से बाहर आया जाता …
चूंकि मां को सभी तरह के धार्मिक पढ़ने में रूचि थी, विशेषकर रामायण में तो बहुत ज़्यादा, इसलिए वह हमें उस युग के कोप-भवन के बारे में अकसर बताया करती थीं…लेकिन मैंने तो फिर भी यह पोस्ट लिखने से पहले गूगल से पूछ ही लिया …कोप भवन सर्च कर के ….उसने भी मां की बात को तसदीक कर दिया….तो यह तो हुआ कोप भवन…..
अब इस पोस्ट के शीर्षक में जो दूसरा शब्द आया है ….रेज रूम…उस के बारे में भी बात करनी है …दरअसल मैं टाइम्स ऑफ इंडिया तो रोज़ ज़रूर देखता ही हूं …उसे पढ़ना ज़रूरी इसलिए भी है क्योंकि हम लोग टीवी देखते नहीं ….न ही कोई टाटा-स्काई वाई है …न ही चाहते हैं…एक लेड-स्क्रीन है, जिस पर कभी कभी नेटफ्लिक्स या अमेज़न का कोई शो देख लेते हैं …हां, अखबार पढ़ने का मतलब है बीस-तीस मिनट में जितनी पढ़ी जाए या सफर के दौरान जितनी देख लूं, उतनी ही ….न तो कभी ड्यूटी पर उसे खोलने की फ़ुर्सत मिली और न ही बाद में शाम में कभी ….सुबह देखते वक्त जो खबर लंबी होती है और बाद में पढ़ने लायक होती है तो उस को मार्क कर लेता हूं, लेकिन अकसर नहीं पढ़ पाता ….इसलिए कभी कभी अगले दिन उस की कतरन ले लेता हूं…अपने मन की शांति के लिए रख ज़रूर लेता हूं लेकिन पढ़ कभी नहीं पाता ….जब इस तरह की कतरनें इक्ट्ठा हो जाती हैं तो वे भी रद्दी की टोकरी में जा पहुंचती हैं…
फोटो साभार .टाइम्स ऑफ इंडिया
फोटो साभार .टाइम्स ऑफ इंडिया
खैर, पिछले हफ्ते मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया में एक खबर पढ़ी जिस में रेज-रूम के बारे में बताया गया था …मुझे बहुत ज़्यादा हैरानी हुई …उस स्टोरी को भी मार्क तो किया था, लेकिन बाद में वह अखबार ही न मिली। कल जब मिड-डे में भी रेज-रूम के बारे में कुछ पढ़ा तो फिर से वह फीचर याद आ गया….गूगल से मिल भी गया …बताते हैं उस में ऐसा क्या लिक्खा है कि मैं उसे सात-आठ दिनों के बाद भी भूल नहीं पाया…
चलिए, पहले तनाव की, गुस्से की, तनाव से जूझने की थोड़ी बात करें ….सब से पहले तो मुझे इस तरह के मामले में सभी तरह के उपदेश न तो किसी को देने और न ही लेने पसंद हैं…नापसंद तो एक बात हो गई, मुझे नफ़रत है….इसी चक्कर में मैंने सत्संग में जाना बंद कर दिया था ….मुझे उन दिनों भी यही लगता था कि यह जो बंदा या बंदी ऊपर सिंहासन पर बैठ कर इतना भारी भरकम ज्ञान पेल रहा है, यह तो सब हमारे ग्रंथों में लिखा ही है…और यह बंदा तो हमारे जैसा ही है, हमारी जैसी ही इस की कमज़ोरियां हैं, यह सिंहासन इस को इस के वंशजों से मिला, आगे यह अगली पीढ़ी को थमा देगा, फाईव-स्टार ज़िंदगी जी रहा है …बस, ऐसे करते करते इन सत्संगों-वंगों से मन उचाट सा हो गया….यार, सारा ज्ञान हम सब जानते हैं, लेकिन उस पर चलते नहीं …..
और हां, ये जो अखबारों में या सोशल मीडिया पर आए दिन लेख दिखते हैं न ..बहुत से तो डाक्टरों के लिखे हुए भी …..कि तनाव को, गुस्से को कैसे कंट्रोल करें…..ये सब भी मुझे इतने उपयोगी लगते नहीं क्योंकि मैं देखता हूं कि इन को लिखने वाले खुद तो इन सब से उभर नहीं पाए…इसीलिए वही बात लगती है ..पर उपदेश कुशल बहुतेरे ….। और वैसे भी जिस तन लागे, वो तन जाने ….किसी के लिेेेए नसीहत की घुट्टियां देना हम बहुत अच्छे से जानते हैं लेकिन खुद हम अपने आप को इन सब से ऊपर समझते हैं…..ऐसा कुछ है नहीं…
मैं ऐसा मानता हूं कि नसीहत-वसीहत से कुछ होता नहीं …गुस्सा आना, तनाव में रहना …ये सब जीवनशैली, किसी व्यक्ति की मनोवृत्ति, उस के खानपान, उस के दोस्तों की टोली…..इन सब से जुड़ी है, कितना भी ज्ञान ठेल देंगे, कुछ होने वाला नहीं ….हम लोग भी तो बीसियों साल से यह सब पढ़ते आए हैं, हम ने कौन सा तीर मार लिए….
हां, तीर तो नहीं मार लिए, लेकिन गुस्सा से भिड़ने का अपना एक ढंग सीख लिया है ….पहले मुझे यही लग रहा था कि इस पोस्ट का शीर्षक ही यही लिखूं ..गुस्सा आए तो क्या करें…पी जाएं, निकाल लें या कोई पागलपंथी कर जाएं…..लेकिन फिर कोप-भवन का ख्याल आया तो वही लिख दिया….
गुस्से आने पर हर किसी का अपना अपना कोपिंग-मेकेनिज़्म है, कोई नुस्खा हो नहीं सकता, ….अच्छी बात है जब तक किसी दूसरे को या खुद को कोई नुकसान नहीं पहुंचता, सब ठीक है….और हां, जब गुस्सा आता है तो हम बडे़ बड़े ज्ञानियों-ध्यानियों की बोझिल बातों को क्या करें जब हम इतना तो कर नहीं सकते कि तुरंत गहरा सांस लेना ही शुरू कर दें ….कहते हैं कि यह बहुत अच्छा तरीका है, उस गुस्से वाली घड़ी को टालने का ……लेकिन इतना भी कब किसी को याद रहता है, उस वक्त तो भूत सवार हुआ होता है ….कि तुमने मुझे ऐसा कहा तो कहा कैसे, तेरी यह मज़ाल, देखता हूं………बिल्कुल पागलपन जैसी अवस्था …वैसे भी कहते हैं कि गुस्से में आवेश में बंदा पागल जैसा हो ही जाता है ……..और ज्ञानी लोग तो यह भी लिख कर जा चुके हैं कि गुस्से में तो किसी चिट्ठी का जवाब भी मत लिखो…..तो फिर किसी दूसरे के साथ उलझने का तो सवाल ही कहां पैदा होता है ….
हर बंदे ने इस गुस्से रूपी इस सिरफिरेपन से बाहर निकलने का अपना कोई तरीका रखा होता है….मेरा क्या है? तो सुनिए….जो भी इंसान मेरा दिल दुखाता है मैं उसे मन ही मन इतनी इतनी भयंकर गालियां दे देता हूं कि सच में थोड़ी बहुत राहत तो मिल ही जाती है….लेकिन अगर फिर भी लगे कि अभी भी कुछ रह गया है तो अपने दो पहिया वाहन में अकेले कहीं आते जाते वक्त वही गालियां रिपीट कर देता हूं ….लेकिन अब दिल में नहीं, हेल्मेट लगाया होता है तो आसानी से उनका उच्चारण कर लेता हूं …अच्छी राहत मिल जाती है ….लेकिन कईं बार ऐसा भी होता है कि कोई इंसान आप से इतनी ज़्यादा बदतमीज़ी से पेश आता है कि आप वहां तो कुछ कर नहीं पाते ….(करना भी नहीं चाहिए, युवा लोग मेरी यह सीख ज़रूर गांठ बांध लें..) लेकिन फिर मैं पहली फुर्सत में कागज़ और पैन लेकर बैठ जाता हूं …उस घटना के बारे में लिखता हूं ….और जितना भी गालियों का भंडार मेरे पास है और वह भी ठेठ पंजाबी गालियों का (आप ने भी देखा होगा गालियों की भी भाषा होती है, सभी का अनूठा ज़ायका होता है …अवधी में अलग, मैथिली में अलग, पंजाबी मे अलग…..) और भावावेश में अगर मैं दो चार और भी नईं इजाद कर लेता हूं तो उसे भी लिख देता हूं ….देखते ही देखते दो तीन पन्ने भर जाते हैं …बस उस वक्त मेरे पास अच्छा काग़ज़ और बाल-प्वाईंट पैन या जैल पैन होना चाहिए …..(फाउंटेन पेन से लिखता हूं वैस तो हमेशा, लेकिन वह शांति से, इत्मीनान से लिखने के साधन हैं, गुस्से में काम नहीं करते) …क्योंकि दिलो-दिमाग से जो निकल रहा है, उसे तुरंत काग़ज़ पर छापना ज़रूरी होता है….वरना अगले ही पल वह गुम हो जाता है ….
चलिए, दो चार पन्ने लिख लिया, गुब्बार निकल गया….फिर उन पन्नों को दो तीन बार पढ़ता हूं, मज़ा आता है, हंसी भी आती है ….मन एक दम हल्का महसूस होने लगता है ….अब उन पन्नों का क्या करें, मैं अपने बेटों की तरह इतना निडर भी नहीं कि उन पन्नों को ऐसे ही कहीं रख दूं….अब उन पन्नों के सुरक्षित डिस्पोज़ल का मुद्दा मेरे सामने होता है….तो वह कोई मुश्किल काम नहीं होता, उन पन्नों के छोटे छोटे चीथड़े कर के फल्श में बहा देता हूं और कईं बार तो कंटैंट ऐसा होता है कि उन पन्नों को आग लगा देता दूं ……..क्योंकि इन पन्नों पर ऐसा कुछ लिखा होता है कि अगर जिस बंदे के लिए मैंने वह लिखा होता है, अगर उस तक पहुंच जाएं वह काग़ज़ तो वह या तो मेरे नाम की सुपारी ही ले ले या खुद को ही कोई नुकसान पहुंच ले ……मैं इन दोनों में से कुछ नहीं चाहता, क्योंकि वह मेरा मक़सद नहीं होता, मेरा मक़सद तो मन की शांति वापिस लाना होता है, उथल-पुथल शांत करना होता है और शांति का क्या है, वह इतना करने पर अमूमन वापिस लौट ही जाती है …
एक बात और भी तो है, हमारे पूर्व-संस्कार होते हैं, पूर्वाग्रह भी होते ही हैं, कईं बार वे इस तरह से लिख कर गुस्सा निकालने के आड़े आते हैं तो हम अपना सब से अचूक हथियार इस्तेमाल कर लेते हैं…..गुस्सा पीने की, निकालने की, कोई दूसरी पागलपंथी की ज़रूरत नहीं पड़ती, मैं 15-20 मिनट के लिए शांति से बैठ जाता हूं ….मेडीटेशन हो जाती है ….सब से अचूक, सब से कारगर, सब से बढ़िया, सब से प्यारा, सब से खूबसूरत तरीका तो गुस्से से, तनाव से निकलने का यही है …और यही मेरा अनुभव है, ज़िंदगी में यही सीखा है………लेकिन यह किसी के लिए न सीख है, न ही उपदेश है, क्योंकि जैसे मुझे नसीहत से चिढ़ है, ऐसे बहुत से लोगों को होती है, हर किसी को अपने कोपिंग-मेकेनिज़्म का खुद अविष्कार करने का हक है…..और यह ज़रूरी भी है ….
ठीक है, हक है ….लेकिन फिर भी मुझे यह जो टाइ्म्स ऑफ इंडिया में जो न्यूज़-स्टोरी दिखी कि लोग आज कल अपना गुस्सा निकालने के लिए रेज-रूम में चले जाते हैं ….जहां वे आधा घंटा रहते हैं…वहां चीज़े तोड़ते-फोड़ते हैं, कांच का सामान, टीवी आदि हथोड़े से तोड़ते हैं ….500 रूपए से 2500 रुपए तक का खर्च एक सैशन के लिए करना पड़ता है ….हल्के हो कर घर लौट जाते हैं…लेकिन खबर में भी लिखा था कि मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह एक टेम्परेरी सा तरीका है गुस्सा निकालने का …ज़ाहिर सी बात है …वैसे इस तरह के जो बिजनेस चलाते हैं, वह लिखते हैं कि महीने में दो तीन बार से ज़्यादा लोग जो उन के पास इस तरह की तोड़-फोड़ से राहत ढूंढने आते हैं, तो उन के लिए वे किसी मनोवैज्ञानिक से परामर्श भी मुहैया करवा देते हैं…चलिए, अच्छा करते हैं अगर वे सच में यह सब कर के इन परेशान लोगों की मदद करते हैं….अच्छी बात है….
तोड़-फोड़ से बात याद आई ….जब बच्चे छोटे होते हैं, उन में एनर्जी ज़्यादा होती है और वे इसे ऐसे ही खुराफात करने में लगाए रहते हैं तो कुछ बीस साल पहले हमें भी कहीं से यह ज्ञान मिला की घर में एक पंचिंग बैग टांग दिया जाए…..और बच्चों को उस के साथ मुक्केबाजी करने को कहना चाहिए…हम भी फिरोजपुर छावनी के किसी बाज़ार से ले आए एक फौजी झोला टाइप …जो लंबा सा रहता है मिलेट्री कलर में …अब उसमें भरें क्या, हमने अपनी बुद्धि के मुताबिक उसमें रेत भर के टांग दिया उसे सूली पर …..और बच्चे लगे उसे मुक्के मारने, लेकिन यह क्या, पता नही यार क्या था, रेत ज्यादा भर दी, या बच्चों के हाथ नाजुक थे, उन के हाथ तो चोटिल होने लगे ….फिर वे हाथों में बॉक्सिंग ग्लव्स पहन कर यह करतब करने लगे ….लेकिन ज़्यादा दिन यह सिलसिला चला नहीं, हम ने उसे उतार कर उस मुसीबत से छुटकारा पा लिया ….. आगे की बात तो मैं पहले ही बता चुका हूं …मां के कमरे को इन लोगों ने कोप-भवन बना कर रख दिया…
हां, तो यह जो आज कल रेज-रूम की बात चल रही है, कोई बड़ी बात नहीं, यह आने वाले दिनों में आम बात हो जाएगी….आज से 20-25 साल पहले जब मैंने लिखना शुरु किया तो बड़े शहरों में कुछ जगहों पर हु्क्का-पार्लर खुलने की बात बहुत अजीब लगती थी …लेकिन देखते ही हुक्का-पार्लर छोटे बड़े शहरों में आम से हो गए …एक फैशन ही बन गया।फिर भी मुझे लगता है कि हम लोगों की संस्कृति इतनी समृद्ध है, पीढ़ी-दर-पीढीं हमारे संस्कार इतने बढ़िया हैं, कि हमें इस तरह के रेज-रूम्स की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिए….वहां तक बात पहुंचनी ही नहीं चाहिए….मेरे विचार उस न्यूज़ स्टोरी से बहुत उद्वेलित हुए….
और हां, एक बात तो मैं कहनी भूल ही गया ….वह मैं पूरे विश्वास के साथ एक नसीहत के तौर पर भी लिख सकता हूं कि गुस्से पर काबू पाने के लिए एक ब्लॉग ही लिखना शुरु कर दीजिए…..बहुत कारगर है यह भी ….अब आप ही देखिए, जितना भड़ास मैंने खुद 2000 से ज़्यादा अल्फ़ाज़ का खामखां का एक किस्सा लिख कर निकाल ली, वह मौका मुझे और कौन सा प्लेटफार्म देता ……वैसे,जब मैंने 2007 में ब्लॉग लिखना शुरु किया था तो उस वक्त किसी का एक ब्लाग ही होता था …भड़ास…….और वह बहुत पापुलर ब्लॉग होता था….
बस, पोस्ट बंद करते करते यही इत्लिजा है कि खुश रहिए, स्वस्थ रहिए, मस्त रहिए, ठीक है, गु्स्से का भी बंदोबस्त करते रहिए अपने हिसाब से, अपने विवेक के अनुसार…लेकिन कुछ भी हो, खुद को किसी भी तरह से नुकसान पहुंचा कर, सी-लिंंक से या अटल सेतू से छलांग लगा कर अपनी ज़िंदगी की खूबसूरत सी कहानी को ही खत्म कर देना, यह तो कोई बात न हुई….दुनिया तो शुरु से ऐसी ही है और ऐसी ही रहेगी…..सारी धरा से कांटे बिनने की की बजाए पुख्ता, मजबूत तलवों वाले जूते पहनें जाएं तो क्या बढ़िया नहीं है ….
वैसे अगर आप उस रेज-रूम वाली न्यूज-स्टोरी देखना चाहिए तो खुशी से देखिए, यह रहा उस का लिंक(ऊपर जो फोटो लगी हैं, उसी स्टोरी में से ही ली गई हैं) ..Rage Rooms Find Takers Among Urban Indians …. और नीचे मैं कल के मिड-डे में प्रकाशित हुई स्टोरी की भी दो फोटो लगा रहा हूं….
स्त्रियों को अपनी शेल्फ-डिफेंस के लिए तो जो भी ज़रूरी हो करना ही चाहिए
मिड-डे , मुंबई 01.9.2024
अब वक्त है मूड को ठीक करने का ….तो सुनिए, यह सुंदर गीत …एक गुड़िया गुस्से में है, और उस की मां उसे कितने प्यार से मना रही है …बेहद सुंदर गीत, मजरूर सुल्तानपुरी के बोल, लता जी की मधुर, लाजवाब, कोयल जैसी आवाज़, 1964 की फिल्म, मेरे प्रकट होने से भी दो साल पहले …अकसर रेडियो पर बजा करता था ….दिल को छू लेने वाला मेरा पसंदीदा गीत ....
और एक बात ....सब से हाथ जोड़ कर एक विनती है कि मेरे से वैसे ही पेश आइए जैसे मैं आप से शालीनता से पेश आता हूं ....मैं किसी से उलझता नहीं हूं, पीछे हट जाता हूं....लेकिन जब कभी तकलीफ ज़्यादा होती है तो फिर मेरा काम भी बढ़ जाता है....अलग बैठ कर, लिख कर अपनी भड़ास निकालने का ...(जैसा मैंने ऊपर लिखा है)....अब यह कोई राज़ नहीं रहा, आप जान चुके हैं....😎😂