शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

पैकेजिंग, मार्केटिंग पर ही हम फ़िदा हुए पड़े हैं..

कल रात आलू के परांठे खाने की इच्छा हुई तो दो बहुत ही मशहूर दुकानों से ये मंगवाए गए ..क्योंकि एक दुकानदार दही के साथ देता है और दूसरा चने के साथ ...लेकिन इतने बेकार, कच्चे-पक्के परांठे मैंने ज़िंदगी में कभी नहीं खाए...( कल रात इन्हें जैसे तैसे खा लिया क्योंकि मुझे पता है ये बहुत महंगी जगह से मंगवाए गये थे 😂-) दो तीन बार जब मैंने बाहर खाने की कोशिश की तो काट छांट के ही खाए होंगे ..लेकिन वह भी परेशान हो हो कर ..क्योंकि पता नहीं हमें हमारी मां (सब की मां खाने-पिलाने में एक जैसी होती हैं) ने बचपन से इतना बढ़िया खिलाया सब कुछ ...अंगीठी और स्टोव वाले दौर में भी ...पसीने से तरबतर होते हुए भी ....और बीच बीच में कभी कभी बड़ी बहन ने भी ऐसा खाना खिला दिया है कि उस स्तर तक हमारी श्रीमति जी ही पहुंच पाती हैं अकसर ....मां तो एक एक परांठे को पूरा वक्त लगा कर ..दबा दबा कर ऐसा अच्छे से सेंक कर देती कि रूह खुश हो जाती ...पता नहीं इतना सब्र कहां से ले आती थी ...मां कहीं भी जाती दो दिन से ज़्यादा न टिकती ...कल ही मेरी बहन फोन पर याद कर रही थी कि बिल्ले, बीजी मेरे पास यहां अगर आ भी जाते तो दो दिन ही सही से टिकते, फिर वही रट लगाने लगते कि विनोद, मेरी वापिसी की सीट करवा दे ..मेरा मन उदास हो रहा है ...😎😂 साथ में हंस भी रही थी यह बात सुनाते सुनाते ....

चलिए, मांएं तो ऐसी ही होती हैं...कुलदीप मानक का यह गीत पंजाब का सुपर-डुपर गीत है भाईयो....इसे सुनने से मन हल्का हो जाता है ..आंखे भी भीग जाएं तो भीग जाने दो....कभी कभी आंखों की इस तरह की सफ़ाई भी ठीक होती है ...इसे सुनने समझने के लिए आप को पंजाबी भाषा का ज्ञान होना कतई ज़रूरी नहीं है, वह इतने दिल से गा रहे हैं कि आप सब कुछ समझ जाएंगे...

हां, तो आलू के जिन परांठों का मैंने ज़िक्र किया जिन को मैंने खाया ...उन को खाने के बाद मुझे डर ही लगा रहा कि कहीं गैस की वजह से मेरा सिर ही न दुखने लग जाए ...मैं इस बीमारी से बड़ा डरता हूं ...लेकिन, नहीं, भगवान की कृपा रही ...रात में दो-तीन बार उठना पड़ा लेकिन वह तो मच्छरों की वजह से ...लेकिन जिस तरह से उन परांठों की, दही और चने की पैकिंग थी ...उस के क्या कहने...पैकिंग देखते ही किसी बंदे के पेट में चूहे जॉगिंग करने लगें ....खैर, मैंने तो बता दिया कि मैं तो कईं बार किसी हाटेल में आलू के परांठे आने पर उस का एक निवाला चखने पर भी उसे छोड़ देता हूं ..नहीं खाया जाता, क्योंकि मां ऩे और अमृतसर ने इतना बढि़या खिला दिया है कि अब श्रीमति जी और कभी कभी मिलने पर बड़ी बहन के परांठे ही मन भाते हैं...ईश्वर इन्हें सलामत रखे ...इतनी मेहनत करती हैं खाना बनाने में कि खाने वाले को शर्म आने लगे ...सच में 😂....जब कुछ समय के लिए मैं अमृतसर होस्टल में रहा तो भी हमारा एक पहाड़ी मेस मैनेजर बहुत बढ़िया आलू के परांठे बनवाता था ...कोई सिरदर्दी नहीं कि यह यहां से कच्चा है, यह वहां से अधपका है ...चलिए, परांठों को यहां छोड़े ....आगे चलते हैं...बस, ऐसे ही आज कल तो ऊंची दुकान, फीका पकवान वाली बात मालूम पड़ती है ...

सुबह सुबह चाय के साथ ही इसे खा-फुट लिया है, बाद में डिप्रेशन होने लगती है ...

आज लेट उठा ..चाय पीते वक्त पास ही एक अमूल का कोकोनट कुकीज़ का पैकेट दिख गया ... सुबह चाय के साथ दो बिस्कुट ही लेता हूं ... इस से ज़्यादा कहां इच्छा ही होती है ...लेकिन यह कैसी पैकिंग थी इस बिस्कुट के पैकेट की ...खोलते ही इस का तो पूरा ही लंगार ही खुल गया ...अब क्या करे कोई ....कितनी बार क्या, अनगिनत बार होता है खास कर जब कभी टैव्लिंग कर रहे होते हैं कि कुछ खाने-पीने की चीज़ खरीद लेते हैं , और उसे खोलते ही वह ऐसे खुलती है कि फिर लगता है कि इस को खत्म कर के ही सांस लें....कहां इसे संभालते फिरेंगे ...आज जो कोकोनुट कुकीज़ का पैकेट खोला तो न चाहते हुए भी वे 6-7 बिस्कुट जबरदस्ती चाय में डुबो डुबो कर हड़प लिए ....लेकिन बाद में मन खराब तो होता ही है कि मैं अपनी सेहत के साथ क्यों यह सब खिलवाड़ कर रहा हूं ...इस चक्कर में कि बिस्कुट का पैकेट खुल गया है, इसे संभालना मुश्किल है, कहीं भी रखो, नमी पकड़ लेते हैं ...चलो, पेट में ही डाल कर इस नमी वाली टेंशन से तो फारिग हो लें....

कंपनी सफल रही, अपनी पैकेजिंग की वजह से ...यह तो एक अदद उदाहरण थी ...दिन भर में अनेकों मिसालें दिख जाएंगी हम को ...मैं कईं बार हंसता यह याद कर के कि बचपन में कालगेट कैसे एक लोहे की ट्यूब में आती थी और उस के साथ एक लोहे की चाबी सी भी आती थी ..जो उस के एक तरफ़ लगा कर सलीके से ट्यूब निकालते थे ...वह चाबी कभी इस्तेमाल की तो नहीं..लेकिन हां, जब ट्यूब खत्म होने की कगार पर होती तो उस के एक सिरे को उस चाबी की मदद से मरोड़ना पड़ता था, और कईं बार तो उस पर पत्थर मार पर भी टूयब निकालना याद है ..क्योंकि तब आज जैसा व्यवस्था और सुविधा नहीं थी कि राशन चाहे रोज़ मंगवाओ, चाहे दिन में चार बार मंगवाओ...अभी कही ंसे सर्फ आ रहा है, कहीं से चाय पत्ती ....पहले तो महीने की शुरुआत में घर में जो राशन आता था ...उस का मतलब सारा महीना उसी से काम चलाना होता था ...क्योंकि उस के अलावा राशन का कुछ अलग से बजट न होता था ..ऐसे में 29 या तीस तारीख को कालगेट खत्म होने पर या तो नमक-तेल इस्तेमाल करो....या फिर वही पत्थर उठा कर, पेस्ट को ईंट पर रख कर ...निकाल तो अगर थोड़ी बहुत निकलती है तो ..और बाद में शायद घर के सामने से जो पतीसे वाला निकलता था वह उस टूटी-मुड़ी हुई टूयब को लेकर कुछ पतीसा भी दे देता था ...मैंने यह सब आपबीती - आपबीती भी नहीं, लगभग सब लोगों का हाल तो यही था, लेकिन कुछ लोग मुंह नहीं खोलते, चलिए, नहीं खोलते तो न खोलें, उन की चुप्पी उन्हें मुबारक.....लेकिन आज की टुथपेस्टों की पैकेजिंग देखिए....बस उन से ब्लू-टुथ से ही पेस्ट निकलने की कमी है...वरना उन को हाथ लगाते ही पेस्ट जैसे अपने आप बाहर निकलने लगती है और ऊपर से इन पेस्टों का नोज़ल इतना बड़ा करते जा रहे हैं कि कंपनी चाहती है कि कमबख्तो, छोड़ो अब इस की जान निकालोगे ...जल्दी जल्दी टूयब भी नईं ले लिया करो...तुम लोगों ने कौन सा अब बाज़ार जा कर किराने की दुकान पर इंतज़ार करना है, मैसेज करना है और सामान हाजिर हो जाएगा...

पेस्ट ही क्यों, बॉथरूम में पडी 15-20 शीशीयों की तरफ़ नज़र दौडाता हूं तो हर तरफ़ मार्केटिंग के जलवे दिखाई देते हैं, हमारे वक्त में गुसलखानों में एक देसी, एक अंग्रज़ी और सरसों के तेल की एक कुप्पी और झांवा होता था, पैर रगड़ने के लिए...लेकिन अब तो समझ में ही नहीं आता...हर तरफ तरह के वॉश, कंडीशनर, शैंपू...कईं बार लगता है कि हम भी वक्त से पहले ही इस संसार में आ गए...आज के दौर में आते तो बात ही कुछ और होती ..हम लोगों ने तो लाइफब्वाउ और रेक्सोना के आगे कभी कुछ सोचा ही न था...सीकरी की वजह से कभी घर में टाटा का शैंपू आ भी जाता तो पड़ोसियों तक को खबर होती कि इन के यहां तो शैंपू इस्तेमाल होता है ...हां, तो बात लंबी खिंच गई ....बात यही है कि ये गुसलखाने में अनेकों चीज़े धरी पड़ी होती हैं इन की पैकेजिंग भी ऐसी होती हैं कि इन्हें जल्द से जल्द खत्म करो ...और आगे बढ़ो और हर रोज़ कुछ नया ले कर आओ ...और इन गुसलखानों की शोभा बढाओ....वैसलीन तक जो कि हमें उंगली टेढ़ी कर के निकालनी पड़ती थी, वह भी लोशन की शक्ल में आने लगी है ...दो बूंद चाहिए होती है और लेकिन बोतल को दबाते ही चम्मच भर बाहर आ जाती है ....उस वक्त माथा पीटने की इच्छा होती है कि अब इस का करें तो क्या करें, टोस्ट पर लगा लें क्या ....😎

हर तरफ मार्केटिंग का बोलबाला है ...पैकेजिंग पर जो़र है ...इतना ज़्यादा कि खामखां की शोशेबाजी में सब रमे हुए हैं ...लेकिन कोई फायदा नहीं इन चोंचलों का ....Keep it short and sweet, stupid ...वाली बात अकसर याद आ जाती है .... दवाईयों के मामले में भी इतनी गंदगी है और मैं पिछले 20 साल से .(.जब से यह जैनरिक और ब्रांडे़ड की नौटंकी शुरू हुुई है) ..मैंने इन विषयों पर खूब लिखा ..लेकिन मुझे आज तक यह समझ नहीं आई कि कैमिस्ट की दुकान पर जो हमें दवाई बिक रही है ..वह ब्रेंडेड है या जैनरिक ..क्योंकि इन दोनों में ज़मीन आसमान का फर्क है ...कुछ दवाईयों पर दाम अगर लिखा है 100 रूपये है तो वह अपने किसी खास को 17 रूपये की दे देगा ...और गरीब मज़दूर उसी दवाई को पूरे 100 रुपये में लेकर जाएगा....इन दवाईयों में भी बहुत गोरखधंधा है ...इतना बडा धंधा है कि लिखते हुए भी डर लगता है क्योंकि यह इतना बड़ा माफिया है कि इन के लिए किसी भी ज़्यादा बोलने वाले का मुंह हमेशा के लिए बंद करना कोई बड़ी बात नहीं है ....ठीक है, सरकार ने जन औषधि केन्द्र खोल रखे हैं...लेकिन वहां तक अकसर ज़रूरतमंद पहुंच ही नहीं पाते ...एक तो अनपढ़ता इतनी है, ऊपर से दूसरे तरह के दबाव.....जिन के बारे में आप मुझ से बेहतर जानते हैं....ऐसे ही अनजान बनने का नाटक मत करिए....मैं काफ़ी कुछ चेहरों से भांप लेता हूं .. 😎... बंद चिट्ठी में लिखी बात पढ़ लेता हूं ...ओह, मैं भी सुबह सुबह कैसी कैसी ढींग मारने लग गया ...इसलिए अभी इसी वक्त यह पोस्ट बंद करने का वक्त है ... 

दुनिया से जाने वाले ...जाने चले जाते हैं कहां ...स्मिता पाटिल एक बेहतरीन अदाकारा, नेक इंसान...इन के चले जाने का हमें बहुत दुःख हुआ था ...इन की स्मृति को सादर नमन ....कुछ लोग हर तरफ़ से तारीफ़ें ही बटोरते हैं, स्मिता पाटिल भी ऐसी ही थीं...

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