बुधवार, 30 मार्च 2022

लड़का हुआ कि लडकी ?

हमारे अस्पताल में कार्यरत स्त्री रोग विशेषज्ञा ने आज एक बहुत प्यारे से गोबले-गोबले बच्चे की फोटो डाली जिस के बारे में उन्होंने बताया कि इस 4 किलो 600 ग्राम वज़न वाले नवजात शिशु का शुभागमन हुआ है ... और यह सिज़ेरियन से पैदा हुआ है ...

गोबले-गोबले से आप तो भई चक्करों में पड़ गए होंगे...पहले उस चक्कर का निपटारा कर लूं...दरअसल यह एक पंजाबी का ऐसे ही एक ऊट-पटांग लफ़्ज़ है ..खामखां किस्म का ...बस जैसे कईं लफ़्ज़ लोगों की ज़ुबान पर चढ़ जाते है ....हम लोगों ने बचपन से यही देखा, सुना कि जो शिशु मोटा-ताज़ा दिखता है, जिस के गाल मोटे मोटे पिलपिले से होते हैं उसे ऐसे ही कहते हैं कि यह बच्चा तो बड़ा गोबला-गोबला है .. और एक बात ज़ेहन में आ रही है कि ये जो गोबले गोबले बच्चे होते हैं, बिना किसी कसूर के भी इन के गालों की खिंचाई होती रहती है...क्यों? ...क्यों-व्यों का तो मुझे भी पता नहीं लेकिन यकीनन मैं भी इस तरह के गोबले शिशुओं के गाल अकसर खींचता रहा हूं ..जब दादी, नानी, मौसी, मामा, पड़ोसी ऐसे बच्चों के गाल खींचते हैं तो मैं कैसे इस काम से दूर रह सकता था....सच में इस तरह के गालों को छूते ही, गोली मारिए खींचने को...छूते ही मखमली रूई का अहसास होता था...यह जो मैं था लिख रहा हूं वह इसलिए कि यह काम हमारे ज़माने में तो हो जाता था ..फिर धीरे धीरे लोग कानून की धाराओं को जानने लगे ...छोटे शिशु के गालों को छूने से भी डर लगने लगा....

वैसे एक बात तो है कि यह जो पुराने ज़माने में एक रिवाज़ था कि जच्चा-बच्चा को सवा महीने तक दुनिया की नज़रों से दूर ही रखते थे ..देखा जाए तो यह भी ठीक ही था..क्योंकि उस दौरान बच्चे को इस तरह के छूने-चूमने से उसे कईं तरह के संक्रमण होने का डर तो रहता ही है ...इसलिए अभी भी शिशु रोग विशेषज्ञ इस बात की खास ताकीद करते हैं कि नवजात शिशु को ज़्यादा छूने, चूमने-चाटने से परहेज़ करें ...और यह बात है भी बहुत ज़रूरी। 

खैर, हम तो बात कर रहे थे उस साढ़े चार किलो के उस्ताद की जिसने आज हमारे अस्पताल में पहली बार आंखें खोलीं...सच बताऊं हमें भी फोटो देख कर मज़ा आ गया...हां, वही गोबला-गोबला बच्चा, प्यारा-प्यारा...जैसे बाज़ार में बिकने वाले पोस्टरों पर दिखते हैं। खैर, फोटो देख कर हमारी एक अन्य साथी महिला चिकित्सक ने पूछा कि क्या इस की मॉम मधुमेह से ग्रस्त हैं...एक शिशु रोग विशेषज्ञ ने एक मज़ेदार टिप्पणी की कि यह तो छोटा भीम ही दिखाई दे रहा है ..

खैर, तभी उस महिला रोग विशेषज्ञ की अगली टिप्पणी आई कि यह संतानहीन मां-बाप की यह शिशु पहली औलाद है जो उन्हें बारह बरस के बाद नसीब हुआ है ...हमें बहुत अच्छा लगा..चलिए किसी के आंगन में किलकारीयां गूंजी....आगे लिखा था उस डाक्टर ने अभी बड़े आप्रेशन से अभी उसने उस बच्चे की डिलीवरी की ही थी कि प्रसूता कि तरफ़ से उसे सवाल सुनाई दिया ..लडका है या लड़की...और फिर अगला सवाल उन पर दागा गया कि काला है या गोरा! डाक्टर ने आगे लिखा था कि ...दिल मांगे मोर..

हमने भी टिप्पणी में लिखा कि इस बात पर तो पोस्ट बनती है ...आप लिखिए, वरना हम लिखेंगे....जैसा कि अकसर मेरे साथ होता है, मेरी बात को कोई रिस्पांस नहीं मिला...इसलिए मुझे तो अपना काम करना ही था, मैं यह पोस्ट लिखने बैठ गया...

कुछ पोस्टें, कुछ बातें किस तरह से हमारे दिलोदिमाग को झंकृत कर जाती हैं ...यह भी एक ऐसी ही पोस्ट थी ....और एक महिला डाक्टर ने उस बात को लिखा था तो उस का महत्व और भी बढ़ जाता है ...दरअसल हम जो बातें लिख कर सहेज रहे होते हैं, वही आने वाले वक्त का साहित्य है ....चूंकि साहित्य किसी भी समाज का आइना होता है ..तो आज से पचास सौ बरस बाद अगर आज का लिखा हुआ किसी के साथ लगेगा तो उसे आज के दौर के इंसान के मनोविज्ञान, उस की आंकांक्षांओं, सामाजिक परिवेश इत्यादि बहुत कुछ पता चलेगा....विश्लेषकों को तो ईशारा ही काफ़ी होता है ..

सच में जब मैंने पढ़ा दिल मांगे मोर ...तो मुझे भी बड़ी हंसी आई ...देखिए, पहले तो बच्चे के लिए लोग तरसते हैं....फिर अगर आधुनिक चिकित्सा पद्धति की वजह से, ईश्वरीय अनुकंपा की बदौलत आंगन में किलकारीयां गूंजती हैं पहली बात तो उन्हें उस के काले-गोरे होने की भी फ़िक्र है ...क्या काला, क्या गोरा..

बच्चे के जन्म के वक्त सब से पहले तो उस की पहली किलकारी होती है ...जिस को सुनने के लिए स्त्रीरोग विशेषज्ञ और कईं बार साथ खड़े शिशु रोग विशेषज्ञ के कान तरसते रहते हैं ...सच में हम लोगों की हसरतें लगातार बढ़ती रहती हैं....जिन के शिशु नहीं है, उन्हें शिशु की चाहत होती है ...फिर बेटे की चाहत, फिर कम से कम बेटों की एक जोड़ी हो जाने की हसरत ....बस, बात वही कि हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी..

चलिए, दुनिया जहां की बातें करते करते अपने घर की भी बातें कर लेनी चाहिए...हमारी श्रीमती की पहली डिलीवरी का वक्त था, 15 दिन पहले कोई अल्ट्रासाउंड हुआ ...कहने लगे कि हाइड्रोकैफलस है ...(शिशु में बड़े सिर का होना एक गंभीर समस्या होती है) ...दो तीन बार उन्होंने किया ...लेकिन अंदेशा यही था। हमारे भी पैरों तले से ज़मीन खिसक गई....लेकिन किसी के कहने पर किसी दूसरी जगह से अल्ट्रासाउंड करवाया गया...उसे लगा कि ऐसी कोई बात तो नहीं लग रही ...लेकिन इलेक्टिव सिज़ेरियन करवा ही लीजिए...अभी चाहे 10-12 दिन रहते हैं ...फिर भी करवा लीजिए..। एक दो दिन में सि़ज़ेरियन कर दिया गया...सब कुछ ठीक था, इतना ही पता चला तो जैसे सब की जान में जान आई....काला, गोरा, नयन-नक्श की किसी को नहीं पड़ी थी..

दूसरी डिलीवरी होने में अभी दो चार दिन थे कि अल्ट्रासाउंड में पता चला कि ब्रीच डिलीवरी है ...और शिशु के गले में गर्भ-नाल (एम्बिलिकल कॉड) - कॉड अराऊंड दा नैक ...है ...दूसरी जगह से भी अल्ट्रासाउंड करवाया तो उन्हें भी ऐसा ही लगा ...और वहां उस के क्लीनिक के बाहर एक पोस्टर टंगा हुआ था..Seek the will of God, Nothing More, Nothing Less, Nothing Else! इत्ता सा पढ़ लेने ही से मन को संबल मिला ....केवल इसी अंदेशा के चलते नार्मल डिलीवरी की जगह सिज़ेरियन तुरंत प्लॉन किया गया....ईश्वर की कृपा रही ..सामान्य प्रिज़ेंटेशन थी ....सब कुछ सामान्य था...कह रहे थे कि कईं बार कॉ़ड-अराउंड दा नेक अपने आप खुल भी जाती है ...खैर, वही बात है ..जाको राखे साईंयां..

अरे हां, मैं अपनी बात बतानी तो भूल ही गया जिसे मैंने कईं बार मां को अपनी सहेलीयों को सुनाते सुना....मां नहीं चाहती थी कि मैं पैदा ही होऊं...इसलिए मां दो-तीन महीने तक कुछ दवाईयां खाती रहीं ...लेकिन फिर भी मैं भी ठहरा ढीठ बंदा 😎...मुझे तो दुनिया में आना ही था...हार कर दो तीन महीने के बाद पड़ोस में रहने वाली मां की सहेली मिसिज़ कौल ने मां को समझाया कि अब, बस भी करो...छोड़ तो दवाईयां खाना, आने दो आने वाले जी को ...अपनी किस्मत लेकर आएगा.... (थैंक यू, कौल आंटी, मां को नेक सलाह देने के लिए...मुझे वह बड़ा प्यार करती थीं...अभी मैं बहुत छोटा था कि उस नेक औरत के दिल में छेद का डायग्नोसिस हुआ...तब कोई इतना इलाज नहीं था, कुछ ही वक्त के बाद चल बसी ...🙏) ....मां अकसर यह बात अपनी सहेलीयों के साथ हंस हंस कर किया करती थी....मां बहुत हंसमुख थी ...हंसती-खिलखिलाती ही दिखती थी ...। हां, एक बात यह भी कि मां अकसर यह बात मेरे जन्म से पहले इतनी दवाईयां खाने की बात तब किया करती थी जब यह बात कहीं चला करती थी कि आज तो गर्भवती महिलाओं की प्रसव से पहले इतनी नियमित जांच होती है ...इतने टॉनिक-विटामिन, कैल्शीयम दिए जाते हैं....लेकिन पहले वक्त में तो रब ही राखा था....यह मैंने क्या लिख दिया ..रब ही राखा था.......नहीं, रब ही हम सब का राखा है, था, और जब तक यह कायनात कायम-दायम है, वही हमारी राखा है, हमारे अंग-संग है ....मैडीकल उन्नति अपनी जगह है ...अच्छी बात है ...वैज्ञानिक नज़रिए से सब कुछ हो रहा है .....लेकिन बात जो बाणी मे दर्ज है वह यही है कि एक पत्ता भी इस परमपिता परमात्मा के हुक्म के बिना हिल नहीं सकता ....यह बात हम जितनी जल्दी समझ लें उतना ही अच्छा है ...ज़िंदगी आसान लगने लगती है ...😂 - मज़ाक अपनी जगह, आप को कहीं यह पढ़ कर ऐसा तो नहीं लग रहा कि काश! तुम्हारी मां जो दवाईयां ले रही थीं वह काम कर जातीं....हम तुम्हारी रोज़ की ब्लॉगिंग की टैं-टैं से तो बचे रहते ...ना होता बांस, न बजती बांसुरी ...


जाते जाते एक बात और लिख दूं कि काला हो, गोरा हो या हो भूरा...हर मां के लिए उस का बच्चा राजकुमार होता है ...और यही सब के खूबसूरत बात है ...बाकी सब बेकार की बातें हैं... भगवान कृष्ण भी तो सांवले ही थे ...और एक गाना भी तो है ...दिल को देखो चेहरा न देखो....चेहरों ने लाखों को लूटा...दिल सच्चा और चेहरा झूठा... हा हा हा हा ...एक बात और यह भी कि आज मैंने आप को एक पंजाबी के लफ्ज़ से वाकिफ़ करवा दिया....गोबला..गोबला....और एक दूसरा लफ्ज़ यह है पंजाबी का भब्बड़गल्ला.....यह उन छोटे शिशुओंं के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो मोटे ताज़े होते हैं ..और वही उन के गाल फूले हुए, एक दम मस्त ...जिन्हें आज के दौर में बंदा खींचे चाहे न खींचे, चाहे छुए भी न, लेकिन एक बार प्यार से उन्हें खींचने की तमन्ना तो ज़रूर होती है......पहले तो यह भब्बड़गल्ले कहीं कहीं कभी कभी दिखते थे ..क्योंकि दाल रोटी ही वास्ता रखते थे ...लेकिन जंक-फूड की भरमार से अब तो भब्बड़गल्ले जगह जगह दिखाई देने लगे हैं ....

2 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है. पढ़ते हुए सचमुच पुराने वर्षों की याद आ गयी. साहित्य समाज का आईना है, यह सही कहा. और गोबला गोबला एवं भब्बड़गल्ला, क्या तड़का लगाया है. एकदम जबरदस्त.😀

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  2. बहुत ही खूबसूरत वर्णन किया है नवजात शिशु के बारे मे पड़कर बहुत अच्छा लगा।
    धन्यवाद डॉक्टर साहब।

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