शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2022

सादगी ही कामयाबी की कुंजी है ...

मुझे दो तीन पहले अचानक ख्याल आया कि नवीं-दसवीं कक्षा की बात है ...नौमाही इम्तिहान (थर्ड-क्वॉरटली) चल रहे  थे...1977-78 की बात है..नवीं-दसवीं जमात के दिन ...दिसंबर का ही महीना होगा शायद..हम लोगों का हिंदी का पर्चा था...हम पेपर शुरु होने से पहले ऐसे ही स्कूल की ग्राउंड में हंसी-ठठ्ठा कर रहे थे कि हो न हो निबंध तो मोरार जी देसाई के ऊपर ही लिखना होगा...क्योंकि मोरार जी भाई कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री बने थे .. लो जी, अंदर जा कर बैठे, पर्चा मिला ..मिलते ही हम सब के हाथों के तोते उड़ से गये...क्योंकि वर्तमान प्रधानमंत्री देसाई पर ही निबंध लिखना था...

लिखने की कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन लिखने के कुछ तो मसाला चाहिए...कुछ पता भी नहीं था उन के बारे में ...शायद जो एक दो दिन से हिंदी की अखबारों में आ रहा था, उसमें ही कुछ कुछ याद रह गया...एक तो उन की उम्र बार बार रेडियो पर बता रहे थे कि वे 82 साल की उम्र में प्रधानमंत्री बने हैं...हमें भी इस बात को उस बालावस्था में बहुत कौतूहल था कि यार, इतनी उम्र में प्रधानमंत्री ..लेकिन फिर उन की सेहत का राज़ भी एक दो दिन पहले अखबार में पढ़ लिया था कि वे गौमूत्र का नियमित इस्तेमाल करते हैं...यही कुछ पता था, ज़्यादा कुछ पता था ही नहीं उन के बारे में....कोई इंटरनेट नहीं था, कोई खबरिया चैनल भी तो न था जो रातों रात उन के गांव में जा कर उन के पुरखों की चौपडियां भी खंगाल लेता ... खैर, बहुत मुश्किल हुई उस दिन ...रोज़ अखबार पढ़ने या देख भऱ लेने का सबक उस दिन भी मिल गया...मेरे जैसा बंदे को भी जो लिखने में गप्पबाजी अच्छी कर लेता था...बस, एक पैराग्राफ से कैसे एक पन्ना बड़ी सफाई से भर देना है, यह हुनर थोड़ा बहुत मुझे आता था...लेकिन उस दिन मुझे भी मसाले की कमी नहीं, बहुत कमी लगी थी ..

मोरारजी भाई की याद कैसे आ गई मुझे इतने बरसों बाद ..उन के गुज़रने के बाद.....उस का कारण यह है कि मैं आजकल वह किताब पढ़ रहा हूं जो उन्होंने 76 साल की उम्र में लिखी थी ...स्टोरी ऑफ मॉय लाइफ... क्या गजब किताब है ..अच्छा, उस दौर में यह अपनी कहानी कहने का बड़ा शौक और ज़ौक हुआ करता था बडे लोगों को ...इतनी सादगी से लिखी गई है ..कि मेरे पास अल्फ़ाज़ नहीं है, उस की तारीफ करने के लिए...मैं उस के चेप्टर बीच बीच में पढ़ रहा हूं लेकिन एक बार जब कोई चेप्टर शुरू करता हूं तो फिर जितनी भी नींद सिरहाने पर खड़ी हुई हो, उसे पढ़ कर ही बत्ती बुझाता हूं...उन्हें पढ़ते हुए ऐसे लगता है कि जैसे किसी से कोई किस्सा सुन रहा हूं..चलिए आप को किताब के दर्शन तो करवा दें...मैं अकसर किताब को पढ़ते पढ़ते यही सोच रहा था कि लिख तो उन्होंने इसे तब दिया था जब मैं श्रेणी चार में था, लेकिन मेरे तक या हमारी लाइब्रेरी तक पहुंचती तब तो न बात बनती ....

मोरार जी भाई यहीं अपने यहां थाणे के डी सी भी रह चुके थे प्रधानमंत्री बनने से 55-60 साल पहले 




सच में जो कहते हैं कि गुज़रे दौर के लेखकों को पढ़ना उन से मुलाकात करने के बराबर ही है ...लेकिन हां, मैं तो इन के लिखने की सादगी का कायल हो गया हूं...यह भी किसी उस दौर का ब्लॉग जैसा ही लगा ...इतनी सादगी, इतनी ईमानदारी से लिखी गई किताब। 

एक और किताब याद आ रही है डा राजेन्द्र प्रसाद की जो हमारे राष्ट्रपति रह चुके हैं ...जब मैं उर्दू पढ़ना सीख रहा था तो कहीं से मुझे उन की लिखी जीवनी मिल गई - खुद उन की ही लिखी हुई ...लेकिन उर्दू में ...एक तरफ़ तो मैं उर्दू में फिल्मी गीतों की किताबें पढ़ रहा था ...दूसरी तरफ़ मैंने इस महान शख्स की उर्दू में लिखी स्वै-जीवनी पढ़नी शुरू कर दी ...भाषा की इतनी सादगी देखी कि आराम से मैं उन की लिखी सभी बातें पढ़ कर समझ पा रहा था...

कभी भी नज़र दौडाइए लेखकों पर ..वही लेखक कामयाब हुए अपने जीवनकाल में, नहीं तो बीसियों बरसों बाद जिन की भाषा में सादगी थी, कोई लाग-लपटे न था, जैसा सोचा वैसा लिख दिया...जैसा अहसास हुआ, कागज़ पर टिका दिया...रूह से निकली इबारत देखी प्रेमचंद के लेखन में ...और भी बीसियों लेखकों के लेखन में...बीस साल में बहुत से हिंदी-इंगलिश के लेखकों को पढ़ चुका हूं ...किस किस का नाम गिनाऊं ...लेकिन कामयाब वही हुए जिन्होंने सादगी का दामन न छोड़ा ...मिर्जा गालिब साहब पहले बड़ी मुश्किल ज़ुबान मे ंलिखते थे, लोग समझ ही. न पाते थे ..फिर किसी ने उन पर तंज कसा किसी मुशायरे में कि अपनी कही बात को अगर खुद ही समझे तो क्या समझे...ऐसी ही कोई बात हुई...उस के बाद उन्होंने आम ज़ुबान में लिखना शुरु किया और आज भी देखिए उन के चर्चे दुनिया भर में हैं ...

फिल्में देखिए...फिल्मों के नगमे देखिए, डॉयलाग देखिए...जो बरसों से हमारी ज़ुबान पर चढ़े हैं ..वे सब के सब आम बोल चाल की भाषा में ही रचे गए...चूंकि सब कुछ अपने ही परिवेश से लिया हुआ था, वे कब हमारे दिलोदिमाग पर छा से गए पता ही नहीं चला, यही इन लेखकों का जादू रहा है...

कहीं भी नज़र दौडाएं ...लिखने की सादगी, बोलने की सादगी, पहनने की सादगी ही कामयाबी की सीढ़ी है... दफ्तरों में देखते हैं तो दुख यह होता है कि इंगलिश का ज्ञान उतना है नहीं जितना होना चाहिए..लेकिन लिखनी इंगलिश ही है, हिंदी मे लिखते नहीं ...ऐसे बात कैसे बनेगी....अच्छा, हिंदी की बात से याद आया कि सरकारी संस्थाओं में लोग हिंदी क्यों उतनी अच्छी से अपना नहीं पाए जितना पैसा इस काम के लिए खर्च हो रहा है क्योंकि वहां भी भारी-भरकम शब्दों को ही तरजीह दी जाती है ...बीच बीच में कुछ नौकरशाह आए जिन्होंने लिखने में भी बोलचाल की भाषा को ही इस्तेमाल करने की नेक सलाह दी ..लेकिन नहीं...हम कहां मानते हैं किसी अच्छी बात को ...हमें तो चीज़ें जटिल करना ही भाता है ......एक बात पर और गौर करिएगा...यह जो अनुवाद है वह भी इतनी सादगी से होना चाहिए कि पढ़ने वाले को इस का पता ही नहीं लगना चाहिए...आप किसी भी दस्तावेज़ का हुबहू अनुवाद शब्द-दर-शब्द कर ही नहीं सकते ...ऐसे अनुवाद से क्या फायदा जिस से कि कहने को तो अनुवाद हो जाए ...लेकिन उस की रूह ही दब कर मर जाए कहीं ...दो दिन पहले मुझे अंंग्रेज़ी में लिखे तीन पन्नों का अनुवाद करना था....उन तीन पन्नों को हिंदी में अनुवाद करने के लिए मुझे तीन दिन लग गए ...मुझे अकसर ऐसे मौकों पर अहसास होता है कि यह अनुवाद करना भी खासा मुश्किल काम है ...लेकिन वही बात है ..कुछ भी हो, हर काम में सादगी बरकरार रहनी चाहिए...लिखते वक्त यह ध्यान में ऱखना ज़रूरी होता है कि पढ़ने वाले को किसी किस्म की दिकक्त न होने पाए...वह बस एक फ्लो में पढ़ पाए, और समझ ले हमारे लिखे को ..जैसे हम किसी से खतोकिताबत कर रहे हैं...

लिखने के दो ही मकसद हो सकते हैं ...एक तो यह कि अपनी बात को दूसरों तक अच्छे से पहुंचा देना और दूसरा यह कि अपनी ज़ुबान का, अपने भाषा-विज्ञान का सिक्का मनवाने लग जाना ...लेकिन यह दूसरी बात मेरे पल्ले नहीं पड़ती ...इसी चक्कर में टाइम्स आफ इंडिया में इंगलिश के बड़े बड़े लेखकों के मज़मून मेरे पल्ले अच्छे से पड़ते नहीं ...इतना मुश्किल लिखते हैं ये सब कि मैं दो चार शब्दों का तो अंदाज़ा लगा लेता हूं ..लेकिन फिर एक दो पैराग्राफ पढ़ते पढ़ते मुझे लगता है कि ये हाई-फाई बात तो भई अपने पल्ले पड़ नही रही, मैं उसे बीच मे ही छोड़ देता हूं ...लेकिन बहुत से पुराने ..पुराने ही क्यों, ऩए लेखकों की सादी लेखन-शैली भी काबिले-तारीफ़ तो है ही ...ऐसा लगता है कि सार लेख को एक ढीक लगा कर पी जाएं .😎..(लस्सी का गिलास जैसे मुंह में लगा कर उसे तभी हम होठों से अलग करते थे जब एक ही सांस में पी लेते थे सारी लस्सी..बिना सांस लिए...इसे कहते हैं एक ही ढीक लगा कर पीना....हां, वह मलाई वलाई तो होठों से बाद में साफ होती रहेगी...), उसी तरह कोई एक दो अल्फ़ाज़ जो मु्श्किल जान पड़े हों उन्हें डिक्शनरी में देख लेते हैं...

अच्छा तो अब बोलचाल की जुबान को देखिए... जितनी हम उसे सादी रखते हैं उतनी ही दूसरे तक वह बिना लाग-लपेट के पहुंच जाती है ...बोलचाल को कामयाब बनाने का एक ही तरीका है कि जिस बंदे से बात कर रहे हैं उस के स्तर तक उतर कर अपनी बात को उस तक पहुंचाना और यह सुनिश्चित भी करना कि वह हमारी कुछ बात समझ पाया भी कि नहीं ...यह जो लोग नाटक करते हैं ना कि उसे तो केवल मराठी आती है, गुजराती आती है, पंजाबी आती है ...मुझे ऐसे लोगों से भी शिकायत है ..एक 60 साल की औरत गांव से आप के पास आ गई दवाई लेने ..अब अगर उसे अपनी भी भाषा आती है तो उस में उस का क्या दोष, क्यों हम उसे यह पूछ कर अपराध बोध करवाते हैं कि हिंदी नहीं आती, ज़रा भी नहीं आती क्या....ये सब फिज़ूल की बातें है ं...ये पूछने की बजाए वह भाषा ही सीख लेनी चाहिए ..नहीं, तो थोड़ी उस के मुंह से निकली बात समझिए ..आ जाती है सब समझ अगर समझने की कोशिश करते हैं तो ...जो नहीं आती, वह उस की आंखें ब्यां कर देती है ं....लेकिन कभी देखिए ऐसे लोगों की बातों में एक बहुत ही खुशनुमा सादगी होती है ..आप को नहीं लगता कि वे बस बोलते ही रहें.......मुझे तो लगता है ज़रूर, इसीलिए मैं उन की बात कभी भी बीच में नहीं काटता, क्योंकि उन्हें सुनना कानों को अच्छा लगता है ....

मैं अकसर अपने जूनियर डाक्टरों से यह शेयर करता हूं कि हमारे पास आने वाले लोगों को इस बात से कुछ फ़र्क नहीं पड़ता कि हम कितनी बड़ी तोपे हैं, हमने कितनी किताबें पढ़ लीं..मोरारजी भाई को पढ़ा या कुलदीय नैयर को या नहीं पढ़ा ..उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ा हमारी विद्वता से ...बस हमारी कही बात उन के पल्ले पड़नी चाहिए...अच्छे से, सादगी से ... इत्मीनान से ..वैसे सोचा जाए तो हमारे पास आने की यह छोटी सी मासूम मांग कोई इतनी बड़ी भी नही है कि हम उसे पूरा ही न कर पाएं....वह किसी बात को मानेगा तभी न जब वह उस को समझ पाएगा...वरना, जैसे काले अक्षर भैंस बराबर होते है, मुंह से निकले बोल जिन्हें कोई समझ ही न पाए...वे भी बेकार में की गई मेहनत ही है ...

मेरे ख्याल में आज के लिए इतना ही काफी है ...काफी फिलासफी झाड़ दी है ... बात यहीं खत्म करते हैं ..टीना मुनीम की बात सुनते हुए ..

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर सर। पर टीना मुनीम तो बोली ही नहीं। बोल तो रफी साहब रहे हैं। बडा प्यारा लिखा है आपने। इसे मैं उनके पास फारवर्ड कर रहा हूँ जो अनुवाद के ठेकेदार हैं।

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  2. भाषा,अनुवाद और सादगी इन मुद्दों पर अच्छा विवेचन। यह बात युवाओं तक जानी चाहिए।बधाई!💐

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  3. लेख अत्यन्त महत्वपूर्ण और संवेदनशील है अनेक शुभकामनाएं

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