यह जो खूबसूरत गीत है न यह "मेरे अपने" फिल्म का है ...बहुत अच्छी फिल्म थी...1973-74 के आसपास अमृतसर में नया नया टीवी आया था- हमारे पड़ोसी कपूर साहब ने भी उन्हीं दिनों खरीद लिया था...उन्हें मुबारक देने गए तो वहां यह फिल्म चल रही थी .. उन्होंने उठने नहीं दिया और फिर यह फिल्म वहीं बैठे बैठे देखी...यह गाना दिल में समा गया हो जैसे ...उस के बाद तो अकसर रेडियो पर बजता यह गीत सुनाई दे ही जाता था...
लेकिन यह सुबह सुबह ...बी ए किया है, एम ए किया...लगता है सब कुछ ऐवें किया...यह गीत का ख्याल कैसे आ गया। कोई भी चीज़ बिना वजह नहीं होती ...बस, इस की भी है। उस दिन मैंने एक एंटीक शॉप पर जब सुंदर फ्रेमों में आज से 55-60 साल पुरानी एक डाक्टर (नाम जान कर आप क्या करेंगे, बस इतना जानना आप के लिए काफ़ी है कि मैं सच कह रहा हूं) की कुछ डिग्रीयां दुकान में दिख गईं...
डिग्रीयां कौन सी? - इन चार फ्रेमों में बंबई यूनिवर्सिटी की एमबीबीएस, एम डी (आब्सटेट्रिक्स etc branch) -ऐसा ही एट्सेट्रा भी लिखा हुआ था ..और कॉलेज ऑफ फिज़िशियन से फैमली प्लानिंग का डिप्लोमा और गाईनी-ओब्स का डिप्लोमा....मुझे बेटे कहते हैं कि मैं एक क्यूरेटर हूं ...मुझे भी अब यही लगने लग गया है ....क्योंकि मैं पुरानी यादों को ही नहीं सहेजता, मुझे सभी एंटीक चीज़ें बहुत ज़्यादा रोमांचित करती हैं...और मैं इन को हर कीमत पर खरीद ही लेता हूं...आज से 60 साल पुराना कोई मैगज़ीन जिस के ऊपर उस की कीमत 75 पैसे लिखी हुई है ...उसे एक हज़ार में भी खरीद लेता हूं ...वह कहते हैं न कि शौक का कोई मोल नहीं होता ...यही हाल फाउंटेन पेन, एंटीक कलमदानों, इंक-पॉस्ट्स का, किताबें है...जब मैं इस तरह की एंटीक की दुकानों पर जाता हूं तो मुझे यह देख कर बड़ी राहत महसूस होती है कि इस तरह का नमूना मैं ही नहीं, और भी बहुतेरे हैं...लखनऊ की एक एंटीक शॉप पर मैंने देखा एक महिला को ...ड्राईवर के साथ अपनी बीएमडब्ल्यू में आई थी और बाबा आदम के ज़माने की कपड़े इस्त्री करने वाली प्रेस ले कर चली गई ...वह प्रेस जिसे हम लोग घर में कोयले डाल कर पहले गर्म करते थे। अपने इस शौक के चलते मुझे अपने जैसे बहुत से नमूनों को देखने का, उन से गुफ़्तगू करने का सबब हासिल होता ही है ...
खरीदते समय लगता भी है कि यार इस चीज़ की इतनी कीमत क्यों दे रहे हैं..लेकिन वह ख़्याल दो मिनट के लिए ही आता है ...
हां, तो बात रही थी उन बेहद खूबसूरत लकड़ी के पुराने फ्रेमों की ...मैंने वह नहीं खरीदे क्योंकि उन में रखी डिग्रीयां देख कर मेरा मूड खराब हुआ...पैसे वह 2 हज़ार मांग रहा था ..लेकिन दो चार सौ कम भी कर लेता, कह रहा था...लेकिन मेरी इच्छा ही नहीं हुई उन फ्रेमों को वहां से उठाने की ...
दो तीन साल पहले की बात है मैंने जब यहीं बंबई में एंटीक फ्रेम देखे तो उन में बुज़ुर्ग लोगों की तस्वीरें भी पड़ी दिखीं...मुझे तब भी बहुत ज़्यादा अजीब लगा था ..मैं कईं दिन यही सोचता रहा कि जिसने भी इन्हें इस दुकान तक पहुंचाने का काम किया ...वह बुज़ुर्ग औरत उस की भी कुछ तो लगती ही होगी....और यहां एंटीक शॉपस में चीज़ें स्क्रैप-डीलर ही पहुंचाते हैं....ये दुकानदार कोई क्यूरेटर नहीं है जो इन सब चीज़ों के लिए जगह जगह हंटिंग करते हों...लेकिन कुछ लोग करते हैं...लखनऊ में मैंने जब एक बुज़ुर्ग बंदे से एक बहुत ही खूबसूरत क़लमदान खरीदा तो मैंने उसे पूछ ही लिया कि ये सब आप को मिलते कहां हैं...उसने बताया कि इन चीज़ों को हासिल करने के लिए हमें गांव गांव की ख़ाक छाननी पड़ती है...और मुझे विश्वास है कि वह सच ही कह रहा था।
डाक्टर साहब की डिग्रीयां देख कर मन में कईं तरह के विचार आते रहे ....किस ने उन्हें यूं ही फिंकवा दिया होगा ...क्या डाक्टर साहब ज़िंदा होंगे ..कहीं कोरोना तो नहीं खा गया उन को ..डिग्री पर लिखी तारीख से मैंने यह हिसाब भी लगाया कि अगर वे अभी होते तो आज कुछ ज़्यादा नहीं, यही 80 साल के करीब होते....आज के हालात में यह कोई इतनी बड़ी उम्र भी नहीं है ..कल ही पता चला कि लगभग इसी उम्र का एक कैंसर विशेषज्ञ रोज़ाना दस लाख रूपये कमा लेता है...जब यह पता चला तो मैंने उस के शतायु होने की दुआ की ...ताकि अच्छे से कमाई करने की उस की हसरत भी पूरी हो जाए...
ज़िंदगी में कुछ वाक्यात ऐसे होते हैं जो अमिट छाप छोड़ जाते हैं...हम अपनी डिग्रीयों को कितना संभाल संभाल कर रखते हैं...पहले तो हम लेमीनेट भी करवा लेते थे ..फिर उन्हें यहां वहां फ्लांट भी करते थे ...फ्रेम में लगा कर टांग भी देते थे ... और मैंने देखा है, अनुभव किया है कि जब ये डिग्रीयां नईं नईं हासिल होती हैं तो चंद महीनों-बरसों के लिए हम आसमां पर जैसे उड़ते रहते हैं, नीचे उतरते ही नहीं....फिर आहिस्ता आहिस्ता जैसे जैसे ज़िंदगी के थपेड़े पड़ते हैं, आटे दाल का सही भाव मालूम होने लगता है...ज़िंदगी की असलियत समझ में आने लगती है ...इन डिग्रीयों से परे भी ज़िंदगी है, यह जान जाते हैं ...इन डिग्रीयों से कहीं ज़्यादा तो जब हमें हमारे मरीज़ ही सिखा जाते हैं...बहुत कुछ तो दुनिया ही सिखा देती है ...हम जब अच्छे से घिस जाते हैं तो एक फलदार पेड़ की तरह पूरी तरह से झुक जाते हैं ......और मैंने अनुभव किया है कि जितना कोई घिस चुका है ...वह उतना ही नरम और विनम्र होता चला जाता है....यह स्टेटमेंट मैं बड़ा सोच समझ कर दे रहा हूं....वैसे भी 60 साल की उम्र में जो कुछ भी कहा जाता है, वह बड़ा सोच विचार कर ही कहा जाता है...😄और वैसे भी हम सब देखते ही हैं कि जो शाखाएं एकदम तनी रहती हैं, झुकना जो सीख नहीं पातीं, वे अकसर आंधीयों में टूट जाती हैं..😔
चलिए, इन यादों को यहीं समेटते हैं...उस डाक्टर की याद को सलाम- क्या, आप उस का नाम जानना चाहते हैं? - नहीं, यार, यह काम नहीं होगा...वह अपने मरीज़ों के राज़ लंबी उम्र तक राज़ ही रखता रहा, और मैं उस का नाम लिख कर यह जगजाहिर कर दूं कि उस की डिग्रीयां यूं बीच बाज़ार यूं फ्रेम समेत नीलाम हो रही थीं...नहीं, नहीं, यह काम मैं नहीं कर सकता। क्योंकि सोचने वाली बात यह है कि हम लोगों का भी देर-सवेर हश्र तो यही होने वाला है ...
इसलिए नाम-वाम के चक्कर में मत पड़िए., आराम से सुबह सुबह मेरे साथ सुंदर सा फिल्मी गीत सुनिए....और जो बात इस में कही जा रही है, उसे भी याद रखिए ...आने वाला पल जाने वाला है ...😄😄कालेज के दिनों में कड़की होते हुए भी कोई भी फिल्म देखने से महरूम न रहे...और कालेज की पढ़ाई से कहीं ज़्यादा इन की सपनीली दुनिया के सुनहरों ख़्वाबों में ही खोेए रहे....क्या करें, यह तो भई सारा कसूर उस बाली उम्र का था!!!😉
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