शनिवार, 13 मई 2017

पानी- गर्म, ठंडा या गुनगुना?

पानी भी ऐसी चीज़ है जिस के ऊपर किसी न किसी का उपदेश आए दिन कानों में पड़ ही जाता है ...कभी कभी बुज़ुर्ग मरीज़ भी नसीहत की घुट्टी पिला जाते हैं कि सुबह इतने गिलास पानी पिएं ...फिर देखिए कमाल ..खाने के इतने समय बाद पानी पिया करें...पानी हमेशा गुनगुना कर के पीजिए..पानी तांबे के गिलास में रात में रख दीजिए, सुबह सब से पहले इसे पीजिए....यह लिस्ट बहुत लंबी हो सकती है ...ये सब अच्छी बातें है निःसंदेह ..लेकिन मेरी चिंता यही है कि हम लोग किसी की बात सुनते ही कहां हैं...कभी कोई बात किसी की जो दिल में उतर जाती है वह मान लेते हैं...बाकी एक कान से अंदर जाती हैं, दूसरे से बाहर! ऐसी ही होता है ना?

आज सुबह ईमेल खोली तो एक योगगुरू की मेल आई हुई थी...(पर्सनल नहीं, मेलिंग लिस्ट वाली) ..उसमें यही लिखा था कि किस तरह से हम लोग बर्फ़ वाला या वैसे फ्रिज में रखा हुआ ठंडा पानी पी पीकर अपनी सेहत को बेकार में खराब कर रहे हैं...जितनी भी बातें लिखी थीं, मेरा मन उन को मान रहा था... लेकिन फिर मैं यही सोच रहा था कि इस के फ़ायदा क्या, क्या मैं इस पर अमल करूंगा? बस, पढ़ लिया और छुट्टी! 

पिछले दिनों वाट्सएप पर भी शायद किसी आयुर्वेदिक विशेषज्ञ की भी एक पोस्ट खूब चल रही थी कि किस तरह से भोजन के साथ पिया पानी हमारे पाचन प्रक्रिया को किस कद्र बिगाड़ देता है ...

हम लोग कितनी ही जगहों से और कितने ही एक्सपर्ट्स से ये सुन चुके हैं कि पानी का तापमान बेहद महत्वपूर्ण है ..हम अमेरिका को ही ताकते हैं ना हर अच्छी सलाह के लिए...उन का यह हाल है, गुरू ने लिखा था कि वे लोग एक गिलास का तीन चौथाई हिस्सा बर्फ से भर कर ही पानी पीते हैं.. 

कुछ बातें मानने में हमें हीला-हवाली नहीं करनी चाहिए.....जैसे आज कल बच्चन किसी भी विज्ञापन में कितनी बेपरवाही से कहता दिखता है ..बस, ऐसा करिए...फटाक... इधर उधर जाने की क्या ज़रूरत ......हमें भी अपना दिमाग न लगाते हुए जो अच्छी बातें सुनने को मिलें, उसे जीवन में अपना लेने से क्या हो जाएगा...

आज तो पता नहीं मेरे जैसे चिकने घड़े पर भी क्या असर हो गया कि मैंने भी शायद महीनों बाद मटके का पानी पिया ...अच्छा लगा .. सीखने की और किसी की बात मानने का कोई भी समय बुरा नहीं होता ...जब हम जाग जाते हैं तभी सवेरा हुआ समझ लीजिए, क्या फ़र्क पड़ता है .. कोशिश करूंगा कि आज से फ्रिज में रखा हुआ या बर्फ़ वाला पानी नहीं पिऊंगा ....देखता हूं इस पर कितना चल पाता हूं!

वैसे भी मुझे लगता है ...पता नहीं क्यों, कि ये जो पानी को गर्म करने का फिर पीने का ...ये सब चोंचले ज़्यादा चल नहीं पाते ..कितने दिन कोई इन सब को चला पाएगा... (अगर कोई कर पाता है, तो अच्छी बात है ...please keep it up!) ..जो मुझे ठीक लगता है कि ज़्यादा सोच विचार के बिना बस मटके के पानी पर ही वापिस लौट आया जाए....बड़ी उड़ाने भर लीं हम लोगों ने भी ...इस से पहले की सेहत की टांय-टांय फिस ही हो जाए बिल्कुल, आज ही से मटका ज़िंदाबाद ...हम लोग आईसबॉक्स के दिनों के और शिकंजवी, सत्तू, रूहअफज़ा, या बंटे वाली बोतल को पीने के लिए बाज़ार  से पच्चीस पैसे की बर्फ़ खरीद कर हाथ में (साईकिल में कैरियर नहीं था, और हम लोग थैला लेकर जाने में अपनी बेइज्जती समझते थे..) लेकर आने वाले दौर के गवाह हैं!! (पालीथीन थी नहीं, और दुकानदार जिस छोटे से अखबार मे टुकडे़ में बर्फ लपेट देता था, वह दो मिनट में गल जाता है ...बस फिर घर आने तक जैसे तपस्या ही होती थी!) ..

बहुत से काम पहले तो बंदिश में ही करने पड़ते हैं...फिर धीरे धीरे आदत ही बन जाती है...यही होता है ना हम सब के साथ! आज सुबह मैं साईकिल चलाते हुए यही सोच रहा था कि जिन लोगों को साईकिल चलाने की सब से ज़्यादा ज़रूरत है वे इसे एक बोझ के समान समझते हैं...शायद मेरा भी यही हाल है ...कईं बार काफ़ी दूर निकल जाता हूं ...वापिस लौटने में भी तो उतना ही समय लगेगा, आज इसी चक्कर में लगभग डेढ़ घंटा साईकिल ही चलाता रहा.. 

बंदिश मैंने इसलिए कहा कि मेरे जैसे लोगों को साईकिल चलाते हुए ऐसे लगता है जैसे कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं...ऐसा नहीं होना चाहिए...विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बात पर विशेष बल दिया है कि दैनिक परिश्रम कुछ ऐसा करते जो आप की सामान्य दिनचर्या का ही एक हिस्सा सा बनता दिखे...आप दूध, सब्जी लेने जा रहे हैं, पैदल जाइए, अपने कार्यस्थल पर पैदल या साईकिल पर जाइए (जैसा भी संभव हो...हरेक की अलग परिस्थिति है)...बात पते की है बिल्कुल, अगर यह परिश्रम या वैसे भी हिलना-ढुलना जीवनशैली का एक सहज हिस्सा ही बनता दिखेगा तो स्वतः ही होता रहेगा यह सब कुछ ...इन अच्छी आदतों का बोझ नहीं ढोना पड़ेगा..खामखां.

चीन के बारे में दो चार दिन पहले किसी अखबार में पढ़ रहा था कि वहां पर ३८ करोड़ के करीब साईकिल हैं...(आंकड़े याद रखने के बारे में मैं बड़ा कमज़ोर हूं) .. और वहां पर लोग साईकिलों पर ही निकलने लगे हैं.. हां, वे किसी भी साईकिल को कहीं पर भी छोड़ सकते है ंऔर किसी भी जगह से पड़ी हुई साईकिल को अपने इस्तेमाल के लिए उठा सकते हैं...मुझे बड़ी हैरानी हुई यह पढ़ कर ... साईकिल का लॉक भी QR code स्कैन करने से खुल जाता है ...और भी बहुत सी बातें लिखी हुई थीं उस लेख में .. कतरन भी रखी है, लेकिन हर बार की तरह वह गुम है! 

बहुत से विकसित देशों के बारे में भी पढ़ता रहता हूं ..आंकड़े भी दिख जाते हैं कि वहां पर कितने ज़्यादा लोग साईकिल चलाने लगे हैं.. और मैं जब किसी मरीज़ से पूछता हूं कि साईकिल चलाते हैं आप?.."कहां डाक्टर साहब, बच्चे नहीं चलाने देते, उन्हें नहीं अच्छा लगता"- अकसर यही जवाब मिलता है। 

आओ स्कूल चलें हम...
पढ़ेगा इंडिया, तभी तो बढ़ेगा इंडिया 
वैसे कुछ साईकिल चलाने वालों के लिए यहां पर दिक्कते भी हैं...जैसे हर पैदल के लिए फुटपाथ होना चाहिए, साईकिल पर चलने वालों के लिए भी  साईकिल ट्रैक होंगे तो ही लोग बच्चों को साईकिलों पर स्कूल जाने देंगे या खुद भी तभी निकलेंगे ..वरना जिस तरह का बेतरतीब यातायात है यहां ....पैदल, साईकिल और दो पहिया वाहन चालकों का तो रब ही राखा है ..सब का ही रब राखा, लेकिन इन का कुछ ज़्यादा ही है, तभी ये शाम को सकुशल अपने आशियानों पर लौट आते हैं...

साईकिल ट्रैक बन जाते हैं तो उन को क्लियर रखना भी सुनिश्चित होना चाहिए.. यह देखिए इन नीचे दी गई तस्वीरों में कैसे सुबह के सुबह यहां लखनऊ में इन वाहनों में कब्जा कर रखा होता है ..और फिर कुछ समय बाद लोग इन में अपने दोपहिया वाहन खड़े कर देंगे.. और जो ट्रैक बाज़ारों में से निकलते है ं उन में दुकानदार अपना कबाड़-सामान सजा देते हैं ....उद्देश्य बस इतना ही कि कोई इन साईकिल ट्रैक्स को इस्तेमाल न कर पाए...वरना पब्लिक को एक बार अच्छी आदत की लत लग गई तो दिक्कत हो जायेगी...



पता नहीं इस दिशा में कितना काम हो पायेगा या नहीं हो पायेगा ..विशेषकर जब एक राजनीतिक पार्टी का चुनाव निशान ही एक साईकिल हो ...लेकिन अब यह पार्टी सत्ता में नहीं है!  Let's rise above politics!! यही समय की मांग है ..


हां, पानी से याद आया...आज एक गमले वाले के पास रूका तो मुझे पता चला कि यह गमला नहीं है...इसे नोंद कहते हैं...(यही तो कहा था उसने ..अपने सहायक से पूछूंगा ..मेरे लिए यू.पी का एन्साईक्लोपीडिया वही है...और मार्गदर्शक भी!) ... यह छः सौ रूपये का है...लोग इस में पानी भर कर घर के बाहर जानवरों के लिए रखते हैं ...बहुत अच्छा लगा ...यह देख कर ...

मैं तो फ्लैट में रहता हूं ...सोसाईटी पर गेट है...क्या कहते हैं को-ट्रैप भी लगा हुआ है गेट पर ..आवारा जानवर भी नहीं है कालोनी में, बंदरों तक को इजाजत नहीं ..दो लंगूरों को सुबह से शाम तक नौकर रखा हुआ है ..  आते जाते किसी भटके हुए जानवर का इस तरह के पानी के बड़े भगौनों तक पहुंचने का प्रश्न ही नहीं है .....हां, परिंदे ज़रूर आते हैं नियमित ...उन के लिए ज़रूर कुछ जुगाड़ कर रखा है ..


जाते जाते आप के लिए मेरा आज का शुभसंदेश .. आप और आपके सभी अपने इस सूर्यमुखी की तरह खिलते रहिए..और ऊपर लिखी भारी भरकम बातों पर ज़्यादा ध्यान मत दीजिेए...बस मस्त रहिए और अगर हो सके तो ठंडा पानी बात बस पर ध्यान करिएगा...जैसे मैंने आज ही किया!



3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही खूबसूरत जानकारी है ।

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    1. शुक्रिया रमन, आप का नाम देखते ही चालीस साल पुराने अपने स्कूल में इक्ट्ठा बताए हुए दिनों की याद ताज़ा हो जाती है ...
      दोस्त, लेख पढ़ने के लिए एवं हौंसलाअफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद..

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