रविवार, 29 अक्टूबर 2017

झोलाछाप का इलाज कौन करे!

 ये जितने भी झोलाछाप तीरमार खां हैं न ये लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं.. लोग सस्ते के चक्कर में या किसी और बात के कारण इन के चक्कर में आ ही जाते हैं... आज से लगभग ३० साल पहले की बात है ...मैंने कईं बार दिल्ली के नार्थ ब्लॉक या साउथ ब्लॉक बिल्डिंग के बाहर ऐसे झोलाछाप दांत के मजदूरों को प्रैक्टिस करते देखा...उन दिनों मुझे यही लगता था कि अगर ये लोग दिल्ली के ऐसे पते पर अपना धंधा जमा कर बैठे हुए हैं तो गांव-खेड़ों की तो बात ही कोई क्या करे...

तरह तरह की तस्वीरें हमें सोशल मीडिया पर दिखती रहती हैं... अपने ही शहरों में हम लोग अकसर देखते हैं कि ऐसे प्रैक्टिस करने वाले अपनी दुकानें सजा कर बैठे हुए होते हैं...
 
ऐसी तस्वीरें मुझे बहुत दुःखी करती हैं

आज भी मुझे ये तस्वीरें मिली हैं ....आप देखिए किस तरह से बच्चे के दांतों का उपचार किया जा रहा है ...मुझे यह देख कर बहुत दुःख हुआ...

इलाज शब्द तो इस्तेमाल ही नहीं करना चाहिए इस तरह के काम-धंधे के लिए ...क्योंकि मरीज़ या उस के मां-बाप को लगता होगा कि यह इलाज है ..लेकिन वे इस बात से नावाकिफ़ हैं कि इस तरह से इलाज के नाम पर कोई भी झोलाछाप कितनी भयंकर बीमारियां फैला सकता है ...जैसे हैपेटाइटिस बी (खतरनाक पीलिया), हैपेटाइटिस सी (हैपेटाइटिस बी जैसा ही खतरनाक पीलिया), एचआईव्ही संक्रमण... और भी पता नहीं क्या क्या.....औज़ार इन के खराब ..दूषित होते हैं...शरीर विज्ञान का कोई ज्ञान नहीं... कोई वास्ता नहीं और मरीज़ को क्या तकलीफ़ है पहले से ...बस, अपने पचास सौ रूपये पक्के करने के लिए ये झोलाछाप कुछ भी कर गुज़रने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं... 

अफसोसजनक...कि आज भी लोग सड़क पर ऐसे इलाज करवा रहे हैं

कितनी बार तो हम लोग लिखते रहते हैं कि इस तरह के झोलाछाप डाक्टरों से बच कर रहिए...फिर भी लोग इन का शिकार हो ही जाते हैं... क्या करें... 

मैं कईं बार सोचता हूं कि इस तरह के झोलाछाप अगर कहीं भी पनप रहे हैं तो किसी न किसी की लापरवाही से ही तो यह हो रहा है .. किसी की तो जिम्मेवारी होगी कि इस तरह से पब्लिक को नुकसान पहुंचाने वाले लोग अपनी दुकानें न चला पाएं...कभी कभी किसी शहर से कईं सालों के बाद कुछ कार्यवाही की खबरें आती हैं...बस, फिर आगे कुछ नहीं... मुझे कईं बार यह भी लगता है कि अधिकारियों को भी शायद यही लगता होगा कि क्या करें इनका, हमारे बच्चे, हमारे परिवार या हम तो इन के पास नहीं जाते ...अगर कमजोर तबका जाता भी है इन के पास तो क्या करें, अनपढ़ जनता है ...लेकिन ऐसा नहीं है, अनपढ़ पब्लिक के हुकूक की हिफाज़त करना भी हुकुमत की एक अहम् जिम्मेवारी होती है ... 

कुछ दिन पहले मुझे यह वाट्सएप पर वीडियो दिखी .. 



पेड़ों की रेडियोफ्रिक्वेंसी टैगिंग की नौबत आन पहुंची है ..

पीछे कुछ तरह तरह के पशुओं की रेडियोफ्रिक्वैंसी टैगिंग की बातें हो रही थीं...अभी पंजाब का एक नेता भी कुछ ऐसा ही कह रहा था ....मैंने कुछ ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, क्योंकि इस तरह की कुछ खबरों में तो ज़्यादा राजनीति होती है ...

लेकिन आज जैसे ही अखबार उठाया तो पहले ही पन्ने पर एक खबर दिख गई ....शिमला में हाई-कोर्टों के आदेश पर अब वहां के पेड़ों की RFIT  Radio-frequency Identification Tagging .. होगी ... सरकारी जगहों पर लगे पेड़ों की टैगिंग का खर्च सरकार को उठाने को कहा गया है और प्राईव्हेट जगहों पर इस खर्च का वहन इस जगह के मालिक द्वारा किया जायेगा..

जब मैंने खबर पूरी पढ़ी तो मुझे इतनी हैरानी हुई कि किस तरह से लालची-शातिर लोग पेड़ों की जड़ों में पहले तो तेजाब डाल कर उन्हें सुखा देते हैं..फिर पेड़ जब सूख जाता है ..तो अपने आप गिर जाता है या फिर कानून को तोड़-मरोड़ कर उसे वहां से निकलवा दिया जाता है ....और यह सब सिर्फ़ लकड़ी हासिल करने के लिए ही नहीं हो रहा, इस में भू-माफिया का पूरा हाथ है ....ताकि पेड़ों को हटाकर वहां पर कंकरीट के जंगलों का निर्माण किया जा सके...

मुझे इस देश के तीसरे और चौथे खंभे ...न्यायपालिका एवं पत्रकारिता पर भी बहुत भरोसा है... पत्रकारिता देश में अपना सामाजिक दायित्व निभा रही है और न्यायपालिका के कहने ही क्या....मैं कईं बार सोचता हूं कि अगर देश में न्यायपालिका ढीली होती तो क्या हाल होता...

पेड़ों की हिफ़ाज़त के मामले में भी अब हाईकोर्ट को इस तरह के सख्त आदेश देने पड़ रहे हैं...


पेड़ों की बात करें तो अच्छे हम सब को लगते हैं...लेकिन हम इन का खडा़ करने और इन की देखभाल के लिए कुछ ज़्यादा करना नहीं चाहते हैं...जहां मैं इस समय बैठा हूं, मेरे कमरे से बाहर का यह नज़ारा दिख रहा है ....ठंडी छाया ... और घर के सभी कमरों से ऐसा ही नज़ारा नज़र आ रहा है ..

मुझे पेड़ों से बहुत लगाव है ....शायद हज़ारों तस्वीरें पेड़ों की मैंने अपने मोबाइलों से ले डाली हैं ... मुझे हर नये पेड़ से मिलना किसी नये शख्स के मुखातिब होने जैसा लगता है ....मुझे यह रोमांचित करता है ...



पेड़ों की जान अगर तरह तरह के धार्मिक विश्वासों की वजह से भी बच जाती है तो भी मुझे अच्छा लगता है ... लेकिन लोग पता नहीं पेड़ की जड़ों के आसपास इस तरह से सीमेंट क्यों पैक कर देते हैं...उन्हें भी फैलने का मौका दीजिए... बहुत बार इस तरह के पेड़ों दिख जाते हैं जिन का दम घुटता दिखता है ...

अब तो रेडियो-टैगिंग की बात हो रही है ...बचपन में लगभग ४० साल पहले की बात है ... हमारी कॉलोनी में पेड़ों पर नंबर लिख कर गये थे ..उस का क्या हुआ, क्या नहीं, कुछ ध्य़ान नहीं....लेकिन पेड़ों को बचाने के लिए तो जितने भी प्रयास किये जाएं कम हैं... फैलने दीजिए, उन्हें भी जैसा उन का मन चाहे, वे आप की जान नहीं लेंगे ..निश्चिंत रहिए..



मुझे ऐसे लोगों से बेहद नफ़रत है...घिन्न आती है मुझे ऐसे लोगों से जो अपने स्वार्थ के लिए पेड़ों पर कुल्हाड़ी चला देते हैं..

डाक्टरों की बोलचाल का लहज़ा ..

मुझे बहुत बार ध्यान आता है कि डाक्टरों की बोलचाल में कुछ तो सुधार की ज़रूरत होती ही है ....विरले डाक्टर ही दिखते हैं जो एक कुशल चिकित्सक के साथ साथ कम्यूनिकेशन में भी बहुत अच्छे होते हैं...

मरीज़ को दरअसल दोनों ही चीज़ों से सरोकार है...डाक्टर की काबलियत से भी और उस की बोलचाल से भी ...
क्यों हम कह देते हैं कि पुराने ज़माने में नीम-हकीम वैध या आजकल के झोलाछाप आसानी से मरीज़ के मन में घुस जाते हैं...लेकिन यह भी गलत है ..क्योंकि यह भी धोखाधड़ी ही है एक तरह से ..आप को अपने काम का ज्ञान तो है नहीं, बस चिकनी चुपड़ी बातों से आप अपना उल्लू सीधा करना जानते हैं...

और दूसरी तरफ़ बड़े से बड़े स्पैशलिस्ट देखे हैं...अपने अपने फन के माहिर ..लेकिन कुछ तो कम्यूनिकेशन में फेल...यह भी क्या अंदाज़ हुआ कि मरीज़ से साथ इतना धीमे बोलो और आंख से आंख मिलाओ ही नहीं...ऐसे में मरीज़ क्या सोचता है या क्या विश्वास लेकर जाता है....यह भी सोचने वाली बात है ...

कहीं न कहीं बेलेंस की कमी तो है ही ...निःसंदेह ...कईं बार हम लोग ज़्यादा पढ़-लिख लेने के बाद ...शायद संवाद में उतने अच्छे रहते नहीं हैं....यह शायद मेरा व्यक्तिगत अनुभव है ...लेकिन जो है, वह मैं लिख रहा हूं...दोस्तो, बात यह है कि डाक्टर और मरीज़ के संवाद में थोड़े तो पागलपन की ज़रूरत होती ही है ... मामूली सा, बिल्कुल हल्का सा झूठ भी (मरीज़ के हित में अगर हो तो) अगर मरीज़ के चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान भी ले आए तो क्या हर्ज़ ही क्या है, हम कौन सा सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के वंशज हैं।

डाक्टर का रूतबा समाज में बहुत बड़ा है ...मारपिटाई की छुटपुट घटनाओं को छोड़ दें ...आप यह देखिए कि न तो मरीज़ के लिए डाक्टर का धर्म और जाति किसी मतलब का होता है और न ही डाक्टर को अपने मरीज़ की जाति-धर्म से कोई सरोकार होता है ...

मैं कुछ दिन पहले सोच रहा था कि मरीज़ अपने डाक्टर के चेहरे को ऐसे ताकता है जैसे फांसी वाला कैदी जज के सामने खड़ा हो...और उस के चेहरे के हाव-भाव भी पढ़ लेने की कोशिश कर रहा हो ...

इस टॉपिक पर तो मेरी लिखने की इच्छा थी बहुत दिनों से लेकिन मैं ठीक से अपने विचार लिख नहीं पा रहा हूं..जो मैं कहना चाह रहा हूं उस का एक अंश ही इबारत की शक्ल ले पा रहा है ...

मुझे ध्यान आया एक दिन कि कोर्ट-कचहरी के मामलों में तो तारीख पे तारीख और अपील पर अपील वाली ऑप्शन भी होती है ..लेकिन यहां तक एक अनुभवी डाक्टर के जज से भी कितना बड़ा होता है ...उसने आप को जांच कर के एक बार जो कह दिया वह लगभग आप पक्का फैसला ही समझ लीजिए....कहीं भी अपील कीजिए...कुछ भी कीजिए... कुछ होता-वोता नहीं..बस मन की तसल्ली ....Just wishful thinking and failure to accept things!

 कल मुझे ध्यान यह भी आ रहा था कि धार्मिक स्थानों से भी कहीं ज़्यादा ये जो अस्पताल हैं...(ईश्वर सब को तंदरूस्त रखे) ... ये लोगों को अच्छा बनने के लिए प्रेरित करते हैं...वहां किसी की धर्म-जाति का कोई झंझट नहीं होता, कोई और टकराव की बात नहीं, बस अपने अपने मरीज़ की सलामती की दुआएँ और आजू-बाजू के मरीज़ के लिए भी दुआओं का सिलसिला ...
वैसे तो ये सब बातें लिखने वाली नहीं है...अनुभव करने वाली हैं...

डाक्टर लोग सच में बहुत महान हैं जो इतनी भयंकर निगेटिविटी के बावजूद भी काम करते हैं...इसलिए मुझे लगता है कि डाक्टर की अपनी सेहत और उस का मूड बिल्कुल टनाटन होना चाहिए......क्योंकि जो लोग उस के पास आ रहे हैं वे बिल्कुल मुरझाए हुए हैं....उन को थोड़ा सी हल्ला-शेरी देनी तो बनती है कि नहीं, यह तभी संभव है अगर डाक्टर स्वयं चुस्त-दुरूस्त और खुश है...

हम किसी की नेचर बदल तो नहीं सकते लेकिन फिर भी किसी के फायदे के लिए अगर थोड़ी बहुत एक्टिंग भी करनी पड़े तो बुराई क्या है .. अगर इतना करने से ही किसी बदहाल मरीज़ या उसके तीमारदारों के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान भी आती हो तो ऐसा करने में बुराई क्या है....बस, कुछ डाक्टर लोग किसी गलतफ़हमी में अपने आप को सच में खुदा ही न समझने लगें...(मरीज़ ऐसा सोचते हैं...यह उन का बड़प्पन है) ....

असलियत सब जानते हैं...कुछ बीमारियां ऐसी हैं जिन का कुछ भी न करो तो भी वे कुछ अरसे के बाद ठीक हो जाने वाली होती हैं...कुछ ऐसी होती हैं कि जब तक मरीज़ अपनी दिनचर्या या जीवनशैली नहीं बदलेगी ..वे ठीक नहीं हो सकती ...और कुछ ऐसी हैं जिन का कुछ भी कर लो....कुछ नहीं होने वाला ....अब यह ़डाक्टर के ऊपर है कि वह मरीज़ की बेहतरी के लिए उस का मन कैसे बहलाए रखे ...ताकि उस के स्वास्थ्य लाभ की प्रक्रिया को तेज़ी मिले...

बार बार मरीज़ से उस की उम्र पूछ कर उसे कहीं यह तो याद दिलाना चाहते तो कि अब इतना तो तू जी ही चुका है ....कुछ को कहते सुना कि माई, तेरे घुटनों की ग्रीस हो गई है खत्म, तेरी नाड़ीयां हो गई हैं तंग......क्या आप को लगता है कि जो लोग डाक्टरों के पास जा रहे हैं वे ये सब नहीं जानते .......सब जानते हैं, लेेकिन वहां वह यह सब सुनते नहीं जाते ...वहां वे उम्मीद की घुट्टी लेने जाते हैं...विश्वास में भी बहुत ताकत है ...

छोड़ो यार, मैं भी यह क्या लिखने लग गया.....बस, अपने अनुभवों के आधार पर यही लिख रहा हूं कि डाक्टरों को अपना संवाद सुधारने के लिए हमेशा--हमेशा..और हमेशा प्रयत्नशील रहना चाहिए....कोई भी परफेक्ट नहीं होता..हमेशा मरीज़ से बातचीत के ढंग को कल से आज बेहतर करने की गुंजाईश बनी रहेगी....एक एक शब्द सोच समझ कर बोलना होता है ...विशेषकर जो मरीज़ की बीमारी और इलाज के बारे में होता है ...क्योंकि मरीज़ उन्हीं शब्दों को अपने साथ लेकर जाता है ...और महीनों डाक्टर के एक एक लफ्ज़ के मायने समझने की कोशिश करता रहता है ...

और अकसर मरीज़ डाक्टर के दो चार सहानुभूति वाले या कर्कश या सख्त शब्द अपने साथ ले जाता है और दवा-दारू के साथ साथ उन्हें भी दिन में कईं बार खाता-चबाता रहता है ...आप देखिए, कितनी पावर है डाक्टरों के अल्फ़ाज़ में! ये सब तजुर्बे की बातें हैं ...डाक्टर के तौर पर भी, मरीज़ और तीमारदार के रोल में भी ..!

I wish doctors become more sensitive about their communication skills! वैसे ज़िंदगी भी एक पहेली है ...इसे कौन समझा है!!





गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

मैं आज भी फैंके हुए पैसे नहीं उठाता...


हिंदोस्तानी सिनेमा में देशवासियों की संवेदनाओं को जगाने का बहुत बड़ा काम अंजाम दिया है .... अभी भी लोग लगे ही हुए हैं.. आज भी मैंने जब बंबई के एक उपनगरीय स्टेशन पर इस तरह से बूट पालिश होते देखे तो मुझे दीवार फिल्म का वह सीन याद आ गया....जो हम लोगों के ज़ेहन में एकदम फिट हो चुका है ...कि मैं आज भी फैंके हुए पैसे नहीं उठाता ..

अपने अपने विचार हैं...अपना ही नज़रिया होता है ... वैसे तो लोगों का धंधा है .. लेकिन मैं तो जिसे भी इस तरह से बूट पालिश करवाते देखता हूं ...तो मेरे मन में तुरंत दीवार फिल्म कौंध पड़ती है ...और मैं मन ही मन उस बंदे को कह देता हूं कि अमां, यह क्या, दस रूपये खर्च कर के ...आप तो अपनी औकात ही भूल गये!


बूट पालिश करने वाले को लगता हो या नहीं....विभिन्न कारणों के रहते ...लेकिन मुझे तो यह भी मानवीय अधिकारों का हनन जान पड़ता है .. मुझे इस से कुछ मतलब नहीं कि बूट पालिश करने वाला या करवाने वाला किस जाति का है ... मैं इन सब बातों में बिल्कुल ध्यान नहीं देता ... यह मेरा विषय नहीं है..मुझे तो बस इस बात से आपत्ति है कि जिस अंदाज़ में बूट पालिश करवाने वाला बडी़ ठसक के साथ अपना जूता उस पालिश वाले की पेटी पर टिकाता है ....और हां, अगर सामने बैठा बंदा भी कोई दीवार फिल्म के बाल कलाकार जैसा हो तो अलग बात है! 

समाज में कुछ कुछ तौर तरीके बस ऐसे ही चलते रहते हैं...लेकिन फिर भी ... थोड़ा सा ध्यान रखिएगा...अगली बार...अकसर मोची के पास एक स्टूल रखा होता है ...अगर ऐसा कोई आप्शन है तो उस पर बैठ कर इत्मीनान से चमकवा लीजिए जूतों को..

मैंने भी शायद कभी कईं साल पहले एक बार इस तरह से शूज़ पालिश करवाए थे ....मुझे तो इतना बुरा लगा था ...बुरा क्या, अपने आप पर भी शर्म सी आई थी....कहने की बात नहीं है, कोई बड़प्पन वड़प्पन भी नहीं, बस ऐसे ही शेयर कर रहा हूं कि हम लोग तो वह हैं....मेरे बेटे भी ...जब किसी दुकान पर जूता लेने जाते हैं...और अगर नया जूता पहन कर ही बाहर आना है तो पुराने जूते को सेल्समेन को बिल्कुल भी हाथ नहीं लगाने देते .... स्वयं उसे थैली में डालते हैं... और उठाते हैं....मुझे यह देख कर अच्छा लगता है ....

Respect people's dignity!

प्याज़ के बारे में आप यह सब ज़रूर जानिए...



प्याज़ नाम से हमारा राब्ता स्कूल के दिनों में हुआ...जब साथ पढ़ने वाले कुछ खुराफ़ाती बच्चों से पता चला कि प्याज़ को अगल कुछ समय के लिए बगल के अंदर दबा लें तो बुखार जैसे लक्षण पैदा हो जाते हैं... और फिर घरवालों से स्कूल न जाने के लिए आसानी से एक बहाना तैयार हो जाता है ... और मास्टरों के बेरहम कंटाप से भी बचने के लिए यह जुगाड़ कभी काम कर जाया करता था...

मुझे कभी इस जुगाड़ की सच्चाई जानने का मौका नहीं मिला ..क्योंकि कभी ऐसा बहाना बनाने की नौबत आई ही नहीं...

प्याज़ के बारे में चंद बातें और सुनने-पढ़ने को मिलती रहीं जैसे जैसे बड़े होते गये... बचपन में सिरके में डाल के खाते ही थे प्याज़, सलाद में खाते थे....फिर कभी यह भी पता चला कि कच्चे प्याज खाने से मुंह से बदबू आती है ..

इस का प्रत्यक्ष प्रमाण था हमारे पड़ोस का एक लड़का रजनीश ...वह जब भी खेलने आता तो एक हथेली में थोड़ा नमक और दूसरे हाथ में प्याज़ पकड़ा होता ...हमें यह सब बड़ा अजीब लगता...वह हम से दो ब-तीन साल बड़ा भी था...उस का मज़ाक उडा़ने का तो सवाल ही नहीं था ...क्योंकि वह उम्र में भी हम से दो-तीन साल बड़ा था ..और अकसर अपने से छोटे बच्चों को पीटने का उसे कोई भी छोटा सा बहाना ही चाहिए होता था ..

प्याज़ का देश की राजनीति में भी बड़ा योगदान रहा .. कुछ सरकारें इन के दामों की वजह से बरबाद हो गईं और कुछ तो टूटते टूटटे जुगाड़बाजी से बच गईं ...

जब मैं ३०-३५ साल की उम्र का था तो एक योग संस्थान के प्रभाव में आकर मैंने कुछ साल के लिए लहसुन-प्याज़ छोडे़ रखा ..क्योंकि यह बताया गया कि यह तामसिक होता है ... पता नहीं, फिर मैंने खाना भी शुरु कर दिया.. लहसुन-प्याज़ छोड़ने की बंदिश में बाकी परिवार वालों को भी डालना मुनासिब नहीं लगा शायद .. मेरा अनुभव है कि यह प्रैक्टीकल नहीं होता ...

ये जो बातें मैंने अभी तक प्याज़ के बारे में कीं वे तो हैं फिजूल की बातें ...लेकिन कल मुझे वाट्सएप पर एक पोस्ट मिली ...बचपन में हमारे पड़ोसी रहे और अब एक नामचीन कृषि विश्वविद्यालय से अच्छी पोस्ट से रिटायर हुए वनस्पति विज्ञान में डाक्ट्रेट हैं यह बंधु ...मुझे लगा कि ये बातें आप से भी शेयर करनी चाहिए...

अब पोस्ट शुरू होती है ...

प्याज़ के लाभ हानियां...

वर्ष 1919 में चार करोड़ लोगों ने फ्लू की वजह से जान खो दी थी... एक डाक्टर बहुत से किसानों से पास गया यह देखने के लिए कि वह उन की कुछ मदद कर सकता है...बहुत से किसान और उन के परिवार तो फ्लू की चपेट में आकर खत्म हो चुके थे .. लेकिन डाक्टर को एक ऐसा किसान मिला जो कि स्वस्थ था और जिसके घर में भी किसी को फ्लू नहीं हुआ था ..
डाक्टर ने किसान से यह जानने की कोशिश की वह ऐसा क्या करता है जो कि दूसरों से अलग है...

किसान की बीवी ने बताया कि उसने बिना छीले एक प्याज़ को प्लेज में डाल कर घर के सभी कमरों में रखा हुआ था .. 
डाक्टर ने सोचा कि शायद इसी प्याज़ में ही कोई इलाज का रहस्य छुपा हुआ हो ...उसने कहा कि ज़रा वह प्याज़ तो दिखा दीजिए...

जब उस डाक्टर ने प्याज़ को माइक्रोस्कोप के नीचे रख के देखा तो पाया कि प्याज़ में फ्लू-वॉयरस मौजूद है .. ज़ाहिर है कि प्याज़ ने सारे जीवाणु स्वयं जज्ब कर लिए और परिवार को सेहतमंद बनाए रखा ..

उस पोस्ट में एक वैज्ञानिका ने आगे लिखा है कि वह किसान वाले इस किस्से से तो नावाकिफ़ हैं... लेकिन अपना अनुभव बताते हुए उसने लिखा है कि उसे निमोनिया हो गया और वह बहुत बीमार हो गईं .. प्याज़ के बारे में पहले से जो जानकारी थी उस के आधार पर उन्होंने प्याज़ के दोनों किनारे काटे और उस प्याज़ को एक खाली जार में डाल कर रात भर के लिए अपने सिरहाने रख लिया ..

सुबह होते होते मैं तो अच्छी होने लगी लेकिन प्याज़ बिल्कुल काला पड़ गया... 

बहुत बार जब हम पेट की तकलीफ़ों से ग्रस्त हो जाते हैं तो हमें यह पता ही नहीं चलता कि यह सब हुआ कैसे! लेकिन ऐसा बिल्कुल हो सकता है कि जो प्याज़ हमने कुछ समय पहले खाए हों, उन की वजह से यह तकलीफ हो गई हो...

प्याज़ जीवाणुओं को जज्ब कर लेते हैं ..और यही कारण है कि वे हमें सर्दी-जुकाम और फ्लू से बचाने में इतने कारगर हैं... और यही कारण है कि जिस प्याज़ को काटे हुए कुछ समय बीत चुका हो उसे खाने से हमेशा बचिए ....चूंकि ऐसे पडे़ हुए प्याज़ विषैले हो जाते हैं.. 

जब भी किसी पार्टी या सामूहिक भोज आदि में खाने में गड़बड़ी की वजह से लोग बीमार पड़ते हैं...(food poisoning)..तो सब से पहले यह भी जांच होती है कि खाने में जो प्याज़ इस्तेमाल हुए उन की गुणवत्ता कैसी थी ...

प्याज़ विशेषकर जिन्हें अभी तक पकाया नहीं गया है वे बैक्टीरिया (जीवाणुओं) के लिए एक चुंबक हों जैसे ... 

ध्यान रखिए कि कभी भी प्याज़ को पहले से काट कर मत रखिए कि इसे बाद में खाने में इस्तेमाल किया जायेगा.. इसे आप काट कर किसी जिप वाली थैली में डाल कर फ्रिज में भी नहीं रख सकते क्योंकि यह तब भी विषैला ही रहेगा... 

और हां, एक बात और ...कुत्तों को प्याज़ मत दीजिए....उन के पेट प्याज़ को पचाने में सक्षम नहीं होते ...

ध्यान दें कि प्याज़ को कभी भी काट कर न रखें कि अगले दिन सब्जी में डाल लेंगे ... काटा हुआ प्याज़ तो एक ही रात में विषैला हो जाता है ...क्योंकि यह बहुत से जीवाणु जज्ब कर लेता है जिस की वजह से आप की तो नहीं, पेट की तकलीफ़ों की दावत हो जाती है जैसे .. क्योंकि ज़्यादा पित्त बनने और फूड-प्वाईज़निंग होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है ... 
मुझे यह पोस्ट पढ़ कर उपयोगी जानकारी मिली ... क्योंकि यह एक नामचीन वनस्पति वैज्ञानिक ने शेयर की थी .. ध्यान में मुझे भी कुछ ऐसा आ ही रहा है कि बचपन में कहीं न कहीं तो यह देखा करते थे कि बीमार आदमी के सिरहाने पर प्याज़ रख दिया किया करते थे ..तो साथियो, यह कोई टोटका या चमत्कार नहीं होता था, वैज्ञानिक आधार अभी आपने जान लिया...

लिखते लिखते मुझे ध्यान आ रहा है कि हम लोग बाज़ार में हमेशा से उबले हुए आलू की गुणवत्ता के बारे में चिंतित रहा करते थे कि पता नहीं टिक्की की कौन सा आलू डाल दिया होगा ...और समोसे में कब का पुराना आलू ठेल दिया होगा...लेकिन अब तो प्याज़ के बारे में भी सचेत रहिएगा....

अकसर हम लोग किसी भी सार्वजनिक भोज में सलाद में रखे प्याज़ को नहीं खातेे....अब तक तो उस का कारण यही होता था कि पता नहीं किन हाथों ने किन हालात में इन्हें हैंडल किया होगा ...और बात है भी बिलकुल सही ....यही नहीं, प्याज़, खीरा, टमाटर ...इस तरह से किसी पार्टी-ब्याह शादी में बिल्कुल नहीं खाना चाहिए....यह निश्चित रूप से पेट को खराब करता है .... यहां तक की होस्टल में बच्चों में भी यह जागरूकता फैलानी चाहिए ... कि अगर कभी बहुत ही इच्छा हो तो स्वयं पानी से धो कर सलाद खाया करें...और दूसरी बात यह भी रखना चाहिए कि ये मेस-वाले कितने समय पहले प्याज़ काट-वाट के रख लेते हैं....वैसे ये सब थ्यूरेटिकल बातें ही लगती हैं ...मान लीजिए कि उन्होंने प्याज़ कुछ ही समय पहले काटा हो...लेकिन किन परिस्थितियों में ये सब चीज़ें काटी गई हैं...इन सब बातों का भी फर्क पड़ता है .. आप ने भी बहुत बार देखा ही होगा कि खोमचे-वाले, ढाबे वाले, छोटे मोटे रेस्टरां वाले और विभिन्न सामूहिक भोजों की तैयारियों के दौरान प्याज़ ही क्या, विभिन्न सब्जियों को भी कितनी लापरवाही से रखते हैं  और फुटपाथ पर ही किन हालात में इन्हें काटने का काम किया जाता है ...

संदेश बिल्कुल स्पष्ट है ....प्याज़ की बात करें तो इस की हैंडलिंग की तो बात है ही ..लेकिन यह कब का कटा हुआ ....यह भी हम सब की सेहत को प्रभावित करता है ... 

Take care....I wish you very good health!

चलते चलते प्याज़ का परांठा बनाने का तरीका ही सीख लेते हैं...


लोगों को सुबह सुबह भजन-गीत-दोहे याद आते हैं और मुझे इस समय यह गीत ध्यान में आ रहा है...सुनिए आप भी ..

  
















मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

सरदार खुशवंत सिंह जी की ऑटोग्राफ वाली किताब ...

सरदार खुशवंत सिंह जी का मैं भी एक प्रशंसक हूं...इतनी ईमानदारी से अपनी बात कह देना, लिख देना और उसी अंदाज़ में जी भी लेना हरेक के बूते की बात नहीं होती ...मैं बस सोचता ही रह गया कि कभी इन को दिल्ली जा कर मिल कर आऊंगा.. नेक इंसान बस अपनी श्रद्धांजलि लिख कर चला गया...  

एक बात आपने भी सुनी होगी कि आप जिस चीज़ को बड़ी शिद्दत से चाहते हैं उसे आप तक पहुंचाने के लिए सारी कायनात जुट जाती है ...मैं भी ऐसा ही सोचता हूं...

कल मैं पैदल चला जा रहा था...रास्ते में एक कबाड़ी की दुकान के बाहर किताबों का ढेर लगा हुआ था...मैं भी रूक कर देखने लग गया....अधिकतर किताबों के तो टाइटल ही मेरी समझ में नहीं आए...इतने अंग्रेजी से वे सब के सब...लेकिन तभी अचानक खुशवंत सिंह नाम पर नज़र पड़ गई...

 सिक्खों ने कैसी खो दी अपनी सलतनत ...

यह किताब उठाई ...पता नहीं किताब का टाइटल देखा तो मैं इस विषय में इंट्रेस्टेड नहीं था...लेकिन जैसे ही पहला पन्ना देखा तो समझ में आया कि यह तो खुशवंत सिंह की ऑटोग्राफ वाली किताब है ... अच्छा लगा...तुरंत ले ली..

रात में मैं इस किताब के पन्ने उलट रहा था ..थोड़ा ही पढ़ पाया बीच बीच में....थोड़ा सा पता चला कि महाराजा रंजीत सिंह की कितनी मुसीबतें थीं...और इतने सारे तथ्यों पर आधारित किताब ..मैं यह पढ़ कर हैरान हो रहा था कि लेखक ने इस तरह की किताब के लिए कितना अध्ययन किया होगा!

मैं इस किताब में दर्ज अब तक पढ़ी बातों को पहले नहीं जानता था....हिस्ट्री मेरी वैसे ही बेहद कमज़ोर है ...कमज़ोर तो क्या, हिस्ट्री ज्योग्रॉफी का ज्ञान शून्य के बराबर है...स्कूल में बिल्कुल नहीं पढ़े....बस विषय में पास होेने के लिए गप्पें ही मारते रहे पेपरों में ....लेकिन इस से बात कहां बनती है!

एक तो इन विषयों का ज्ञान नहीं है.....ऊपर से कुछ समय से यह बातें चल रही हैं कि अब किताबों में भी इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है .. बात है भी कुछ ऐसी ही...कुछ धर्मों के बारे में अलग अलग बातें लिखी और कही जा रही हैं...समझ में ही नहीं आता कि सच है क्या!

कल कुतुब मीनार के बारे में एक लंबी चौड़ी पोस्ट वाट्सएप योद्धाओं ने भेजी ....पोस्ट क्या पूरा लेख था...यही बताया गया था कि इसे फलां फलां ने बनाया ...कुछ दिन पहले ताजमहल के बारे में बहुत कुछ आ रहा था....फिर मंदिरों के बारे में आने लगता है ...पीछे सोमनाथ के मंदिर के बारे में आ रहा था...

मुझे इस तरह की पोस्टों से बड़ी चिढ़ है जो धार्मिक रंग में रंगी होती है .. मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह की पोस्टें एक तयशुदा एजेंडे के साथ भिजवाई जाती हैं...कौन सच लिख रहा है, कौन झूठ, वैसे ही पता नहीं चलता ....ऐसे में सोशलमीडिया पर मिले इस तरह के मैसेज का वॉयरल सच जांचने-परखने की फ़ुर्सत किसे है!

इसी लिए आज के दौर में हमें जहां भी अच्छी किताबें मिलें ....या विश्वसनीय वेबसाइटों से अपने इतिहास को जानने-समझने का कुछ तो समय निकालना ही चाहिए...

सोच रहा हूं कि खुशवंत सिंह जी की इस पुस्तक का अच्छे से अध्ययन करूंगा ... मेरे लिए यह किताब का मिलना एक खुशकिस्मती है ...क्योंकि इस किताब पर साक्षात् खुशवंत सिंह जी की कलम चली हुई है ... और एक बार ध्यान यह भी आया कि वह कैसा शख्स होगा जिसने इस तरह की किताब और वह भी खुशवंत सिंह के ऑटोग्राफ वाली किताब रद्दी में ठेल दी....बीस साल पुरानी बात हो गई है ...पता नहीं वह बंदा अभी है भी या नहीं... किसे मालूम...उस के बेटे-बहुओं-पोतों ने इसे बेकार समझ कर कबाड़ी को दे दिया हो ... जिस दौर में लोग घर के दिवंगत बड़े-बुज़ुर्गों की पुरानी तस्वीरों को घर की दीवारों पर टांगना एक लॉयबिलिटी समझते हों, ऐसे माहौल में इस तरह की किताबों की क्या बिसात!!

 और एक बात, हम लोग भी कितने शक्की हो गये हैं...मैंने गूगल किया ..खुशवंत सिंह के हस्ताक्षर ... तो बिल्कुल इसी तरह के हस्ताक्षर नेट पर पड़े दिख गये ...बिल्कुल मेल खाते हुए..


सोमवार, 23 अक्टूबर 2017

मां की रसोई मां की तरह एक ही होती है!

आज कल पब्लिक को इमोशनल ब्लेकमेल किया जाता है ... शहर में कितने ही होटल-रेस्टरां जिन का नाम ..मां की रसोई ... कईं जगहों पर मैंने ढाबे देखे ...जिन का नाम था .. हांडी... पता नहीं पंजाब में किसी ने कुन्नी के बारेे में सोचा कि नहीं..

अभी मैं बताऊंगा आप को कि आज अचानक मेरे को यह मां की रसोई वाली बात कहां से ध्यान में आ गई .. जब भी इस तरह की बात ध्यान में आती है तो मैं अपने विचार लिख लेता हूं...एक मेरा प्राईव्हेट ब्लॉग है ..मेरी स्लेट ... पहले तो यह पब्लिक था..लेकिन कुछ समय पहले मैंने इसे प्राईव्हेट किया है...मुझे ऐसा करना ज़रूरी लगा..

कल मैंने बहुत दिनों बाद उस मेरी स्लेट ब्लॉग पर कुछ लिखा ...यह एक तरह से डायरी जैसा ही है ...उसमें मैं देख रहा था मेरा छःमहीने पुराना एक लेख ..दुनिया की हर मां होती है बेस्ट कुक...


और अभी ध्यान आया कि बहुत साल पहले इसी ब्लॉग पर कुछ बातें और साझा करी थीं....शुक्र है रब्बा, सांझा चुल्हा बलेया... (इस लेख को आप इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं)....मुझे पूरा ध्यान नहीं होता कि मैंने क्या लिख दिया होगा भावावेश में आकर ...लेकिन इतना इत्मीनान तो रहता ही है कि जो भी लिखा होगा सच ही लिखा होगा...झूठ-वूठ के चक्कर में मैं पड़ता ही नहीं। 

बोर्ड पर लिखा है कि खाना केवल कोयलों पर ही पकाया जाता है .. 
हां, तो भूमिका काफ़ी लंबी हो चली है .. अपनी बात शुरू करता हूं...तो दोस्तो हुआ यह कि आज बंबई में मुझे एक जगह एक रेस्टरां दिख गया जिस के बोर्ड पर लिखा हुआ था कि यहां पर सारा खाना केवल कोयले पर तैयार किया जाता है ...सोचिए, आप भी इस बारे में ..कि कोयला भी कैसी चीज़ हो गई ...गांव-खेड़ों में तो सरकार कोयले वाले चूल्हों से निजात दिला रही है ... और यहां मैट्रो शहरों के पॉश इलाकों में कोयले की आंच पर बने खाने की विशेष तौर पर मार्केटिंग की जा रही है ...

 खाने वाने का तो बाहर ऐसा है कि खाने पीने की कुछ जगहें ही होती हैं जो हमारे स्वाद और जेब के अनुसार हुआ करती हैं...कहने को तो पांच सितारा होटल भी हैं...लेकिन कम कहां उधर जाते हैं! 

कारण कुछ भी रहे हों...उनके बारे में सोचने की भी ज़रूरत है ...पहले जिस तरह का विश्वास हम लोगों को अपने बचपन में घर के आस पास के ढाबे पर हुआ करता था, उतना अब बडे़ बड़े रेस्टरां पर भी नहीं होता...मुझे तो अपने बारे में पता है ...मुझे नहीं होता है ... 

और बात रही .इमोशनल ब्लेकमेल की ..मां की रसोई, झाई की रसोई ......सीधी पक्की बात यह है कि मां की तरह ही मां की रसोई भी एक ही हुआ करती है ....इस लेख को पढ़ रहे दोस्त दो मिनट का ब्रेक लें....टीवी देखते हुए भी कितने ब्रेक लेते ही हैं आप ...एक ब्रेक मेरे कहने पर भी लीजिए....अपनी मां की रसोई को याद कीजिए....बचपन से लेकर आगे तक....आप मेरे से इत्तेफाक रखेंगे कि जब तक मैं की बाजू में रोटी बेलने की ताकत बची रही ..इस मां की रसोई ने ताउम्र निष्काम सेवा ही की ... सेवा शब्द भी इस समय कितना छोटा सा, कितना अदना सा लग रहा है ...कोई छुट्टी नहीं, कोई ब्रेक नहीं, कोई रेस्ट भी नहीं....कईं बार शब्द भी धोखा दे जाते हैं ऐन वक्त पर ...इस बात को यही छोड़ रहा हूं क्योंकि यह बात कहने की नहीं है, हमारे अनुभव की है ... 
पंजाबी सुपर-डुपर हिट गीत...कुलदीप मानक साहिब....मां हुंदी ए मां ओ दुनिया वालेओ....

पुष्पेश पंत एक बड़ा लेखक है .. खाने पीने के ऊपर उसने बहुत सी किताबें लिखी हैं... उसे सुन कर और पढ़ कर बहुत अच्छा लगता है ...एक बार मैंने उसे यह कहते सुना कि यह जो आटा गूंथने की मशीनें आ गई हैं..बेकार है....याद दिला रहा था कि कैसे आप की मां आटे को इत्मीनान से गूंथती रहती थी .. चूंकि वह पहलवान नहीं होती थीं...धीरे धीरे थोड़ा थोड़ा ज़ोर लगा कर गूंथती रहती थी .. और ऐसे गूंथे हुए आटे के गुण कितने अलग हो जाते हैं....उस की चर्चा कर रहा था....

हां, तो मां की रसोई की बात पर लौटते हैं... एक समय वह मां की रसोई होती है ...फिर धीरे धीरे कुछ कारणों की वजह से मां की पकड़ अपनी ही रसोई पर ढीली पड़नी शुरू हो जाती है ...कारण लिखने वाले नहीं होते, समझने वाले होते हैं, पढ़ने वाले कौन सा विलायत में रहते हैं....सब कुछ अनुभव करते हैं (बस घेसले बने हुए हैं!!) ....इस ढीली पकड़ के रहते भी वह कभी कभी हमें हमारे बचपन के दिनों के जा़यकों को फिर से चखा ही देती हैं ...होता है ना ऐसा ही ..


अभी मैंने एक रेस्टरां यह देखा .. तवा ... और एक बात, मुझे कुछ शहरों के लोगों की पेड़ों के साथ मुहब्बत देख कर बहुत अच्छा लगता है ....ये पेड़ भी हम लोगों की सामूहिक मांएं ही हैं....जो हमें ताउम्र बस देते ही देते हैंं....साफ-स्वच्छ हवा...छाया....खाना...फल-फूल....रूह को ठंडक....सब कुछ पेड़ों ही से तो आ रहा है ... क्या ख्याल है?




शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

पंथी को छाया नहीं...

 मुझे याद है जब पांचवी छठी जमात में हम लोग स्कूल पैदल आया जाया करते थे तो रास्ते में एक आर्मी वालों की कालोनी पड़ती थी...उन बंगलों और बाहर सड़क के बीच एक कंटीली तार भी लगी हुई थी ..लेेकिन कुछ घरों के बाहर बोर्ड लगे हुए थे ...कुत्तों से सावधान..Beware of Dogs!

इस तरह के बोर्ड देख कर बड़ा अजीब सा लगता था .. कुछ ज़्यादा समझ तो थी नहीं ..लेकिन उस कंटीली तार के बावजूद भी जब हम लोग पैदल उन घरों के सामने से गुज़रते थे तो कुछ डर तो रहता ही था कि पता नहीं कैसे कुत्ते होंगे ...अगर इस तरह की चेतावनी लिखी हुई है ... और क्या होगा अगर वे कंटीली बाड़ में से भाग कर बाहर आ जायेंगे!

कुछ दुकानों के बाहर भी देखा कि रात में फुटपाथ पर इस तरह से लोहे के नुकीले कीलों की एक व्यवस्था कर देते हैं जिससे कि कोई वहां सोना तो दूर उधर से गुज़रने की भी हिम्मत न कर पाए...

लेकिन गांवों में, कसबों में जहां बडे़ बड़े पेड़ लगे होते हैं उन के आसपास लोगों ने छोटे मोटे प्लेटफार्म ज़रूर बनाए होते हैं ताकि लोग वहां बैठें, थोड़ा सुस्ता लें....कईं जगहों पर तो हम देखते हैं कि वहां गप-शप के अड़्डे बन जाते हैं...साथ में ही एक दो चाय की गुमटी अकसर होती है...एक नाई, एक मोची, एक कोई समोसे-जलेबी वाला...और पास ही दो चार खस्ता हालत में बैंच पड़े होते हैं...अखबार के आठ पन्ने कम से कम १० लोगों के हाथ में होते हैं....

ऐसा लगता है छोटे शहरों कस्बों में जैसे बड़े बडे़ भीमकाय पेढ़ राहगीरों को न्यौता दे रहे हों कि आओ, हमारी छांव में थोड़ा अाराम करो, कुछ हमारी सुनो और अपना हाल भी सुनाओ.....

लेकिन यह मैंने क्या देखा बंबई के एक बेहद पॉश एरिया में ...जहां पर रहने वाले बाशिंदे वैसे तो अधिकतर पेज-थ्री पर दिखते हैं ...लेकिन यहां के पेड़ों के ठीक नीचे और आसपास कुछ इस तरह के दृश्य नज़र आए कि आप के साथ शेयर करने की इच्छा हुई ....









देखिए...अगर आप पेडो़ं के नीचे फिक्स किए गये नोकदार पत्थरों की तरफ़ ध्यान ने दें तो सब कुछ कितना सुहाना और खुशगवार दिखाई पड़ता है यहां.....



ध्यान मुझे यह भी आ रहा है कि देश के कुछ लोग गर्मी के दिनों में घरों के बाहर ठंड़े पानी का प्रबंध कर देते हैं ...और कुछ नहीं तो पानी के कुछ मटके ही गीले कपड़े से ढक कर रख देते हैं ... ताकि लू के थपेड़ों से बेहाल राहगीरों को कुछ राहत तो मिल पाए.......लेकिन बंबई  के इस पॉश एरिया में तो माजरा ही कुछ और दिखा....

मुझे नहीं पता कि ऐसा क्यों है इस एरिया में .... कुछ तो कारण रहा ही होगा...जिसे मैं नहीं जानता .. लेकिन फिर भी मुझे यह बहुत अजीब लगा कि हर छायादार पेड़ के नीचे और आसपास हर जगह पर नुकीले पत्थर फिक्स कर दिए जाएं ताकि कोई इन के पास फटकने की हिम्मत ही न जुटा पाए...

कबीर जी का वह दोहा याद आ गया ...
"बडा़ हुआ तो क्या हुआ...जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर "

गीत तो बहुत से याद आ रहे हैं इस समय ......लेकिन इसी लम्हे पर इस गीत का ध्यान आ गया है ...और कुछ ज़्यादा मैं इस विषय पर कुछ कहना-लिखना नहीं चाहता ....समझदार को ईशारा ही काफ़ी होता है ..

रविवार, 1 अक्टूबर 2017

सुबह नाश्ते ना करने वालों के लिए एक संदेश...

दरअसल कई बार वाट्सएप पर कुछ ऐसे संदेश किसी डाक्टर से मिल जाते हैं कि अपना काम बढ़ जाता है ...यही लगता है कि इन्हें हिंदी में लिख कर ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाया जाए..आज भी सुबह एक ऐसा ही संदेश मिला है ...जानते हम सब कुछ हैं...लेकिन अगर परदे के पीछे की बात भी पता चल जाती है तो हम उस पर अमल भी करने का मन बना लेते हैं...क्या ख्याल है ... बस, आज की बात का विषय ही है कि सुबह नाश्ता करना क्यों ज़रूरी है...ध्यान से पढिए और अमल करिए...पढ़ने से भी कहीं ज़्यादा अमल ज़रूरी है ....

टन ...टन ..टन 

सुबह की घंटी बजती है और हमारा दिमाग चिंता करनी शुरू कर देता है ...उठो, भाई, उठो, यह जाग जाने का समय है। हम ने पूरा ईंधन खपा दिया है..." इस के साथ ही दिमाग पहले न्यूरोन (दिमाग की सब से छोटी ईकाई) से यह पता करने की कोशिश करता है कि रक्त में कितना ग्लुकोज़ अभी बचा है। रक्त की तरफ़ से जवाब मिलता है ...बस, ईंधन (शुगर) अगले १५-२० मिनट के लिए ही बची है।

मस्तिष्क सकते में आकर न्यूरोन संदेशवाहक (neuraon messenger) को जवाब देता है - ठीक है, जाओ और लिवर से पूछो कि उस के पास कुछ रिज़र्व में है।

लिवर अपना बचत खाता जांच कर जवाब देता है कि ईंधन की सारी पूंजी बस २०-२५ मिनट के ही बची है। कुल जमा २९० ग्राम ग्लुकोज बचा है, जो कि ४५ मिनट तक ही चलेगा...और इस दौरान मस्तिष्क ईश्वर से यह दुआ करता रहेगा कि हमें नाश्ता करने की इच्छा हो जाए।

लेकिन अगर हम सुबह जल्दी में हैं या हमें सुबह कुछ भी खाना नहीं भाता तो बेचारे दिमाग को एमरजेंसी की घोषणा करनी पड़ती है...डियर कार्टीसोन, यहां तो ईंधन खत्म होने की कगार पर है और हमें ज़िंदा रहने के लिए एनर्जी चाहिए। आप मांसपेशियों की कोशिकाओं, हड्डीयों की लिगामेंट्स और चमड़ी के कोलेजन (skin collagen) ..कहीं से जो कुछ भी निकाल सकते हैं, खींच लीजिए....यह एक एमरजैंसी है।"

यह सुन कर कार्टीसोन (हारमोन) काम में जुट जाता है...ताकि सभी कोशिकाएं खुल पाएं और प्रोटीन उन से बाहर निकल पाए....जैसे सामान खरीदते वक्त मां का पर्स खुल जाता है..। ये सभी प्रोटीन अब लिवर में पहुंच कर ग्लुकोज़ में तबदील होने लगते हैं...और यह प्रक्रिया तब तक चलती है जब तक कि हम कुछ खा नहीं लेते।

जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा ...जो भी व्यक्ति यह सोचता है कि सुबह नाशता ना करना ही ठीक है....दरअसल वह व्यक्ति अपने आप को मूर्ख बना रहा है ...और अपनी मांसपेशियों को नहीं, अपने आप को ही खा रहा है, बस यही समझ लीजिए। 

इस का नतीजा यह निकलता है कि व्यक्ति की मांसपेशियां कमज़ोर और ढीली पड़ने लगती हैं... और दिमाग जो बुद्धिमता से जुड़े काम धंधे छोड़ कर सुबह का सारा समय एमरजैंसी सिस्टम को जगाने में पड़ा रहता है ...ताकि कैसे भी ईंधन और खाने का जुगाड़ हो सके।

इस का आप के वजन पर क्या असर पड़ता है?

 जब कोई व्यक्ति सुबह की शुरूआत कुछ भी ना खाने से करता है तो वह जैसे शरीर में एनर्जी सेविंग सिस्टम को चालू कर देता है ....जिससे शरीर की सभी प्रक्रियाएं (metabolism) मंद पड़ जाती हैं....अच्छा, दिमाग को यह नहीं पता कि यह ना खाने वाली बात (fasting) कितना समय चलेगी, कुछ घंटे या कुछ दिन....इसलिए यह जटिल प्रतिबंध लगाए ही रहता है ...यही कारण है कि जब वही व्यक्ति बाद में दोपहर में खाता है तो उस भोजन को शरीर में "ज्यादा" मान लिया जाता है ...इसलिए इसे वसा के भंडार ती तरफ़ धकेल दिया जाता है ...और बंदे का वजन बढ़ने लगता है। 

That's why if the person decides to have lunch later, the food shall be accepted as an excess, it will be deviated towards the 'fat reserve bank' and the person will gain weight.

सुबह नाश्ता न करने पर सब से पहले हमारी मांसपेशियां ही घुल कर ईंधन का इंतजाम करने लगती हैं, इस का कारण यही है कि कोर्टीसोल हॉरमोन जो सुबह पर्याप्त मात्रा में होता है, मांसपेशियों के प्रोटीन को नष्ट कर के ग्लुकोज़ बनाने की प्रक्रिया को उत्तेजित करता है...

 अब आप जान गये होंगे कि क्यों सुबह बिना नाश्ते के नहीं निकलना चाहिए....आप का शरीर उसे पसंद करता है ...और आप को इस अच्छी आदत के एवज़ में बढ़िया स्वास्थ्य, दीर्घायु मिलेगी....

सुबह जल्दी नाश्ता करने से आप को पर्याप्त एनर्जी मिलेगी, जिस के आप का दिमाग फुर्ती से काम करेगा... आप के विचारों में गजब की तारतम्यता ---spontaneity-- आयेगी ...शरीर रिलेक्स रहेगा ..और तनाव कम होगा....

डाक्टरी बात तो यहीं खत्म हो गई...उस वाट्सएप पोस्ट में बस इतना ही कंटेट था....किसी को भी ब्रेकफॉस्ट छकाने के लिए।

मैं कुछ महीनों से यही सोच रहा हूं कि जैसे हमारे शरीर में हर छोटी से छोटी प्रक्रिया एक अद्भुत रहस्य है ....वैसे भी भूख लगने की प्रक्रिया भी तो एक ऐसी ही प्रक्रिया है ... कैसे हम लोगों को ठीक समय पर भूख लग जाती है... और अगर हम नाश्ता ना लेकर इस भूख को दबाने की कोशिश करते हैं तो वैज्ञानिक तौर पर इस सब के कितने दुष्परिणाम होते हैं वह तो आपने ऊपर पढ़ ही लिया ...मुझे तो यह भी लगता है कि उस सब के साथ साथ यह प्राकृतिक व्यवस्था का भी अनादर है....खुदा-ना-खास्ता अगर किसी की भूख ही जब उड़ जाती है तो उस पर क्या बीतती है ....यह तो वही ब्यां कर सकता है....

बस, आप थोड़े से सचेत रहिए....बात मान लिया करें....कुछ बातें बड़े काम की होती हैं....