अच्छा, डाक्साब, बताईए, आप आज कल क्या पढ़ रहे हैं? कल जब मेरे एक मरीज़ ने यह प्रश्न दाग दिया तो मैं इसके लिए तैयार ना था...
अब उस को मैं क्या बताता कि दिन में कईं तरह की किताबें उठाता हूं ..और लेट कर ही पढ़ता हूं और पांच मिनट के अंदर नींद आ जाती है ..कोई भी किताब हो..इसलिए बच्चे भी जानते हैं कि यह बापू का लिटरेचर टाइम है तो मतलब सोने की तैयारी है।
मैं ऐसा सोचता हूं कि अच्छी या बुरी आदतें हमें बचपन से ही पड़ जाती हैं....मुझे यह लेट कर पढ़ने की आदत बचपन से ही है...वैसे तो किसी ने कभी भी पढ़ने-लिखने के कहा ही नहीं..लेकिन जो दो तीन कक्षाएं अहम् होती हैं कैरियर के ...उस दौरान मेरी मां कभी कभी ज़रूर कह देती थीं...उठ कर पढ़ा करो ...ऐसे लेट कर पढ़ने से कोई फायदा नहीं...कुछ समझ नहीं आता...नींद आई है तो सो जा, सुबह उठ कर पढ़ लेना...
लेकिन मैं भी ठहरा अव्वल दरजे का ढीठ प्राणी....अब तक भी लेटे बिना कुछ पढ़ते ही नहीं बनता और लेटने का मतलब नींद की झपकी...(वैसे मेरी मां की भी यही समस्या है...वे भी जैसे ही कोई किताब पढ़ने लगती हैं, उन्हें नींद आ जाती है ...) ...मतलब कुछ खानदानी मर्ज ही है!!
हां, उस मरीज़ की बात कर रहा था ...उसे मैंने ऐसे ही एक दो नाम बता दिए... अमृतलाल नागर जी और मुँशी प्रेम चंद जी के रचना संचयन के बारे में कहा कि उन्हें पढ़ रहा हूं..
मेरा यह जो मरीज है ..यह हिंदी प्रेमी है ...पांच छः अखबार लेता है ...और सुबह से शाम तक सारे पढ़ लेता है ..पहले भी कह चुका था..और आज भी कह रहा था कि आप के लेख जनसत्ता में छपते हैं...आप दूसरे अखबारों में भी भेजा करिए...मैंने बताया कि मैं किसी को भी नहीं भेजता, वे लोग ब्लॉग से अपने आप ले लेते हैं..
उन्होंने बताया कि वे आज कल रश्मिरथी पढ़ रहे हैं...और साथ में संस्कृति के चार अध्याय भी पढ़ रहे हैं... मुझे हिंदी साहित्य की जानकारी बहुत कम है ...मेरी जिज्ञासा भांप कर वह बताने लगे कि रश्मिरथी काव्य है ...दिनकर जी ...मैंने कहा ...रामधारी सिंह दिनकर जी ...कहने लगे..हां, हां, आज कल मैं उन को ही पढ़ रहा हूं...
उन की बातचीत से पता चला कि घर का सारा माहौल ही साहित्यिक है ...बीवी और बेटा भी ये सब साहित्य पढ़ते रहते हैं..घर में हर समय पढ़ाई लिखाई ही चलती रहती है ...
अच्छा लगा ये सब बातें सुन कर ...
मुझे याद आया कि दो साल पहले एक बात ये मुझे जैनेन्द्र कुमार का नावल त्यागपत्र पढ़ने के लिए दे गये थे ...मैंने उसे एक दो दिन मन लगा कर पढ़ा...और उस के बाद कुछ पंक्तियां अपनी डायरी में लिख दी थी...अभी डायरी सामने ही पड़ी हुई है, सोचा ब्लॉग पर वह चंद पंक्तियां शेयर करूं...
पढ़ने लिखने की बातों से बचपन की बातें उमड़-घुमड़ कर ज़रूर याद आ जाती हैं....जब चंदमामा, लोटपोट, नंदन, कभी कभी धर्मयुग भी, मायापुरी जैसी किताबें और कुछ छोटे छोटे जासूसी उपन्यास भी किराये पर लाकर पढ़े जाते थे ..शुक्र है कि उन दिनों टीवी नहीं होता था ..इसलिए कोशिश यही होती थी कि अगर चार पत्रिकाएं लाएं है ..मतलब एक रूपया किराया देना है कल सुबह तो कैसे भी रात देर तक जाग कर या सुबह जल्दी उठ कर निपटा लिए जाए...और अकसर यह काम हो ही जाता था...(जहां चाह वहां राह ..) ...हां, उन बच्चों के नावल के पचास पैसे थे एक दिन के ...वे भी खूब पढ़ते थे .. बचपन में ये पढ़ने-लिखने की आदतें हमारे जमाने में आम थीं...
स्कूल में हम लोग यह चर्चा करते थे ..पांचवी छठी कक्षा में अच्छा उस लोटपोट को पढ़ लिया तुमने .उस का सीरियल नंबर होता था ..फिर बिल्लू भी आने लगा था ... घर में धर्मयुग भी आता था और इलेस्ट्रेटेड वीकली भी ....मैं इन के भी पन्ने ज़रूर उलट लिया करता था ..फोटो देखता ..बच्चों के पढ़ने लायक कुछ पन्ने होते तो उन्हें भी देख लेता ...मां को सरिता पढ़ना पसंद था .. उस भी जरूर देख लेते थे और मामा जब आते थे तो उन के साथ मनोहर कहानियां, सच्ची कहानियां भी आती थीं, तब उधर भी नज़र पढ़ जाती थीं...रीडर डाईजेस्ट भी दसवीं कक्षा के आसपास दिखने लगी थी....और हां, क्लास में बच्चे जो मस्तराम जी का साहित्य पढ़ते थे तो वे बातें भी कानों में पढ़ती रहती थीं...याने सभी तरह के साहित्य का स्वाद चख लिया था ..स्कूल कालेज के दिनों में ही ...
बात उसी पर आते हैं कि आज कल कोई ऐसे पूछता नहीं है ना कि आप क्या पढ़ रहे हैं... लेकिन उस दौर में रिश्तेदार चिट्ठियों में लिखते थे कि खिलौना देखी है, आप लोग भी ज़रूर देखिए....मौसी ने लिखा कि चितचोर देख कर आए..कसमे वादे भी अच्छी है ...बहन गईं चाचा के यहां तो वहां से लिख भेजा कि ज़मीर फिल्म देख कर आये हैं...आप लोग भी देखिएगा...पहले हम लोग ऐसे निर्धारित करते थे कि कौन सी फिल्म देखनी हैं....मुझे अभी याद आ रहा है कि मुहल्ले की कुछ औरतें तलाश फिल्म देख कर आईं तो मां और उन की सहेलियां वाला ग्रुप भी अगले दिन सिटी लाइट हाल में यह फिल्म देखने चला गया ...
पहले कोई फिल्म देख कर आते थे तो शायद उस का नशा अगले सात दिन तक को कम से कम चढ़ा ही रहता था..हर शख्स अपने आप को उन चंद दिनों के लिए कुछ कुछ हीरो जैसा ही अपने आप को समझने लगता था ...फिर जब नशा उतर जाता तो सब कुछ नार्मल हो जाता था...
हां, एक बात और याद आ गई...कईं बार बंदिश से भी अच्छे काम हो जाते थे ...याद करिए किस तरह से हम लोग छोटे साईकिल एक घंटे के लिए २५ पैसे के हिसाब से किराये पर लेते थे ..उस समय लंबा चल कर दुकान तक जाना भी बिल्कुल नहीं अखरता था...और वहां कुछ समय इंतज़ार करने में भी दिक्कत नहीं होती थी..साथ में कोई साथी भी होता था ...जिस के साथ आधे आधे समय चलाने का कान्ट्रेक्ट हुआ होता था ....सच बताऊं जो खुशी उस छोटे साईकिल को उस एक घंटे में चलाने में होती थी वह तो मुझे कभी भी आई२० गाड़ी चलाने में भी नहीं हुई....कभी भी नहीं.. बस, उस साईकिल को चलाते समय एक घंटे के खत्म होने की चिंता सताती रहती थी ...फिर इतनी अकल भी आ गई कि एक घंटे होते होते दुकान के आसपास ही चक्कर लगाने हैं...ताकि जैसे ही वह आवाज़ लगाए .. तो उसे साईकिल जमा करवा दी जाए...क्योंकि जेब में २५ पैसे से ज़्यादा माल भी तो नहीं होता था....
बदल गया है ज़माना है ....बदलना भी ज़रूरी होता है...पहले किसी के यहां केसेट आती थी तो पता चल जाता था कि उस के यहां ये ये कैसेट्स हैं, मिल बांट कर सुनते से सारे .....अब सभी के फोनों पर स्क्रीन लॉक लगे होते हैं....घर में हज़ारों रूपये के फोन , लैपटाप आते हैं तो भी लोग कहां एक साथ बैठ कर खुशी मना पाते हैं ! हरेक को अनजान हडबड़ाहट है....वाट्सएप, ट्विटर और फेसबुक पर पीछे छूट जाने की फिक्र है शायद ..
हां, जाते जाते किताब कौन सी पढ़ रहा हूं, इस का जवाब तो मैंने ऊपर दे दिया ... लेकिन आज कौन सी खरीदी है ...उस का नाम है ...Rishi Kapoor की किताब Uncensored Khullam Khulla......It reminds me of that popular song ... जो अकसर Big FM 94.3 पर बजता रहता है ....
अब उस को मैं क्या बताता कि दिन में कईं तरह की किताबें उठाता हूं ..और लेट कर ही पढ़ता हूं और पांच मिनट के अंदर नींद आ जाती है ..कोई भी किताब हो..इसलिए बच्चे भी जानते हैं कि यह बापू का लिटरेचर टाइम है तो मतलब सोने की तैयारी है।
मैं ऐसा सोचता हूं कि अच्छी या बुरी आदतें हमें बचपन से ही पड़ जाती हैं....मुझे यह लेट कर पढ़ने की आदत बचपन से ही है...वैसे तो किसी ने कभी भी पढ़ने-लिखने के कहा ही नहीं..लेकिन जो दो तीन कक्षाएं अहम् होती हैं कैरियर के ...उस दौरान मेरी मां कभी कभी ज़रूर कह देती थीं...उठ कर पढ़ा करो ...ऐसे लेट कर पढ़ने से कोई फायदा नहीं...कुछ समझ नहीं आता...नींद आई है तो सो जा, सुबह उठ कर पढ़ लेना...
लेकिन मैं भी ठहरा अव्वल दरजे का ढीठ प्राणी....अब तक भी लेटे बिना कुछ पढ़ते ही नहीं बनता और लेटने का मतलब नींद की झपकी...(वैसे मेरी मां की भी यही समस्या है...वे भी जैसे ही कोई किताब पढ़ने लगती हैं, उन्हें नींद आ जाती है ...) ...मतलब कुछ खानदानी मर्ज ही है!!
हां, उस मरीज़ की बात कर रहा था ...उसे मैंने ऐसे ही एक दो नाम बता दिए... अमृतलाल नागर जी और मुँशी प्रेम चंद जी के रचना संचयन के बारे में कहा कि उन्हें पढ़ रहा हूं..
मेरा यह जो मरीज है ..यह हिंदी प्रेमी है ...पांच छः अखबार लेता है ...और सुबह से शाम तक सारे पढ़ लेता है ..पहले भी कह चुका था..और आज भी कह रहा था कि आप के लेख जनसत्ता में छपते हैं...आप दूसरे अखबारों में भी भेजा करिए...मैंने बताया कि मैं किसी को भी नहीं भेजता, वे लोग ब्लॉग से अपने आप ले लेते हैं..
उन्होंने बताया कि वे आज कल रश्मिरथी पढ़ रहे हैं...और साथ में संस्कृति के चार अध्याय भी पढ़ रहे हैं... मुझे हिंदी साहित्य की जानकारी बहुत कम है ...मेरी जिज्ञासा भांप कर वह बताने लगे कि रश्मिरथी काव्य है ...दिनकर जी ...मैंने कहा ...रामधारी सिंह दिनकर जी ...कहने लगे..हां, हां, आज कल मैं उन को ही पढ़ रहा हूं...
उन की बातचीत से पता चला कि घर का सारा माहौल ही साहित्यिक है ...बीवी और बेटा भी ये सब साहित्य पढ़ते रहते हैं..घर में हर समय पढ़ाई लिखाई ही चलती रहती है ...
अच्छा लगा ये सब बातें सुन कर ...
मुझे याद आया कि दो साल पहले एक बात ये मुझे जैनेन्द्र कुमार का नावल त्यागपत्र पढ़ने के लिए दे गये थे ...मैंने उसे एक दो दिन मन लगा कर पढ़ा...और उस के बाद कुछ पंक्तियां अपनी डायरी में लिख दी थी...अभी डायरी सामने ही पड़ी हुई है, सोचा ब्लॉग पर वह चंद पंक्तियां शेयर करूं...
दिनांक ८.३.१५...
"उस समय भीतर ही भीतर सचमुच मुझे यह मालूम हो रहा था कि यहां देर तक मेरा रहना ठीक न होगा। लोग ने जाने क्या समझें। मैं आज तक इसी बात पर आश्चर्य किया करता हूं कि लोग क्या समझेंगे, इसका बोझ अपने ऊपर लेकर हम क्यों अपनी चाल को सीधा नहीं रखते हैं, क्यों उसे तिरछा-आड़ा बनाने की कोशिश करते हैं! लोगों के अपने मुंह हैं , अपनी समझ के अनुसार वे कुछ-कुछ क्यों न कहेंगे? इसमें उनको क्या बाधा है? उन पर फिर किसी को क्या आरोप हो सकता है? फिर उन सबका बोझ आदमी अपने ऊपर स्वीकार कर अपने भीतर के सत्य को अस्वीकार करता है - यह उसकी कैसी भारी मूर्खता है!!"
(जैनेन्द्र कुमार के उपन्यास ...त्यागपत्र से ...)
पढ़ने लिखने की बातों से बचपन की बातें उमड़-घुमड़ कर ज़रूर याद आ जाती हैं....जब चंदमामा, लोटपोट, नंदन, कभी कभी धर्मयुग भी, मायापुरी जैसी किताबें और कुछ छोटे छोटे जासूसी उपन्यास भी किराये पर लाकर पढ़े जाते थे ..शुक्र है कि उन दिनों टीवी नहीं होता था ..इसलिए कोशिश यही होती थी कि अगर चार पत्रिकाएं लाएं है ..मतलब एक रूपया किराया देना है कल सुबह तो कैसे भी रात देर तक जाग कर या सुबह जल्दी उठ कर निपटा लिए जाए...और अकसर यह काम हो ही जाता था...(जहां चाह वहां राह ..) ...हां, उन बच्चों के नावल के पचास पैसे थे एक दिन के ...वे भी खूब पढ़ते थे .. बचपन में ये पढ़ने-लिखने की आदतें हमारे जमाने में आम थीं...
स्कूल में हम लोग यह चर्चा करते थे ..पांचवी छठी कक्षा में अच्छा उस लोटपोट को पढ़ लिया तुमने .उस का सीरियल नंबर होता था ..फिर बिल्लू भी आने लगा था ... घर में धर्मयुग भी आता था और इलेस्ट्रेटेड वीकली भी ....मैं इन के भी पन्ने ज़रूर उलट लिया करता था ..फोटो देखता ..बच्चों के पढ़ने लायक कुछ पन्ने होते तो उन्हें भी देख लेता ...मां को सरिता पढ़ना पसंद था .. उस भी जरूर देख लेते थे और मामा जब आते थे तो उन के साथ मनोहर कहानियां, सच्ची कहानियां भी आती थीं, तब उधर भी नज़र पढ़ जाती थीं...रीडर डाईजेस्ट भी दसवीं कक्षा के आसपास दिखने लगी थी....और हां, क्लास में बच्चे जो मस्तराम जी का साहित्य पढ़ते थे तो वे बातें भी कानों में पढ़ती रहती थीं...याने सभी तरह के साहित्य का स्वाद चख लिया था ..स्कूल कालेज के दिनों में ही ...
बात उसी पर आते हैं कि आज कल कोई ऐसे पूछता नहीं है ना कि आप क्या पढ़ रहे हैं... लेकिन उस दौर में रिश्तेदार चिट्ठियों में लिखते थे कि खिलौना देखी है, आप लोग भी ज़रूर देखिए....मौसी ने लिखा कि चितचोर देख कर आए..कसमे वादे भी अच्छी है ...बहन गईं चाचा के यहां तो वहां से लिख भेजा कि ज़मीर फिल्म देख कर आये हैं...आप लोग भी देखिएगा...पहले हम लोग ऐसे निर्धारित करते थे कि कौन सी फिल्म देखनी हैं....मुझे अभी याद आ रहा है कि मुहल्ले की कुछ औरतें तलाश फिल्म देख कर आईं तो मां और उन की सहेलियां वाला ग्रुप भी अगले दिन सिटी लाइट हाल में यह फिल्म देखने चला गया ...
पहले कोई फिल्म देख कर आते थे तो शायद उस का नशा अगले सात दिन तक को कम से कम चढ़ा ही रहता था..हर शख्स अपने आप को उन चंद दिनों के लिए कुछ कुछ हीरो जैसा ही अपने आप को समझने लगता था ...फिर जब नशा उतर जाता तो सब कुछ नार्मल हो जाता था...
हां, एक बात और याद आ गई...कईं बार बंदिश से भी अच्छे काम हो जाते थे ...याद करिए किस तरह से हम लोग छोटे साईकिल एक घंटे के लिए २५ पैसे के हिसाब से किराये पर लेते थे ..उस समय लंबा चल कर दुकान तक जाना भी बिल्कुल नहीं अखरता था...और वहां कुछ समय इंतज़ार करने में भी दिक्कत नहीं होती थी..साथ में कोई साथी भी होता था ...जिस के साथ आधे आधे समय चलाने का कान्ट्रेक्ट हुआ होता था ....सच बताऊं जो खुशी उस छोटे साईकिल को उस एक घंटे में चलाने में होती थी वह तो मुझे कभी भी आई२० गाड़ी चलाने में भी नहीं हुई....कभी भी नहीं.. बस, उस साईकिल को चलाते समय एक घंटे के खत्म होने की चिंता सताती रहती थी ...फिर इतनी अकल भी आ गई कि एक घंटे होते होते दुकान के आसपास ही चक्कर लगाने हैं...ताकि जैसे ही वह आवाज़ लगाए .. तो उसे साईकिल जमा करवा दी जाए...क्योंकि जेब में २५ पैसे से ज़्यादा माल भी तो नहीं होता था....
बदल गया है ज़माना है ....बदलना भी ज़रूरी होता है...पहले किसी के यहां केसेट आती थी तो पता चल जाता था कि उस के यहां ये ये कैसेट्स हैं, मिल बांट कर सुनते से सारे .....अब सभी के फोनों पर स्क्रीन लॉक लगे होते हैं....घर में हज़ारों रूपये के फोन , लैपटाप आते हैं तो भी लोग कहां एक साथ बैठ कर खुशी मना पाते हैं ! हरेक को अनजान हडबड़ाहट है....वाट्सएप, ट्विटर और फेसबुक पर पीछे छूट जाने की फिक्र है शायद ..
हां, जाते जाते किताब कौन सी पढ़ रहा हूं, इस का जवाब तो मैंने ऊपर दे दिया ... लेकिन आज कौन सी खरीदी है ...उस का नाम है ...Rishi Kapoor की किताब Uncensored Khullam Khulla......It reminds me of that popular song ... जो अकसर Big FM 94.3 पर बजता रहता है ....
किताबों के विषय में बातें करना मुझे भी पसंद है। लेकिन दोस्त लोग कम ही पढ़ते हैं तो उनसे केवल धारावाहिकों के विषय में ही बात चीत होती है। हाँ,कॉलेज के दिनों में मिल बाँट कर कई धारावाहिक देखे हैं।
जवाब देंहटाएंअच्छा जी!
जवाब देंहटाएं