रविवार, 29 मई 2016

चूहों का शिकार तो आपने भी कभी किया ही होगा!

एक बड़ी जबरदस्त हिंदी फिल्म आई थी.. प्यार तो होना ही था...बहुत बार देखी...क्लाईमेक्स में हीरो ने फ्लाईट को रूकवाना होता है..काजोल के पास जाने के लिए...टेक-ऑफ होने ही वाला था..एयरपोर्ट आफीसर नहीं मानता..देवगन ईमोशनल पत्ता फैंकता है ...सर, प्यार तो आपने भी कभी न कभी किसी से किया ही होगा!....बस, फिर क्या था, निशाना लग गया टिकाने पर...फ्लाईट को रोक दिया गया...

मेरी इस पोस्ट का शीर्षक भी इसे संवाद से प्रेरित है कहीं न कहीं...विषय थोड़ा पकाने वाला ही है, ऐसा करते हैं...पहले इसी फिल्म से मेरा पसंदीदा गीत सुन लेते हैं....अजनबी मुझ को इतना बता, दिल मेरा क्यों परेशान है!


अब बात शुरू करते हैं...चूहों की...परसों मैं अपनी कॉलोनी के बाहर निकला तो देखा एक बंदा एक पिंजड़े में बंद कुछ जानवरों की कुछ खिला रहा है...



एक तो मेरी यह उत्सुकता हर जगह मुझे रूकवा देती है ...हां जी, क्या कर रहे हैं?... चूहों को अंडा रोल खिला रहे हैं...चूहे और सफेद रंग के... पता नहीं यह भी कोई हाईब्रिड ब्रीड है या क्या है, लेिकन ये चूहे हैं बहुत सुंदर ..उस पिंजडे में उन के खाने-पीने की अलग व्यवस्था कर रखी थी...एक दो कटोरे फिक्स करवा रखे थे...

और जितने चाव से जितने उत्साह से वह बंदा इन की सेवा-सुश्रुषा में लगा हुआ था वह भी देखते बन रहा था...साथ साथ मेरे को बताने लगा कि इस एक चूहे को अगर आप कमरे में छोड़ दें तो दूसरे चूहे कभी उस कमरे में नहीं आते...
अच्छा, तो यह बात है!




मैं यही सोच रहा था कि ये नेक किस्म के चूहे अगरे चालीस पचास साल पहले आ जाते तो हम लोगों की बचपन की सिरदर्दी भी थोडी कम हो जाती..

हम लोगों के घर में एक चूहों के पकड़ने के लिए लोहे की तारों का बना पिंजड़ा था...कभी कभी उस में रोटी टांगने की ड्यूटी मेरी लगती थी...यही दूसरी तीसरी कक्षा की बातें हैं...उस ज़माने में मुझे घर में सब से ज़्यादा जटिल मशीन ही वह लगती थी....मैं देख कर हैरान हो जाया करता कि किस तरह के हमें उस में एक चूहा कैद हुआ मिलता...फिर मैं देखता कि कैसे वह अंदर फंसा होगा...उस के लिए बुरा भी लगता ..फिर यही तसल्ली होती कि अभी चंद मिनटों की बात है, इसे बाहर तो छोड़ ही आना है..

हम लोग उसे घर के बाहर छोड़ आते....फिर वह किस पड़ोसी के घर घुस जाता ...इस से हमें कोई लेना देना नहीं होता..मुझे लगता है कि कमबख्त यह भी एक खेल ही था...आज उस के घर से, परसों उस के घर से, फिर से वापिस हमारे घर से... बस, ऐसे ही सिलसिला चल रहा था...शायद १९७०-७२ के आस पास तक...

फिर धीरे धीरे पता चलने लगा कि अब सभी लोग एतराज करने लगे थे कि चूहे अगर पकड़ें हैं तो उन्हें घर के बाहर ही क्यों छोड़ देते हैं...हमारे घर में घुस जाते हैं...इसलिए लोगों ने घर से सौ पचास मीटर दूर ऩाली या किसी नाले के पास जाकर कैद चूहों को विदा करना शुरू कर दिया...

एक याद मुझे बहुत अच्छे से है ...हमारी कॉलोनी में ही कुछ घर छोड़ के ...श्याम लाल जी रहते थे...पता नहीं यार उन के घर में कितने चूहे थे ..या क्या चक्कर था, क्या नहीं, जब भी मैं घर के बाहर होता उन का बड़ा बेटा हमेशा मुझे साईकिल के कैरियर पर चूहेदानी टिकाए हुए ही दिखता ...यह उस का पढाई से बचने का बहाना था, या सिर्फ टाइम-पास... अकसर उसे देख कर हंसी आ जाती थी मुझे ...हम लोग भी इस काम के लिए जाते थे..लेकिन इतने ताम-झाम के साथ नहीं, चुपचाप गये ...उस लोहे वाले पिंजड़े का दरवाजा खोल दिया ...और उसे आज़ाद कर दिया...हां, एक बात और ध्यान में आ रही है, गली मोहल्लों में इस काम के लिए सुबह तड़के के समय को सब से अच्छा माना जाता था..न कोई देखेगा..अगर चूहे मस्ती मस्ती में विद्या की मां, कश्मीरन, कपूरनी, सोडन ...किसी के भी घर घुस गया तो कोई पंगा नही...वरना थोड़ी बहुत चिक चिक तो...चाहे मामूली ही सही ... होने के चांस तो थे ही!

लोग स्मार्ट होने लगे १९७० के दशक में ...हमारे सामने रहने वाला अशोक एक पिंजड़ा ले आया जिस में चूहे की हत्या ही हो जाती थी...मुझे वह बहुत बुरा लगा ...हम ने यह सब काम कभी नहीं किया....मारने वारने का क्या काम, बंद किया ..छोड़ दिया...हो गई बात ....कुदरत के कानून को अपने हाथ में लेने से क्या हासिल!

तब तक लकड़ी के चूहेदान आ चुके थे....हैंडल के साथ...वह भी हम लोगों के यहां था... और हां, ये चूहेदान एक दूसरे के यहां से मांग कर भी काम चला लिया जाता था...बेवजह की इतनी अकड़  भी तो नहीं थी ना तब!

लेकिन फिर कुछ ऐसा पंगा हो गया कि चूहेमार दवाई बाज़ार में मिलने लगी ...  हम लोगों को यह सब बहुत बुरा लगता था..और आज भी लगता है ...जीव हत्या बहुत गलत है..बाकी सब बातें अपनी जगह ठीक हैं...हम लोगों ने इसे कभी इस्तेमाल नहीं किया...अब जब घर में कभी कोई चूहा दिख जाता है तो काम वाली बाई उस के पीछे भाग भाग के उसे बाहर का रास्ता दिखा देती है...

यह तो थी फ्लैशबेक....

आज मैं सुबह बेटे के साथ बाज़ार में घूमने निकला तो एक मोटर साईकिल पर यह पिंज़ड़ा देखा..इस में दो चूहे थे...क्योंकि मुझे परसों चल गया था कि चूहे सफेद रंग के भी होते हैं...मैंने इस बंदे से पूछा कि कितने में खरीद लाए ?....मैं भी न पंगे लेने से बाज नहीं आता...बताने लगा कि १५० के आये हैं...मैंने पूछा...पिंजड़ा भी साथ में?...नहीं, नहीं, पिंजड़ा अलग लिया है २५० में ... अच्छा मजबूत लिया है, वरना ये तार को काट देते हैं.....बंदा बड़ा खुश था...

बताने लगा कि इन चूहों की वजह से घर में दूसरे चूहे नहीं आते....मैंने पूछा कि इन को खुला तो छोड़ना पड़ता होगा घर में, उसने बताया कि नहीं, पिंजड़ें में ही इन की महक से दूसरे चूहे घर में नहीं फटकते......मैं हैरान था कि यह कैसा चक्कर है! लेकिन उसे इन को पालने का पूरा अनुभव था...जैसा कि उस की इस बात से पता चला कि जोड़ा लिया है, और आने वाले दो महीने में यह पिंज़ड़ा पूरा इन के बच्चों से भर जाएगा....वाह यार ...यह तो बहुत अच्छी बात है!

 पोस्ट को खत्म करने से पहले यहां यह भी दर्ज कर दूं कि मुझे हर तरह के पिंजड़ों से सख्त नफ़रत है..कितनी घुटन होती होगी ....काश, पिंजड़े बनने ही बन हो जाएं...हम लोगों में कुछ ऐसे बदलाव आ जाएं कि हम जीवों को पिंजड़ों में कैद करना ही छोड़ दें....घुटन से याद आया ...अभी हमारे सत्संग वाले ग्रुप पर एक मैसेज आया ..आप से शेयर करने की इच्छा हो गई....

और इस पोस्ट रूपी लिफाफे को बंद करते करते बेटे ने यह मैसेज भेजा है ...अभी पढ़ता हूं...

अचानक मुझे भी यह गीत ध्यान में आ गया ....

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