कुछ घाव जुबान और गाल के अंदरूनी हिस्सों में बहुत जल्दी ठीक हो जाते हैं...अगर मरीज़ तुरंत किसी डेंटिस्ट को दिखा दे..
संयोग से परसों दो मरीज़ ऐसे ही आये कि इस विषय पर कुछ लिखा जाए...अकसर हर दिन ओपीडी में एक मरीज़ तो ऐसा आ ही जाता है।
ऐसे अधिकतर मरीज़ इतने खौफज़दा होते हैं कि उन्हें लगता है कि जैसे मुंह में कैंसर हो गया है.. केवल डेंटिस्ट के देख लेने से ही इन्हें बहुत ज़्यादा राहत महसूस होती है।
किताबों में भी लिखा है...हमारे प्रोफैसर भी कहा करते थे कि दांतों की इस तरह की लंबे समय तक चलने वाली रगड़ की वजह से कैंसर हो जाने का अंदेशा रहता है .. जी हां, होता तो है..लेकिन जब इस तरह की रगड़ बरसों पुरानी हो, मुंह के ज़ख्म को बिल्कुल नज़रअंदाज़ किया गया हो... साथ में पान या तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन से भी रिस्क तो बढ़ ही जाता है।
अकसर मैंने देखा है कि मुंह में इस तरह का ज़ख्म होने पर मरीज़ या तो अपने आप कुछ न कुछ लगा कर ठीक करने की कोशिश करता है, कैमिस्ट से कुछ भी ले लेता है लगाने के लिए, कुछ "सुखाने वाले कैप्सूल" ले लेता है, बिना वजह बी-कम्पलैक्स खाता रहता है, किसी दूसरे विशेषज्ञ को दिखाता रहता है .....सब कुछ ट्राई करने के बाद फिर वह किसी के कहने पर दंत चिकित्सक के पास जाता है ...जहां से उसे इस तकलीफ़ की जड़ का पता चलता है।
यह जो ऊपर तस्वीर लगाई है मैंने यह किसी ५०-५५ साल की महिला की तस्वीर है ...आप देख सकते हैं कि जुबान के घाव के सामने ही एक निचली जाड़ का किनारा टूटा हुआ है ...और इस नुकीले कोने की वजह से यह ज़ख्म हो गया है ... कुछ खास करना होता नहीं, एमरजैंसी के तौर पर बस उस कोने को तो उसी समय खत्म करना होता है ...और बहुत बार तो इस ज़ख्म पर कुछ भी न तो लगाने की ही ज़रूरत होती है और न ही कोई दवा खाने की ...बहुत ही जल्दी दो तीन दिन में ही यह सब कुछ बिल्कुल ठीक हो जाता है ...
वैसे उन नुकीले कोने को गोल करते ही मरीज़ को बहुत राहत महसूस होने लगती है... और बस कुछ दिन मिर्च-मसाले-तीखे से थोड़ा सा परहेज बहुत ज़रूरी है ..ज़ख्म भरने में मदद मिलती है।
कुछ दिन बाद पूरा इलाज तो करवाना ही होता है ...अगर दांत भरने लायक है तो उसे भरा जाता है, उखाड़ने लायक तो उखाड़ा जाता है ...और अगर उस पर कैप लगवाने की ज़रूरत हो तो मरीज़ को बताया जाता है...जैसे भी वह निर्णय ले सब कुछ समझ कर।
यह जो दूसरी तस्वीर है यह भी एक निचली जाड़ के टूटे हुए नुकीले कोने की वजह से है...लेकिन इस तरह से गाल में इस तरह का ज़ख्म कुछ कम ही दिखता है ...मैंने ऐसा नोटिस किया है...इस मरीज़ को इस ज़ख्म के आसपास सूजन भी थी... इन्होंने कभी तंबाकू, गुटखे, पान का सेवन नहीं किया....इन के भी टूटे हुए दांत के नुकीलेपन को दूर किया तो इन्हें तुरंत बहुत राहत महसूस हुई ... पूछने लगे कि मुझे मधुमेह है ...ज़ख्म का क्या होगा, मैंने कहा कुछ नहीं करना, बस दो चार दिन बाद दिखाने आ जाईयेगा...और नीचे वाला हिलता हुई टूटा दांत उखाड़ना ही पड़ेगा...
हां, इन के साथ ही एक बुज़ुर्ग भी थे...७५-८० साल के ...बस, यही तकलीफ कि दांत के कोने नुकीले होने की वजह से ज़ख्म हो गये हैं....बड़े फ्रैंक हैं वे...कहने लगे कुछ दिन घर में कुछ जुगाड़ किया इस के लिए...नहीं हुआ तो सोचा चलिए अपने अस्पताल में ही चलते हैं....प्राईव्हेट में तो हाथ लगाने के तीन चार सौ लग जाएंगे....
मैंने यही सोचने लगा कि जो कोई भी प्राईवेट क्लीनिक खोल के बैठा है ... उस ने भी अपने सारे खर्च वहीं से निकालने हैं....३००-४०० रूपये कुछ ज़्यादा भी नहीं है...उसे इस तरह की तकलीफ़ का सटीक निदान एवं उपचार करने के लिए तैयार होने के लिए कितना अपने आप को घिसाना पड़ा होगा....और किसी मरीज़ की किसी बड़ी चिंता को दूर करने के लिए, उसे ठीक करने के लिए तीन चार सौ रूपये कुछ ज़्यादा नहीं है ....शायद एक पिज़्जा या गार्लिक ब्रेड ५००-६०० की है, और ये जो फेशियल-वेशियल के भी तो इतने लग जाते हैं....फिर अनुभवी चिकित्सकों की फीस ही क्यों चुभती है....हम लोग कभी प्राईव्हेट में किसी चिकित्सक के पास जाते हैं तो मैं वहां बताता ही नहीं कि मैं भी डाक्टर हूं...जहां तक संभव हो...उन की जो भी फीस है ४००-५०० चुपचाप चुकता करनी चाहिए....अगर उन्हें पता चलता है और वे फीस लौटा देते हैं तो मुझे बहुत बुरा लगता है ....इस तरह की मुफ्तखोरी बहुत बुरी बात है! और ये महान् चिकित्सक हैं उन्हें किसी मरीज़ के साथ दो मिनट से ज़्यादा बात करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती ....मैं ऐसे लोगों के फन को सलाम करता हूं..
अच्छा अब चित्रहार की बारी है... यह गीत ..पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है... ब्यूटीफुल .... यह सुबह से ही बार बार याद आ रहा है ...पता नहीं क्यों! अभी इसे सुन ही लूं... तो चैन पड़े...
संयोग से परसों दो मरीज़ ऐसे ही आये कि इस विषय पर कुछ लिखा जाए...अकसर हर दिन ओपीडी में एक मरीज़ तो ऐसा आ ही जाता है।
ऐसे अधिकतर मरीज़ इतने खौफज़दा होते हैं कि उन्हें लगता है कि जैसे मुंह में कैंसर हो गया है.. केवल डेंटिस्ट के देख लेने से ही इन्हें बहुत ज़्यादा राहत महसूस होती है।
किताबों में भी लिखा है...हमारे प्रोफैसर भी कहा करते थे कि दांतों की इस तरह की लंबे समय तक चलने वाली रगड़ की वजह से कैंसर हो जाने का अंदेशा रहता है .. जी हां, होता तो है..लेकिन जब इस तरह की रगड़ बरसों पुरानी हो, मुंह के ज़ख्म को बिल्कुल नज़रअंदाज़ किया गया हो... साथ में पान या तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन से भी रिस्क तो बढ़ ही जाता है।
अकसर मैंने देखा है कि मुंह में इस तरह का ज़ख्म होने पर मरीज़ या तो अपने आप कुछ न कुछ लगा कर ठीक करने की कोशिश करता है, कैमिस्ट से कुछ भी ले लेता है लगाने के लिए, कुछ "सुखाने वाले कैप्सूल" ले लेता है, बिना वजह बी-कम्पलैक्स खाता रहता है, किसी दूसरे विशेषज्ञ को दिखाता रहता है .....सब कुछ ट्राई करने के बाद फिर वह किसी के कहने पर दंत चिकित्सक के पास जाता है ...जहां से उसे इस तकलीफ़ की जड़ का पता चलता है।
यह जो ऊपर तस्वीर लगाई है मैंने यह किसी ५०-५५ साल की महिला की तस्वीर है ...आप देख सकते हैं कि जुबान के घाव के सामने ही एक निचली जाड़ का किनारा टूटा हुआ है ...और इस नुकीले कोने की वजह से यह ज़ख्म हो गया है ... कुछ खास करना होता नहीं, एमरजैंसी के तौर पर बस उस कोने को तो उसी समय खत्म करना होता है ...और बहुत बार तो इस ज़ख्म पर कुछ भी न तो लगाने की ही ज़रूरत होती है और न ही कोई दवा खाने की ...बहुत ही जल्दी दो तीन दिन में ही यह सब कुछ बिल्कुल ठीक हो जाता है ...
वैसे उन नुकीले कोने को गोल करते ही मरीज़ को बहुत राहत महसूस होने लगती है... और बस कुछ दिन मिर्च-मसाले-तीखे से थोड़ा सा परहेज बहुत ज़रूरी है ..ज़ख्म भरने में मदद मिलती है।
कुछ दिन बाद पूरा इलाज तो करवाना ही होता है ...अगर दांत भरने लायक है तो उसे भरा जाता है, उखाड़ने लायक तो उखाड़ा जाता है ...और अगर उस पर कैप लगवाने की ज़रूरत हो तो मरीज़ को बताया जाता है...जैसे भी वह निर्णय ले सब कुछ समझ कर।
यह जो दूसरी तस्वीर है यह भी एक निचली जाड़ के टूटे हुए नुकीले कोने की वजह से है...लेकिन इस तरह से गाल में इस तरह का ज़ख्म कुछ कम ही दिखता है ...मैंने ऐसा नोटिस किया है...इस मरीज़ को इस ज़ख्म के आसपास सूजन भी थी... इन्होंने कभी तंबाकू, गुटखे, पान का सेवन नहीं किया....इन के भी टूटे हुए दांत के नुकीलेपन को दूर किया तो इन्हें तुरंत बहुत राहत महसूस हुई ... पूछने लगे कि मुझे मधुमेह है ...ज़ख्म का क्या होगा, मैंने कहा कुछ नहीं करना, बस दो चार दिन बाद दिखाने आ जाईयेगा...और नीचे वाला हिलता हुई टूटा दांत उखाड़ना ही पड़ेगा...
हां, इन के साथ ही एक बुज़ुर्ग भी थे...७५-८० साल के ...बस, यही तकलीफ कि दांत के कोने नुकीले होने की वजह से ज़ख्म हो गये हैं....बड़े फ्रैंक हैं वे...कहने लगे कुछ दिन घर में कुछ जुगाड़ किया इस के लिए...नहीं हुआ तो सोचा चलिए अपने अस्पताल में ही चलते हैं....प्राईव्हेट में तो हाथ लगाने के तीन चार सौ लग जाएंगे....
मैंने यही सोचने लगा कि जो कोई भी प्राईवेट क्लीनिक खोल के बैठा है ... उस ने भी अपने सारे खर्च वहीं से निकालने हैं....३००-४०० रूपये कुछ ज़्यादा भी नहीं है...उसे इस तरह की तकलीफ़ का सटीक निदान एवं उपचार करने के लिए तैयार होने के लिए कितना अपने आप को घिसाना पड़ा होगा....और किसी मरीज़ की किसी बड़ी चिंता को दूर करने के लिए, उसे ठीक करने के लिए तीन चार सौ रूपये कुछ ज़्यादा नहीं है ....शायद एक पिज़्जा या गार्लिक ब्रेड ५००-६०० की है, और ये जो फेशियल-वेशियल के भी तो इतने लग जाते हैं....फिर अनुभवी चिकित्सकों की फीस ही क्यों चुभती है....हम लोग कभी प्राईव्हेट में किसी चिकित्सक के पास जाते हैं तो मैं वहां बताता ही नहीं कि मैं भी डाक्टर हूं...जहां तक संभव हो...उन की जो भी फीस है ४००-५०० चुपचाप चुकता करनी चाहिए....अगर उन्हें पता चलता है और वे फीस लौटा देते हैं तो मुझे बहुत बुरा लगता है ....इस तरह की मुफ्तखोरी बहुत बुरी बात है! और ये महान् चिकित्सक हैं उन्हें किसी मरीज़ के साथ दो मिनट से ज़्यादा बात करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती ....मैं ऐसे लोगों के फन को सलाम करता हूं..
अच्छा अब चित्रहार की बारी है... यह गीत ..पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है... ब्यूटीफुल .... यह सुबह से ही बार बार याद आ रहा है ...पता नहीं क्यों! अभी इसे सुन ही लूं... तो चैन पड़े...
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