कल रात मैं एससी सुपरफॉस्ट एक्सप्रेस जिसे राजधानी भी कहते हैं ...इस से नई दिल्ली से लखनऊ आ रहा था ..यह गाड़ी ११.३० बजे रात को नई दिल्ली से छूटती है और सुबह ७.३० बजे लखनऊ स्टेशन पर पहुंच जाती है ..
एसी फर्स्ट का माहौल मुझे बड़ा फीका-सा ही होता है ... सब लोग एक दम सीरियस से, और कॉरीडोर में चपरासियों, मातहतों, और सिक्योरिटी वालों का तांता....किसी के कुछ विशेष इंट्रेक्शन का ज़्यादा स्कोप नहीं होता और अगर सामने वाला बंदा मेरे जैसा संकोची स्वभाव का हो तो हो गया इंट्रेक्शन...मेरे तो मरीज़ ही हैं जो मेरे से मन की बातें उगलवा लेते हैं और अपनी बातें भी खुल कर लेते हैं...वरना तो मेरे संकोची स्वभाव का किसी को मेरे चिट्ठों से शायद ही गुमान हो पाता हो!
हां, जैसे ही मैं फर्स्ट एसी के उस केबिन में गया ...नीचे वाली सीट पर बैडिंग पहले से ही सलीके से बिछी हुई थी ...अन्य दो यात्री अपने अपने फोन पर लगे हुए थे...एक साहब फोन पर आखिरी समय में एसी फर्स्ट में सीट मिल जाने की खुशी ब्यां कर रहे थे ....मेरी ऊपर वाली बर्थ पर थे यह ...खुश थे कि टिकट तो कंपनी ही करवा देती है ...कल लखनऊ ..फिर वहां से इलाहाबाद और क्या पता अगले दिन कलकत्ता जाने का फरमान मिल जाए...
खैर मैंने ऊपर लिखा है न कि इस फर्स्ट एसी श्रेणी में किसी का किसी से कोई इंट्रेक्शन तो होता नहीं ..लेकिन जितने जितने हमारे फोन आते जाते हैं...हम न चाहते हुए भी अपना परिचय देते रहते हैं...ऐसा हम सब के साथ होता है, यह कोई नई बात नहीं..
ठीक है केबिन के दरवाजे को चिटकनी लगाई और हम लोग सो गये....सुबह साढ़े छः बजे मैं उठ गया...मैं वॉश रूम में जाने लगा ..जुराबे तो मैंने पहन ही रखी थीं, मैंने अपनी सीट के नीचे रखे शूज़ डाले ...कुछ ज्यादा ही टाइट लगे ...मुझे महसूस हुआ कि यह क्या बात हुई ...शूज़ टाइट कैसे हो गये! वैसे वॉश-रूम से लौटने तक मैंने इस के बारे में कुछ ज़्यादा मैंने अपने तंग शूज़ के बारे में सोचा नहीं...
वॉश-रूम से लौटा तो १३९ नंबर से ट्रेन को स्पॉट किया ..पता चला कि आठ मिनट की देरी से चल रही है ... मैं सोचा कि अब क्या फिर से लेटने का झंझट करना ...बाहर का नज़ारा देखते है ं....मैंने नीचे वाली सीट ऊपर उठा दी ताकि बैठने में आसानी हो जाए...और मैं बाहर ताकने लगा ...कुछ समय बाद मलीहाबाद, फिर काकोरी, और फिर आलमनगर ....गाड़ी आलमनगर स्टेशन पर ३०-४० मिनट खडी हो गई...
एक परेशानी आज कल एसी के डिब्बों में एसी टू और एसी फर्स्ट में यह हो गई है कि नीचे की सीट वाला कोई भी बंदा उसे ऊपर उठाता नहीं ..सारा दिन बिस्तर फैला कर रखते हैं और इसलिए पसरे रहते हैं ताकि ऊपर वाला बंदा कहीं किनारे में न आकर बैठ जाए...हम उस दौर के पुराने लोग हैं जब लोग सुबह सात बजे नीचे वाली सीट को ऊपर उठा देते थे ताकि ऊपर वाला बदकिस्मत बंदा भी कुछ इधर-उधर-बाहर-अंदर झांक तो ले बेचारा....उसने भी टिकट खरीदी है!
हां लगभग साते सात बजे ऊपर वाला भला-मानस भी नीचे उतर आया तो तैयार हो के बैठ गया..मेरे साथ ही नीचे वाली सीट पर ....मैं एक पंजाबी लेखक कुलवंत सिंह विर्क साहिब की कहानी-किस्सों की किताब पढ़ रहा था लेकिन बीच बीच में मेरा मन अपने कसे हुए शूज़ को बिना देखे उसके कारण टटोलने में लगा रहा ...
अपने शूज़ पहनते ही मेरी समस्या हल हो गई .. |
फिर मेरी दिमाग की फिर्की घूमने लगी कि अभी तो मैंने तीन चार दिन से ही एक दवाई लेनी शुरू की है ...कहीं इस का कोई साइड-इफेक्ट तो नहीं कि शरीर में फ्लूयड-रिटेंशन होने लगा है ...सोचा, कोई बात नहीं, विशेषज्ञ से बात करेंगे...
इसी उधेड़बुन में था और गाड़ी रूकी ही हुई थी कि मेरे सहयात्री के ये शब्द मेरे कानों में पड़े ..."भाई साहब, कहीं आप के और मेरे शूज़ बदली तो नहीं हो गये"
लीजिए, मेरी समस्या का हल मिल गया...मैंने उन की पीठ पर गर्मजोशी से हाथ मारा ..और कहा कि मैं, सुबह से इस बात का कारण जानने की कोशिश कर रहा था कि मेरे शूज़ अचानक इतने टाइट कैसे हो गये. उन्होंने ठहाका लगाते हुए बताया कि वे अपनी जगह परेशान थे कि रात रात में ही ऐसा क्या हो गया कि शूज़ इतने लूज़ हो गये....इतना कहना था और जब हमने नीचे अपने जूतों की तरफ़ देखा तो हमारे केबिन में खूब ठहाके लगे .... हम दोनों के शूज़ बिल्कुल एक जैसे थे ...उस भद्रपुरूष की यह विनम्रता थी (वे इलाहाबाद से थे) कि कहने लगे कि मेरे तो बिल्कुल सस्ते से शूज़ हैं.. मैंने कहा ...नहीं, यार, मेरे भी कौन से जापानी हैं! मैंने उस बंदे को अपने जूते डाले देखा तो इतने लूज़ कि मुझे हैरानी हुई कि यह बंदा यह पहन कर वॉश-रूम भी कैसे हो कर आया होगा!
फिर तो बातें होती रहीं...मैंने कहा कि मुझे शूज़ इतने तंग लग रहे थे कि मेरे से तो पहने ही नहीं जाते ...वह बताने लगे कि इतने खुले शूज़ के साथ तो मेरे से तो चलना दूभर था ...मुझे तो स्टेशन पर उतर कर पहले जूते की दुकान ढूंढनी पड़ती....एक बात फिर से माहौल ठहाकामय हो गया...
८.३० के करीब लखनऊ चारबाग स्टेशन पर हम पहुंच गये ...और अपने अपने गन्तव्य स्थान की तरफ़ प्रस्थान किया....एक सबक फिर मिल गया आज कि संवाद से हर बात का हल हो सकता है ...बोल चाल बंद नहीं करनी चाहिेए...वरना, अकसर इन गाड़ियों में ऐसा ही होता है कि हम लोग बिन बात किए जैसे अपने कैबिन में घुसते हैं, उसी तरह कोरे ही बिना किसी संवाद के अपना स्टेशन आने पर ट्रेन से बाहर आ जाते हैं...
आज से चालीस साल पहले कथा-कीर्तन पर भी चप्पलें अदला-बदली हो जाया करती थीं अकसर ... लेकिन वह कोई इश्यू नहीं होता था क्योंकि लगभग सभी की सभी तीन रूपये वाली कैंची चप्पलें घिसी पिटी हालत में हुआ करती थीं...अगर अपनी नहीं मिली तो लोग तुरंत दूसरी पहन कर पतली गली पकड़ लिया करते ...बस, इतना सा ध्यान कर लेते थे कि उस की पहले से मुरम्मत न हुई हो ... हा हा हा हा हा ...कितने सीधे थे लोग भी पहले!
मैं बाहर आते समय यही सोच रहा था कि हम लोग जब ज़रूरत से ज़्यादा पढ़ लेते हैं तो अपने ऊपर इतना आत्मविश्वास करने लगते हैं ...ओवर-कॉंफिडैंस की हद तक ...कि we start taking everything for granted! ... मेरी प्रोफेसर बहन एक बार हमारी मां को स्टेशन पर छोड़ने आई तो फिरोजपुर की गाड़ी की जगह चेन्नई की गाड़ी में लगभग रवाना करने ही वाली थीं कि जीजा जी ने बचा लिया......कल मैं दिल्ली मैट्रो में उलट दिशा में वैशाली की बजाए द्वारका की तरफ़ छः स्टेशन चला गया...फिर से पलट कर आया...
वही पंजाबी बेबे की बात ही ठीक है ..एक बस में बैठ गईं पोटली के साथ....कंडैक्टर को बोल दिया कि पुत्तरा मानां वाला पिंड आवे तो दस देवीं....कंडैक्टर ने कहा कि जी, बीबी जी, दस दिआंगे ...लेकिन बेबे को चैन नहीं पड़ रहा था...बार बार दस मिनट में एक बार पूछ ही लेती ...कंडैक्टर कहता ...बेबे, किहा न ...तुसीं चिंता न करो...दस दिआंगे ते तुहानूं मानावालां पिंड पहुंचन ते ...लेकिन इस चक्कर में हुआ यह कि मानांवाला पिंड निकल ही गया..बस दस किलोमीटर आगे आ गई तो कंडेक्टर को बेबे पर दया आई और उसने ड्राईवर को बताया कि बेबे तो यार बार बार याद दिला रही थी, बहुत माड़ा हो गया..हम आगे निकल आए...यार, मेरी बेनती है ..बस पिच्छे ले ले......जी हां, वही हुआ....वे लोग वापिस मानांवाला पिंड दे स्टॉप ते आ गये और बेबे को कहा ....आ गया जी बीबी जी मानांवाल उतर जाओ........बेबे ने कहा ..हाय वे, मैं तो जाना अमृतसर ऐ....मुंडे ने तो बस पक्केयां कीता सी कि मानावालां पिंड पहुंचन ते अपनी दवाई खा लिओ ज़रूर.....
हां, जूतों पर यह पोस्ट लिखते लिखते मुझे एक बेहतरीन फिल्म बम बम बोले का ध्यान आ गया...कुछ साल पहले देखी थी, नाम नहीं याद आ रहा था ... छोटे बेटे से पूछा कि वह कौन सी फिल्म थी जिस में एक छोटी सी प्यारी सी बच्ची के शूज़ फटे होते हैं और उसे नये शूज़ लेने का बड़ा चाव होता था, उसने तुरंत नाम बता दिया ..कि शायद बम बम बोले ही होगी...जी हां, वही फिल्म थी, यू-ट्यूब पर भी है, देखिए अगर पहले नहीं देखी ..एक ट्रेलर के रूप में इस का एक छोटा सा गीत यहां एम्बेड कर रहा हूं ...
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