शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

मंजे उठने पर इतना बवाल क्यों भई !


अभी कुछ दिन पहले राहुल गांधी की खाट पे चर्चा कार्यक्रम के बाद लोग लगभग २००० मंजे अपने साथ लेकर चले गये...कल देखा अखबार में ..परसों सोशल मीडिया पर भी यह बात छाई रही ...लेकिन मेरे विचार में यह कोई मुद्दा ही नहीं...

इतनी इतनी रईस ये सब राजनीतिक पार्टियां हैं, अगर २००० मंजे लोग अपने साथ एक सोविनर की तरह अपने साथ ले भी गये तो इन पार्टियों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। एक बात पब्लिक इशारा तो करे कि वोट भी उसका जिस का मंजा ...तो लाइन लग जायेगी मंजे देने वालों की ...

कुछ लोगों के कमैंट्स इस मुद्दे पर कल दिखे...
खाट ले जाने वाले चोर और माल्या डिफॉल्टर यह सही नहीं: राहुल
कांग्रेस उपाध्यक्ष ने कहा कि खाट ले जाने वालों को चोर और विजय माल्या को डिफॉल्टर कहा जा रहा है। यह सही नहीं है। 

बदलना होगा इस परसेप्शन को
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की खाट पंचायत का हवाला देते हुए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा, यदि सपा के कार्यक्रम में इस तरह की घटना होती तो खबर छपती कि समाजवादी गुंडों ने खाट लूट लीं। मगर, कांग्रेस के कार्यक्रम में ऐसा हुआ तो कहीं नहीं छपा कि कांग्रेसी गुंडों ने खाट लूट ली। अखिलेश ने कहा, यह परसेप्शन ठीक करने की जरूरत है।  

सिंचाई मंत्री यूपी सरकार शिवपाल ने कहा ... राहुल गांधी खाट पर बैठने की नौटंकी कर रहे हैं।  

खाट पर चर्चा तो मैं भी अभी करूंगा ..लेकिन नौटंकी वाली बात पर याद आया कि नौटंकी तो सारे ही कर रहे हैं लेकिन बड़े लोगों की नौटंकी किसी की समझ में आती नहीं, जब आती है तब तक देर हो चुकी होती है ...आम आदमी की नौटंकी से याद आया कि कल रात में यहां लखनऊ में हमारे घर के पास एक राम डोर मेला लगा हुआ था...बड़ी भीड़ थी...और अव्यवस्थित वाली भीड़...मैं भी चंद मिनट उस तरफ़ गया...जगह जगह नौटंकी भी चल रही थी... जिस में १५-२० वर्ष की छोटी छोटी बच्चियां अजीब तरीके से डांस कर रही थीं...मुझे यह अजीब सा लगा ...लेकिन एक बात है कि वे लोग नौटंकी के नाम पर नौटंकी कर रहे थे...लेकिन बड़े लोगों का कुछ पता नहीं चलता कि कौन नौटंकी कर रहा है, कौन नहीं...समय ही यह राज़ खोलता है! आज शाम को इस रामडोर मेले पर भी एक रिपोर्ट लिखूंगा....
लखनऊ के बंगला बाज़ार में कल शाम राम डोर मेले का एक दृश्य 
बहरहाल, खटिया चोरी होने की बात करते हैं ...इतना बवाल तो तब भी नहीं हुआ था जब २० -२५ साल पहले गोबिंदा और करीना ने जाड़े के मौसम में अपनी खटिया सरकाने वाला गीत गाया था..मुझे तो वह गीत सुन कर ही ऐसा लगता था जैसे कि भूचाल आ गया हो...

खटिया को हम लोग पंजाब में मंजा कहते हैं और इस तरह के मंजे जैसे पब्लिक ने उठा रखे हैं इन्हें नवारी मंजे कहते है ं...मुझे व्यक्तिगत तौर इन पर आराम करना बहुत पसंद है ...बचपन में हम लोग इन्हीं मंजों पर ही गर्मी के दिनों में आँगन में सोया करते..घमौरियां होती तो और भी बढ़िया...मैं नीचे बिछौना भी न बिछाता बहुत बार ...क्योंकि हिलने ढुलने से खारिश ठीक होने का सुख भी मिल जाया करता...हर आंगन में एक लाइन मेें ये मंजे तरतीब से लगे होते ...और एक लकड़ी के स्टूल पर एक टेबल फेन चल रहा होता ... बढ़िया नींद, उमदा सपने, सुबह उठने पर अंग अंग में ताज़गी का अहसास....

फिर १९८० के दशक में वे फोल्डिंग वाले मंजे आ गये ... किसी किसी घर में होते थे ...लोग उसे खोलने के लिए साथ में किसी की मदद लिया करते ...वरना वह उछल कर मुंह की तरफ़ आ सकता था ..मैंने १९८४ में नई नई डिग्री ली थी ...एक दिन अचानक एक कंपांऊडर जो हमें सूईंयां घोंपा करता था...वह अपनी बीवी को ले कर आया कि लोहे वाला मंजा खोलते समय मुंह पर लगा और होंठ से खून निकल रहा है ...और दांत आगे वाला हिल गया है ....पहली बात मुझे अहसास हुआ कि मैं भी किसी के काम आ सकता हूं....फर्स्ट एड दी, समझाया कि इस दांत को रेस्ट चाहिए कुछ दिन, इस से कुछ भी काटना नहीं, दो एक दवाई लिख दी.। तो ऐसा आतंक था इन लोहे के पलंगों का ....लोग खोलते समय बड़ा सचेत रहा करते थे!
 कितना लिखें....इन मंजों पर ...हमारा क्या है, हमें तो और कुछ आता नहीं, लिखते ही चले जाएंगे....

बंद करता हूं इस मंजा पुराण को यहीं पर .... मंजे से याद आया ..हम लोग एक बार दादर के प्रीतम हाटेल पर खाना खाने गये बंबई में...वहां पर बीसियों मंजे बिछे हुए... और वेटर भी तंबे वाले ....बर्तन भी पेंडू...और दाल भी धीमे आंच पर तैयार हुई ....सब कुछ पंजाब के गांव जैसा या एक पेंडू ढाबे जैसा......पहली बार उस दिन बंबई में किसी ढाबे में खाना खाने का मज़ा आया...

बस, यही बंद कर रहा हूं ... अभी पुरानी ऐल्बमें देखीं कि कोई मंजे वाली फोटो तो देखूं....बहुत सी थीं, लेकिन अब एल्बम बीच बीच में खाली हो चुकी हैं...पहले हम लोग एक एक फोटो को अच्छे से सहेज कर रखते थे, अब तो एक दिन पहले वाली शेल्फी भी अगले ही दिन फोन में जगह कम होने की वजह से डिलीट कर दिया करते हैं.... we have become foolishly practical!

तुझे सूरज कहूं या चंदा ...


तोंदू तोतला बनने से पहले वाले मास्टरी के दिन १९९० के आसपास ...बेकार में मैंने लाइन बदल ली.. 
साईकिल भ्रमण २००० के आसपास...फिरोज़ुपर पंजाब 

२५ साल पहले की मधुर यादें...
२०००२-०३ के दिन थे..इसे भी शिमला पहुंचते ही कुछ ऐसी हवा लगी कि इसके तेवर ही बदल गये... 
जाते जाते यह विचार आ रहा है कि जिस तरह से ऊपर मंजों की लूट-घसोट दिख रही है, मुझे मेरे बचपन की बात याद आ गई जब दशहरे का मेला तभी सफल माना जाता था जब रावण के जलने के बाद उस के पिंजर की कोई जली-सड़ी एक छोटी सी लकड़ी हाथ में लग जाती थी जिसे लोग घर ले जाया करते थे...अगर तो वे इसे बुराई पर अच्छाई के लिए एक रिमांइडर या सोविनर या प्रतीक की तरह ले कर जाते हैं तो बात समझ में आती है ...वरना तो सब बेवकूफियां हम भी करते ही रहे हैं...अब रावण के पिंजर की एक लकड़ी या एक सस्ता सा नवारी मंजा ...क्या फर्क पड़ता है, जिसे ज़रूरत थी ले गये....मिट्टी पाओ यारो ते एह वधिया जिहा पंजाबी गीत सुनो ..जिस तो बिना पंजाब दा कोई वी लेडीज़ संगीत पूरा नहीं हुंदा ...मेरी मंजी थल्ले कौन, भाबी दीवा जगा..... इसे सुनिए ज़रूर, बहुत बढ़िया है .....



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