गुरुवार, 1 सितंबर 2016

स्मार्ट फोन ने हमें कितना स्मार्ट बना दिया...

स्मार्ट वार्ट कुछ नहीं बना दिया...हम लोग कुछ मामलों में पहले से ज्यादा बेवकूफ से हो गये हैं...

हर समय अपनों की कुशलता जानने के चक्कर में अपनी और दूसरों की नाक में दम कर रखा है हमने...

पहले का ज़माना याद आता है तो हैरानगी भी होती है ...१९७० के दशक के शुरूआत की बातें याद आती हैं तो यकीन नहीं होता कि आप कुछ दिन शहर के बाहर गये हैं और वहां पहुंचने का या अपनी कुशल-क्षेमता घर पहुंचाने का एक ही जरिया होता है खत...पोस्ट कार्ड या अंतरदेशीय लिफाफा...वह दूसरे वाला पीला एन्वेल्प तो फिजूलखर्ची समझा जाता है...

कईं बार तो लोग कईं कईं दिन खत की इंतज़ार किया करते कि इतने दिन हो गये अभी तक कोई पहुंचने की खबर नहीं आई...
अब तो हम लोग मिनट मिनट की खबर चाहते हैं...खुद भी परेशान होते हैं और दूसरों को भी परेशान कर मारते हैं....और अगर किसी का फोन कुछ समय के लिए स्विच-ऑफ मिला तो ज़मीन-आसमान एक कर देते हैं...सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्मों पर उस बंदे की एक्टिविटी चैक कर मारते हैं...ऐसे ही हैं न हम लोग! 


हर तरफ़ फार्मेलेटी करना सीख गये हैं....ऐसे ही दुनिया भर के लोगों को सुबह से शाम मैसेज करते रहना ...कोई एक्नालेज करे या न करे, बस हम एक्टिव दिखना चाहते हैं..

लेकिन कभी नोटिस करिएगा कि इस सब के चक्कर में हमारा संवाद उन अपनों से बिखर गया है जिन के पास स्मार्ट फोन नहीं है ...हमें सब से ज्यादा दुःख आज तब होता है जब पता चलता है कि अपने फलां फलां बंदे के पास स्मार्ट फोन नहीं है ...और उस से भी ज़्यादा शायद तब जब हमें पता चलता है कि वह न तो वाट्सएप इस्तेमाल करता है और न ही वह फेसबुकिया है....

लेकिन मेरी इस के बारे में सोच अलग है ...मुझे यह स्मार्ट-फोन आफ़त लगते हैं...ठीक है फायदे तो हैं ही लेकिन ओवरयूज़ से सिर जकड़ा जाता है बहुत बार ... हर समय इसे हाथ में पकड़े रखना एक मुसीबत जान पड़ती है ... 

मुझे बड़ी खुशी होती है जब मेरे किसी मरीज़ को कोई फोन आता है और वह अपने थैले के किसी कोने से बाबा आदम के ज़माने का रबड़-बैंड की मदद से जुड़ा हुआ फोन निकालता है ...पूरे जोर से बटन दबा कर कॉल को रिसीव करता है और इत्मीनान से उसे फिर उसी थैले के सुपुर्द कर देता है ....मेरे विचार में वह बंदा अकलमंद है ....फोन का जो काम है ...फोन करना और सुनना ...वह काम ही वह उस से लेता है ...और किसी तरह की कोई सिरदर्दी नहीं पालता। 

मेरे पास सरकारी फोन है, इसे हर समय रखना मेरी मजबूरी है ....मैं पहले भी शेयर कर चुका हूं कि जब इस फोन को रखना मेरी मजबूरी न होगा तो मैं भी एक दो चार रूपये का बेसिक फोन खरीद लूंगा..

हां, तो मैं बात कर रहा था कि आधुनिकता (?) की दौड़ में वे रिश्तेदार कुछ पीछे छूटते दिखते हैं जिन के पास स्मार्ट-फोन नहीं है ...जिन के पास है भी उन के साथ भी हम सब लोग कितना जुड़ पाते हैं यह भी एक आत्मचिंतन का विषय तो है ही ....लेकिन अभी तो उन अपनों की बाते ंकरें जिन के पास यह सुविधा नही ंहैं....

मुझे अकसर ध्यान आता है कि हम लोग पोस्टकार्ड के दौर के प्राडक्ट हैं...हम कैसे अचानक इतने बदल जाते हैं....प्रधानमंत्री के एक टीचर उन्हें ९० साल की उम्र में हाथ से चिट्ठी लिख कर भेजते हैं...और पीएम उसे पाकर खुश हो जाते हैं...

हम लोगों ने चिट्ठियां लिखनी लगभग बंद ही कर दीं ....विभिन्न कारणों की वजह से ... क्यों न हम वापिस खतो-किताबत भी कर लिया करें....अगर अपनों के पास सोशल मीडिया नहीं भी है तो क्या फर्क पड़ता है, बेसिक फोन पर एसएमएस की सुविधा तो हरेक फोन पर है....हम क्यों उन अपनों के साथ एसएमएस के ज़रिये से ही क्यों जुड़े नहीं रह सकते! उन सब को भी कभी कभी अच्छी सकारात्मक बातें भिजवा दिया कीजिए...वाट्सएप पर ज्ञान की वर्षा तो निरंतर होती ही रहती है ...बस वहां से कापी करिए और एसएमएस कर दीजिए..

आज मैं यह प्रश्न आप सब के लिए छोड़ कर अपनी बात को यहीं विराम दे रहा हूं ...सोचिएगा....मैंने तो सोच लिया है...फैसला कर लिया है ... 

8 टिप्‍पणियां:

  1. हा हा हा आपने पूरी वास्तविकता को हमेशा की तरह बड़े दिलचस्प अंदाज़ में और रोचक शैली में पाठकों के सम्मुख रख दिया । शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

    जवाब देंहटाएं

इस पोस्ट पर आप के विचार जानने का बेसब्री से इंतज़ार है ...