"आप पहले इसे थूक के आइए !"...कल मैंने एक दांत का इलाज करवाने आए एक शख्स को बोला जो मुंह में तंबाकू दबाए डेंटल-चेयर पर बैठ गया था..
"यहीं कुल्ला कर लूं?" ...मैंने मना किया - नहीं, आप बाहर जा कर अच्छे से मुंह धो कर आइए..
लेकिन डाक्टर साहब, जहां मैंने यह रखा हुआ है उधर वाले दांत में तकलीफ़ नहीं है, तकलीफ़ तो ऊपर वाले दांत में है...
यह बात मैं पहली बार किसी मरीज़ के मुंह से सुन रहा था ..और मुझे आभास तो हो गया था कि यह कोई दबंग ही है...वरना, किसी चिकित्सक के पास जाकर इतनी जिरह..
बहरहाल, वह ७०-७२ वर्ष का बुज़ुर्ग बाहर गया, अच्छे से मुंह धो कर आया...
और फिर से अपनी तंबाकू का महिममंडन करने लगा... डाक्टर साहब, इसे तो हम सारा दिन मुंह में रखते हैं, रह ही नहीं पाते, पता ही नहीं कितने बरसों से इसे रख रहे हैं...अपने थैले में से ये पैकेट निकाल के मेरे सामने रख दिया..
आगे बताने लगे कि अभी तो मैं थूक आया हूं ...लेकिन एक बात बताऊं...मेरी बाजू की हड्डी गई थी टूट, उसे जोड़ने के लिए आप्रेशन चला साढ़े तीन घंटे...आप्रेशन से पहले मैंने मुंह में तंबाकू दबा लिया तो हड्डी के डाक्टर ने मुझे हड़का दिया...लेकिन मैंने भी कह दिया कि इस को अगर मैं मुंह में नहीं दबाऊंगा तो आप पांच मिनट भी मेरे ऊपर काम नहीं कर पाएंगे...बताने लगा कि आखिर डाक्टर मान गए..अच्छा, यह बात है तो दबा लो भई।
मैं यही सोच रहा था कि यार बंदा तो यह बडा़ दबंग है ...लेकिन मेरी मजबूरी थी कि मैं तंबाकू मुंह में रहते उस का मुंह कैसे देखूं! .. उस की दबंगई मुझे उस के तंबाकू का ब्रॉंड देख कर ही समझ में आ रही थी..
उस का इलाज होने के बाद जब मैं उस की दवाई लिख रहा था तो वह मुझे सुनाता जा रहा था कि यह पैकेट महज़ १२ रूपये का आता है ..सब कुछ इस में मिक्स है, चूना, खुशबू, गोंद... इस की आप महक तो देखिए....मैंने कहा ..नहीं, यार, अगर मेरा भी इसे चबाने को मन हो गया तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी...
यह पैकेट यह शख्स १५ दिन चलाता है ..सारा दिन इसे होठों के अँदर या गाल के अंदर कहीं भी दबा के रखता है और कहता है कि मैं इसे थूकता नहीं हूं..अंदर ही लेता हूं...मैंने कहा कि पैकेट पर तो लिखा है कि थूकना है ...कहने लगा, कुछ नही ंहोता...मैं इस के बिना नहीं रह सकता...
मैं इस के नुकसान गिनाने लगा तो कहने लगा, मैं इसे नहीं छोड़ पाऊंगा, इस के बिना जी नहीं पाऊंगा...और फिर गंभीर मुद्रा में कहने लगा कि डाक्साब, इस उम्र में अकेलापन बड़ा सालता है, घर में माहौल ऐसा है कि सब के बीच में भी मैं अपने आप को अकेला पाता हूं ...और इसी तंबाकू का सहारा है ...घर के बाहर मुझे अकेलापन नहीं लगता...
हां, तो मैंने इन के मुंह को अच्छे से देखा और इन के दांतों में तो बहुत सी खराबीयां थी हीं ...वे भी तंबाकू के इस्तेमाल से ही जुड़ी हुईं लेेकिन इस के अलावा मुंह के कैंसर या उस की पूर्वावस्था जैसी किसी तकलीफ़ के लक्षण नहीं दिखे .. मैंने समझाया तो बहुत लेकिन वे सुनने के लिए तैयार ही नहीं थे...
कहने लगे कि और तो और यह तंबाकू इतना बढ़िया है कि राहुल गांधी ने भी आधा पैकेट रख लिया था...उसे मिलने गये थे, मुंह में इसे दबाया हुआ था..जब इन का उससे वार्तालाप चल रहा था तो राहुल ने पूछा कि यह खुशबू कहां से आ रही है, इन्होंने बताया ...राहुल ने कहा कि क्या मैं यह पैकेट देख सकता हूं...राहुल ने देखा .. और इन से पूछ कर आधा पैकेट अपने पास रख लिया...इन्हें इस बात से शायद गर्व महसूस हो रहा था..लेकिन मुझे पता है राहुल ने खाया बिल्कुल न होगा....वह अलग बात है कि मीडिया में उन की रोड-यात्रा के दौरान कुल्फी खाते हुए...दो दिन पहले किसी ग्रामीण के घर दाल-रोटी खाते हुए तस्वीरें हमें दिखती रहती हैं, लेकिन तंबाकू खाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता!
इस शख्स की तंबाकू चबाने-खाने की आदतें ब्यां कर देने के बाद मुझे लगता है कि कुछ बातें क्लियर करनी ज़रूरी है....
अगर इस शख्स के मुंह में तंबाकू से पैदा होने वाली दांतों एवं मसूड़ों से इतर कोई गंभीर जानलेवा बीमारी के लक्षण नहीं भी हैं ..तो भी हम यह नहीं कह सकते कि तंबाकू ने इस के शरीर पर कुछ असर नही ंकिया होगा...तरह तरह की जांचें जब विभिन्न विशेषज्ञ करते हैं तो ही समझ में आती है कि तंबाकू किस अंग में किस तरह से कहर बरपा रहा है ... हां, शायद कुछ हाड-कोर किस्म के बच भी जाते हों...यह भी संभव है ..लेेकिन कौन बचेगा और कौन चपेट में आ जायेगा यह कोई नहीं कह सकता...इसलिए बेहतर यही है कि लोग इस तरह के शौक न ही पालें...फिर लत पड़ते देर नहीं लगती...
हां, एक बात याद आ गई...बहुत साल पहले किसी ने एक विशेषज्ञ से यह पूछा था कि मैंने तो आठ दस ही सिगरेट पी और मेरे फेफड़ों में दिक्कत आ गई , दिल की बीमारी हो गई...लेकिन मेरे ही गांव का मुसद्दी तो पिछले कम से कम ५० सालों से हुक्का, बीड़ी, तंबाकू ..पता नहीं क्या क्या खाए पी जा रहा है, हट्टा-कट्टा है, भला चंगा है...उस विशेषज्ञ ने बड़ी सटीक जवाब दिया था कि देखो भई, यह जो इस तरह के शौक हैं न, इन के शरीर पर होने वाले असर की तुलना आप इस से कर सकते हैं कि ये एक दीवार में पानी के रसाव की वजह से निरंतर सीलन जमा होने जैसी बात है ....यह सीलन तो जमा हो ही रही है ..अब कौन सी दीवार उस सीलन की वजह से गिर जायेगी या कौन सी टिकेगी ...यह कोई नहीं कह सकता.... अगर आप अपना भाग्य अजमाना ही चाहते हैं ...तो वह तो मुद्दा ही अलग है ...
तंबाकू का इस्तेमाल करने वालों में कौन सा अंग कब इस की चपेट में आ जाए...कोई कुछ नहीं कह सकता जब तक धमाका ही न हो जाए...मेरी नानी के दांतों में तकलीफ़ थीं, पहले सब जगह झोलाछाप डाक्टर ही थे, दांत भी उखाड़ देते थे ..टीके भी लगा देते थे, जुलाब की गोलियां भी दे देते थे...दांत उखवाड़ने के बाद सारा दिन सिर कस के लेटे रहना और सारा दिन खून बहते रहना ये आम सी बातें थी...वह भी डरती थीं ...इसलिए उन्होंने इस दर्द से बचने का एक रास्ता निकाल लिया...क्रीमी स्नफ आती थी ...थी क्या, अभी भी आती है ....जिसे नसवार कहते हैं...उन्होंने मुंह में उसे रखना शुरू कर दिया..लत पड़ गई.. हम बच्चों की बेवकूफी देखो कि हमें नानी के मुंह से आती वह महक बहुत भाती .. चुपके चुपके मंगवाया करती थीं वह डिब्बा हम बच्चों से ...लेकिन हर जगह वह साथ ही लेकर चलतीं...
बहरहाल, जब मैं दांतों की एबीसी जान गया तो सब से पहले उन के सारे दांत निकलवाए और जिस डैंटल कालेज में मैं पढ़ाता था, वहां से उन का डैंचर भी लग गया...बहुत बढ़िया...खाने पीने के मजे हो गये..लेकिन नसवार का इस्तेमाल चलता ही रहा, .कुछ सालों बाद लगभग ८० साल की अवस्था रही होगी..अचानक नानी को पेशाब के साथ खून आने लगा ... नहीं थम रहा था, जांच हुई , पेशाब की थैली (ब्लेडर) का कैंसर बताया गया...बहुत इलाज हुआ, आप्रेशन हुआ, रेडियोथेरेपी भी हुई..लेेकिन चंद ही महीनों में वे हमेशा के लिेए रुख्सत हो गईं....RIP, the noble, adorable granny!
और यही पता चला कि तंबाकू का इस्तेमाल करने वालों में ब्लेडर के कैंसर का भी रिस्क बहुत ज्यादा बढ़ जाता है ...क्योंकि इस तरह की चीज़ों का निष्कासन तो यूरिन से ही होता है ..अगर किसी का मुंह बच गया तो ब्लेडर काबू में आ गया....
हां, तो ऊपर मैं दबंग की बात कर रहा था...जो दांत दिखाने आया था लेकिन तंबाकू थूकने के लिए तैयार नहीं था...सड़क पर चलत ेचलते पान-गुटखे-मसाले के छींटे कपड़ों पर कभी कभी पड़ जाते हैं ...इस का कोई समाधान नहीं है, बेकार में अपना ब्लड-प्रेशर बढ़ाने से क्या हासिल, मरीज़ मुंह में कभी कभी मसाला, पान दबा कर आ जाते हैं ेलेकिन बाहर जा कर थूक कर आने के लिए तुरंत मान भी जाते हैं...लेेकिन सब से डर तब लगता है जब मुंह में यह सब दबाए लोगों से कभी किसी दफ्तर या बाज़ार में बात करनी होती है ....उस समय मुझे उन की सेहत से कहीं ज़्यादा अपनी नई कमीज़ की सेहत की चिंता होती है ..अगर इस के ऊपर छींटे पड़ गये तो फिर यह तो गई! ...बहुत बार भुगत चुका हूं!
पिछले चालीस वर्षों से भी शायद ज्यादा समय से यह गीत जिस तरह से पान चबाने की आदत को ग्लैमराइज़ कर रहा है, इस ने भी हम लोगों की इस आदत को बहुत बढ़ावा दिया होगा...
दो अढ़ाई साल पहले एक अधेड़ महिला मेरे पास मुंह में एक घाव के साथ आई...परेशान सी...उस का बेटा साथ में था।
मुझे देखने में कैंसर जैसे लक्षण दिखे..
वे बताने लगे कि दो बार बाहर से आप्रेशन करवा चुके हैं ..लेकिन फिर से यह ज़ख्म बन जाता है ...
मैंने कहा कि आप कागज़ ले कर आइए...ले आए वे अगले ही दिन..किसी सामान्य से प्राइवेट अस्पताल में किसी सर्जन ने उन की सर्जरी की हुई थी...लेकिन कुछ सिस्टेमिक सा नहीं लगा ...न ही तो इसे नियमित जांच के लिए बुलाया जाता था .. न ही कोई इस की रेडियोथैरेपी ही हुई थी (सिकाई)...रुपया-पैसा ये लोग बहुत लगा चुके थे ..दो लाख के करीब...बार बार रोेए जा रही थी वह औरत कि हम बच तो जाएंगे न!
मैंने इन दोनों को समझाया कि आप लोगों के लिए बेहतर यही होगा कि आप बंबई के टाटा कैंसर अस्पताल में चले जाइए...सब से बढ़िया आप का इलाज वही हो पाएगा..वे तुरंत मान गये..उस मरीज़ को वहां रेफर कर दिया गया..
दो तीन महीने बाद वह महिला दिखाने आई..बहुत खुश ...टाटा अस्पताल वालों ने अच्छे से आप्रेशन कर दिया था...और बाद में सिकाई (रेडियोथैरेपी) भी कर दी थी...वह बहुत खुश थी..अपने साथ बर्फी का डिब्बा भी लेकर आई...मैंने मना किया कि हम मिठाई नहीं खाते तो रोने लग पड़ी...अब पहले से परेशान महिला जो इतना भुगत चुकी थी उसे रुला कैसे सकते थे!
और उस के बाद वह नियमित तीन तीन महीने के बाद जांच के लिए टाटा में जाती रही ...वहां पर दो तीन दिन रहना पड़ता...वे लोग कुछ एक्सरे करते ...रक्त की जांचें करते ...और मुंह का निरीक्षण करते ...सब कुछ दुरुस्त है के आश्वासन पर मरीज़ को अगली तारीख देकर भेज दिया जाता...
मुझे नहीं पता कि अब उस ने कब टाटा में चैक-अप के लिए जाना है ...वैसे ही मुझे ध्यान आया कि उस के बेटे से बात करते हैं...अब वे लोग अपने गांव जा कर बस गये हैं...उस के बेटे को फोन लगाया अभी दस मिनट पहले, वह समझदार है...जिन मरीज़ों को मैं टाटा भेजता हूं उसे इस लड़के का और कुछ दूसरे लोगों का नंबर (जो वहां इलाज करवा चुके हैं!) दे देता हूं कि वहां जाने से पहले अगर मन में कुछ प्रश्न हों तो इन लोगों से बात कर लीजिए...यह लड़का सब को अच्छे से समझा देता है और बीमारी और नई जगह के बारे में उन के मन में उपजे डर का कुछ तो निवारण कर ही देता था...
मुझे आज उस से बात कर के बड़ा दुःख हुआ...बताने लगा कि मुंह आदि तो सब ठीक है ..लेकिन मां बरसात में गिर गई हैं..रीड़ की हड्डी टूट गई है ...बिस्तर पर पड़ी हुई हैं.....किस्मत के खेल!!
एक और वाकया आप से शेयर करना चाहता हूं... सात आठ साल पहले की बात है पीटर आया था मुंह में एक घाव के साथ... देखने में कैंसर सा ही लग रहा था..उस की तंबाकू खाने-चबाने की आदतें भी ऐसा ही शक पैदा कर रही थीं.. उसे बड़े सरकारी अस्पताल में भेजा गया ... बस, उस के बाद वह कभी दिखा ही नहीं ...बहुत महीने बीत जाने के बाद एक दिन किसी और काम से आया तो उस से पूछा कि हां, कैसा रहा इलाज...
बस, हो गया, सब ठीक है ...शुक्रिया आप का आपने बिल्कुल समय रहते वहां भिजवा दिया...
बातों बातों मे ंउसने बताया कि वहां पर इलाज के लिए बहुत लंबी लाइन थी...अभी एक महीना और नंबर नहीं आता ...मुझे तो वहां के एक डाक्टर अपने गांव के ही मिल गये ...उन्होंने मेरा इलाज एक नर्सिंग होम में जा कर कर दिया....जितने पैसे दूसरों से लेते थे, गांववाले होने के नाते मुझ से १०-१५ हज़ार कम ही लिए थे...
मैंने पूछा कि आप्रेशन के बाद कुछ सिकाई-विकाई हुई थी...नहीं, नहीं, कुछ नहीं...सब ठीक है ...मैंने उस से कहा था कि अपने कागज लेकर आना, देख लेंगे....लेकिन उस की बेपरवाही और मेरी बात को हल्के से लेना उस के लहजे से ही पता चल रहा था और वह लौट कर नहीं आया...
यह जो दूसरे मरीज़ की बात मैं शेयर कर रहा हूं ..वह इसलिए है क्योंकि ये बातें भी अब कड़वे सच की तरह हो गई हैं....बड़े बड़े संस्थानों में लंबी वेटिंग लिस्ट होती हैं ...ऐसे में इन मरीज़ों को लगता है कि इतने दिन भी क्यों इस रोग को पाला जाए, पैसा खर्च के इस से तुरंत निपट लेते हैं...
टाटा अस्पताल, पीजीआई संस्थान, मैडीकल कालेज, क्षेत्रीय कैंसर संस्थान .....ये सब ऐसी संस्थाएं हैं जहां पर कैंसर का इलाज करने के लिए एक टीम होती है ...मरीज़ की मैनेजमैंट से संबंधित कोई भी निर्णय एक टीम अनुभवी टीम द्वारा लिया जाता है ...एक बिल्कुल सटीक प्रोटोकॉल होता है जिसे वे लोग अच्छे से फालो भी करते हैं ...(मैं जितने भी मुंह के कैंसर के मरीज़ टाटा अस्पताल भेजता हूं...वहां से लौटने के बाद उन की पेशेंट केयर और सुव्यवस्था की प्रशंसा करते नहीं थकते!)...लेकिन इन संस्थाओं की भी अपनी क्षमता है, वे भी मरीज़ों का लोड एक सीमा तक ही उठा सकते हैं ....इसलिए किन मरीज़ों को उन की केयर चाहिए और किन का इलाज उन मरीज़ों के गृह-नगर के आस पास ही किया जा सकता है, वे यह भी निर्णय करते हैं ....और अभी वे लोग सर्जरी तो कर देते हैं लेकिन सिकाई आदि के लिए मरीज़ के गृह-नगर के मैडीकल विभाग के मैडीकल कालेज के नाम एक अच्छा सा विस्तृत नोट मरीज को दे देते हैं जिस में लिखा रहता है कि उन्होंने क्या किया है, और आगे इस का क्या किया जाना है ..और सिकाई की डोज़ तक वे लोग अपनी उस चिट्ठी में लिख देते हैं...
हां, तो मैं उस मरीज़ की बात कर रहा था जिस ने बाहर से आप्रेशन करवा लिया था...आप्रेशन ऐसे बाहर करवाने में कोई बुराई नहीं है...मैं जानता हूं कि जो लोग इस तरह के जटिल आप्रेशन करते होंगे वे एस प्रशिक्षित सर्जन तो होते ही हैं....लेेकिन मेरा ऐसा मानना है कि कहीं न कहीं कुछ कमी तो रह ही जाती है इस तरह की जल्दबाजी में ....
अब मैंने तो अभी तक शायद ही कोई मरीज़ देखा हो (मुझे इस समय याद नहीं आ रहा) जिस के मुंह की कैंसर की सर्जरी हुई हो और बाद में उसे रेडियोथैरेपी न दी गई हो....और इस तरह के निर्णय बड़े सरकारी अस्पतालों एवं संस्थानों में एक पूरी टीम किया करती है ....और जब एक ही डाक्टर किसी निजी अस्पताल में इस तरह का इलाज कर रहा है तो जाने अनजाने कुछ न कुछ तो छूटने की गुंजाईश तो रह ही जाती होगी...इस के कारणों की तरफ़ अगर आप देखेंगे तो आप भी समझ सकते हैं...
मरीज़ को यह पता नहीं होता अकसर किसी भी कैंसर का इलाज बस उस की सर्जरी ही नहीं होता ....उस के बाद उस की बॉयोप्सी रिपोर्ट आने के बाद आगे की रणनीति तय करना ..सिकाई के बारे में, रेगुलर फॉलो-अप के बारे में ...उस के जो अंग विकृत हुए हैं ...उन की पुर्नवास के बारे में ..इसके अलावा भी बहुत सी बातें होती हैं जिन्हें एक अनुभवी टीम के सदस्य देखते रहते हैं...
अच्छा, एक बात और भी है अब इस पर लोग चर्चा करने लगे हैं कि निजी कारपोरेट अस्पताल मरीज़ों और उन के तीमारदारों को इस के बारे में अंधकार में ही रखते हैं कि कौन से कैंसर का इलाज कितना कारगर है...और उस तरह के इलाज के बाद मरीज़ की लाइफ-एक्सपेंटेंसी कितनी है ..अब लोग यह आवाज़ उठाने लगे हैं कि अगर सारे इलाज के बाद भी मरीज़ ने कुछ सप्ताह ही जीना था, तो इस के बारे में परिवारीजनों को कुछ तो संकेत दिया होता ....लाखों रूपयों खर्च होने के बाद भी आदमी तो बच नहीं सका....दर दर के कर्ज़दार अलग से हो गये...यह सब समस्याएं तो हैं ही ...और कुछ तो बदलने-वदलने वाला है नहीं, यह पक्की गारंटी हैं....लॉबी बड़ी शक्तिशाली है, अगर जनमानस ही सचेत हो जाए तो कुछ बात बन सकती है ...
और बात तो बाद की बात है ...सब से पहले चलिए आज से किसी भी रूप में तंबाकू के इस्तेमाल से तौबा कर लीजिए....आप बहुत सी बीमारियों से बचे रहेंगें...
बस, आज सुबह ये सब बातें शेयर करने की इच्छा हुई ....आज लगभग ६ महीने के बाद अपनी स्टडी-रूम में बैठ कर यह पोस्ट लिख रहा हूं ...वरना दूसरी जगहों पर बैठ कर लिखना मुश्किल ही होता है....आज बिल्कुल भी उमस न होने की वजह से महीनों बाद यहां बैठ कर इसलिए लिख पा रहा हूं क्योंकि स्टडी-रूम में एसी नहीं है..किराए का आशियाना है, तोड़-फोड़ मना है, बस, इसीलिए..लेेकिन टेबल पर बैठ कर लिखना बहुत सुविधाजनक है ...
मैं जो संदेश इस पोस्ट के माध्यम से आप तक पहुंचाना चाहता था, आशा है एक फीका सा आइडिया तो हो ही गया होगा.... Wish you all pink of health ...Stay healthy...stay blessed always...take care!
जनाब राहत इंदौरी साहब की इस बात से मैं पूरी इत्तेफाक रखता हूं...आप का इस के बारे में क्या ख्याल है ...
मेरे रेडवे पे इस समय जो गीत बज रहा है उस में दिलों का हाल चाल कुछ इस तरह से लिया-दिया जा रहा है .....आप भी सुनिए...
कुछ महीने पहले हम लोग गोवा गये तो मैं वहां पर तरह तरह के फल देख कर बहुत हैरान था...नाम तो पता होने का सवाल ही नहीं, मैंने इन्हें पहले कभी देखा भी नहीं था...बस, उत्सुकता वश उन्हें देख रहा था..विदेशी टूरिस्ट आ रहे थे और इन महंगे फलों को खरीद रहे थे.. फल-विक्रेता अपनी टूटी-फूटी और काम-चलाऊ अंग्रेजी से अच्छा-खासा काम चला रहे थे..
चलिए, उस दिन हम ने तो वहां विदेशी फलों की बहुत सी किस्में देख लीं (लेकिन हम खरीदे सिर्फ़ आम ही) ..वैसे दो चार इस तरह के विदेशी फल हम लोगों को रिलायंस ग्रीन, स्पैन्सर्ज़, बिग-बाज़ार में भी फ्रुट्स कार्नर में दिख जाते हैं..
मैंने इन फलों को कभी नहीं खऱीदा...बहुत बार तो इन का नाम ही नहीं पता होता, अगर पैकिंग पर न लिखा हो तो, दूसरा, इन के स्वाद का कुछ पता नहीं होता और तीसरा कारण यह कि काफ़ी महंगे लगते हैं...इसलिए कभी भी इस तरह के नये नये फल खरीदने का सबब ही नहीं हुआ...
लेेकिन कल बाद दोपहर जब मैं टीवी पर एक प्रोग्राम देख रहा था तो मुझे यह जान कर अच्छा लगा कि अगर हम लोग विदेशी फल नहीं खरीदते तो यह कोई खराब बात नहीं है ...उस प्रोग्राम में बाबा रामदेव, एक हाई-प्रोफाईल डाइट-एक्सपर्ट और किसी कारपोरेट अस्पताल का कोई वरिष्ठ डाक्टर पहुंचा हुआ था.. नगमा इस कार्यक्रम को पेश कर रही थीं...
उस न्यूट्रीशिनिस्ट ने बड़े अच्छे से लोगों को यह समझाया कि जो फल किसी देश में पैदा होते हैं ...वे वहां क लोगों के लिए उसी मौसम में खाने के लिए मुफ़ीद होते हैं...यह प्रकृति की अपनी सुंदर व्यवस्था है...इसलिए अगर वहां पैदा होने वाले फल हम अपने यहां मंगवा कर उन्हें खाने लगें ...खूब महंगे होने की वजह से हम समझें कि यह हमारी सेहत के लिए बढ़िया है ...ऐसा बिल्कुल भी नहीं है...मुझे यह बात बिल्कुल सही लगी...
उस विशेषज्ञ ने किवी फल का उदाहरण लिया .. कि किस तरह से विटामिन सी के दीवाने किवी फ्रूट के पीछे दौड़ने लगे हैं और अपने अमरूद को खाने की परवाह नहीं करते जो कि उससे भी बेहतर विटामिन सी का स्रोत है ..
मुझे लगा कि इस बात को ब्लॉग पर शेयर किया जाना चाहिए...क्योंकि मैं बेमौसमी फलों के बारे में तो पिछले वर्षों में काफी लिख चुका हूं...अगर आदमी अपनी हैसियत से भी ज़्यादा सेब का मौसम न होते हुए भी २०० रूपये किलो सेब खरीद कर खाता है तो बेकार है ..इस का फंडा यही है कि किस मौसम में हमारी विभिन्न पौष्टिक तत्वों की क्या ज़रूरत है...प्रकृति उसी अनुसार हमें वही फल देती है ...
कोल्ड-स्टोर में रखे बेमौसमी फल सेहत के लिए मुफीद नहीं हो सकते...यहां तक कि बेमौसमी सब्जियों के लिए भी यही कहा जाता है कि बेमौसमी सब्जियां भी सेहत के लिए ठीक नहीं होतीं...इस तरह की सब्जियों की पैदावार के लिेए बहुत ज्यादा मात्रा में कीटनाशक का इस्तेमाल किया जाता है ...वही बात हुई ..एक करेला ऊपर से नीम चढ़ा।
कल वह प्रोग्राम ठीक ही था, रामदेव ने कहा (किसी रिपोर्टर ने कहा कि अब तो बाबा रामदेव देश का सब से बड़ा किसान है!)...कि प्लेटलेट्स तीन चार हज़ार होने पर अगर कोई एक बार गिलोई का सेवन कर ले ..उसे पी ले ..तो उस के प्लेटलेट्स एक ही दिन में १०-१२ हजा़र तक पहुंच जाते हैं...तब नगमा ने उस कारपोरेट अस्पताल के डाक्टर को पूछा कि आप का इस के बारे में क्या ओपिनियन है..उसने कहा कि मैं तो ऐसा पहली बार सुन रहा हूं...यह सुनते ही बाबा उछल पड़े कि मैंने तो नहीं कहा कि बुखार के लिेए पैरासिटामोल लेना ठीक नहीं है, इन्हें भी गिलोई से मुझे पता नहीं कि क्या परेशानी है!....वही बात है, दशकों से देख रहे हैं कि कोई समन्वय नहीं है...आयुर्वेदिक दावों की वैज्ञानिक पुष्टि शायद हो नहीं रही, सरकारी प्रयास कितने भी हो रहे हैं, एक प्रणाली दूसरे सिस्टम की सुनने के लिए तैयार नहीं है ...मुझे लगता यह ऐसे ही चलता रहेगा...हर तरह की मार्कीट शक्तियां काम पर लगी हुई हैं...एलोपैथी में ही नहीं, देशी-यूनानी में भी !
आज यह लिफ़ाफ़ा यहीं बंद कर रहा हूं.. कितना लिखें,यार, वैसे भी समझदार को ईशारा ही काफ़ी होता है ...
दलित फूडस
यह दलित फूड क्या है, मुझे भी इस के बारे में आज की दैनिक जागरण से ही पता चला..आप भी इस खबर को पढ लीजिए..
उस शहीद के बच्चों की कठिन परीक्षा वाली खबर से बड़ा ही ज्यादा दुःख हुआ.....ईश्वर किसी को भी इस तरह की परीक्षा में न डालें..
कितनी बार मैं इस विषय पर पहले भी लिख चुका हूं..लेकिन बार बार लिखने से अपने आप को रोक नहीं पाता क्योंकि आज के युवाओं में इस से जुड़े खतरों से बहुत कम जानकारी है..मुझे हमेशा ऐसा लगता है ..
मैं भी कुछ पिछले १५ वर्षों से पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के मेलों-त्योहारों में इन टैटू गुदवाने वालों का क्रेज देख रहा हूं...पंजाब के मुक्तसर में माघी मेला लगता है ...लगभग १५ साल पहले मैंने वहां सैंकड़ों लोगों को टैटू गुदवाते देखा ..बिल्कुल खराब हालात...अनहाईजिनिक... बीमारियां परोसने के अड्डे एक तरह से..
जी हां, जिस तरह से सड़कों पर बैठे कारीगरों द्वारा टैटू बनाए जाते हैं ...उन के फन के पूरे नंबर हैं..लेकिन वे भी नहीं जानते कि वे जाने-अनजाने हैपेटाइटिस बी, सी और एचआईव्ही इंफेक्शन जैसी गंभीर समस्याएं फैला रहे हैं...फैला तो और भी लोग रहे हैं...सड़क किनारे बैठे दा़ंतों के डाक्टर मरीज़ों का जब इलाज करते हैं, झोलाछाप जब अपने शिकारों को एक छींक आने पर सूई घोंप देता है, फुटपाथों पर बैठे नाई, चलते फिरते लाल टोपी धारी कान रोग विशेषज्ञ, भगंदर को जड़ से खत्म करने का दावा करने वाले बंगाली डाक्टर (इसी नाम से इन्हें बुलाया जाता है)...ये सब भी बीमारियां फैला भी रहे हैं और अकसर इन में स्वयं भी इस तरह की इंफेक्शन होने का अंदेशा तो रहता ही है ..
दो तीन पहले की बात है मैं लखनऊ में कहीं टहल रहा था, यह टैटू देखा तो इस बंदे से पूछ ही लिया कि यह क्या है, कहने लगा कि मंत्र है...मैंने पूछा कि इतनी बड़ी लिखत-पढ़त आज पहली बार देख रहा हूं...फोटो ले लूं?...उसने आज्ञा दे दी. वैसे हैं तो ये फिजूल के पंगे ...जो मैं अब लेने का आदि हो चुका हूं...अब कुछ नहीं हो सकता!
आज सुबह इस बंदे को ओपीडी में देखा तो इस का टैटू यह दिख गया...
मैंने इस को कहा कि तुमने भी सैफ की तरह का काम करवाया हुआ है!
मेरा सहायक पास ही खड़ा था, कहने लगा कि इस काम में एक दिक्कत है ...एक दोस्त का किस्सा बताने लगा कि उस की शादी हुई ..बीवी का नाम गुदवा लिया बाजू पर...लेकिन कुछ समय बाद उस से अनबन रहने लगी ..कहने लगा कि मुझे अब उस के नाम से भी नफरत है, सुबह सुबह बाजू देखता हूं तो उस का नाम दिखता है, बहुत खराब लगता है ...इसी चक्कर में उसने एक दिन चाकू से छील कर और किसी जुगाड़ से अपनी बाजू के उस हिस्से की चमड़ी ही जला डाली..
दो चार दिन पहले यहां हमारे घर के पास ही एक मेला लगा हुआ था...रात के ११ बजे के करीब भी इन टैटू गुदवाने वालों की दुकानदारी चमक रही थी ...बहुत से युवा लगभग इन दर्जन भर टैटू-मेकर्ज़ को घेर कर बैठे हुए थे ...इस तरह की भीड़ में किसी को कुछ सलाह नहीं दी जा सकती ...लेेकिन वे सभी बच्चे अपने आप को विभिन्न खतरनाक बीमारियों को एक्सपोज़ तो कर ही रहे थे..
ऐसा नहीं है कि ये टैटू इन जगहों पर ही गुदवाना खतरनाक है, बडे़ बड़े टुरिस्ट जगहों जैसे मनाली, गोवा, शिमला जैसी जगहों पर बड़े बड़े टैटू स्टूडियों में भी क्या पूरी तरह से एसैप्सिज़ रख पाते होंगे कि नहीं, कुछ पता नही....मुझे ऐसे लगता है कि नॉन-मैडीकल युवाओं के लिए इस तरह के काम पूरी सुरक्षा अंजाम दे पाना नामुमकिन सा होता होगा...दरअसल मुझे इन जगहों की टैटू सुविधाओं के बारे में कुछ ज्यादा पता भी नहीं है।
मुझे नहीं पता टैटू गुदवाने का इतिहास कितना पुराना है ..लेकिन हमारे पेरेन्ट्स, ग्रैंडपेरेन्ट्स सभी लोगों के हाथ या बाजू पर कुछ न कुछ गुदा ही रहा है ..या तो कोई धार्मिक चिन्ह या उनका नाम ...लेकिन पहले भी इस से संक्रमण होते तो होंगे, हमें उन का नाम नहीं पता होगा...जैसे हम आज कल हैपेटाइटिस सी के बारे में सुन रहे हैं कि इतने केस इसलिए आ रहे हैं क्योंकि बीस-तीस साल पहले रक्त चढ़ाने से पहले हैपेटाइटिस सी का परीक्षण ही नहीं होता था...बस, इसी चक्कर में भी संभवतः यह संक्रमण व्यापक स्तर पर फैलता रहा होगा...जो केस कुछ वर्षों बाद लिवर डिसीज़ होने पर चिकित्सकों की पकड़ में आने लगे..ऐसा ही है यह टैटू गुदवाने का खतरनाक खेल...कुछ भयंकर बीमारियां जिन के बारे में पुख्ता प्रमाण हैं कि वे इस से फैल सकती हैं...हो सकता है कि कुछ बीमारियां और भी हों, जिन के बारे में हमें पता ही न हो!
हम तो अभी तक टैटू के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मशीन की सूईं को लेकर ही चिंताग्रस्त हैं, लेकिन विकसित देशों में तो वे दूसरी बात से परेशान है ..इस के लिए इस्तेमाल की होने वाली इंक की मिलावट और उसमें जीवाणुओं की कंटेमीनेशन के बारे में वे बड़े सजग हैं..मैंने कुछ पेपर्ज देखे थे ...
चलिए, इस बात को यही खत्म करते हैं .. ढिंढोरा पीटना हमारा काम है, कोई भी निर्णय लेना पाठकों के हाथ में है! Take care...Tattoos and body-piercing are not as harmless as they are projected to be! वही ठीक है, जैसे बच्चे करते हैं ..डिस्पोजेबल टाइप के टैटू, दो मिनट में लगाते हैं, दोस्तों के साथ उन की पार्टी में चिल करते हैं..और अगले दिन धो डालते हैं...
आज कल मैं ब्लॉगर मित्र अनूप शुक्ला की हास्य-व्यंग्य पुस्तक बेवकूफ़ी का सौंदर्य पढ़ रहा हूं ..इसलिए सोचा कि अब इस पोस्ट का नया शीर्षक कहां से लाऊं...उसी से ही काम चला लेता हूं...
अनूप शुक्ला का तारुफ़ मैं आप से पहले भी करवा चुका हूं ..उन का फुरसतिया ब्लॉग पिछले १०-१२ वर्षों से बहुत बढ़िया चल रहा है ...मैंं तो इन की फेसबुक पोस्टों को भी बिल्कुल एक अच्छे विद्यार्थी की तरह पढ़ता हूं ...बहुत ही बढ़िया लिखते हैं ...
मुझे भी लगा कि मेरे पोस्टें कुछ ज़्यादा ही भारी भरकम होने लगी हैं...मुझे ही बोझिल लगती हैं ! थोड़ा हल्कापन भी होना ज़रूरी है।
मैं आज सुबह सोच रहा था कि दिन में हम बीसियों ऐसी बातों को सोचते, देखते, अनुभव करते हैं जिस से हमें हंसी आ जाती है ..कभी हम खुल कर हंस लेते हैं ..नहीं तो मन ही मन ...शायद कईं बार लगता होगा कि यह तो यार बेवकूफ़ी वाली बात है, इसे कैसे दोस्तों के साथ शेयर कर के उपहास के पात्र बन सकते हैं!
बस, यहां गलती कर देते हैं हम...छोटी छोटी बेवकूफियों से अगर हमें आनंद मिलता है तो फिर उन्हें लिख-पढ़ या सुना कर दूसरों के साथ शेयर करने में हर्ज़ ही क्या है!
दगड़ू बता रहा था कि अब उन के यहां यह फरमान आया है कि ये जो स्वच्छता मुहिम चलाई जाती है ..इसके लिए भी अब सख्ती हो रही है विभाग में ...शुरू शुरू में तो लोगों का हाथ में झाड़ू उठा लेने से चल जाता था...खट कर के फोटू खींची और डाल दी सोशल मीडिया के कुएं में...लेकिन फिर मांग होने लगी कि स्वच्छता अभियान के बाद जो साफ़-सफ़ाई हुई...वह भी तो दिखनी चाहिए...इसलिए सफाई के बाद की भी फोटू उस कुएं में डालनी लाज़मी हो गई...लेकिन कुछ तो खुराफ़ाती लोग रहे होंगे तब भी ..इसलिए मुलाजिमों को और कस दिया गया कि सुनो, पहले तो जिस गंदगी वाले एरिया में सफाई करोगे उस की बदहाली ब्यां करती कुछ फोटू डालो...और फिर बाद में सफ़ाई हो जाने के बाद की फोटू डालो....शायद इतना काफ़ी न था, अब यह टंटा भी जल्दी खत्म हो जाए...अब ही वीडियो अपलोड करनी पड़ेगी...दगड़ू को तो लगने लगा है कि जब से फोनों में कैमरे आ गये हैं यह गंदगी भी तभी से दिखने लगी है...
दगडू भी बड़ी चुटकियां लेता है ..हंसते हंसते कह रहा था कि कईं फोटे देख कर गंदगी के तो हंसते हुए पेट में बल पड़ जाते हैं..मुझे कहने लगा ध्यान से देखिएगा उन फोटो को ..साफ़ लगता है कि अब सफाई करनी है तो कुछ तो नीचे गिरा दिया जाए...और फिर वे फोटू भी बड़ी वॉयरल हुआ करती थीं कि जितने पत्ते, उतने ही झाड़ू लेकर डटे हुए श्रमदान करने वाले ...उन तस्वीरों ने भी लोगों को खासा एंटरटेन किया... अब तो साहब यह आलम है कि बहुत बार सफ़ाई करते समय वे पत्ते भी नहीं दिखते ...लेेकिन अब एडिटिंग टूल्स भी लोग समझने लगे हैं ...वे फर्श दिखाते ही नहीं बहुत बार...
सफाई के लिए हमें सच में अपनी मानसिकता बदलनी होगी ...दिल से...ये रस्में भी ज़रूरी हैं क्योंकि लोगों की यादाश्त बड़ी कच्ची होती है ...लेकिन इस समय मुझे प्रधानमंत्री मोदी के मन की एक बात याद आ रही है ..जब इन गौरक्षकों ने धूम मचा रखी थी, किसी को कहीं भी पकड़ पर गोरक्षा के नाम पर टाइट कर देते थे....ऐसे में उन्होंने कुछ दिन पहले कहा कि ये गौरक्षक नहीं हैं...पता नहीं कौन कौन से तत्व इस में घुस आये हैं...अगर गऊमाता से इन्हें इतना ही प्यार है तो सब से पहले ये पालीथीन से गऊयों को बचा लें....वे बता रहे थे कि जब वे मुख्यमंत्री थे गुजरात में तो एक बार उन्होंने देखा कि एक गाय के पेट से दो बाल्टी भर कर पालीथीन की थैलियां निकाली गईं थीं....
मुझे यह बात बहुत सही लगी कि हम लोग इतने प्रयासों के बावजूद भी पालीथीन को रोक नहीं पा रहे ...मुझे तो तब बहुत खुशी होगी जब हम लोग इस हठ को अपने मन से छोड़ देंगे...और इस का सब से बढ़िया प्रमाण वही होगा जब हमें कोई भी गाय सड़कों पर पालीथीन की थैली चबाते हुए नहीं दिखेगी...सच में यह दृश्य बेहद दुःखी करता है ...मन रोता है उस समय कि यह बेजुबान जानवर हमारी बेवकूफ़ी का खामियाजा भुगत रही है ... वैसे भी हम लोग जगह जगह बड़े बडे़ पालीथीन की थैलियों के अंबार लगे देखते हैं तो यही प्रार्थना करते हैं कि ये कैसे भी लोग इस्तेमाल करना बंद कर दें तो ही हर तरफ फैली इस गंदगी का शायद कुछ हो जाए...
कल मैं बाज़ार गया तो कपड़े का थैला लेकर जाना भूल गया... वहीं पर एक व्यक्ति चलते फिरते थैले बेच रहा था...मैंने भी उस से ले लिया ...खरीदने से पहले ही मुझे लगा कि यार, मैं यह क्या ले रहा हूं ...सारा दिन तो मैं पानमसाले-गुटखे की भर्त्सना करता रहता हूं और थैला इन पानमसालों की ब्रॉंड-अम्बैसेडरी वाला....सब से डर तो मुझे लगा कि अगर कोई मरीज़ ने मुझे इस थैले के साथ देख लिया तो मेरी तो छुट्टी हो गई पक्की... उसने अगर मुझे कहा न भी तो मन में यही सोचेगा कि अस्पताल में तो हमें पानमसाले के विरोध में भाषण पिलाता रहता है ...और यहां देखो....
बहरहाल, मैं मजबूर था...मैंने यही सोचा कि मेरे कहने पर मेरे मरीज़ अगर यह सब खाना छोड़ते नहीं तो मुझे इस थैले से साथ देख कर कौन है जो खाना शुरू कर देगा!...वैसे भी पानमसाले-गुटखे के सेचूरेशन प्वाईंट तक तो हम पहले ही पहुंच चुके हैं!!
सब्जियों के बारे में भी कुछ बेवकूफी से भरी बातें कर के इस पोस्ट को बंद करूंगा...
कल बाज़ार में देखा कि आंवले और मूंगफली आ चुकी है .. और कचालू (बंडा) भी खूब बिक रहा है ... तीनें चीज़ें खरीदी गईं...है कि नहीं बेवकूफी, ये भी कोई लिखने वाली बातें हैं !
इस सीज़न में पहली बार कल बाज़ार में आंवले दिखे ..
मुझे याद है पहले आंवले हमें शीतकाल के दिनों में ही दिखते थे
कल ही पहली बार सीज़न की मूंगफली भी दिख गई ..मैंने कहा ..भाई, यह तो कच्ची है,
उसने बताया कि यह उबाल कर खाने वाली है बाबू
कचालू तो अपने फेवरेट हैं ही ...यहां लखनऊ में इसे बंडा कहते हैंं...
फोटू ली थी इसलिए आप से शेयर कर दीं.
हमें यहां तो रेडियो धीरे धीरे टीवी की जगह लेता दिख रहा है ...
कुछ भी करते समय ... कुछ भी लिखते समय ..ध्यान कल उड़ी के उन शहीदों की तरफ़ ही जाता है बार बार ..कोटि कोटि नमन
रेडियो-ट्रांजिस्टरों के संग्रह में हमारे यहां नेशनल पैनॉसॉनिक का एक टू-इन-वन भी है ...कभी भी इसे लगा लेते हैं...इस की साउंड-क्वालिटी बहुत बढ़िया है .. लेकिन इस में अब कैसेट चलती नहीं..जो कैसेट्स दो चार रखी हुई हैं शायद इतनी पुरानी हो चली हैं कि लगाते ही अंदर फंस जाती है ...जैसा कि आज सुबह यह कांड हुआ जिस की फोटू मैंने अपने मित्रों से शेयर भी करी
आज सुबह के इस कांड ने तो ३६ साल पुराने ज़ख्म हरे कर दिए...
चलिए यह भी बता देते हैं कि मैंने काफी समय तक रेडियो धमाल नाम से एक ब्लाग भी बनाया ..उस पर रेडियो के जमाने की अपनी यादों को सहेजने की कोशिश भी करी ..अभी भी कायम-दायम है वह भी ...लेकिन यहां यह भी बताना ज़रूरी होगा आज के जेनरेशन के लिए कि एफएम के अलावा भी रेडियो की दुनिया है .. एफएम तो शायद १९९४ में आया...इस से पहले केवल मीडियम वेव फ्रिक्वेंसी पर आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस और विविध भारती जैसे प्रोग्राम ही हम लोग अकसर सुना करते थे ..विविध भारती भी तो बहुत बाद में ही आया था..कुछ कुछ शहरों में ही कैच हुआ करता था..
शार्ट वेव की बात करें तो मुझे अपने पड़ोस के नानक सिंह अंकल जी की याद आती है कि किस तरह से वह १९७१ के हिंदु-पाक युद्ध और शायद १९७२ में बंगला देश बनने की खबरें सुनने के लिेए अपने बरामदे में अपना ट्रांजिस्टर पकड़ कर उसे इधर उधर घुमा कर बीबीसी की खबरें या रेडियो सिलोन कैच करने की कोशिश करते ..और अगर पांच दस मिनट बीबीसी कैच हो जाता तो हम भी उन के साथ वे खबरें सुन लेते ..इस के अलावा शॉट वेव से अपना कोई नाता दरअसल रहा नहीं..
भूमिका कुछ ज़्यादा होती दिख रही है ... मेरे में यही बुरी बात है कि मैं बात को खींचता बहुत ज़्यादा हूं ..कोई बात नहीं, सुधर जाऊंगा धीरे धीरे...
हां, तो मैं अपने नेशनल पैनासानिक वाले सेट की बात कर रहा था ...एक टेप कटवाने के बाद मुझे लगा कि चलिए आज इस पर रेडियो ही सुनते है ं...खुशी हुई कि उस समय आकाशवाणी लखनऊ के कार्यक्रम चल रहे थे ...
पाठकों की सुविधा के लिए बताना चाहूंगा कि ये जो एफएम की सुविधा है यह हर जगह नहीं है ..अभी भी अधिकतर हिंदोस्तान अपनी रेडियो की ज़रूरतें मीडियम वेव के द्वारा ही पूरी करता है ..और सरकार के अब इस सर्विस को चलाए रखना ज़्यादा से ज्यादा खर्चीला होता जा रहा है ..लेकिन चिंता न करिए...प्रधानमंत्री की मन की बातें भी अधिकतर इस मीडियम वेव से ही देश के जनमानस तक पहुंचती है ...
हां, तो जैसे ही मैंने रेडियो लगाया तो स्वपनदोष पर कुछ प्रोग्राम चल रहा था ...मेरे लिए यह एक सुखद आश्चर्य था ...आल इंडिया रेडियो पर स्वपनदोष के बारे में बातें हो रही हैं....
मैंने भी कुछ नौ-दस साल पहले इस विषय पर एक लेख लिखा था अपने एक दूसरे ब्लॉग हैल्थ-टिप्स पर ....जिस का शीर्षक था...स्वपनदोष जब कोई दोष है ही नहीं तो! बस, ऐसे ही एक दिन मन किया कि आज इस विषय पर लिखते हैं ...तरूण एवं युवा बड़े परेशान रहते हैं ...लिख दिया...इस के बाद तो मेरे पास थैंक्स की ईमेल्स का तांता लगने लगा .. मुझे भी अच्छा लगा..शुक्रिये की ईमेल आती हैं...अभी भी। मैंने क्या किया, जो मेरी परेशानी रही मेरे स्कूल-कालेज के दिनों में उसे ईमानदारी से यंगस्टर्ज़ के सामने रख दिया और उस से जुड़ी भ्रांतियों का ध्वस्त करने का प्रयास किया ...जिस की वजह से मैं लगभग सात आठ साल परेशान रहा ...बस, मैंने इतना ही किया . अभी मेरी इस लेख के आंकड़ों पर नज़र पड़ी तो मैंने पाया कि इसे साठ हजा़र लोग पढ़ चुके हैं...
हां, तो आज जो आकाशवाणी लखनऊ पर कार्यक्रम चल रहा था जिस में स्वपनदोष पर चर्चा हो रही थी ...मुझे वे बातें मेरे लेख से बिल्कुल मेल खाती दिखीं... कुछ प्रश्न किये जा रहे थे ..एक प्रश्न आया कि क्या स्वपनदोष उन लड़कों में ही होता है जो लड़कियों के बारे में गलत सोचते हैं ....उस का जवाब उस प्रोग्राम में यह दिया गया कि नहीं, यह हर युवक में होता है ...यह कोई बीमारी नहीं है, बात केवल इतनी सी है कि जब आप के शुक्राणु परिपक्व हो जाते हैं तो वे स्वपनदोष के जरिये आप के शरीर से बाहर निकल जाते हैं...
मुझे उस प्रोग्राम को सुनते यही लग रहा था कि जितनी जानकारी तरूणावस्था एवं नवयुवकों एक आकाशवाणी जैसे मीडियम के द्वारा उपलब्ध करवाई जानी मुनासिब है, वे उसे बढ़िया से पहुंचा ही रहे थे ..हां, कार्यक्रम का नाम था..."मैं कुछ भी कर सकती हूं!"
प्रोग्राम में यह भी बताया गया कि इस से कमजोरी नहीं होती ...यह भी समझाया गया कि इस स्वपनदोष की वजह से बहुत से बच्चों का अपनी पढ़ाई में मन नहीं लगता ...वे समझते हैं कि यह एक बीमारी हो गई है उन्हें .. जी हां, यही होता है ..मेरे साथ भी तो ऐसा ही हुआ ...नवीं कक्षा से लेकर १९७७ से अगले लगभग पांच साल तक मैं भी इसी काल्पनिक परेशानी से ग्रस्त रहा ..पढ़ाई में मन नहीं लगता था...यही सोच कर कि पता नहीं यह कौन सा लफड़ा है... किताब सामने होती लेकिन अकसर ध्यान इस तरफ ही रहता कि क्या यह मेरे साथ ही हो रहा है...यहां तक कि क्लास में दोस्तों के साथ भी इस तरह की तकलीफ़ के बारे में कभी चर्चा नहीं की ...वे मेरे पढ़ाई लिखाई के सब से महत्वपूर्ण दिन थे..लेेकिन मैं अपने पोटेंशियल से बहुत कम पढ़ाई-लिखाई करता .. मन ही नही ंलगता थी, क्या करता!
जब मैंने वह रेडियो लगाया उस के बाद वह प्रोग्राम बस पांच दस मिनट ही चला ..लेेकिन मुझे यह कल्पना ही इतनी सुखद लगी कि बहुत बढ़िया, इस तरह की सटीक जानकारी यंगस्टर्ज़ तक इतने बड़े मीडिया के द्वारा पहुंचाई गई ....आकाशवाणी लखनऊ को बहुत बहुत साधुवाद...कल निदेशक को या तो चिट्ठी लिखूंगा, वरना उन से मुलाकात ही करने चला जाऊंगा..
अच्छा लगता है जब लोग इस तरह के मुद्दों के बारे में बोलने लगते हैं...गंदी बात, गंदी बात वाले घिसे पिटे दिन नहीं रहे...अगर युवाओं में मन में कोई उलझन है तो उसे दूर करना ही होगा....मैंने अपने २००८ में लिखे लेख में भी यह गुज़ारिश की थी कि सभी पिता अपने तरूण बेटों को इस तरह के मुद्दों के बारे में समय तरह बताते रहा करें.. यह निहायत ज़रूरी है।
कुछ सप्ताह पहले यहां लखनऊ में यूनीसेफ की तरफ़ से एक बहुत बड़ा कार्यक्रम था स्कूली छात्राओं के लिए जिस में उन्हें सैनिटरी नैप्किन के महत्व आदि के बारे में बताया गया था ... मीडिया में इस मुद्दे को प्रमुखता से कवर किया गया था कि लड़कियों की पर्सनल हाइजिन (menstrual hygiene) ठीक न होने की वजह से उन में आगे चल कर महिलाओं से संबंधित कुछ रोग होने की संभावना ज्यादा होती है ...यूनिसेफ को बहुत बहुत बधाई ..अगर एक बार इस तरह की अलख जगी है तो इस की रोशनी देश के हर स्कूल की उस उम्र की बच्चियों तक भी पहुंचनी चाहिए..
ये सब ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें पुराने दिनों की तरह चटाई के नीचे नहीं सरकाया जा सकता .... हर छात्र-छात्रा को उऩ के मन में उथल-पुथल पैदा करने वाली बातों का उचित समाधान तलाशने का पूरा अधिकार है!
आप इस मुद्दे के बारे में क्या सोचते हैं? ...लिखिएगा...
आज मुझे लगभग २५० के करीब स्कूली बच्चों के मुंह का निरीक्षण करने का मौका मिला .. यहां लखनऊ में है स्कूल पॉश एरिया है बिल्कुल..मुख्यमंत्री आवास से बस १००-२०० मीटर की दूरी पर.. इस स्कूल को एक सरकारी विभाग का महिला संगठन चलाता है ...मेरे विचार में एक आदर्श स्कूल है ..बिल्डिंग के लिहाज से, खुली जगह के नज़रिये और हरियाली तो उस एरिया में भरपूर है ही ... जैसा कि मुझे लगता है इस स्कूल में बच्चे अधिकतर उस एरिया के वर्कर्ज़ के ही आते हैं ...तो क्या मैं वर्कर नहीं हूं?...मैं तो अनेकों बार कह चुका हूं कि हम लोग जितनी मरजी कल्पना की उड़ानें भर लें, फेंटसी वर्ल्ड में घूमते रहें, हैं तो ऊपर से नीचे तक सब के सब वर्कर ही ...बस, वर्क ही अलग है, मेरा वर्क दांतों की सलामती देखना और उस बच्चे के पापा का वर्क है ..खाना बनाने का.. जिससे मैंने पता नहीं कैसे पूछ लिया कि आप के पापा क्या करते हैं?..मैं अकसर इस तरह के प्रश्नों को पूछना पसंद नहीं करता, विशेषकर बच्चों से....चलिए, फिलासफी तो हर दिन झाड़ते ही रहते हैं, उसका क्या है, आज कुछ पते की बातें करते हैं...
आज स्कूल के हेल्थ-चैक अप कैंप से लौटते ही मुझे लग रहा था कि इतने बच्चों के दांतों को एक साथ देखने के अपने अनुभव बांटने चाहिए...मुझे नहीं पता यह लेख कितना लंबा हो जायेगा या नहीं, लेकिन कुछ बातें या कुछ अनुभव दूसरों के फायदे के लिए सहेजने लायक होते हैं ...इसलिए शब्दों की सीमा में इन अनुभवों को नहीं बाँधा जा सकता।
इस हेल्थ-चैक-अप कैंप में एक नेत्र रोग विशेषज्ञ, एक ईएनटी विशेषज्ञ और एक शिशु रोग विशेषज्ञ, हमारी सीएमएस और मैंने स्कूली बच्चों का निरीक्षण किया...एक बार ध्यान आया कि कुछ तस्वीरें खींच लेते हैं इस कैंप की ..लेेकिन पता नहीं इच्छा ही नहीं हुई..यही लगा कि आज का दिन इन बच्चों के नाम पूरे का पूरे...इसलिए पूरे मन से यह काम किया...
कुछ बातें जो मैंने नोटिस करी ...
चार पांच साल तक के बच्चों के दांत बहुत अच्छे थे ..चार पांच साल तक के जितने बच्चे देखे उन के दांत बहुत अच्छे थे...साफ-सुथरे ..दांतों की सड़न से रहित...मुंह का अंदरूनी भाग भी बिल्कुल ठीक ठाक .. कुछ बच्चे थे जिन में दांतों की सड़न की वजह से दंत-छिद्र बन चुके थे .. जिनका इलाज करवाने के लिए अभिभावकों को बताया जायेगा..
सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों में दांतों के बारे में इतनी अवेयरनेस है ही नहीं ...इसलिए हर छःमहीने के बाद दांतों के निरीक्षण का कंसेप्ट है ही नहीं...जब दर्द होता है, मुंह सूज जाता है ...तब कहीं जा कर दंत चिकित्सक का ध्यान आता है
कुछ कुछ बच्चों के दांतों की तस्वीरें मैंने जल्दी जल्दी में खींचीं ताकि उन तस्वीरों के द्वारा उन्हें और अन्य लोगों को जागरूक किया जा सके ..
चलिए, पहले तस्वीरें लगाता हूं, फिर उन के बारे में बताता रहूंगा...आज तो बस इतना ही संभव हो पायेगा...कुछ बातें रह भी गईं तो फिर कभी किसी अन्य पोस्ट में देख लेंगे..
वहां पहुंचते ही मेरा सहायक सुरेश तो सारे स्कूल के बच्चों को अपने मुंह की सफाई के गुर सिखाने में व्यस्त हो गया..सारा दिन मेरे मरीज़ों के साथ डॉयलाग सुुन सुन कर वह आधे से भी थोड़ा ज़्यादा डाक्टर तो हो ही चुका है, जब मेैं उस के साथ यह मजाक करता हूं तो खिलखिला कर हंसता है .. उसने बड़े अच्छे से स्कूली बच्चों के छोटे छोटे ग्रुप बना कर बिल्कुल बच्चों के स्तर पर पहुंच कर उन से दांतों की, जुबान की सफाई की बातें करी...मुझे यह देख कर बहुत अच्छा लगा..
यह तस्वीर और नीचे वाली तस्वीर जिस बच्चे के दांतों की है वह शायद यही पांच वर्ष का ही था...दांतों के इतने घिसने से मुझे पहले तो लगा कि यह तो किसी खुरदरे मंजन के इस्तेमाल से हुआ होगा ..वह कोई चालू किस्म का मंजन करता भी है. लेकिन फिर ध्यान आया कि यह Bruxism/Bruxomania की वजह से हो सकता है ....उस के लिए उस के अभिभावकों से बात करने की ज़रूरत थी कि यह सुबह या रात में सोते समय दांत तो नहीं किटकिटाता .. बहरहाल, जो भी हो अगर यह ब्रक्सिज्म की वजह से भी है तो उस का भी इलाज पूर्णतया संभव है ..लेेकिन पहले अच्छे से इस तरह के दांतों के घिसने की वजह जान लेने के बाद...पांच साल की उम्र में इस तरह के दांतों का घिसना बहुत ही ज्यादा कम नज़र आता है ..
यह जो दांतों की व्यवस्था इस बच्चे में दिखी यह नार्मल नहीं है ...ऊपर के किसी भी एक या एक से ज़्यादा दांतों को नीचे वाले दांतों के पीछे छिप जाना दांतों को बंद करते समय ...यह दांतों की सेहत के लिए भी ठीक नहीं है, और भविष्य में पक्के दांतों के समय भी इस से कुछ जटिलताएं उत्पन्न हो सकती है ं.. इस तरह के केस अकसर बहुत ही कम दिखते हैं ..अब इस में क्या होना चाहिए ...कोई दूध का दांत निकलवाना चाहिए या नहीं...यह तो बच्चों के दांतों के विशेषज्ञ (जिन्हें हम लोग पीडीडोंटिस्ट कहते हैं) .. ही बता पायेंगे...
यह जो इस दूध के दांत में कट है, इस का भी एक्सरे होना चाहिए ताकि कारण का पता चल सके...और अगर कुछ करना हो तो किया जा सके...वरना तो यह दांत सात आठ की उम्र के आसपास गिर ही जाता है और ऩया पक्का दांत इस की जगह ले लेता है ..अमूमन!
इस बच्चे के नीचे के दो आगे के दूध वाले दांत जुड़े हुए हैं...इसे हम लोग फ्यूजड दांत कहते हैं ..बहुत ही कम केस दिखते हैं इस तरह के भी ...जहां तक मुझे ध्यान है , जब दूध के दांत इस तरह से जुड़े होते हैं तो अकसर कुछ करना नहीं होता, बस इन का अपने समय पर गिरने का और इन की जगह लेने वाले पक्के दांत के निकलने का इंतज़ार ही करना होता है ...
यह ६-७ साल के बच्चे की तस्वीर है ..यह मैंने इसलिए खींची कि पाठकों को याद दिलाया जा सके को लोग समझते हैं कि ६ साल की उम्र है तो सभी दांत दूध के ही होंगे ..लेकिन ऩहीं इस बच्चे में भी सब से पीछे जो दो दांत (दोनों तरफ़ एक एक) जाड़ आप देख रहे हैं वे पक्की जाड़ें हैं...अब छः सात की उम्र तक भी दांतों की देखभाल ठीक से न होने की वजह से यह पक्का दांत भी बहुत बार दंत-क्षय का शिकार हो जाता है ...लेकिन तब भी लोग डैंटिस्ट के पास नहीं जाते और फिर यह दांत कईं बार बिल्कुल ही नष्ट हो जाता है ..
यह तस्वीर मैंने इसलिए ली है ताकि पाठकों को यह बताया जा सके कि यह चार पांच साल के बच्चे के दूध के दांतों में इतना गैप है लेकिन यह फिर भी बिल्कुल नार्मल है ..क्योंकि जब यह दांत दूध वाले गिरेंगे तो इन की जगह पर पक्के आने वाले दांत इन से बड़े होते हैं ..इसलिए पक्के दांतों को अच्छे से तरतीब में जमने के लिए ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ता..
इस बच्चे के आगे वाले दो दांत इस तरह से क्षतिग्रस्त हुए देख कर पहले तो मुझे लगा कि यह भी किसी खुरदरे मंजन की वजह से हुआ लगता है ..लेकिन उस से केवल दो ही दांत इस तरह से खराब हों, ऐसा होता नहीं है अकसर.। मुझे लगता है कि इस के इन दोनों दांतों की बनावट में ही कुछ खराबी होगी जिस की वजह से वहां दंत-क्षय पैदा हो गया और इस तरह से कैविटी बन गई...इन दोनों दांतों की अच्छे से फिलिंग करवानी चाहिए...
यह भी छ- साल के करीब का ही बच्चा है ...इसे भी कोई तकलीफ नहीं थी, इस तस्वीर में आप देख सकते हैं कि इस के मुंह में बिल्कुल पीछे छः साल की अवस्था में आने वाली पहली पक्की जाड़ आ रही है ..उस को अभी थोड़े से मूसड़े ने कवर कर रखा है ..यह बिल्कुल नार्मल है ..कुछ दिनों में यह मसूड़ा पीछे हट जायेगा और पूरी जाड़ मुंह में नज़र आने लगेगी... बहुत कम केसों में इस तरह के मसूड़े में कभी कभी थोड़ा दर्द होने लगता है ..उस के लिए कुछ खास नही ंकरना होता, बस कोई भी दर्द-निवारक मुंह में लगाने वाली जेल (gel) लगा देते हैं एक दो दिन ...और गर्म पानी से थोड़े कुल्ले करने से सब ठीक हो जाता है ...
यह तस्वीर और इस के नीचे वाली तस्वीर इस बात को रेखांकित करती है कि दांतों का नियमित निरीक्षण कितना ज़रूरी है ..वरना दूध के दांत अपनी जगह से गिर नहीं रहे, पक्के दांतों को जबड़े की हड्डी से बाहर निकलने की जगह नही ंमिल रही ... कहीं कुछ समस्या, कहीं कुछ.... इस बच्चे में भी यह जो बाईं और दांत दिख रहा है, उसे भी निकलवाना ज़रूरी है और जो दाईं तरफ़ ऊपर का आगे वाला दांत नहीं आ रहा, उस का एक्स-रे होना चाहिए ताकि पता चले कि उस पक्के दांत के बाहर निकलने में क्या रूकावट है ताकि फिर उसी मुताबिक इलाज किया जा सके...
यह जो आप तस्वीर देख रहे हैं...इस में सात आठ के बच्चे के ऊपर वाले अगले दो दांतों के बीच एक एक्स्ट्रा दांत जम रहा है .. इस के वहां जमने से जबड़े में दूसरे पक्के दांतों के लिए जगह कम पड़ रही है, इसलिए अकसर ऐसे हालात में वे दबे ही रहते हैं..अगर किसी तरह से बाहर निकल भी आते हैं तो इधर उधर ऊबड-खाबड़ जिसे हम आम जन की भाषा में क्रूक्ड दांत कहते हैं और चिकित्सीय भाषा में जिसे Malocclusion कहा जाता है ..
इतना लिखने के बाद रात में मुझे नींद आ गई ...अभी उठा हूं तो सोच रहा हूं कि पहले इसे मुकम्मल कर लूं..यह पोस्ट नहीं, एक दस्तावेज सा तैयार हो रहा है...जिस काम को इतने वर्षों से कर रहे हैं उस के बारे में सहजता से लिखना काफी सुलभ होता है ..वरना मैं जब साहित्यिक विषयों में टांग फंसा लेता हूं ..तो व्याकरण और बर्तनी में ही उलझा रहता हूं...
इस तरह के एक्स्ट्रा दांत को जिस के बारे में मैं कल रात बात कर रहा था, इन्हें जितनी जल्दी उखड़वा दिया जाए उतना ही बढ़िया होता है ..बिल्कुल आसानी से उखड़ जाता है ...वरना इस तरह के दांत उस बच्चे या नवयुवक के लिएे परेशानियां लिए खड़े रहते हैं...एक बार दांत टेढ़े मेढ़े हो जाएँ तो कम से कम बीस तीस हज़ार रूपये खर्च करने पड़ते हैं ...और एक से दो वर्ष तक ब्रेसेज़ लगवाए रखने से दांत दुरुस्त हो पाते हैं....यह भी थ्यूरेटिकल बात ही है ...क्योंकि जो मैंने देखा है कि विभिन्न कारणों की वजह से इस तरह का इलाज शायद एक प्रतिशत ..जी हां १% लोग ही करवा पाते हैं ...शेष तो इन बेतरतीब दांतों से पैदा हुई हीन भावना का बोझा कईं साल तक ढोते रहते हैं!
अभी ध्यान आया कि इस तरह की समस्या के बारे में मैंने कईं वर्ष पूर्व भी लिखा था ...इंगलिश ब्लॉग पर भी और इस पर भी ...लिंक मिल गये ...देखिए, अगर आप इस समस्या के बारे में विस्तार से पढ़ना चाहें तो इधर भी हो आईए...
यह जो सारे बच्चे इस आयुवर्ग के होते हैं ६ से बारह वर्ष वाले ...ये सब मिक्सिड डैंटिशिन की श्रेणी में आते हैं...यह इंगलिश शब्द इतना भारी भरकम है, लेेकिन बात केवल यह है कि इस आयुवर्ग में दूध के दांत गिर रहे होते हैं...पक्के दांत जम रहे होते हैं ....इसलिए बच्चे को हर छःमहीने के बाद बिना किसी तरह की तकलीफ़ के भी दंत चिकित्सक के पास चैक-अप के लिए ले जाना चाहिए... क्योंकि हमें दांतों की सड़न के प्रारंभिक लक्षणों के साथ साथ यह भी देखना होता है कि कौन सा दूध का दांत अपना झड़ने का समय आने के बाद भी टिका हुआ है ...और साथ ही में उग रहे पक्के दांत के आने में कोई रूकावट तो नहीं आ रही ...
इस बच्चे को ब्रुश करते समय मसूड़ों से खून आता है ..
यह जो तस्वीर आप ऊपर देख रहे हैं यह पायरिया की तस्वीर है ...ग्यारह बारह साल की उम्र में पायरिया के मरीज अब आने लगे हैं..आज से तीस साल पहले जब हम लोग डैंटिस्ट्री की एबीसी लिख पढ़ रहे थे तो बीस की अवस्था में बहुत कम मरीज़ आते थे इस रोग से ग्रस्त...शायद तीस पैंतीस के लोग ही हमारे पास अधिकतर आते थे ...फिर पंद्रह बीस साल पहले २०-२२ साल के युवा लोग इस तकलीफ़ की वजह से आना शुरू हो गये ...अब १०-१२ साल के बच्चे इस तकलीफ़ की वजह से आ जाते हैं कि ब्रुश करते हुए दांतों से खून बहने लगता है ...जो कि पायरिया रोग का (जिसे हम लोग जिंजिवाईटिस भी कहते हैं) शुरुआती लक्षण है...इस के बारे में मैंने कुछ वर्ष पहले विस्तार से लिखा था, अगर आप को ज़रूरत महसूस हो तो इन लिंक्स को देखिएगा....
इस ६ साल के बच्चे में ऊपर के एक दांत में दंत-छिद्र तो है ही ...लेकिन मैंने यह फोटो इसलिए शेयर की है क्योंकि इस बच्चे की पहली जाड़ आ रही है ..आप देख रहे हैं उस के ऊपर का मसूड़ा थोड़ा सूजा हुआ है .. इसे डेंटल भाषा में Eruption Gingivitis कहते हैं ..इसे भी इस से कोई तकलीफ नहीं है, अकसर होती भी नहीं है, अगर किसी को दर्द-वर्द या खाने में दिक्कत हो इस की वजह से लगाने के लिए कुछ दवा या खाने के लिए दे देते हैं ...कुछ दिनों की ही बात होती है ..यह मसूड़ा अपने आप ठीक हो जाता है ..पीछे हट जाता है ...लेेकिन अकसर मां-बाप बच्चों के इस अवस्था में हमारे पास ले आते हैं कि यह बच्चे में मुंह में क्या हो रहा है! उन्हें केवल सांत्वना चाहिए होती है कि यह कुछ खास नहीं है!
मैंंने इस दस्तावेज में यह जिक्र किया कि इस आयुवर्ग में दूध के दांत गिर रहे होते हैं पक्के जम रहे होते हैं इसलिए दंत चिकित्सक के पास जा कर नियमित जांच करवानी ज़रूरी होती है ..इस बच्चे में भी एक पक्का दांत (स्थायी) दांत तो निकल आया है लेकिन दूध का दांत गिरा नहीं है ..उस के टुकड़े अभी भी जबड़े के अंदर फंसे हुए हैं... जिन की वजह से पक्का दांत भी थोड़ा अपनी जगह से हट के जम रहा है ...दूध के दांत के बचे खुचे इन टुकड़ों को तुरंत निकलवा दिया जाना चाहिए...
इस तरह के बच्चे के बारे में तो मैंने ऊपर ही बता दिया था कि दूध के दांतों में इस तरह का खुलापन एक शुभ संकेत है ..ऐसा क्या है, इस की वजह क्या है, इस के बारे में तो ऊपर चर्चा की ही जा चुकी है ..अगर आपने पढ़ी हो तो!
और हां, इस तरह के मरीज़ मेरे पास हर सप्ताह दो तीन आ ही जाते हैं... इस में क्या दिक्कत है कि दूध के दांत गिरे नहीं अभी और उन के पीछे पक्के दांतों ने अपना आसन जमाना शुरू कर दिया है ... पेरेन्ट्स बहुत चिंतित होते हैं ..लेकिन बात सिर्फ इतनी सी होती है कि हम इन दूध के दांतों को निकाल बाहर करते हैं और कुछ ही हफ्तों में अंदर की तरफ़ जमे हुए पर्मानेंट दांत बिना किसी दिक्कत के, जीभ के दबाव से ही अपनी जगह ले लेते हैं...यह तो बहुत ही आम समस्या हो चली है ...मुझे कईं बार लगता है कि बच्चे आज कल सब कुछ नर्मानर्म ही खाने लगे हैं...उसी की वजह से हो रहा होगा यह सब...लेकिन शायद यह मेरा कयास ही होगा!
इस छात्र के ऊबड-खाबड़ दांत के लिए भी ब्रेसेस का इलाज होना चाहिए...लेकिन अकसर लोग करवा ही नहीं पाते..बहुत से कारण हैं...सब से बड़ा कारण वहीं पैसा ही है ...लेेकिन इस बच्चे को इस के बारे में अवेयर कर दिया है ..
जिन एक्स्ट्रा दांतों का किस्सा मैं आप को ऊपर सुना रहा था, किसी दूसरे बच्चे में भी उस तरह का एक्स्ट्रा दांत दिख गया ...इस तरह के दांत को जितना जल्दी हो सके, उखड़वा देना चाहिए...
यह जो दांत इस बच्चे के आप देख रहे हैं इस ने मुंह खोला नहीं है, जब इसे दांत भींचने के लिेए कहा है तो इस के दांत आगे से इतने खुले रहते हैं... इसे डेंटल भाषा में Anterior Open bite कहते हैं ...इस का इलाज ज़रूर करवा लेना चाहिए....पहले तो बात यह है कि इस तरह से मुंह आगे से खुला रहना एक दांतों की बीमारी है, इस के बारे में अवेयरनेस चाहिए... वरना मैंने तो ४०-४५ साल के पुरूष-स्त्रियां देखे हैं जो इस तरह की तकलीफ़ से ग्रस्त हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है ...देखने में तो बुरा लगता ही है ...इन आगे वाले दांतों के फंक्शन पर भी तो इस का असर पड़ता ही है ...और बहुत बार तो बोलचाल (शब्दों के उच्चारण) पर भी इस का असर देखने को मिलता है ..
इस तरह से आगे टूटे हुए दांत वाले भी पांच सात केस इस स्कूल में दिख गये...लोग इस का अकसर इलाज करवाते नहीं हैं या करवा नहीं पाते यह सोच कर कि पता नहीं कुछ हो भी पायेगा कि नहीं, अगर होगा, तो पता नहीं कितना पैसा लग जायेगा...इस तरह के दांतों का हम लोग पहले एक्स-रे करवा लेते हैं ...और अगर दांत की जड़ सब कुछ ठीक ठाक है तो हम लोग इसे कंपोज़िट नामक एक मैटीरियल से रिपेयर कर देते हैं ...उस में कलर भी मैंच करने की सुविधा रहती है..सामने वाले को बिल्कुल भी पता नहीं चलता कि टूटे हुए दांत को बनवाया हुआ है ...यह सब आज की आधुनिक डैंटिस्ट्री का कमाल है ..और ये सुविधाएं आज की नहीं है...कुछ बच्चों का बीस साल पहले इस तरह का इलाज किया था, अब वे बड़े हो गये हैं ...और इस तरह की फिलिंग बढ़िया चल रही है...कुछ केसों में बहुत सालों के बाद इस तरह की टुथ-कलर फिलिंग का रंग बदलने लगता है, तो उसे हटा के फिर से दोबारा कर दिया जाता है ..its so simple!
इस बच्चे को भी मसूड़ों से खून आता है, ब्रुश करने से ...इस के बारे मेैं पहले ही विस्तार से लिख चुका हूं..एक बात बस यहां फिर से लिखना चाहता हूं कि कईं बार तो इस तरह के मरीज़ इसे कोई तकलीफ़ ही नहीं समझते ...और हमारे पूछने पर ही बताते हैं कि मसूड़ों से खून आता है ब्रुश करते समय... अकसर इस तरह की तकलीफ़ होने पर लोग ब्रुश करना ही बंद कर देते हैं और किसी तिलस्मी बाबा का मंजन घिसना शुरू कर देते हैं...जिस से तकलीफ़ को बढ़ावा मिलता है ..इस के बारे में जागरूकता बहुत कम है!
इस तरह के केसों के बारे में भी मैंने पहले जिक्र किया है कि किस तरह से दूध के दांतों के टुकड़े अगर नहीं गिरें तो पक्के दांतों के जमने में रूकावट किये रहते हैं ...इस छात्र में भी यही तकलीफ है जैसा कि आप इस तस्वीर की बाईं तरफ़ देख सकते हैं...
कल लखनऊ हज़रतगंज चौराहे पर लाल बत्ती पर रूका तो बाहर यह बोर्ड दिख गया ..बात तो सही बता रहे हैं!!
आज सुबह बशीर बद्र साहब कि यह बात याद आ गई...तो लिख ली एक पेपर पर ..
बच्चों की इतनी सारी बातें चलती हैं तो इस जंगल में खिले फूल की भी याद आ ही जाती है
बस, अब कुछ ज्यादा कहने को रह नहीं गया....चंद बातें यहां दर्ज कर के छुट्टी करूंगा.. लिखते लिखते थक गया हूं मैं भी।
कल वाले केंप के बारे में नहीं ..लेेकिन वैसे ही कैंपों के बारे में कुछ सामान्य बातें शेयर करना चाहता हूं..
कैंप औपचारिकता निभाने के लिेए नहीं होते
मुझे ऐसा लगता है ..जैसा मैं मीडिया में तस्वीरें देखता रहता हूं कि कुछ सेहत कैंप बिल्कुल नौटंकी से लगते हैं...हर एक को लगता है कल के अखबार में उस की भी फोटो दिखनी ही चाहिए...ऐसा संभव नहीं है, एक समय में एक ही काम हो सकता है, नौटंकी कर लीजिए या काम कर लीजिए..दोनों काम एक साथ संभव नहीं होते कभी भी ...
नियमित होते रहने चाहिए ये स्कूल हैल्थ कैंप
इस तरह के कैंप स्कूल में हर साल की बजाए अधिक संख्या में होने चाहिए...और यह भी होना चाहिए कि सारा स्कूल को चंद घंटों में ही देख डालने की बाध्यता न हो....पचास सौ बच्चों को ही एक दिन में देखा जाना चाहिए..इस तरह से प्रक्रिया कुछ दिन चल भी जायेगी तो बच्चों की सेहत के लिए यह कोई बहुत भारी कीमत नहीं है...
मैं अकसर नोटिस किया करता हूं कि हम लोग बहुत सी बातें बस एक रिवायत की तौर पर करने लगते हैं...अच्छा, यह महीना है...यह टारगेट है...चलिए, जल्दी जल्दी से दो चार कैंप निपटा लें, नेट पर फोटो डाल दें ...वाहवाही लूट लें ....असल में इस तरह की ड्रामेबाजी से कुछ खास हासिल होता नहीं है .. कुछ लोग अपने नंबर बना लेते होंगे शायद, लेकिन उस का कुछ भी फायदा नहीं होता...हर काम पूरी लग्न से मन लगा कर ही किया जाए तो ठीक रहता है .. वरना तो.....!!
पेरेन्ट्स को भी इन्वॉल्व किया जाना चाहिए
विशेषज्ञ लोग अपनी रिपोर्ट लिख आते हैं एक कार्ड पर ..लेेकिन वे बेहद अहम् बातें उन बच्चों के अभिभावकों तक कैसे पहुंचें...यह बहुत ही ज़रूरी है ..छोटे बच्चे तो अपनी बात मां-बाप को कह ही नहीं पाते ... इसलिए मुझे ऐसे लगता है कि पीटीए की मीटिंग के दिन या किसी दूसरे दिन पेरेन्ट्स को जब बुलाया जाता है तो डाक्टर लोग भी वहां अगर हो सके तो कुछ समय के लिए उपस्थित रहें ताकि उन के बच्चों की सेहत से संबंधित कुछ अहम् बातों के बारे में उन से भी चर्चा की जा सके...यह बेहद अहम् बात है..
अगर चिकित्सकों को पीटीए के दिन पहुंचने में दिक्कत हो तो एक आइडिया यह भी है कि पेरेन्टस को भी वह कार्ड दिया जा सकता है कि वे हम लोगों के पास बच्चों के साथ अपनी शंकाओं का समाधान कर लें...
आज कर संवाद का ज़माना है...लोग संवाद से बड़ी से बड़ी पहाड़ जैसी मुश्किलें पल में हल कर लेते हैं (उदाहरण यादव परिवार मतभेद) तो यह तो कोई बात ही नहीं है!
औज़ार पूरी तरह से कीटाणुमुक्त होने चाहिेए
मैं कुछ साल पहले देखा करता था कि मुंह का निरीक्षण हो रहा होता है ..अखबारों में ही देखा करते थे ...बहुत से लोग इक्ट्ठा हुए हैं...एक गिलास में चार औज़ार किसी ऐंटीसेप्टिक में रखे हुए हैं, वे ही सभी के मुंह में डाले जा रहे हैं....यह बिल्कुल गलत है ...इस तरह के हैल्थ-चैक अप कैंपों में मैं हमेशा इस बात को तरजीह देता हूं कि बच्चों के मुंह में कोई औज़ार डाला ही नहीं जाए... अगर ज़रूरत हो भी तो वही डाला जाए तो हम अपने साथ कीटाणुरहित कर के ले गये हैं ..इसलिए हम लोग पर्याप्त संख्या में इंस्ट्रयूमेंट्स साथ ले कर चलते हैं ...किसी भी औज़ार को फिर से इस्तेमाल करने का प्रश्न ही नहीं उठता !
इस पोस्ट को बंद करते करते एक बात का ध्यान आ गया ..किसी महिला ने कैंप के दौरान यह प्रश्न किया कि क्या बच्चों के दांतों को भी भरवाने की ज़रूरत होती है ...वहां मैंने एक दो मिनट में इस का जवाब दे दिया...इस विषय पर मैंने कुछ साल पहले लिखा था..अभी नेट पर ढूंढा तो मिल गया लिंक...
मुझे अपने स्कूल के दिनों का एक कैंप याद आ गया..हमें लाइन में लगा दिया जाता और चंद सैंकडो़ं में हमें देख लिया जाता ...नवीं दसवीं कक्षा में हमारे शरीर में बहुत से बदलाव आते हैं...मैं भी कुछ बात उस डाक्टर से एक दिन पूछना चाह रहा था...लेकिन लाइन में लगे हुए हिम्मत नहीं कर पाया...बाद में आया ...फिर बात नहीं कर पाया कुछ...मुझे अच्छे से याद है... शायद मैं इतना ही कह पाया कि मुझे बड़ी कमजोरी महसूस होती है ...टांगे दुखती रहती हैं...उस डाक्दार ने भी झट से पर्ची पर Waterbury's tonic लिख दिया...मैंने अपने पिता जी को दे दी वह चिट ..वे ले आये...तरूणावस्था के प्रश्न इस तरह से घुलते हैं क्या! ...मेरे मन के प्रश्न मेरी काल्पनिक समस्याओं (यह मुझे २० साल की उम्र में पता चला कि वे सब तकलीफ़ें काल्पनिक ही थीं) की तरह मेरे अंदर ही दबे रह गये....अभी भी बड़े बड़े अस्पतालों में Adolescent centers (तरूण स्वास्थ्य केन्द्र) तो खुल गये हैं ..लेकिन उस से भी कुछ हालात बदले नहीं दिख रहे ...दरअसल शायद हम लोगों के पास किसी से बात करने का वक्त ही नहीं है.....हम खानापूर्ति में एक्सपर्ट हो चुके हैं ..बस डिग्री का ही फर्क है, कुछ ज़्यादा, कुछ कम ...Another moment for introspection for all of us!
Oh my god! ..पिछले कुछ सालों में शायद सब से बड़ी पोस्ट लिख डाली मजाक मजाक में ...लेकिन मेरे लिए यह पोस्ट नहीं है, एक विश्वसनीय दस्तावेज है.. इतनी भारी भरकम उबाऊ पोस्ट के बाद इस हल्के फुल्के गीत को सुन कर बेलेंसिंग एक्ट कर लेते हैं....
आज अखबार नहीं आयेगी...सुबह उठ कर कल वाली अखबारें ही उठा लीं...हर अखबार में लखनऊ में बकरीद छाई हुई थी, सोचा आज इन खबरों की तस्वीरें ही शेयर करते हैं...
मैं इस पोस्ट में बहुत सी तस्वीरें लगा रहा हूं ..किसी भी टेक्स्ट को अगर आप अच्छे से पढ़ना चाहें तो उस पर क्लिक कर दीजिए...आप उसे साफ़ साफ़ देख पढ़ सकेंगे...ब्लॉग में फोटो लगाते समय उस की रेज़ोल्यूशन की अपनी सीमाएं होती हैं, साईज़ बड़ा रहेगा तो सभी उसे खोल ही नहीं पाएंगे..
बहरहाल, कल सुबह ही पता तो चल गया था कि आज लखनऊ की फिजा़ में तहजीब की मिठाई घुलने वाली है ..फ्रंट पेज वाली उस खबर की सुर्खियां ही कुछ इस तरह की थीं...
ईसाई करेंगे इस्तकबाल
सिख-हिंदू परोसेंगे सेवईं
शिय-सुन्नी एक साथ पढ़ेंगे नमाज
शाहनजफ इमामबाड़े में गले मिलेंगे दोनों समुदाय
यंगस्टर्ज के हाथों में है कमान
किसी धार्मिक पर्व के बारे में अकसर मुझे भी इन्हीं सुर्खियों से ही पता चलता है ... लखनऊ में कुछ ज्यादा चलता है क्योंकि यहां पर धार्मिक-सांस्कृतिक माहौल कुछ अनूठा ही है ..वरना बहुत से शहरों में तो इस तरह के त्योहारों पर अखबार के आधे पन्ने पर एक संदेश छपता है कि मुबारकबाद ..और साथ में डाक्टरों, नीम-हकीम स्पेशलिस्टों के विज्ञापन और कामुकता बढ़ाने वाले जुगाड़ों के इश्तिहार ....लेेकिन यहां विभिन्न त्योहारों को अच्छे से कवर किया जाता है जैसा कि आप नीचे लगी हुई तस्वारों से देख पाएंगे...हाथ कंगन को आरसी क्या!
अरे हां, एक बात याद आ गई इस बधाई वाली बात से ...हम लोगों का दूसरे धर्मों के बारे में ज्ञान इतना कम और अधकचरा है कि हमें बहुत बार तो पता ही नहीं होता कि किसी की इस तरह की पोस्ट पर टिपियाना कैसे होता है ..कुछ महीने पहले की बात है कोई मुस्लिम बंधुओं का ही त्योहार था तो किसी ने तुरंत टिका दिया ...मुबारकबाद...उसे तुरंत हड़का दिया गया कि यह मुबारबाद और बधाई का मौका नहीं होता ....मैं तो इस तरह के मौकों पर तभी कुछ लिखता हूं जब दूसरे लोगों के कमैंट पढ़ लेता हूं कि हां, यह मौका है क्या..जश्न का या मातम का ! अनुमान अकसर गल्त साबित हुआ करते है ं...परीक्षाओं में तो चल भी जाते हैं...थकेले हुए मास्टरों के साथ लेकिन ज़िंदगी में नहीं चलते ...अब अगर आप बकरों की इतनी बड़ी संख्या में शहादत से कुछ अपना ही अनुमान लगा लें तो गड़बड़ हो जायेगी!
चक्कर सारा यह है कि हम लोग यहां वहां से थोड़ी बहुत जानकारी तो जुटा लेते हैं लेकिन कभी एक दूसरे के धर्म-स्थल पर जाते नही ं हैं..ठीक है, कुछ जगहों पर कुछ प्रतिबंध भी होते हैं लेकिन हम भी कुछ पहल करते नहीं दिखते...इसलिए अल्पज्ञता वाली खाई हमेशा जस की तस खुदी रहती है ...आप का इस के बारे में क्या ख्याल है?
मैंने कहा न कि आज तस्वीरों को ही बोलने देते हैं... दरअसल मैं इस पोस्ट में इतना कुछ भी नहीं लिखता, लेेकिन ये सब तस्वीरें मेरे मोबाइल से लेपटाप में ब्लु-टुथ से आ रही हैं...बच्चे तो कईं बार कहते हैं कि बापू, शेयर-इट से कर लिया कर इस तरह के काम...लेेकिन उस में एक दो बार अड़चन आई तो फिर से किया ही नहीं!
इन्हीं खबरों में से एक जगह आप यह भी लिखा पाएंगे ...मंडी में देसी, बरबरे और जमुनापारी बकरों की खासी मांग रही ...देसी और जमुनापारी बकरे आमतौर पर जहां १०-१४ हज़ार रुपयों में बिके वहीं अजमेरी नस्ल के बकरे ३५ से ४५ हज़ार रुपयों में बिके...बकरीद का त्योहार नजदीक आते ही अल्लाह मोहम्मद लिखे बकरे काफी चर्चा में रहते हैं.. इस साल भी बकरा मंडी में अल्लाह और मोहम्मद लिखे कईं बकरे लाए गये। मगर इन बकरों के दाम लाखों रूपये में होने की वजह से सिर्फ लोगों की आकर्षण का केन्द्र ही बने रहे , लोगों ने इन्हें खरीदा नहीं...
जब हम छोटे होते हैं तो हम वही मान लेते हैं जो किताबों में दर्ज है, लेकिन हम उम्र के पड़ाव पार करते करते ये जानने लगते हैं कि ज़मीनी हकीकत दरअसल है क्या...देश में इतनी विभिन्नता होते हुए भी संविधान ने एक माला में पिरो कर रखा हुआ है..यह अपने आप में एक करिश्मा ही है ...
अखबारों के झरोखों से तो मैंने आप को बकरीद का पर्व दिखा दिया ..लेेकिन अब मेरी आंखो-देखी ....
मुझे यह कभी समझ में नहीं आता कि किसी भी धर्म का पर्व हो...हिंदु-मुस्लिम या कोई भी ...लेकिन उस समय कर्फ्यू जैसा माहौल क्यों दिखने लगता है ...सीरियस से बने चेहरे, पुलिसिया बंदोबस्त, पुलिस के बैरीयर, ट्रैफिक डाईवर्ज़न ... कुछ कुछ तो मैं समझता हूं, कुछ कभी भी समझ में नहीं आया....सभी पर्व-त्योहार तो जश्न मनाने के लिेेए होते हैं...तो फिर इतनी संजीदगी, इतनी एहतियात इस गंगा-यमुनी तहजीब से मेल खाती नहीं दिखती....फिर यह भी लगता है कि हम जैसे लोगों को व्यवस्था करने वाले चलाएं हमें चुपचाप नाक की सीध पर चलते रहना चाहिए....आम पब्लिक क्या जाने कि प्रशासन के लिए क्या क्या चुनौतियां हैं, हम तो बस किसी भी मुद्दे पर अपनी एक्सपर्ट राय देने में माहिर हैं...
एक बात और ...कल रात आठ बजे के करीब एक बाज़ार से निकलने का मौका मिला ..वहां पर शहादत पा चुके बकरों की खाल के ढेर लगे हुए थे...अब चूंकि लोग इस विषय पर मीडिया में भी बोलने की ज़ुर्रत करने लगे हैं कि Eco-friendly id और बाबा रामदेव का हर्बल मु्र्गा ...बहुत से मैसेज आप को भी वाट्सएप पर दिखे होंगे... हर धर्म की अपनी अपनी आस्थाएं हैं.. मैं तो बस यही सोच रहा था कि शहादत से पहले सुबह ये बकरे सुबह कितने चहक रहे होंगे और शाम होते होते इन की चमकदार, बेहद खूबसूरत खालें बाज़ार में बिकती देख कर मैंने मन ही मन सोच लिया है कि आगे से मेरी कोशिश यही रहेगी कि मैं चमड़े की कोई भी चीज़ न खरीदूं...नहीं, कभी नहीं! आज से यही प्रण किया है समझ लीजिए...मैं जब भी किसी चमड़े की चीज को खरीदने के बारे में सोचूंगा तो मैं बाज़ार में कल दिखे दृश्य को कैसे भुला पाऊंगा ...जिसे देख कर मेरे आंसू जैसे जम गये थे!...मुझे शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव और गुरूओं-पीर पैबंगरों की शहादतें याद आ रही हैं इस समय।
पता नहीं मुझे इस बाज़ार से गुज़रते हुए एक अजीब सा मातम पसरा दिखाई दे रहा था ..वैसे कहीं कहीं बकरे बिकते भी दिखे कल शाम...वह खबर भी तो आई थी कि कुछ मुस्लिम बंधू आज मंगलवार होने की वजह से कल बकरे की शहादत देंगे ताकि उन हिंदु ब्रादर को भी दावत में शामिल किया जा सके जो मंगलवार को मांस नौश नहीं फरमाते ...
अखबारों की इतनी सारी क्लिपिंग्ज़ देख कर आप सोच रहे होंगे कि मैं तो कहता हूं कि मैं दो अखबारें ही पढ़ता हूं .. उस का जवाब यही है कि पुरानी आदतें कमबख्त जाती नहीं...