एक बात मेरे ध्यान में बार बार आ रही है पिछले कईं दिनों से कि अगर ब्लॉग हमारी अपनी ऑनलाइन दैनिक डायरी है तो फिर हम उसे दूसरों को पढ़ाने के लिए इतना मरे क्यों जा रहे हैं, अपनी बात कर रहा हूं...मुझे यह कुछ अजीब या असहज सा लगने लगा है...किसी ब्लॉग ऐग्रीगेटर में आप अपनी पोस्ट को शेयर कर रहे हैं, समझ में आता है ..लेिकन फेसबुक, ट्विटर या व्हाट्सएप पर अपनी हर पोस्ट शेयर करना अजीब सा लगता है।
मैंने भी एक व्हाट्सएप ग्रुप पर अपने ब्लॉग की पोस्ट शेयर करने के लिए एक ब्रॉडकास्ट ग्रुप बनाया हुआ है..लगभग २०० लोगों का ...मेरी ताज़ा पोस्ट का एक लिंक भेजने पर सभी को एक साथ चला जाता है।
एक सज्जन हैं जिनसे मैं मिला नहीं हूं...दूसरे किसी शहर से हैं...अपनी किसी शारीरिक समस्या के लिए दो तीन बार फोन किया था उन्होंने...नंबर स्टोर था.. उन्हें भी यह लिंक जाने लगा ...परसों उन का मैसेज आया कि यह आप रोज़ाना क्या भेजते रहते हो!. मुझे थोड़ा अजीब सा लगा... मैंने उसी समय निश्चय किया कि किसी को भी अपनी पोस्ट का लिंक भेजना ही नहीं है...क्या फर्क पड़ता है, मैं लिखता हूं इस डायरी को ..बस अपनी खुशी के लिए, कोई पढ़े न पढ़े इस से क्या फ़र्क पड़ता है, यह मेरे समस्या है ही नहीं।
अब लिखते हुए ऐसा लगने लगा है कि अगर मैं अपनी पोस्ट को शेयर नहीं करूं तो मैं कितना आज़ाद हो जाऊंगा.. सच में इतने सारे भिन्न भिन्न लोगों को पोस्ट का लिंक भेजने के चक्कर में मुझे लिखते समय किसी न किसी की भावनाओं का ख्याल रखना ही पड़ता है ...थोड़ा चाहे बिल्कुल थोड़ा ...लेकिन कहीं न कहीं मन में रहता है कि फलां मेरा पुराना मित्र है, यह मेरा सहकर्मी है, यह परिचित है, इस से रोज़ मुलाकात होती है ......वगैरह वगैरह .. लेिकन इस सब के चक्कर में मुझे ऐसा लगने लगा है कि मैं कईं बार खुल कर लिख ही नहीं पाता...इसलिए मुझे अब इस से घिन्न आने लगी है ..
फेसबुक पर भी इसी चक्कर में मैंने अपनी पोस्ट शेयर करनी बंद कर दी थी.. शायद दो एक साल पहले ... लिखते समय ध्यान आने लगता था कि यह पोस्ट किन किन मित्रों तक पहुंचेगी। इस से लिखना प्रभावित होने लगा था...अब व्हाट्सएप पर भी यही होने लगा है...जिसे मेरा ब्लॉग देखना होगा, पहुंच जाएगा कैसे भी, वैसे इस में ऐसा पढ़ने लायक है भी क्या!...अपनी ही डायरी में लिखी चंद बातें ...
अब इन बातों को यहां विराम देता हूं और अपना आज का रोजनामचा लिख रहा हूं...कल टाटास्काई के मिनिप्लेक्स में "मैं ऐसा ही हूं" हिंदी फिल्म आ रही थी, देखी हुई है पहले से ..लेकिन फिर भी देखने लगा... मिनिप्लैक्स में यह फिल्म दिन में पांच छः बार आती है और बिना किसी एड-ब्रेक के....बहरहाल, किश्तों में देखते देखते यह पूरी फिल्म रात तक ही पूरी देख पाया।
बहुत अच्छी फिल्म है, एक संदेश है...और एक गीत जो इस का बहुत पापुलर हुआ था .. और है भी बहुत बढ़िया उसे आप को सुनाना चाहूंगा..
कल रात में Epic चैनल पर देख रहा था कि रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी पर आधारित काबुलीवाला नाटक चल रहा था... बहुत ही बढ़िया... ध्यान आ गया उस समय कि काबुलीवाला फिल्म मैंने १९७० के दशक में देखी थी ...शायद १९७४ -७५ के आसपास जब अमृतसर में टी वी नया नया ही आया था.. कितना बड़ा प्रभाव छोड़ा था इस फिल्म ने मेरी उस बालावस्था में ...मुझे याद है अच्छे से।
काबुलीवाला नाटक देखते देखते रविन्द्रनाथ टैगोर का ध्यान आ गया .. आज दोपहर में ही महान लेखक दूधनाथ सिंह जी से यह सुना कि टैगोर जी ने १९१५ में लंदन से अमेरिका का २६ बार दौरा किया और हर बार राष्ट्रवाद विषय पर व्यक्तव्य प्रस्तुत किया... आप भी सोच रहे हैं कि यह अचानक से राष्ट्रवाद कहां से आ गया।
दरअसल आज दोपहर में मुझे कुछ समय के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ में जयशंकर प्रसाद जयन्ती समारोह में भाग लेने का अवसर मिला...संगोष्ठी का विषय था.. प्रसाद के साहित्य में राष्ट्रीयता एवं लोकमंगल की भावना।
श्री दूधनाथ सिंह जी मुख्य अतिथि थे.. उन्हें सुनना बहुत अच्छा लगा...उन्हें सुनते हुए ऐसे लग रहा था जैसे वह श्रोताओं से बातचीत कर रहे हैं.. और एक बात जो मैंने कल महसूस की कि मेरे तो जो मन में होता है उसे लिखना तो बहुत दूर कह भी नहीं पाता हूं बहुत बार ... और बहुत बार उस पर अमल करने से भी बहुत दूरी है अभी ...लेिकन दूधनाथ सिंह जी को सुनते हुए लग रहा था कि जो उन के मनोभाव थे वे उन्होंने बहुत बेबाकी से ... बिना किसी हिचकिचाहट के श्रोताओं के सामने रखे....उस में नहीं जाते कि क्या कहा, क्या नहीं कहा, यह सब तो पेपर वाले लिख ही देंगे....लेिकन मैं तो उन की ईमानदारी की दाद देता हूं...ऐसा करना हरेक के बश की बात है भी नहीं, इस के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए होती है ... एक तरह से आत्मावलोकन का अवसर मिल गया मुझे दूधनाथ सिंह जी को सुनते हुए।
कल ३० जनवरी थी...राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की पुण्यतिथि भी थी, वहां पर एक वक्ता ने राष्ट्रवाद के बदलते मायनों पर चिंता ज़ाहिर करते हुए बताया कि आज गोवा में नाथूराम गोड़से पर एक किताब का विमोचन होने वाला है ... इसे सुनने के बाद श्री दूध नाथ सिंह जी ने अपने भाषण के दौरान कहा कि यह सुन कर उन्हें बहुत दुःख हुआ... उन्होंने बताया कि मैं तो गांधी जी का भक्त हूं... उन्होंने बताया कि गांधी जी की शहादत को दूसरा क्रूसीफिकेशन कहा जाता है।
अमेरिका में गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा दिए गए व्यक्तव्यों में से राष्ट्रवाद की परिभाषा दूधनाथ सिंह जी ने शेयर की .. मुझे ठीक से याद हो कि नहीं, इसलिए किसी त्रुटि के लिए क्षमा करिएगा...इतिहास बताता है कि राष्ट्रवाद जो है वह एक दूसरे से लड़ने झगड़ने और अपना स्वार्थ साधने की चिंता है और उस की तैयारी है लेिकन टैगोर साहब ने कहा कि इतने बड़े देश में जहां कईं संस्कृतियां एक साथ रहती हों, उन सब की सुरक्षा को सुनिश्चित करना और यह भी सुनिश्चित करना कि वे सब आगे बढ़ें, यही राष्ट्रीयता है।
हां, एक बात और ... घर आते ही मैंने सब से पहले जयशंकर प्रसाद जी कि एक किताब अपने संग्रह से निकाली .. अभी तो बस निकाली है, देखता हूं पढ़ने का कब मुहूर्त निकलता है ...मैं पढ़ने के मामले में अव्वल दर्जे का आलसी प्राणी हूं..
बस यही फुल-स्टाप लगाता हूं.....वैसे भी आज कोई टेंशन नहीं, कहीं पर पोस्ट को शेयर करना नहीं, जो पढ़े उस का भला..जो न पढ़े उस का भी भला... अपनी पोस्ट पढ़वाने का यह फितूर उतारना पड़ेगा......जो मन में है, अपनी डायरी में लिख कर छुट्टी करो....its as simple as that...unnecessarily it has become so complex!...मैं कितने लोगों के व्हाट्सएप मैसेज और लिंक खोलता हूं......शायद ९९ प्रतिशत तो बिना देखे ही रहते हैं, सच में .....ऐसे में भला कोई मेरे भेजे लिंक्स क्यों खोलने लगा!
हां, एक काम की बात और है ... वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर आप सैंकड़ों-हज़ारों कहानियां, उपन्यास...नामचीन लेखकों द्वारा रचे हुए ..मुफ्त पढ़ सकते हैं ...मैं यहां पर जयशंकर प्रसाद की कहानियों का लिंक लगा रहा हूं.... just check this out!
जाते जाते प्रिय बाबू की पावन स्मृति को बहुत बहुत नमन ...
मैंने भी एक व्हाट्सएप ग्रुप पर अपने ब्लॉग की पोस्ट शेयर करने के लिए एक ब्रॉडकास्ट ग्रुप बनाया हुआ है..लगभग २०० लोगों का ...मेरी ताज़ा पोस्ट का एक लिंक भेजने पर सभी को एक साथ चला जाता है।
एक सज्जन हैं जिनसे मैं मिला नहीं हूं...दूसरे किसी शहर से हैं...अपनी किसी शारीरिक समस्या के लिए दो तीन बार फोन किया था उन्होंने...नंबर स्टोर था.. उन्हें भी यह लिंक जाने लगा ...परसों उन का मैसेज आया कि यह आप रोज़ाना क्या भेजते रहते हो!. मुझे थोड़ा अजीब सा लगा... मैंने उसी समय निश्चय किया कि किसी को भी अपनी पोस्ट का लिंक भेजना ही नहीं है...क्या फर्क पड़ता है, मैं लिखता हूं इस डायरी को ..बस अपनी खुशी के लिए, कोई पढ़े न पढ़े इस से क्या फ़र्क पड़ता है, यह मेरे समस्या है ही नहीं।
अब लिखते हुए ऐसा लगने लगा है कि अगर मैं अपनी पोस्ट को शेयर नहीं करूं तो मैं कितना आज़ाद हो जाऊंगा.. सच में इतने सारे भिन्न भिन्न लोगों को पोस्ट का लिंक भेजने के चक्कर में मुझे लिखते समय किसी न किसी की भावनाओं का ख्याल रखना ही पड़ता है ...थोड़ा चाहे बिल्कुल थोड़ा ...लेकिन कहीं न कहीं मन में रहता है कि फलां मेरा पुराना मित्र है, यह मेरा सहकर्मी है, यह परिचित है, इस से रोज़ मुलाकात होती है ......वगैरह वगैरह .. लेिकन इस सब के चक्कर में मुझे ऐसा लगने लगा है कि मैं कईं बार खुल कर लिख ही नहीं पाता...इसलिए मुझे अब इस से घिन्न आने लगी है ..
फेसबुक पर भी इसी चक्कर में मैंने अपनी पोस्ट शेयर करनी बंद कर दी थी.. शायद दो एक साल पहले ... लिखते समय ध्यान आने लगता था कि यह पोस्ट किन किन मित्रों तक पहुंचेगी। इस से लिखना प्रभावित होने लगा था...अब व्हाट्सएप पर भी यही होने लगा है...जिसे मेरा ब्लॉग देखना होगा, पहुंच जाएगा कैसे भी, वैसे इस में ऐसा पढ़ने लायक है भी क्या!...अपनी ही डायरी में लिखी चंद बातें ...
अब इन बातों को यहां विराम देता हूं और अपना आज का रोजनामचा लिख रहा हूं...कल टाटास्काई के मिनिप्लेक्स में "मैं ऐसा ही हूं" हिंदी फिल्म आ रही थी, देखी हुई है पहले से ..लेकिन फिर भी देखने लगा... मिनिप्लैक्स में यह फिल्म दिन में पांच छः बार आती है और बिना किसी एड-ब्रेक के....बहरहाल, किश्तों में देखते देखते यह पूरी फिल्म रात तक ही पूरी देख पाया।
बहुत अच्छी फिल्म है, एक संदेश है...और एक गीत जो इस का बहुत पापुलर हुआ था .. और है भी बहुत बढ़िया उसे आप को सुनाना चाहूंगा..
कल रात में Epic चैनल पर देख रहा था कि रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी पर आधारित काबुलीवाला नाटक चल रहा था... बहुत ही बढ़िया... ध्यान आ गया उस समय कि काबुलीवाला फिल्म मैंने १९७० के दशक में देखी थी ...शायद १९७४ -७५ के आसपास जब अमृतसर में टी वी नया नया ही आया था.. कितना बड़ा प्रभाव छोड़ा था इस फिल्म ने मेरी उस बालावस्था में ...मुझे याद है अच्छे से।
काबुलीवाला नाटक देखते देखते रविन्द्रनाथ टैगोर का ध्यान आ गया .. आज दोपहर में ही महान लेखक दूधनाथ सिंह जी से यह सुना कि टैगोर जी ने १९१५ में लंदन से अमेरिका का २६ बार दौरा किया और हर बार राष्ट्रवाद विषय पर व्यक्तव्य प्रस्तुत किया... आप भी सोच रहे हैं कि यह अचानक से राष्ट्रवाद कहां से आ गया।
दरअसल आज दोपहर में मुझे कुछ समय के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ में जयशंकर प्रसाद जयन्ती समारोह में भाग लेने का अवसर मिला...संगोष्ठी का विषय था.. प्रसाद के साहित्य में राष्ट्रीयता एवं लोकमंगल की भावना।
दूधनाथ सिंह जी को सुनने का सौभाग्य मिला |
श्री दूधनाथ सिंह जी मुख्य अतिथि थे.. उन्हें सुनना बहुत अच्छा लगा...उन्हें सुनते हुए ऐसे लग रहा था जैसे वह श्रोताओं से बातचीत कर रहे हैं.. और एक बात जो मैंने कल महसूस की कि मेरे तो जो मन में होता है उसे लिखना तो बहुत दूर कह भी नहीं पाता हूं बहुत बार ... और बहुत बार उस पर अमल करने से भी बहुत दूरी है अभी ...लेिकन दूधनाथ सिंह जी को सुनते हुए लग रहा था कि जो उन के मनोभाव थे वे उन्होंने बहुत बेबाकी से ... बिना किसी हिचकिचाहट के श्रोताओं के सामने रखे....उस में नहीं जाते कि क्या कहा, क्या नहीं कहा, यह सब तो पेपर वाले लिख ही देंगे....लेिकन मैं तो उन की ईमानदारी की दाद देता हूं...ऐसा करना हरेक के बश की बात है भी नहीं, इस के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए होती है ... एक तरह से आत्मावलोकन का अवसर मिल गया मुझे दूधनाथ सिंह जी को सुनते हुए।
कल ३० जनवरी थी...राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की पुण्यतिथि भी थी, वहां पर एक वक्ता ने राष्ट्रवाद के बदलते मायनों पर चिंता ज़ाहिर करते हुए बताया कि आज गोवा में नाथूराम गोड़से पर एक किताब का विमोचन होने वाला है ... इसे सुनने के बाद श्री दूध नाथ सिंह जी ने अपने भाषण के दौरान कहा कि यह सुन कर उन्हें बहुत दुःख हुआ... उन्होंने बताया कि मैं तो गांधी जी का भक्त हूं... उन्होंने बताया कि गांधी जी की शहादत को दूसरा क्रूसीफिकेशन कहा जाता है।
अमेरिका में गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा दिए गए व्यक्तव्यों में से राष्ट्रवाद की परिभाषा दूधनाथ सिंह जी ने शेयर की .. मुझे ठीक से याद हो कि नहीं, इसलिए किसी त्रुटि के लिए क्षमा करिएगा...इतिहास बताता है कि राष्ट्रवाद जो है वह एक दूसरे से लड़ने झगड़ने और अपना स्वार्थ साधने की चिंता है और उस की तैयारी है लेिकन टैगोर साहब ने कहा कि इतने बड़े देश में जहां कईं संस्कृतियां एक साथ रहती हों, उन सब की सुरक्षा को सुनिश्चित करना और यह भी सुनिश्चित करना कि वे सब आगे बढ़ें, यही राष्ट्रीयता है।
हां, एक बात और ... घर आते ही मैंने सब से पहले जयशंकर प्रसाद जी कि एक किताब अपने संग्रह से निकाली .. अभी तो बस निकाली है, देखता हूं पढ़ने का कब मुहूर्त निकलता है ...मैं पढ़ने के मामले में अव्वल दर्जे का आलसी प्राणी हूं..
बस यही फुल-स्टाप लगाता हूं.....वैसे भी आज कोई टेंशन नहीं, कहीं पर पोस्ट को शेयर करना नहीं, जो पढ़े उस का भला..जो न पढ़े उस का भी भला... अपनी पोस्ट पढ़वाने का यह फितूर उतारना पड़ेगा......जो मन में है, अपनी डायरी में लिख कर छुट्टी करो....its as simple as that...unnecessarily it has become so complex!...मैं कितने लोगों के व्हाट्सएप मैसेज और लिंक खोलता हूं......शायद ९९ प्रतिशत तो बिना देखे ही रहते हैं, सच में .....ऐसे में भला कोई मेरे भेजे लिंक्स क्यों खोलने लगा!
हां, एक काम की बात और है ... वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर आप सैंकड़ों-हज़ारों कहानियां, उपन्यास...नामचीन लेखकों द्वारा रचे हुए ..मुफ्त पढ़ सकते हैं ...मैं यहां पर जयशंकर प्रसाद की कहानियों का लिंक लगा रहा हूं.... just check this out!
जाते जाते प्रिय बाबू की पावन स्मृति को बहुत बहुत नमन ...