आज लखनऊ महोत्सव की दूसरी शाम थी... दो तीन घंटे वहां बिताने का मौका मिला..सब से पहले मैंने महोत्सव की बढ़िया पार्किंग का प्रूफ़ जुटाया... यहां पेश कर रहा हूं....बात है भी सही ..आजकल हम ने कहीं जाना है या नहीं, पार्किंग की सुगमता या दुर्गमता ही यह तय करती है...लेकिन आप भरोसा रखिए, बिना किसी परेशानी के आप को पार्किंग की सुविधा उपलब्ध हो जायेगी।
मुख्य पंडाल में गीतों का प्रोग्राम चल रहा था, मैंने साथ बैठे सज्जन से पूछा कि यह गायिका कौन हैं..उन्हें भी शायद पक्का नहीं पता था, कहने लगे शायद श्रुति पाठक। अचानक मुझे अहसास हुआ कि मेरा सामान्य ज्ञान औसत से भी निचले स्तर का है।
श्रुति पाठक ने अपनी मदमस्त आवाज़ से पापुलर हिंदी फिल्मी को गा कर श्रोताओं का मन जीता...कुछेक जिन का मुझे ध्यान आ रहा है... एह दुनिया पित्तल दी, आ जा फोटो मेरी खींच, कल हो ना हो...हर पल यहां जी भर जिओ, इतना मज़ा आ रहा है (jab we met!) ...अभी मुझ में बाकी है थोड़ी ज़िंदगी, हाय हाय नशा है ज़िंदगी मज़ा है.. और एक गीत काय पोचे फिल्म से भी....यंगस्टर्स भी खूब एंज्वाय कर रहे थे..
मैं ये गीत सुनते हुए यही सोच रहा था कि ये सभी गीत श्रुति ने ही गाये होंगे .....लेकिन नहीं, यू-ट्यूब से देखा तो पता चला कि ऐसा नहीं था.. बहरहाल, श्रुति ने भी बेहतरीन गीत गाये हैं... उन में से एक दो गीतों को यहां एम्बेड कर रहा हूं..
अपने प्रोग्राम के आखिरी हिस्से में श्रुति ने बच्चों और युवाओं को स्टेज पर बुला लिया... एक बात जो मैंने नोटिस की .. ये सब स्कूली बच्चे एवं युवा श्रुति के साथ गा रहे थे, डांस कर रहे थे और साथ में अपने अपने मोबाइल से श्रुति के साथ शेल्फी भी लेने की पूरी कोशिश कर रहे थे....सच में आज का युवा भी बिना वजह बड़ा load ले रहा है...एक समय में एक काम कर ही नहीं पाता!
एक पते की बात शेयर करनी तो भूल ही गया मैं....महोत्सव स्थल में जाते ही यह खबर पता चली कि अब लखनऊ महोत्सव धूम्रपान रहित कर दिया गया है .....पढ़ लिया जी मैंने भी उस नोटिस को....कुछ विचार आए मन में, लिखने वाले नहीं हैं......लेिकन आज सुबह पता चला गया कि इस नियम का कितनी कठोरता से पालन किया गया....सराहनीय पहल। दरअसल हम लोग बिना दंड के किसी की सुनते ही कहां हैं!
श्रुति पाठक के बाद स्टेज पर आईं स्थानीय लोकगीत गायक वंदना मिश्रा...इन्होंने भी अपनी कला से सभी दर्शकों को खुश कर दिया... इसे लिखते यही सोच रहा हूं कि यहां लखनऊ आने से पहले मुझे इन गीतों की समझ नहीं आती थी, लेकिन अब अच्छे से समझ आने लगी है .. जैसा देश वैसा भेष... इन्होंने जो गीत गाए और जिन्हें दर्शकों के हुजूम ने बेहद पसंद किया वे थे....
हमरी गुलाबी चुनरिया हम का लागे नजरिया, ले चलो पटना बाज़ार जिया न लागे घर मा... और फगुनवा मा रंग रच रच बरसे....आज सुबह मैं यू-ट्यूब पर देख रहा था तो ये वहां भी दिख गये... फगुनवा वाला गीत तो मालिनी अवस्थी का गाया हुआ ही दिख गया... आप भी सुनिएगा... मुझे वहां बैठे ऐसे लग रहा था कि जैसे पंजाबी लोकसंगीत में गुरदास मान, वड़ाली बंधु...हंस राज हंस, बिट्टी का रुतबा है, वही स्थान भोजपुरी और अवधी लोकगीत-संगीत में इन कलाकारों का है। निःसंदेह ये महान कलाकार हमारी लोकसंस्कृति की जड़ों को सींचने का काम कर रहे हैं....इन की अनूठी कला को हमारा सलाम!
मालिनी अवस्थी का गीत यू-ट्यूब पर सुनते हुए राहत फतेह अली खां दिख गये तो उन का बहुत पापुलर गीत भी आप तक पहुंचाना तो बनता ही है ... गुम सुम गुम सुन प्यार दा मौसम... हुन नां दर्द जगावीं...इसे मैं हज़ारों नहीं तो भी सैंकड़ों बार तो सुन चुका हूं ..... and i never get tired of listening to this melody!
विपुल आर जे रेडियो मिर्ची |
कत्थक नृत्य |
श्रीसारंगी द्वारा प्रस्तुत ओडिशी नृत्य |
कुछ समय के बाद मंच का संचालन करने रेडियो मिर्ची के आर जे विपुल पहुंच गये...with his great initimable style to mesmerize the audience!. ...कल कार्यक्रम मे सुरभि सिंह द्वारा निर्देशित कथक नृत्य भी देखने को मिला और दिल्ली से आई ७-८ साल की श्री सारंगी ने ओडिशी नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन किया... मैं वहां बैठा यही सोच रहा था कि स्कूली स्तर पर ही हमें विद्यार्थीयों को इन सांस्कृतिक धरोहरों के बारे में बताना चाहिए... this all must be a vital part of holistic education!
दादी का सेल्यूट |
अब बारी थी ... कपिल की दादी (अली असगर) और गुत्थी (सुनील ग्रोवर) की ...उन्होंने हंसाया भी और लड़कियों को पूरा लंदन ठुमकदा वाले गीत पर डांस करने के गुर भी सिखाए.....इन दोनों को लखनऊ के एसएसपी श्रीं पंाडेय द्वारा सम्मानित भी किया गया... वैसे उस समय मेरे मन में भी कुछ ऐसे विचार आ तो रहे थे, लेकिन आज अखबार में भी वे दिख गये...
बस, अब छुट्टी करते हैं .. कुछ फोटो लगा के...जिस से पता चल रहा है कि त्योहार का माहौल चल रहा है .. बिल्कुल गांव के मेलों जैसा भी बहुत कुछ ...वही खिलौने, वही खेल....बहुत कुछ वही का वही ...एक विचार यह भी कल आ रहा था कि इस तरह के त्यौहार देश के हर शहर, हर कसबे में लगने चाहिए..... ताकि लोग फुर्सत के कुछ पल मस्ती में बिता सकें...ज़रूरी है यह भी बहुत ही ..
इस तरह के त्योहारों पर अकसर मेलों तीज त्योहारों के अपने दौर के फिल्मी गीत भी अकसर याद आ जाते हैं.. शायद आप भी इसे बहुत बरसों बाद सुन रहे होंगे.....
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