मुझे इस किस्से को लिखने की प्रेरणा मिली आज शाम लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर बैठी एक अधेड़ उम्र की महिला से...वह अपने पति और परिवार के साथ पालीथीन की शीट पर बैठ कर लईया-चना का लुत्फ उठा रही थी कि अचानक उस के पति ने मोबाइल पर फोन करते करते फोन उसे थमा दिया...मैं दूर से देख रहा था..यार, मैं उस की खुशी और चेहरे के भाव ब्यां नहीं कर सकता....लेकिन मुझे भी बड़ी खुशी हुई...मुझे एक घटिया विचार आया कि इस खुशी को अपने मोबाईल में कैद कर लूं...फोटू ले लूं.....लेकिन उसी समय उस ख्याल को निकाल परे किया.
दो मिनट बाद मैं वहां से लौट आया लेकिन आज उस अधेड़ महिला ने मुझे बहुत सोचने पर मजबूर कर दिया....मुझे यही लगा कि फोन का असली लुत्फ़ वही लोग उठा पाते हैं जिन के पास बिल्कुल एक बेसिक...पुराना, रबड़ बैंड से कसा हुआ, पन्नी में डाला हुआ या चाय पत्ती के चमकीले पाउच में छुपाया हुआ और स्टील की चेन से बंधा हुआ ...मोबाईल फोन होता है...जो २५-३० हज़ार के फोन हम लेकर चलते हैं....ये हमारे खिलौने हैं, ठीक है...ज़रूरत है, लेकिन खिलौने ज़्यादा हैं....हम लोग खाली समय में एक तरह से सोशल मीडिया पर बैठे बैठे मसखरी करते हैं....अधिकतर सब बकवास है, मुझे तो ऐसा लगता है...ठीक है, संतुलित इस्तेमाल किया जाए तो ठीक है, लेकिन हम लोग कहां संतुलित इस्तेमाल कर पाते हैं....व्हाट्सएप, ट्विटर एवं फेसबुक पर मुंडी झुकाए और आंखें गड़ाए सिर दुःखा लेते हैं......पल पल की खबर जानने की अफरातफरी, हर तरफ़ अपने ज्ञान को दूसरे के ज्ञान से श्रेष्ठ दिखाने की होड़......पता ही नहीं चलता कि हम कर क्या रहे हैं!
हम लोगों के घर एक तरह से मोबाइल म्यूजियम बने हुए हैं......कोई भी अलमारी, कोई भी ड्राअर खोलें, कोई न कोई पुराना कंडम मोबाइल वहां पड़ा मिल जाता है....यह लिखते लिखते ध्यान आ रहा है हम लोगों के लगभग १५ साल पुराने एक फोन कर जिसे मैंने कल एक कोने में पड़े देखा था.....अभी आप को उस का फोटू दिखाता हूं।
मुझे सरकारी सिम मिला हुआ है...इसलिए उसे हर समय पास रखना मेरी मजबूरी है...लेकिन मैंने सोच रखा है कि वीआरएस लेने के बाद मैं पहला काम यही करूंगा कि अपने पास मोबाइल फोन रखना बंद करूंगा...अगर रखना भी होगा तो वही सब से सस्ता सा जिस पर फोन आ जाए, फोन किया जा सके और एसएमएस की सुविधा है....इस के आगे क्या करना है......कईं बार ऐसे लगता है कि मेरे पुराने सिरदर्द की जड़ ही यही है।
वापिस फोन के सही सटीक इस्तेमाल की बात करते हैं......हां, तो मैं बात कर रहा था उस अनजान अधेड़ महिला की खुशी....जिसने मुझे यह लिखने पर मजबूर किया है...वैसे आप भी देखिए कहीं भी आसपास, रिक्शा वाले के पास भी फोन होगा..बिल्कुल बेसिक सा लेकिन वे बात तभी करते हैं आप ध्यान दीजिएगा जब वास्तव में ही कोई बात करने वाली होगी...वे लोग इस का सटीक इस्तेमाल करते हैं हम लोगों से कहीं ज़्यादा...
गाड़ी में भी हम अकसर देखते हैं कि कुछ लोग बिल्कुल खस्ता हाल फोन जेब में लोहे की चेन के साथ बांध कर रखते हैं...थोड़ा बहुत हिला डुला कर उसे फोन के लिए तैयार करते हैं...फिर जेब से बाबा आदम के जमाने की एक डायरी निकालते हैं और बगल में बैठे किसी पैंट-शर्ट पहने बंदे को उसे थमाते हुए कहते हैं कि ज़रा सुरेश का नंबर देखिए तो.....फिर वह जेंटलमेन अगले चंद मिनटों में सुरेश का फोन ढूंढता है, नंबर मिला कर भी देता है और दद्दू की बात भी इत्मीनान से हो जाती है....पूरा हाल चाल...सब कुछ......
और भी नोटिस करिएगा ....जिन लोगों के पास इस तरह के पुराने माडल खस्ता हाल फोन हैं, वे इस पर मनोरंजन भी भरपूर करते हैं.....चुपचाप दस बीस रूपये में अपने मरजी के फिल्मी गीत और अपनी पसंद के वीडियो क्लिप्स भरवा लेते हैं और कईं महीनों तक फिर कोई चाहत नहीं, वो बात अलग है कि इन फोनों पर कईं बार नंबर घुमाने के लिए विभिन्न अंकों को इतने ज़ोर से दबाना पड़ता है मानो मोबाईल की जान ही ले डालेंगे........और हमारे फोनों पर भी तो कईं तरह के लफड़े एप्स के, ब्लूटुथ, ट्रू-कॉलर का झमेला, नेट पेक और पता नहीं क्या क्या, और वे लोग उतना ही चार्ज करवाते हैं जितना निहायत ही ज़रूरी होता है.....
मुझे उस महिला को इतना खुश देख कर एक गीत की वह लाइन याद आ गई......बड़ी बड़ी खुशियां हैं छोटी छोटी बातों में.......निःसंदेह हैं, बिल्कुल हैं यार, लेिकन फिर भी हम लोग आई-फोन के अगले वर्ज़न की इंतज़ार में किस कद्र घुलते रहते हैं.....बात सोचने लायक तो है..तकनीक के जानकार होते हुए भी असलियत यह है कि एक डेढ़ साल से सोच रहा हूं कि फोन में किशोर दा के पचास सौ गीत डाल लूं......लेकिन आलस्य ...कौन इस झंझट में पड़े, ब्लू-टुथ से या डैटा केबल से, मैकबुक से या फिर सी.डी ....बस इतनी च्वाईसिस में ही गुम हो के रह जाता हूं.....और हमारी कॉलोनी का माली सुबह सुबह मोबाइल पर पूरी आवाज़ में यह भोजपुरी गीत बार बार सुन रहा होता है......ओ राजा जी, बाजा बाजई के ना बाजई....
दो मिनट बाद मैं वहां से लौट आया लेकिन आज उस अधेड़ महिला ने मुझे बहुत सोचने पर मजबूर कर दिया....मुझे यही लगा कि फोन का असली लुत्फ़ वही लोग उठा पाते हैं जिन के पास बिल्कुल एक बेसिक...पुराना, रबड़ बैंड से कसा हुआ, पन्नी में डाला हुआ या चाय पत्ती के चमकीले पाउच में छुपाया हुआ और स्टील की चेन से बंधा हुआ ...मोबाईल फोन होता है...जो २५-३० हज़ार के फोन हम लेकर चलते हैं....ये हमारे खिलौने हैं, ठीक है...ज़रूरत है, लेकिन खिलौने ज़्यादा हैं....हम लोग खाली समय में एक तरह से सोशल मीडिया पर बैठे बैठे मसखरी करते हैं....अधिकतर सब बकवास है, मुझे तो ऐसा लगता है...ठीक है, संतुलित इस्तेमाल किया जाए तो ठीक है, लेकिन हम लोग कहां संतुलित इस्तेमाल कर पाते हैं....व्हाट्सएप, ट्विटर एवं फेसबुक पर मुंडी झुकाए और आंखें गड़ाए सिर दुःखा लेते हैं......पल पल की खबर जानने की अफरातफरी, हर तरफ़ अपने ज्ञान को दूसरे के ज्ञान से श्रेष्ठ दिखाने की होड़......पता ही नहीं चलता कि हम कर क्या रहे हैं!
हम लोगों के घर एक तरह से मोबाइल म्यूजियम बने हुए हैं......कोई भी अलमारी, कोई भी ड्राअर खोलें, कोई न कोई पुराना कंडम मोबाइल वहां पड़ा मिल जाता है....यह लिखते लिखते ध्यान आ रहा है हम लोगों के लगभग १५ साल पुराने एक फोन कर जिसे मैंने कल एक कोने में पड़े देखा था.....अभी आप को उस का फोटू दिखाता हूं।
मुझे सरकारी सिम मिला हुआ है...इसलिए उसे हर समय पास रखना मेरी मजबूरी है...लेकिन मैंने सोच रखा है कि वीआरएस लेने के बाद मैं पहला काम यही करूंगा कि अपने पास मोबाइल फोन रखना बंद करूंगा...अगर रखना भी होगा तो वही सब से सस्ता सा जिस पर फोन आ जाए, फोन किया जा सके और एसएमएस की सुविधा है....इस के आगे क्या करना है......कईं बार ऐसे लगता है कि मेरे पुराने सिरदर्द की जड़ ही यही है।
वापिस फोन के सही सटीक इस्तेमाल की बात करते हैं......हां, तो मैं बात कर रहा था उस अनजान अधेड़ महिला की खुशी....जिसने मुझे यह लिखने पर मजबूर किया है...वैसे आप भी देखिए कहीं भी आसपास, रिक्शा वाले के पास भी फोन होगा..बिल्कुल बेसिक सा लेकिन वे बात तभी करते हैं आप ध्यान दीजिएगा जब वास्तव में ही कोई बात करने वाली होगी...वे लोग इस का सटीक इस्तेमाल करते हैं हम लोगों से कहीं ज़्यादा...
गाड़ी में भी हम अकसर देखते हैं कि कुछ लोग बिल्कुल खस्ता हाल फोन जेब में लोहे की चेन के साथ बांध कर रखते हैं...थोड़ा बहुत हिला डुला कर उसे फोन के लिए तैयार करते हैं...फिर जेब से बाबा आदम के जमाने की एक डायरी निकालते हैं और बगल में बैठे किसी पैंट-शर्ट पहने बंदे को उसे थमाते हुए कहते हैं कि ज़रा सुरेश का नंबर देखिए तो.....फिर वह जेंटलमेन अगले चंद मिनटों में सुरेश का फोन ढूंढता है, नंबर मिला कर भी देता है और दद्दू की बात भी इत्मीनान से हो जाती है....पूरा हाल चाल...सब कुछ......
और भी नोटिस करिएगा ....जिन लोगों के पास इस तरह के पुराने माडल खस्ता हाल फोन हैं, वे इस पर मनोरंजन भी भरपूर करते हैं.....चुपचाप दस बीस रूपये में अपने मरजी के फिल्मी गीत और अपनी पसंद के वीडियो क्लिप्स भरवा लेते हैं और कईं महीनों तक फिर कोई चाहत नहीं, वो बात अलग है कि इन फोनों पर कईं बार नंबर घुमाने के लिए विभिन्न अंकों को इतने ज़ोर से दबाना पड़ता है मानो मोबाईल की जान ही ले डालेंगे........और हमारे फोनों पर भी तो कईं तरह के लफड़े एप्स के, ब्लूटुथ, ट्रू-कॉलर का झमेला, नेट पेक और पता नहीं क्या क्या, और वे लोग उतना ही चार्ज करवाते हैं जितना निहायत ही ज़रूरी होता है.....
मुझे उस महिला को इतना खुश देख कर एक गीत की वह लाइन याद आ गई......बड़ी बड़ी खुशियां हैं छोटी छोटी बातों में.......निःसंदेह हैं, बिल्कुल हैं यार, लेिकन फिर भी हम लोग आई-फोन के अगले वर्ज़न की इंतज़ार में किस कद्र घुलते रहते हैं.....बात सोचने लायक तो है..तकनीक के जानकार होते हुए भी असलियत यह है कि एक डेढ़ साल से सोच रहा हूं कि फोन में किशोर दा के पचास सौ गीत डाल लूं......लेकिन आलस्य ...कौन इस झंझट में पड़े, ब्लू-टुथ से या डैटा केबल से, मैकबुक से या फिर सी.डी ....बस इतनी च्वाईसिस में ही गुम हो के रह जाता हूं.....और हमारी कॉलोनी का माली सुबह सुबह मोबाइल पर पूरी आवाज़ में यह भोजपुरी गीत बार बार सुन रहा होता है......ओ राजा जी, बाजा बाजई के ना बाजई....
प्रा जी ,पुराने 16 आने सच...पर साडी वजे गई हुन खच...क्यों??
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