गुरुवार, 8 जनवरी 2015

घर जैसा अपना घर..

अभी मुझे खुशी हुई.. बेटा स्कूल से आ कर सुना रहा है कि अभी किसी स्टेशनरी की दुकान पर दुकानदार ने उस से ७० रूपये की बजाए.. ५० रूपये देने को कहा.. बताने लगा कि मैंने उसे कहा कि आपने इस रिफिल के नहीं जोड़े....और मैंने उसे पूरे ७० रूपये दिए...उस की ऐसी बातें सुन कर अच्छा लगता है .. कहता है...पापा, छोटी छोटी इन की दुकानें होती हैं, १०-२० तो इन की कमाई होती है!!

मैंने उसे शाबाशी दी और आशीर्वाद दिया कि ऐसा ही बने रहना। बचपन से ही ऐसी बातें करता है.. आवारा कुत्तों के लिए एक बड़ा सा हाउस बनाऊंगा, पिछले दिन वाली रोटी अगर हमारे लिए ठीक नहीं तो जानवर के लिए कैसे ठीक हो सकती है, घर में अलग अलग कमरे नहीं होने चाहिए.....एक बड़ा सा हाल हो, और सब के पलंग उस में लाइन से बिछे हों....बहुत सी बातें ऐसी ही करता है िक मैं ईश्वर का यही शुक्रिया करता हूं कि नैतिक शिक्षा में तो पास हो गया लगता है। ईश्वर इस की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करे।

हां, घर की बात चली..कमरों की, बिस्तरों की.....दोस्तो, मेरे भी इस बारे में कुछ विचार हैं।

मुझे ऐसे लगता है कि हम लोग अपने घरों को आने वाले मेहमानों के लिए तैयार करते रहते हैं.....और मेहमान जब आते हैं तो दो-तीन दिन में चले जाते हैं और लोकल मित्र आिद तो चाय-नाश्ता या लंच-डिनर कर के नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। है कि नहीं?

लेकिन अधिकतर घरों में ज़्यादा फोकस यही होता है कि ड्राईंग रूम को तो मेहमान के आने पर ही खोला जाए.. मिट्टी आ जायेगी....हम लोग इस मामले में बड़े लक्की हैं, दोस्तो......हम लोग अधिकतर अपने ड्राईंग रूम का ही इस्तेमाल करते हैं, बिल्कुल लाउंज की तरह इस में डेरा लगाए रहते हैं। एक रिश्तेदार के यहां जाते हैं ..इतना महंगा आलीशान घर, और उस से भी आलीशान ड्राईंग-रूम...लेकिन वह खुलता किसी मेहमान के आने पर ही है.....सारे परदे खिंचे रहते हैं, टनाटन.......हवा अंदर आने का कोई जुगाड़ नहीं, बस एसी ज़रूर लगे हुए हैं.......सब कुछ कितना नकली, नीरस और निर्जीव सा जान पड़ता है !! मुझे नहीं लगता उन्होंने कभी खिड़कियां खोली भी हों!!



यार, ड्राईंग रूम में फर्नीचर, कलीन, परदे ऐसे कि जो आने वाले को अच्छे लगें... बड़ी अजीब सी बात लगती है.....यही नहीं, हम लोग घर में विशेषकर ड्राईंग-रूम में सामान भी इस ढंग से रखने की कोशिश करते हैं कि आने वाला बस वाह वाह कह उठे।

मैं इसे ठीक नहीं मानता। अतिथि का पूरा सम्मान होना चाहिए.....उस के खाने-पीने और आराम करने का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए....और हमारे देश में तो वैसे भी अतिथि देवो भवः। अतिथि हर तरह से खुश रहना चाहिए, यह हमारे देश के संस्कार हैं......बहुत अच्छी बात है, लेकिन घर की व्यवस्था ऐसी हो कि उसे इंप्रेस किया जा सके, यह बेवकूफी है....कब आयेगा अतिथि, यार, कभी आयेगा भी कि नहीं, कितना समय ठहरेगा.......ठहरेगा भी कि नहीं...लेिकन हम लोग अपने ३६० दिनों को उन पांच दिनों के चक्कर में गंवा बैठते हैं।

इंकलाब की पुरवाई कल हमारे ड्राईंग-रूम में चली..
दोस्तो, यह तो आप अच्छे से जानते हैं कि अतिथि केवल सम्मान चाहता है....अगर हम उस का दिल से सम्मान कर रहे हैं, तो साधारण आतिथ्य से भी वह बहुत खुश होता है। इस पर आगे कुछ लिखना बंद करता हूं......आप सुधि पाठक हैं।

हां, तो दोस्तो कल हमने ड्राईंग रूम में कुछ चेंज किये...हम लोगों ने ड्राईग रूम में रखा एलसीडी एक दो महीने से सब की सहमति से बंद कर रखा है... तीन चार महीनों के लिए......इसलिए इसे देख देख कर चिढ़ होती थी, उसे एक ठिकाने लगा दिया और डाइनिंग टेबल को ड्राईंग रूम में घसीट लिया ताकि इत्मीनान से कोई भी पढ़ लिख भी तो सके। यहां पर रोशनी आदि का भी बढ़िया इंतजाम है, इसलिए अच्छा लगता है यहां बैठना।

वह बात दूसरी है कि मेहमान आए उसे यह व्यवस्था उतनी बढ़िया न लगे तो इस में इतनी कौन सी बड़ी बात है.......मुझे लगता है कि मेहमान को इन सब बातों में उलझने की फुर्सत ही कहां होती है, ये सब हमारे ही ख्याली-पुलाव होते हैं।


परदों की बात आए तो देखा जाता है कि हम भारी भरकम महंगे महंगे परदे टांग तो देते हैं और ये फिर अगली आठ-दस साल तक सारे कुनबे का सिर दुःखाए रहते हैं.....है कि नहीं? बिल्कुल साधारण से सूती कपड़े के परदे कितना सुकून देते हैं यह मुझे ही पता है क्योंिक मैं स्टडी में हमेशा इसी तरह के कूल से परदे ही टंगवाने पसंद करता हूं।

ये विचार मेरे पर्सनल हैं....घर की साज सज्जा में कोई नियम नहीं होने चाहिए......सब कुछ सहमति से सब के मन की खुशी से तय होना चाहिए.......मुझे तो यह भी बड़ा अजीब लगता है कि घरों में सजाने के लिए हज़ारों रूपये की पेन्टिंग्ज़ और शो-पीस रखे जाते हैं........कईं बार स्थानीय शिल्पकारों द्वारा बिल्कुल सस्ते से बिकने वाले लकड़ी और मिट्टी से तैयार शो-पीस ज़्यादा खुशी देते हैं, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह खालिस २२ कैरेट सोने के गहनों से लदी किसी महिला के सामने एक साधारण सी दिखने वाली पत्थर और नकली मोतियों की माला पहन कर ही बाजी मार जाती है।

पोस्ट के माध्यम से एक यूनिवर्सल सच्चाई को किसी और को नहीं, अपने आप को एक बार याद दिलाने का एक उपाय किया है.....वैसे कुछ वर्ष पहले भी यह काम किया था....यह लिख कर.......अब इस कंबल के बारे में भी सोचना होगा। 

बिना सिर पैर वाली बातें लिखते लिखते मुझे वह गीत याद आ गया जिसे आपने बरसों से भुला दिया होगा......अब ऊपर वाली सभी बातों को एक तरफ़ हटा कर, पूरी तन्मयता से इसे सुनिए......दो पंछी दो तिनके ..कहो ले के चले हैं कहां.........ये बनाएंगे इक आशियां......मुझे भी यह गीत बहुत पसंद है।। काश, हम सब के मकान सही मायनों में घर बने रहें.....यह आज के समय की मांग के साथ साथ चुनौती भी है!!

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