आज सुबह मुझे लखनऊ के राजाजीपुरम् एरिया में जाने का मौका मिला....इस के बारे में सुना तो बहुत बार था..लेकिन कभी मौका नहीं मिला था उधर जाने का।
जब भी मैं किसी शहर के किसी एरिया में पहली बार जाता हूं तो यही अहसास होता है कि हम लोग अपने अपने शहर को कितना कम जानते हैं।
मेरा बेटा अकसर कहता है कि अपनी कार में चलते हुए तो हम शहर की सारी ज़िंदगी को मिस कर देते हैं, उन से बेहतर हैं दो पहिया वाहन पर चलने वाले..जहां चाहे रोक तो पाते हैं, साईकिल चलाने वालों की हालत उन से भी बेहतर है, लेकिन पैदल चलने वालों का तो कहना ही क्या!....किसी भी एरिया को एक्सप्लोर करने का इस से बढ़िया ढंग कहां कोई और हो सकता है!
मुझे राजाजीपुरम् के सी-ब्लाक में घूमते हुए ऐसे ही लग रहा था जैसे कि मैं दिल्ली के किसी पुराने इलाके में घूम रहा हूं.....पुराने घर..अधिकतर सिंगल या डबल स्टोरी, बड़े बड़े पेढ़... हर तरफ़ फैली हरियाली......ठहरी ठहरी सी ज़िंदगी.....ठहरी नहीं भी, तो भी वह भागम-भाग वाली तो नहीं!
जाते समय रास्ते में एक जगह पर देखा कि यह बुज़ुर्ग महाशय अपनी छोटी सी दुकान सजा कर बैठे हैं, मैं रूक गया.....मैंने पूछा कि इतनी ठंड में सुबह सुबह कैसे बिना किसी छत-वत के ! इन्होंने बताया कि गुमटी थी लेकिन कमेटी वाले उठा ले गए, करता हूं दो चार दिन में कोई जुगाड़.... कहने लगे कि सर्दी का क्या है, दो चार दिन से बहुत गलन हो रही है (यू. पी में शीत लहर को गलन कहा जाता है) ...घर पर रहा तो हाथ पांव दुःखने लगे, इसलिए आज यह खोल कर बैठ गया हूं। मैंने कहा मुझे आप की एक तसवीर लेनी है, तो हंसते हुए बोले....ज़रूर लीजिए।
राजाजीपुरम् जाते हुए पहले तो इन पेढ़ों के दर्शन हुए...ध्यान आया कि इन को भी थोड़ा इत्मीनान से देखना, इन के नीचे खड़े होना जरूरी है....इस से हमें कम से कम एक बार तो अपने बौनेपन का अहसास होता है। लगता है कि इस की विशालता, इस के रहस्यमयी १०० साल या उस से भी ज़्यादा के अस्तित्व के आगे हमारी क्या बिसात है....अपने इतराने की एक भी वजह ध्यान में नहीं आती!!
एक घर के बाहर भीमकाय पेड़ देख कर बहुत अच्छा लगा...और भी बड़े बड़े पेड़ देख कर बहुत अच्छा लगता है, जैसे एक कहावत है ना कि ऐसा कोई भी मुस्कुराता चेहरा नहीं होता जो खूबसूरत न हो, मैं तो अकसर कहता हूं जिस भी जगह पर बड़े बड़े पेड़ लगे हों और उन से प्यार किया जाता हो, उस से खूबसूरत जगह हो ही नहीं सकती....पेड़ों से लोगों का प्यार भी अनुकरणीय है...
हां, एक बात यह कि हम लोग इतने इतने वर्ष एक शहर में रह लेते हैं तो बस तीन चार खाने पीने की दुकानों या एक दो माल के अलावा किसी जगह से ज़्यादा सरोकार नहीं रखते, ऐसा है कि नहीं...और ये सब चीज़ें हमारी टिप्स पर होती हैं, रायल कैफे की टोकरी चाट, जैन की पापड़ी, मोती महल की कुल्फी...फन माल, फिनिक्स माल....बस, लेकिन किसी की शहर की रूह तो उस के पुराने बाज़ारों, कूचों, दुकानों और खंडहरों में बसती है जिनकी हम कहां परवाह ही करते हैं, अगह परवाह है भी तो फुर्सत ही किसे है......
फुर्सत से ध्यान आया कि एक एरिया में यह पोस्टर भी दिख गये......इन पोस्टरों को देख कर लगता है कि समय थम सा गया है....इन्हें देख कर इतना इत्मीनान तो होता है कि अभी भी कोई आम आदमी थियेटर में जा कर फिल्म देखता है.....और जिन दीवारों पर ये चस्पा किए गये हैं, वे भी तो गुजरे ज़माने की एक दास्तां ब्यां कर रही हैं..
यह नीचे वाला क्लिप भी यही ख्याल ब्यां कर रहा है........
जब भी मैं किसी शहर के किसी एरिया में पहली बार जाता हूं तो यही अहसास होता है कि हम लोग अपने अपने शहर को कितना कम जानते हैं।
मेरा बेटा अकसर कहता है कि अपनी कार में चलते हुए तो हम शहर की सारी ज़िंदगी को मिस कर देते हैं, उन से बेहतर हैं दो पहिया वाहन पर चलने वाले..जहां चाहे रोक तो पाते हैं, साईकिल चलाने वालों की हालत उन से भी बेहतर है, लेकिन पैदल चलने वालों का तो कहना ही क्या!....किसी भी एरिया को एक्सप्लोर करने का इस से बढ़िया ढंग कहां कोई और हो सकता है!
मुझे राजाजीपुरम् के सी-ब्लाक में घूमते हुए ऐसे ही लग रहा था जैसे कि मैं दिल्ली के किसी पुराने इलाके में घूम रहा हूं.....पुराने घर..अधिकतर सिंगल या डबल स्टोरी, बड़े बड़े पेढ़... हर तरफ़ फैली हरियाली......ठहरी ठहरी सी ज़िंदगी.....ठहरी नहीं भी, तो भी वह भागम-भाग वाली तो नहीं!
जाते समय रास्ते में एक जगह पर देखा कि यह बुज़ुर्ग महाशय अपनी छोटी सी दुकान सजा कर बैठे हैं, मैं रूक गया.....मैंने पूछा कि इतनी ठंड में सुबह सुबह कैसे बिना किसी छत-वत के ! इन्होंने बताया कि गुमटी थी लेकिन कमेटी वाले उठा ले गए, करता हूं दो चार दिन में कोई जुगाड़.... कहने लगे कि सर्दी का क्या है, दो चार दिन से बहुत गलन हो रही है (यू. पी में शीत लहर को गलन कहा जाता है) ...घर पर रहा तो हाथ पांव दुःखने लगे, इसलिए आज यह खोल कर बैठ गया हूं। मैंने कहा मुझे आप की एक तसवीर लेनी है, तो हंसते हुए बोले....ज़रूर लीजिए।
राजाजीपुरम् जाते हुए पहले तो इन पेढ़ों के दर्शन हुए...ध्यान आया कि इन को भी थोड़ा इत्मीनान से देखना, इन के नीचे खड़े होना जरूरी है....इस से हमें कम से कम एक बार तो अपने बौनेपन का अहसास होता है। लगता है कि इस की विशालता, इस के रहस्यमयी १०० साल या उस से भी ज़्यादा के अस्तित्व के आगे हमारी क्या बिसात है....अपने इतराने की एक भी वजह ध्यान में नहीं आती!!
एक घर के बाहर भीमकाय पेड़ देख कर बहुत अच्छा लगा...और भी बड़े बड़े पेड़ देख कर बहुत अच्छा लगता है, जैसे एक कहावत है ना कि ऐसा कोई भी मुस्कुराता चेहरा नहीं होता जो खूबसूरत न हो, मैं तो अकसर कहता हूं जिस भी जगह पर बड़े बड़े पेड़ लगे हों और उन से प्यार किया जाता हो, उस से खूबसूरत जगह हो ही नहीं सकती....पेड़ों से लोगों का प्यार भी अनुकरणीय है...
हां, एक बात यह कि हम लोग इतने इतने वर्ष एक शहर में रह लेते हैं तो बस तीन चार खाने पीने की दुकानों या एक दो माल के अलावा किसी जगह से ज़्यादा सरोकार नहीं रखते, ऐसा है कि नहीं...और ये सब चीज़ें हमारी टिप्स पर होती हैं, रायल कैफे की टोकरी चाट, जैन की पापड़ी, मोती महल की कुल्फी...फन माल, फिनिक्स माल....बस, लेकिन किसी की शहर की रूह तो उस के पुराने बाज़ारों, कूचों, दुकानों और खंडहरों में बसती है जिनकी हम कहां परवाह ही करते हैं, अगह परवाह है भी तो फुर्सत ही किसे है......
फुर्सत से ध्यान आया कि एक एरिया में यह पोस्टर भी दिख गये......इन पोस्टरों को देख कर लगता है कि समय थम सा गया है....इन्हें देख कर इतना इत्मीनान तो होता है कि अभी भी कोई आम आदमी थियेटर में जा कर फिल्म देखता है.....और जिन दीवारों पर ये चस्पा किए गये हैं, वे भी तो गुजरे ज़माने की एक दास्तां ब्यां कर रही हैं..
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