रविवार, 21 सितंबर 2014

घड़ीसाज़ ने भी जवाब दे दिया...

६५ वर्ष पुरानी हमारे घर की घड़ी 
 उस दिन जब मैंने लखनऊ के आलमबाग में एक घड़ी की दुकान से सैल बदलवाया तो वहां बैठा एक बुज़ुर्ग घड़ीसाज़ मुझे बहुत अनुभवी लगा। उसे देखते ही मुझे मेरे घर में बरसों से बेकार पड़ी एक उस बुज़ुर्ग जितनी ही पुरानी घड़ी की याद आ गई. मैंने सोचा कि उस का मुआयना और इलाज इन्हीं से करवाएंगे।

आज दोपहर में मैं जब उसे लेकर उस कारीगर के पास गया तो उसे देखते ही उसने कहा कि इस का कुछ नहीं हो सकता,  मैंने कहा कि आप देख तो लें....शायद कुछ हो जाए...तब उस ने कहा कि इस के कलपुर्ज़े ही बीसियों साल पहले मिलने बंद हो गये।

मैंने पूछा कि शायद पुर्ज़े बदलने की ज़रूरत ही न हो, उसने कहा कि ऐसा हो ही नहीं सकता....जब कोई मशीन चलती है तो उस के पुर्ज़े तो घिसते ही हैं। बहरहाल, उसने अपने किसी दूसरे साथी को आवाज़ लगा कर पूछा कि प्रेम, इसे देखो, इस का कुछ हो सकता है। एक तरह का सैकेंड ओपिनियन ले रहा था वह बुज़ुर्ग।

उस ने भी उस घड़ी को देखते ही दूर से अपना फैसला सुना दिया.......कुछ नहीं, इस का कुछ नहीं हो सकता।
मुझे बहुत बुरा लगा.......जैसा मरीज़ों को भी लगता होगा जब कोई डाक्टर किसी मरीज़ को ऐसा जवाब देता होगा।
बहरहाल, आप को इस घड़ी के बारे में कुछ विशेष बातें बताने लगा हूं।

जब से मैंने होश संभाला इस क्लॉक को घर में देखा..... सीमेंट की एक शेल्फ पर एक कमरे में बनी हुई थी..... सरकारी घरों में शो-पीस तो हुआ नहीं करते थे।

उस शेल्फ पर मैंने बचपन से ही तीन चीज़े पड़ी देखीं......उस पर मेरी मां द्वारा एक बढ़िया सा कढाई किया हुआ मेजपोश बिछा रहता था....जिस पर तीन चीज़ें--- एक फ्रेम की हुई मेरे दादा जी की फोटो, बीच में यह घड़ी और तीसरी एक फोटो..मेरे पिता जी के इष्टदेव बाबा बालकनाथ जी की तस्वीर जिस पर वह रोज़ाना सुबह धूप-बत्ती किया करते थे।

हां, तो बात घड़ी की हो रही है......इस घड़ी को चाबी रोज़ाना दी जाती थी, और अधिकतर ....अधिकतर क्या, लगभग हर रोज़ मेरे पिता जी ही इसे चाबी दिया करते थे। दूसरा कोई भी चाबी देने लगता तो लफड़ा कर बैठता....थोड़ा सा भी ज़्यादा ज़ोर लगाने पर यह चाबी देने वाला बटन खराब हो जाता था, फिर उसे बनवाना पड़ता था।

रोज़ाना एक ही समय में इसे चाबी भरना भी जैसे घर में एक इवेंट हुआ करता था।

लेकिन इस घड़ी में अलॉर्म लगाना तो एक और भी बड़ा काम.........सारे घर को पता रहता था कि आज घड़ी में कितने बजे का अलॉर्म लगा है और किस काम के लिए लगा है, कोई पेपर वेपर की तैयारी करनी है या कोई गाड़ी वाड़ी पकड़ने का चक्कर है।

आज मैं अपने बेटे को भी यह सारा किस्सा सुना रहा था....किस्सागोई करते करते मैं यही सोच रहा था कि उस ज़माने में भी गजब का सब्र हुआ करता था...घर में किसी ने भी टाइम देखना है तो हर किसी को उस कमरे में आना ही होगा जिस की शेल्फ पर यह सजी रहती थी......नहीं तो, अपना आल इंडिया रेडियो जब टाइम बताये तो तब सुन लिया जाता था.....मुझे याद है, चाय वाय के टाइम तो रेडियो के प्रोग्रामों --खबरों आदि के साथ बंधे हुए थे।

इस घड़ी की कार्य-प्रणाली जिसे मैं आज तक न समझ पाया...
और एक बात, यह जो आप ने इस घड़ी के पिछले हिस्से की तस्वीर देखी..उस के विभिन्न बटनों को समझना मेरे लिए किसी साईंस एक्सपैरीमेंट जैसा था.....वैसे भी मैं अकेले में इस से पंगे लेता रहता था....जब भी इस में कोई भी रूकावट आती तो शक की सूईं सब से पहले मेरे पर ही जैसे रूक जाया करती... कि इसने ही छेड़खानी की होगी।

आज मैं अपनी मां जी से इस घड़ी की बातें शेयर कर रहा था तो उन्होंने मेरे ज्ञान में एक और इज़ाफ़ा कर दिया....उन्होंने बताया कि जब तेरे पिता जी ने यह घड़ी १९५० में ५० रूपये में खरीदी थी तो हमारे घर के आस पास इसे देखने आये थे.... कि अलॉर्म वाली घड़ी आई है जो कि रात के समय टिमटिमाती भी है.....टिमटिमाना तो मुझे भी याद है जब मैं अपने पिता जी के साथ रात में सोने की कोशिश किया करता तो बत्ती बंद होने के बावजूद इस में से हरे टिमटिमाते से सितारे अच्छे लगते.... यह रेडियम के कारण है।

पिता जी की घड़ी जिसे मैंने शायद १९८० से उन की कलाई पर देखा
चालीस वर्ष बाद आज मेरी कलाई पर...

अपने टेबल का दराज देख रहा था तो मेरे पिता जी की एक घड़ी पर भी नज़र पड़ गई......मैंने उन्हें १९८० के आसपास इसे पहने देखा......लगभग बीस वर्षों से यह ऐसे ही पड़ी है, आज मैंने पहनी तो अच्छा लगा......इसे कोई चाबी वाबी नहीं देनी पड़ती और न ही सेल बदलवाने का झंझट है......इस के डायल पर SEIKO -- Automatic लिखा हुआ है.... अच्छा लगा ...इस तरह की चीज़ों को आस पास रखने से बहुत से अहसास कायम रहते हैं.........आज कल मैं शायर मुन्नवर राणा साहब को पढ़ रहा हूं........शायद इतने सारे अहसास उस की वजह ही से लौट आ रहे हैं।


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