कल रात हम लोग जैसे ही लखनऊ जंक्शन स्टेशन पर पहुंचे तो प्लेटफार्म पर लंबी सी कतार देख कर हैरानी हुई कि आजकल तो पीक पीरियड भी नहीं है। लेकिन फिर ध्यान आया कि बंबई जाने वाली सभी गाड़ियों का सारा साल ही यही हाल होता है...त्योहार के समय बहुत ज़्यादा।
इस लंबी सी पंक्ति को गुज़रते गुज़रते अचानक उन अगणित सपनों का ध्यान आ गया जो इस लाइन में खड़ा हर बश्र अपने साथ लेकर जा रहा है। फिर अचानक सपनों का सौदागर फिल्म का वह गीत याद आ गया....
सपनों का सौदागर आया,
ले लो ये सपने ले लो,
किस्मत तुम से खेल चुकी,
अब तुम किस्मत से खेलो।।
(यह रहा इस टीस से भरे सुंदर गीत का यू-ट्यूब लिंक, अगर आप सुनना चाहें तो)...
१९७० के दशक में जब मैं १०-१२ साल का रहा हूंगा और जब नया नया टी वी आया था तो दूरदर्शन पर दिखाई गई थी....अच्छी लगी थी......यह गीत ही याद रहा .....बाकी सब कुछ भूल गया......किसी दिन यू-ट्यूब पर ही फिर से देखूंगा....अगर कभी फुर्सत मिली तो!)
हां, तो बात चल रही थी कि लंबी सी पंक्ति में खड़े हर शख्स के सपनों की......बहुत बार सुनता रहा हूं कि सारा यू.पी- बिहार बंबई, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, चंडीगढ़ पहुंच गया है, इस तरह की टिप्पणी मुझे बेहद घटिया लगती हैं, इन शहरों ने क्या किसी को रोक रखा है, कोई भी जा कर अपना सिक्का मनवा ले।
हां, ये जो लाइनें आप देख रहे हैं ये लोग पुष्पक एक्सप्रेस है......यह गाड़ी बंबई जाने के लिए बड़ी लोकप्रिय ट्रेन है....रात ७.४५ बजे लखनऊ जंक्शन स्टेशन से छूटती है, और २४ घंटे लेती है बंबई पहुंचने के लिए। मुझे यही लग रहा था कि यह ट्रेन जैसे सपनों की सौदागरनी है......यह सपने ही इधर उधर करती रहती है......लेकिन बड़ा संभल कर ....किसी के सपने को ठेस नहीं लगनी चाहिए। वैसे भी दुनिया में हर इंसान अपने भीतर ही भीतर एक जंग लड़ रहा है जिस के बारे में दूसरे किसी को कुछ भी तो नहीं पता। मैंने बहुत साल पहले एक इंगलिश की कहावत पढ़ी थी......Never laugh at anybody's dreams!! ........कितनी सुंदर बात है ना!!
आज के खुले वातावरण में जिस तरह से कुछ अरसा पहले बंबई में हुआ कि ये बाहर वाले लोग हैं.......इन सब बातों का कोई आधार नहीं है, ये बातें करने वालों का ही आप देखिए चुनावों में पत्ता ही साफ़ हो गया। वैसे भी घर से बाहर रहना कोई आसान काम नहीं है, हम लोग सब सुविधाएं होते हुए भी घऱ से एक-दो दिन के लिए ही बाहर जाएं तो यही इंतज़ार रहती है कि यार कब लौटेंगे अपने ठिकाने पर...हर कोई अपने परिवेश में ही रहना चाहता है..जड़ों के पास...इन से जुड़ा हुआ, लेकिन फिर भी मजबूरियां कहां की कहां ले जाती हैं.....कभी इन हज़ारों-लाखों लोगों के बारे में भी सोचिएगा कि इन में से अधिकांश वहां पर किन परिस्थितियों में वहां रहते हैं...आखिर ये करें तो क्या करें, जहां रोज़ी-रोटी होगी, वहां लोग जाएंगे ही...और बेशक जाना भी चाहिए....पिछले दिनों मैंने नादिरा बब्बर द्वारा लिखा गया और निर्देशित एक नाटक देखा था....दयाशंकर की डॉयरी, इसी समस्या को दर्शाया गया था उस में भी।
ये लाइनें जर्नल (बिना आरक्षण) डिब्बों में बैठने वालों की है.......मैंने देखा कि जैसे ही जर्नल डिब्बों के दरवाजे खुले, ये लाइन धीरे धीरे आगे बढ़ने लगी......एक बार, जब वे डिब्बे भी ठसाठस भर गये, तो भीड़ ऐसा भागी कि जिस की लाठी उस की भैंस...जो दौड़ सकता था, उस ने कोशिश कर ली, वरना लोग फिर से लाइन में लग गए...गाड़ी छूटने के बाद जब मैंने इस नईं लाइन के पास जा कर एक शख्स से पूछा कि अब यह लाइन किस गाड़ी के लिए है.....तो उसने बताया कि यह १० बजे रात में छूटने वाली एक दूसरी सुपरफॉस्ट गाड़ी के लिए है, वह भी २४ घंटे में बंबई पहुंचा देती है।
लखनऊ से पुष्पक एक्सप्रेस छूटने से १० मिनट पहले का दृश्य |
सपनों की सौदगरनी चल दी.......ठसाठस भरे सपनों को अपने कंधों पर उठाए |
यह सौदागरनी किसी को कुछ नहीं कहती......सभी का स्वागत है! |
पुष्पक छूटने के बाद ...एक दूसरे सपनों की सौदागर की इंतज़ार में |
इस लाइन में खड़े हर बश्र के जज्बे को सलाम करते हुए इन्हें समर्पित यह गीत.........
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