अभी पिछले कुछ दिनों में ओव्हर-डॉयग्नोसिस और उस के बाद बिना वजह इलाज के बारे में बहुत कुछ देखने को मिला। कुछ ही दिन पहले की बात है कि एक स्टडी का यह परिणाम सामने आया कि अमेरिका में हज़ारों लोगों के हृदय के ऐसे आप्रेशन ( heart devices) कर दिये गये जिन की उन्हें ज़रूरत ही नहीं थी।
एक अंग्रेज़ी की कहावत है...little knowledge is a dangerous thing! लोगबाग भी बस टीवी पर एक कार्यक्रम देख कर या अखबार में एक "एड्वर्टोरियल"(जिस विज्ञापन को एक खबर का रूप दे कर आप के सामने पेश किया जाता है) पढ़ कर तय कर लेते हैं कि हो न हो, यह जो सिरदर्द कईं दिनों से हो रहा है, यह किसी ब्रेन-ट्यूमर की वजह से हो सकता है।
डाक्टर के पास जाकर सीधा यह कहने वालों की गिनती में कोई कमी नहीं है कि वे सी.टी स्कैन अथवा एम.आर.आई करवाना चाहते हैं...डाक्टर लोग अपनी जगह अलग परेशान हो जाते हैं कि यह क्या माजरा है। और अगर कोई ऐसा न करवाने का मशविरा देता है तो क्या फर्क पड़ता है, कोई दूसरा तो लिख देगा। और शायद जिस मरीज़ ने पैसे स्वयं भरने हैं उन का वैसे ही स्वागत है ...किसी भी सेंटर में जाकर कुछ भी करवा के आ जाएं। और जिन संस्थाओं में यह खर्च सरकार द्वारा वहन किया जाता है, वहां पर भी विभिन्न कारणों की वजह से इस तरह के टैस्ट खूब हो ही रहे हैं। कईं बार सोचता हूं कि इस तरह की एक स्टड़ी होनी चाहिये जिस से यह पता चल सके कि जितने भी ये सीटी स्कैन, एम आर आई टैस्ट हुये इन में से कितनों की रिपोर्ट में कुछ गड़बड़ी आई .... और कितने केसों का आगे इलाज इन की रिपोर्ट के आधार पर हो पाया।
अब खूब लिटरेचर आ चुका है कि बिना वजह किये गये सी टी स्कैन आदि से किरणें हमारे शरीर में कितना नुकसान पहुंचा सकती हैं.... वैसे मैं यह भी सोचता हूं कि मरीज़ के स्वयं डाक्टर को सीटी स्कैन के लिये न कहने ही से क्या सब कुछ ठीक हो जायेगा......इस का जवाब तो आप जानते ही हैं। लेकिन मरीज़ों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे कभी भी डाक्टर को स्वयं इस तरह के टैस्टों के बारे में न कहें.... they are the best judge ...they know inside out of our systems!
चौंकने वाली बात तो यह है कि एमआरआई जैसे महंगे टैस्ट हो तो गये और बहुत बार इन में कोई unrelated changes (अनरिलेटेड बदलाव) दिख जाते हैं जिन का न तो वैसे पता ही चलता, और न ही इन की वजह से कभी तकलीफ़ ही होती और इसलिये इन का न ही कोई इलाज ही किया जाता ....लेकिन देख कर तो मक्खी कैसे निगली जाए...अब जब रिपोर्ट में आ जाए कि यह यह बदलाव अनयुयुल हैं तो फिर उन के इलाज के चक्कर में अकसर लोग पड़ जाते हैं या यूं भी कह लें कि इस तरह के चक्कर में डाल दिये जाते हैं। कल ही एक स्टडी देख रहा था कि यह जो लो-बैक के दर्द (low back pain) के लिये भी इतने एमआरआई हो रहे हैं इन की ज़रूरत ही नहीं होती।
बाकी अगली पोस्ट में ....
एक अंग्रेज़ी की कहावत है...little knowledge is a dangerous thing! लोगबाग भी बस टीवी पर एक कार्यक्रम देख कर या अखबार में एक "एड्वर्टोरियल"(जिस विज्ञापन को एक खबर का रूप दे कर आप के सामने पेश किया जाता है) पढ़ कर तय कर लेते हैं कि हो न हो, यह जो सिरदर्द कईं दिनों से हो रहा है, यह किसी ब्रेन-ट्यूमर की वजह से हो सकता है।
डाक्टर के पास जाकर सीधा यह कहने वालों की गिनती में कोई कमी नहीं है कि वे सी.टी स्कैन अथवा एम.आर.आई करवाना चाहते हैं...डाक्टर लोग अपनी जगह अलग परेशान हो जाते हैं कि यह क्या माजरा है। और अगर कोई ऐसा न करवाने का मशविरा देता है तो क्या फर्क पड़ता है, कोई दूसरा तो लिख देगा। और शायद जिस मरीज़ ने पैसे स्वयं भरने हैं उन का वैसे ही स्वागत है ...किसी भी सेंटर में जाकर कुछ भी करवा के आ जाएं। और जिन संस्थाओं में यह खर्च सरकार द्वारा वहन किया जाता है, वहां पर भी विभिन्न कारणों की वजह से इस तरह के टैस्ट खूब हो ही रहे हैं। कईं बार सोचता हूं कि इस तरह की एक स्टड़ी होनी चाहिये जिस से यह पता चल सके कि जितने भी ये सीटी स्कैन, एम आर आई टैस्ट हुये इन में से कितनों की रिपोर्ट में कुछ गड़बड़ी आई .... और कितने केसों का आगे इलाज इन की रिपोर्ट के आधार पर हो पाया।
अब खूब लिटरेचर आ चुका है कि बिना वजह किये गये सी टी स्कैन आदि से किरणें हमारे शरीर में कितना नुकसान पहुंचा सकती हैं.... वैसे मैं यह भी सोचता हूं कि मरीज़ के स्वयं डाक्टर को सीटी स्कैन के लिये न कहने ही से क्या सब कुछ ठीक हो जायेगा......इस का जवाब तो आप जानते ही हैं। लेकिन मरीज़ों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे कभी भी डाक्टर को स्वयं इस तरह के टैस्टों के बारे में न कहें.... they are the best judge ...they know inside out of our systems!
चौंकने वाली बात तो यह है कि एमआरआई जैसे महंगे टैस्ट हो तो गये और बहुत बार इन में कोई unrelated changes (अनरिलेटेड बदलाव) दिख जाते हैं जिन का न तो वैसे पता ही चलता, और न ही इन की वजह से कभी तकलीफ़ ही होती और इसलिये इन का न ही कोई इलाज ही किया जाता ....लेकिन देख कर तो मक्खी कैसे निगली जाए...अब जब रिपोर्ट में आ जाए कि यह यह बदलाव अनयुयुल हैं तो फिर उन के इलाज के चक्कर में अकसर लोग पड़ जाते हैं या यूं भी कह लें कि इस तरह के चक्कर में डाल दिये जाते हैं। कल ही एक स्टडी देख रहा था कि यह जो लो-बैक के दर्द (low back pain) के लिये भी इतने एमआरआई हो रहे हैं इन की ज़रूरत ही नहीं होती।
बाकी अगली पोस्ट में ....
sahi kaha aapne
जवाब देंहटाएंबहुत सही कह रहे हैं डॉ chopra जी । बेवज़ह सी टी कराने से एक्सपोजर बढ़ता है ।
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जवाब देंहटाएंआपके लेख वन्दनीय हैं डॉ प्रवीण चोपड़ा !
अफ़सोस है की ब्लॉग जगत में ध्यान से लेख पढने की आदत ही नहीं है अन्यथा कितनों को इनका फायदा होता ! आशा है टिप्पणियों की संख्या या पाठकों को न देख आप अपना यह आन्दोलन जारी रखेंगे !
मुझे विश्वास है भविष्य के लिए यह लेख संग्रहणीय दस्तावेज बनेंगे !
सादर शुभकामनायें !