सोमवार, 2 मार्च 2009

मंदी से बेहाल विदेशी महिलायें बेच रही हैं अपने डिम्ब (eggs)…..

मेरा एक मित्र जो विश्वविद्यालय में जर्नलिज़्म का प्रोफैसर है उसे इस बात से बहुत चिढ़ है कि हिंदोस्तान के भिखारियों का चेहरा सारे संसार में जाना जाता है ---उस का कहना है कि भिखारी तो दूसरे देशों में भी हैं, कुछ लोगों का हाल-बेहाल है लेकिन उन का चेहरा दुनिया के सामने नज़र नहीं आता। इसलिये वह हमें बता रहा था कि जब वह पिछली बार विदेश गया --- देश का मेरे को ध्यान नहीं आ रहा ---- वहां पर उस ने जब एक भिखारी को पांच डालर की भीख दी तो उस ने उस भिखारी की तस्वीर भी खींच ली ----कह रहा था कि केवल इस बात के प्रमाण के तौर पर कि भिखमंगे उन देशों में भी हैं।

कल रविवार की अखबार की वह वाली खबर देख कर मन बहुत बेचैन हुआ जिस का शीर्षक था कि ऑस्कर अवार्ड समारोह से लौटने पर स्लम-डॉग मिलिनेयर के एक नन्हे कलाकार की उस के बाप ने की जम कर पिटाई --- कारण यह था कि वह उसे घर से बाहर आकर टीवी पत्रकारों को इंटरव्यू देने के लिये राज़ी कर रहा था। स्लम-डॉग मिलिनेयर में हिंदोस्तानियों की गरीब बस्ती के हालात सारे संसार ने देखे क्योंकि एक विदेशी ने इस कंसैप्ट पर यह हिट फिल्म बना डाली। हिंदोस्तानी फिल्मकारों को विदेशों के कुछ ऐसे ही मुद्दे पकड़ कर फिल्में बनाने से भला कौन रोक रहा है ---- आइडिया तो यह भी बुरा नहीं कि वहां पर कुछ महिलायें अपने निर्वाह के लिये अपने डिम्ब बेचने को इतनी आतुर हैं।

फिल्म से ध्यान आया कि रयूटर्ज़ की साइट पर इस न्यूज़-आइटम ( यह रहा इस का वेबलिंक) से पता चला है कि आर्थिक मंदी से बेहाल होकर ऐसी महिलायों की संख्या बढ़ रही है जो कि अमेरिकी फर्टिलिटि क्लीनिकों पर जा कर अपने अंडे (डिम्ब) बेचने को तैयार हैं जिस के लिये उन्हें दस हज़ार पौंड तक का मुआवजा दिया जा सकता है।

न्यूज़-रिपोर्ट में एक एक्ट्रैस के बारे में लिखा गया है कि नवंबर के महीने से उसके पास कोई काम नहीं है, इसलिये उस ने कुछ पैसे कमाने के लिये अपने एग्ज़ बेचने का निर्णय किया है। इस रकम से वह अपने क्रैडिट कार्ड बिल और अपने फ्लैट का किराया भर पायेगी। औसतन लगभग पांच हज़ार पौंड इस काम के लिये मिल जाते हैं।

लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह भी तो है कि केवल किसी महिला की इच्छा ही काफ़ी नहीं है कि वह अपने डिम्ब बेचना चाहती है --- उसे इस काम के लिये योग्य भी होना पड़ता है। जो संस्था इस काम में कार्यरत है उस के अनुसार जितने प्रार्थना-पत्र उसे प्राप्त होते हैं उस में से पांच से सात फीसदी केसों को ही डिम्ब-दान के योग्य पाया जाता है। इस के लिये योग्यता यही है कि डिम्ब-दान करनी वाली महिला बीस से तीस साल की उम्र की हो, सेहतमंद , आकर्षक व्यक्तित्व वाली हो और अच्छी पढ़ी लिखी होनी चाहिये।

जो महिलायें ये डिम्ब-दान करना चाहती हैं उन का मैडीकल, मनोवैज्ञानिक एवं जैनेटिक टैस्ट किया जाता है और साथ ही उन की पृष्ठभूमि की भी जांच की जाती है। अगर किसी महिला का चयन कर लिया जाता है तो उसे तब तक कुछ हारमोन इंजैक्शन लगवाने होते हैं जब तक कि उस के डिम्ब उस के शरीर से निकाले जाने के लिये तैयार नहीं हो जाते।

और ऐसा कहा जा रहा है कि यह काम किसी दूसरी महिला की मदद के लिये किया जा रहा है --- ये किसी दूसरी महिला को एक महान उपहार देने का एक ढंग है जो कि सामान्य तरीके से मां बन पाने में सक्षम नहीं होती। काम बहुत महान है, इस में तो कोई शक नहीं ---- लेकिन यह कहना कि यह उपहार है , किसी ज़रूरतमंद विवाहित जोड़े की मदद करना मात्र है, क्या ये बातें आसानी से आप के गले के नीचे सरक रही हैं ?---- खैर, कोई बात नहीं ---- मैं तो केवल यही सोच रहा हूं कि अगर यह इतना ही नोबल मिशन है, अगर किसी उपहार से इस की तुलना की जा रही है तो यह पांच से दस हज़ार पौंड बीच में पड़े क्या कर रहे हैं। चलिये, हम कुछ नहीं कहेंगे ----- डिम्ब बेचने वाली महिला का भी काम हो गया और उस डिम्ब को कृत्तिम-फर्टिलाईज़ेशन ( इन-विट्रो-फर्टिलाइज़ेशन) के माध्यम से गृहण करने वाली किसी भावी मां का भी काम चल गया ----- बहुत खुशी की बात है।

एक विचार है ----विदेशी फिल्मकार ने आकर हमारी धारावी झोंपड़-पट्टी का चेहरा सारी दुनिया के सामने रखा और कईं ऑस्कर उस की झोली में आ पड़े ----यार, कोई अपने देश का फिल्मकार भी उन अमीर देशों की कोई ऐसी ही बात लेकर सारी दुनिया के सामने रख कर क्यों नहीं ऑस्कर लाता ? ---एक आइडिया तो मैंने दे ही दिया है ----डिम्ब-दान ( दान ??) करने वाली महिलायों के इर्द-गिर्द घूमती और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देने वाली ऐसी ही किसी थीम को लेकर भी कभी कोई फिल्म बननी चाहिये।

लेकिन जो पुरूष अपने शुक्राणु दान (??) करना चाहते हैं उन्हें इतना ज़्यादा उत्साहित होने की कोई खास वजह नहीं है ----उन्हें हर बार शुक्राणु दान करने के लिये 60 डालर ही मिलते हैं ----------यहां तो मर्द लोग मात खा गये !! …..क्या पता आने वाले समय में इस देश के बेरोज़गार, लाचार, बेहाल युवकों को भी इसी काम से ही कभी कभी अपना काम चलाना होगा !!

स्लम-डॉग मिलिनेयर देख ली है ---- सब से ज़्यादा उन सब बाल कलाकारों की अदाकारी मुझे पसंद आई ----क्योंकि वे सब नन्हे शैतान तो जन्मजात अभिनेता ही हैं , उन सब नन्हे कलाकारों के उजले भविष्य की कामना के साथ और उन के लिये बहुत बहुत शुभकामनाओं के साथ यही विराम ले रहा हूं।

2 टिप्‍पणियां:

  1. चाहे भारत की स्लम्स पर फिल्म बना कर कोई ईनाम लाए या फिर हम किसी पश्चिमी अमीर देश की किसी ऐसी ही मजबूरी की परिस्थिति को फिल्म में बन्द कर ईनाम ले आएँ या इस तरह के ईनाम हमारे यहाँ ईजाद करें। दोनों ही इस अमानवीय अर्थव्यवस्था की देन होंगे। हम उस अर्थव्यवस्था की अमानवीयता को उजागर क्यों नहीं करते जो ऐसी अमानवीय परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है और फिर करोड़ डालरों की सहायता दे कर खुद को परोपकारी बनने तथा कुछ ईनाम बाँट कर वाहवाही लूटने के ढोंग करती है।

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  2. चोपडा साहब , उस बच्चे के बाप ने तो पता नही क्यो अपने बेटे को पीटा, शायद इन केमरे वालो से तंग आ कर गुस्सा बेटे पर निकाला, खेर जाने दो, ओर अमेरिका, युरोप मे भी महिल्ये ५,५ € के लिये .....
    यहा नवजात शिशु को पलस्टिक के थेले मे डाल कर कुडे दान मे फ़ेक देते है, बच्चो को कई कई दिन कमरो मे भुखा बन्द कर दिया जाता है, लेकिन यह सब हमारे भारतीया मानव अधिकार वालो को दिखाई नही देता,क्योकि यह गोरे है, लेकिन हमारी इज्जत की निलामी पुरे विश्व मै हो ओर हम खुशीसे तालियां मार कर गर्व से सीना फ़ुला कर बेठे है, यह झोपड पट्टी वाले भी इन सीना फ़ुलाने वालो की गलती से ही गरीब है, वरना एक गरीब को एक मजदुर को उस का सही हक मिले तो देखे कोन गईब रहता है, ओर कोन कुछ ही महीनो मै खाक पति से अरब पति बन जाता है.... सब यह ढोंगी है ऊपर से हमदर्दी दिखाते है, ओर इन् का खुन भी यही पीते है, आप ने बिलकुल सही लिखा है.
    धन्यवाद

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