अकसर मैं अपने कॉलेज के जमाने से देख रहा हूं कि मैडीकल फील्ड में अकसर किसी मरीज़ की प्राइवेसी की तरफ़ इतना ध्यान नहीं दिया जाता। बिल्कुल नये नये तैयार हुये बहुत से डाक्टर तो इस के बारे में रती भर सचेत नहीं हैं ----यह नहीं कि मरीज़ की प्राइवेसी की तहज़ीब आती ही नहीं है ---आती तो शायद कुछ लोगों को ज़रूर है लेकिन साठ-पैंसठ साल की उम्र यूं ही बिताने के बाद ।
यार, मैं अगर अपना ब्लड-प्रैशर भी किसी फ़िजिशियन से चैक करवाने जाऊं तो मुझे महसूस होता है कि उस समय उस के चैंबर में कोई और मरीज़ न ही हो, अगर मैं अपनी श्रीमति जी के चैंबर में भी अपने स्वास्थ्य से संबंधित कोई परामर्श उन से लेने जाता हूं तो मेरी इच्छा होती है कि उस समय कमरे में वार्ड-ब्वॉय भी न हो ---- दोस्तो, यह एक स्वाभाविक चेष्ठा है। इस में कोई बुराई तो नहीं है भई। लेकिन अकसर मैं जगह जगह घूमता रहता हूं और यही देखता हूं कि हमें मरीज़ की प्राइवेसी का आदर करने की तरफ़ भी बहुत ही ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है ।
मुझे लगता है कि इस का मुख्य कारण यह है कि कॉलेज स्तर पर चिकित्सकों को कम्यूनिकेशन स्किल्ज़ नाम का कोई विषय नहीं है ---- मैं समझता हूं कि इस की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है क्योंकि जब कोई व्यक्ति किसी विषय के बारे में जानता है तो ही वह उसे प्रैक्टिस भी कर सकता है। पता नहीं डाक्टर लोग मेरे इस लेख को किस भाव से लेंगे, लेकिन मेरा तो भई दृढ़ विश्वास है कि मरीज़ों की प्राइवेसी की धज्जियां जगह जगह उड़ रही हैं। यह इतना महत्वपूर्ण एरिया है और किसी भी मरीज़ के इलाज का परिणाम इस से भी बहुत हद तक जुड़ा हुआ है।
मैं भी कभी इस तरफ़ ज़्यादा दिमाग लगाया नहीं करता था ---कभी इस के बारे में सोचा ही नहीं था – 1992 तक ---- उस साल मैंने बंबई के टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसेज़ से एक वर्ष के डिप्लोमा इन हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन में एडमिशन लिया था। वहां पर हमारा एक विषय था –कम्यूनिकेशन । उसे पढ़ कर मुझे बहुत अच्छा लगा ----मेरी सोच कर नज़रिया बहुत फैला। और उस कोर्स के बाद मैंने मरीज़ की प्राइवेसी का लगभग पूरा पूरा ध्यान रखा है।
वैसे आप इस प्राइवेसी से क्या समझ रहे हैं ----- इस से मतलब यह है कि जब मरीज़ हमारे सामने अपनी बात रख रहा है तो उस समय किसी तीसरे का उस कक्ष में होने का कोई मतलब है ही नहीं। लेकिन किसी सार्वजनिक क्षेत्र के हास्पीटल में काम करते वक्त इस को पूरा पूरा निभा पाना शायद नामुमकिन सा लगता है--- लेकिन इस में भी मुझे लगता है कि हमारी इच्छा शक्ति की ही कमी होती है कि हम लोग चंद प्रभावशाली लोगों तक अपना यह संदेश पहुंचा ही नहीं सकते कि यार, सारे मरीज़ों की प्राइवेसी एक जैसी ही है। अकसर डाक्टर लोग ऐसी परिस्थितियों में ज़्यादा पंगा मोल लेना के इच्छुक नहीं होते और यूं ही बिना बारी के अंदर घुस चुके ( इन्हे गेट-क्रेशर्ज़ कह दें तो कैसा रहेगा !!) इन चंद so-called “व्ही-आई-पी” (manytimes - "self-styled" as well !!) की वजह से बहुत से आम मरीज़ों के इलाज में व्यवधान ही पैदा होता ही दिखता है।
ज़रा इस तरफ़ ध्यान करें कि ये लोग बिना किसी दूसरे की प्राइवेसी का ध्यान किये हुये अंदर क्यों घुस आते हैं --- सरकारी सैट-अप की बात करें तो शायद इस का कारण यह है कि किसी भी डाक्टर का जो अटैंडैंट हैं वह इतनी कड़ाई से इस नियम का पालन कर ही नहीं पाता क्योंकि शायद वह इस का पालन करना ही नहीं चाहता क्योंकि वह भी सिस्टम से डरता है। उस का डाक्टर उसे चाहे कितनी बार ही क्यों न कह दे कि एक मरीज़ के अंदर होते हुये दूसरा अंदर नहीं आयेगा तो भी इन "व्ही-आई-पी " की बॉडी-लैंगवेज़ ही कुछ इस तरह की होती है कि उस की उस कर्मचारी की कमज़ोर सी इच्छा शक्ति उसी समय उसे बाहर ही रूक कर इंतज़ार करने के लिेये कहने वक्त और भी कमज़ोर पड़ जाती है। यह काम वो करता है लेकिन आम आदमी के साथ ----उस के साथ इतनी कड़की बरती जाती है जितनी कि शायद ज़रूरी भी नहीं होती --- मैंने देखा कि आम आदमी को तो कोई एक बार हल्के से भी कह दे कि आप को अपनी बारी की शांति से प्रतीक्षा करनी होगी और वे दो घंटे टस से मस नहीं होते और न ही किसी तरह का व्यवधान किसी दूसरे के इलाज में डालते हैं ------ मैडीकल फील्ड इन की सहनशीलता को सैल्यूट करती है !!
किसी किसी हास्पीटल में तो डाक्टर के कमरे में घुस कर ऐसा लगता है जैसे कि वह उस का हास्पीटल कक्ष न होकर उस के घर का ड्राईंग-रूम हो ---- वहां पर मरीज़ों का चैक-अप चल रहा होता है ---और साथ ही कुर्सीयों पर वे लोग सजे होते हैं जो लोग मैटर करते हैं ( people who really matter !!) – पास ही कंपनियों के मैडीकल-रैप अपनी नईं दवाईयों की तारीफ़ के पुल बांधने में लगे होते हैं, चाय का दौर चल रहा है ----- और डाक्टर साहब की मल्टी-स्किलिंग देखिये कि वह इस के साथ साथ मरीज़ की छाती को स्टैथोस्कोप से जांच भी रहे हैं और उसे गहरे सांस दूसरी तरफ़ छोड़ने के लिये कह भी रहे हैं।
मैंने तो देखा है कुछ प्राईवेट क्लीनिकों में मरीज़ों की इस प्राइवेसी का सम्मान ज़्यादा होता है --- आप का क्या ख्याल है ?---बहुत से सरकारी हास्पीटलों के डाक्टरों द्वारा भी शायद इस का ध्यान रखा जाता है ----लेकिन जो मेरी आब्जर्वेशन थी वह मैंने आप से साझी की है। जो भी डाक्टर –सरकारी या प्राइवेट प्रैक्टिस में – किसी मरीज़ को यह पर्सनल स्पेस उपलब्ध करवाता है इस से उस का भी काम आसान हो जाता है ---मरीज़ उस में अपने एक सहानुभूति से भरे मित्र की छवि देखने लगता है जो उस की बात सुनने के लिये आतुर है और उस बातचीत के वक्त उस के लिये कोई भी अन्य काम महत्वपूर्ण नहीं है ।
बाकी बातें अगली पोस्ट में करते हैं !!
आप की बात सही है। मरीज की प्राइवेसी का ध्यान रखना चाहिए। यह बात हमारे पेशे के लिए भी उतनी सही है। लेकिन पूरे सिस्टम को ही बदलना होता है। मेरे ऑफिस के बाहर एक वेटिंग हॉल भी जरूरी है। फिर एक मरीज को अधिक समय देना होता है। इन सब का खर्च उठाने के लिए क्या मरीज सक्षम है। फिर एक दो मरीज खर्च उठाने को तैयार भी हों तो उस से काम नहीं चलता।
जवाब देंहटाएंवास्तविकता यह है कि हमारे यहाँ सेवा क्षेत्र के ग्राहक अभी सेवा का खर्च उठा पाने में सक्षम नहीं है। बहुत से तो मुफ्त सेवा चाहते हैं। जब तक ग्राहक इस शुल्क का खर्च उठा पाने में सक्षम न हो प्राइवेसी कैसे संभव हो सकती है।
हमारे नगर के प्रतिष्ठित बालरोग विशेषज्ञ एक साथ पांच बच्चों को देखते थे। फिर अपनी कुर्सी पर बैठ कर पांचो के प्रेस्क्रिप्शन लिखते थे। सब से अधिक मरीजों को देखते थे फीस नाम मात्र की होती थी इतनी की दो पान भी न खरीदे जा सकें।
दरअसल चिकित्सकों को जन संचार और चिकित्सकीय आचार संहिताओं का कोई पाठ्यक्रम नहींहै -अआपने बहुत जरूर मुद्दा उठाया है -शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंप्राईवेसी तो बहुत जरुरी है जी डॉक्टर साहेब...हमारे यहाँ तो इसके अन्तर्गत बैण्ड बज जाये.
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