समोसे, कचौड़ी, जलेबी, मठरी, बेकरी की वस्तुएं, बाजारी भटूरे, पूड़ियां......ये सब पदार्थ ट्रांस-फैट्स से लैस होते हैं – ये हमारे स्वास्थ्य के विलेन आखिर हैं क्या ? – ट्रांस-फैट्स का मतलब है हाइड्रोजिनेटेड फैट्स अर्थात् जिन वनस्पति तेलों में हाइड्रोजिनेशन प्रक्रिया के द्वारा हाइड्रोजन डाली जाती है। आप को याद होगा कि बहुत पहले ऐसे ही घी को घरों में भी अधिकतर इस्तेमाल किया जाता था और ये टिन के या प्लास्टिक के डिब्बों में आया करते थे ----अभी भी ध्यान नहीं आ रहा तो याद करिये जब बचपन में ऐसे ही एक डिब्बे के ढक्कन को खोलते हुये आप का हाथ कट गया था।
इस हाइड्रोजिनेशन प्रक्रिया के द्वारा तरल लिक्विड ऑयल मक्खन जैसा ठोस सा हो जाता है और इस प्रक्रिया के बाद इस के “खराब ” होने के चांस बहुत कम हो जाते हैं---लेकिन सब से महत्वपूर्ण बात जानने लायक यह है कि इस हाइड्रोजिनेशन प्रक्रिया के फलस्वरूप यह घी हमारी धमनियों ( रक्त की नाड़ी) के लिये मक्खन अथवा चर्बी जितना ही खतरनाक हो जाता है।
विज्ञानिकों ने बहुत पहले ही यह सिद्ध किया हुआ है कि इन ट्रांस-फैट्स की वजह से एल.डी.एल ( LDL – low density lipoprotein.... जिसे बुरा कोलैस्ट्रोल कहा जाता है)- का स्तर तो बढ़ जाता है लेकिन एच.डी.एल ( HDL- high density lipoprotein- जिसे अच्छा कोलैस्ट्रोल कहा जाता है) का स्तर घट जाता है जिस की वजह से हृदय रोग होने का अंदेशा काफ़ी बढ़ जाता है।
कुछ देशों में तो रैस्टरां में और बेकरी आदि में इन ट्रांस-फैट्स के इस्तेमाल पर प्रतिबंध ही लगा दिया गया है। अमेरिकन मैडीकल एसोसिएशन में मैडीकल डाक्टर और मैडीकल स्टूडैंट्स की संख्या दो लाख चालीस हज़ार है जिन्होंने ने यह फैसला किया है कि पहले तो वे लोगों को कहते थे कि उन्हें ट्रांस-फैट्स का इस्तेमाल कम करना चाहिये लेकिन अब तो वे इन के इस्तेमाल को बिलकुल न करने की सिफारिश कर रहे हैं। और इस ग्रुप का यह मानना है कि केवल ट्रांस-फैट्स का इस्तेमाल न करने से ही अमेरिका में लगभग एक लाख लोग अकाल मृत्यु का ग्रास बनने से बच जायेंगे।
अगर अमेरिका में यह हालात हैं तो जिस तरह से हमारे यहां पब्लिक बाज़ार में खोमचों पर पकौड़ों, जलेबियों, समोसों पर सुबह शाम टूट पड़ती है---उस से तो यही लगता है कि अगर हम लोग इन खाध्य पदार्थों को बनाते समय इन ट्रांस-फैट्स का इस्तेमाल बंद करवा पायें तो हमारे यहां तो करोड़ों जिंदगीयां ही बच जायेंगी। और जिस तरह से हमारे पड़ोस वाला सुबह से लेकर रात तक उस कड़ाही के गंदे से घी में पकौड़े बनाता है और समोसे निकालता है , उस से तो इस घी के गुण ट्रांस-फैट्स से भी बीसियों गुणा नुकसानदायक हो जाते हैं। लेकिन अपनी सुनता कौन है !!
कुछ साल पहले तक तो मैं कभी कभी समोसे, जलेबी अथवा बेकरी में बनी वस्तुयें खा लिया करता था लेकिन पिछले काफी अरसे से मैंने इस तरह के खान-पान पर पूरा प्रतिबंध लगा रखा है। आप क्या सोच रहे हैं, आप भी छोड़ क्यों नहीं देते, पहले से ही बहुत खा लिया।
कृपया टिप्पणी में यह मत लिखियेगा कि इन चीज़ों को अगर खाया ही नहीं तो जीने का क्या लुत्फ़ ----क्योंकि जब शरीर में कोई तकलीफ़ लग जाती है ना तो बहुत मुसीबत हो जाती है। जितने हम से बन पाये उतना तो बच कर ही रहें, बाकी तो उस ऊपर-वाले पर छोड़ना ही पड़ता है।
इस हाइड्रोजिनेशन प्रक्रिया के द्वारा तरल लिक्विड ऑयल मक्खन जैसा ठोस सा हो जाता है और इस प्रक्रिया के बाद इस के “खराब ” होने के चांस बहुत कम हो जाते हैं---लेकिन सब से महत्वपूर्ण बात जानने लायक यह है कि इस हाइड्रोजिनेशन प्रक्रिया के फलस्वरूप यह घी हमारी धमनियों ( रक्त की नाड़ी) के लिये मक्खन अथवा चर्बी जितना ही खतरनाक हो जाता है।
विज्ञानिकों ने बहुत पहले ही यह सिद्ध किया हुआ है कि इन ट्रांस-फैट्स की वजह से एल.डी.एल ( LDL – low density lipoprotein.... जिसे बुरा कोलैस्ट्रोल कहा जाता है)- का स्तर तो बढ़ जाता है लेकिन एच.डी.एल ( HDL- high density lipoprotein- जिसे अच्छा कोलैस्ट्रोल कहा जाता है) का स्तर घट जाता है जिस की वजह से हृदय रोग होने का अंदेशा काफ़ी बढ़ जाता है।
कुछ देशों में तो रैस्टरां में और बेकरी आदि में इन ट्रांस-फैट्स के इस्तेमाल पर प्रतिबंध ही लगा दिया गया है। अमेरिकन मैडीकल एसोसिएशन में मैडीकल डाक्टर और मैडीकल स्टूडैंट्स की संख्या दो लाख चालीस हज़ार है जिन्होंने ने यह फैसला किया है कि पहले तो वे लोगों को कहते थे कि उन्हें ट्रांस-फैट्स का इस्तेमाल कम करना चाहिये लेकिन अब तो वे इन के इस्तेमाल को बिलकुल न करने की सिफारिश कर रहे हैं। और इस ग्रुप का यह मानना है कि केवल ट्रांस-फैट्स का इस्तेमाल न करने से ही अमेरिका में लगभग एक लाख लोग अकाल मृत्यु का ग्रास बनने से बच जायेंगे।
अगर अमेरिका में यह हालात हैं तो जिस तरह से हमारे यहां पब्लिक बाज़ार में खोमचों पर पकौड़ों, जलेबियों, समोसों पर सुबह शाम टूट पड़ती है---उस से तो यही लगता है कि अगर हम लोग इन खाध्य पदार्थों को बनाते समय इन ट्रांस-फैट्स का इस्तेमाल बंद करवा पायें तो हमारे यहां तो करोड़ों जिंदगीयां ही बच जायेंगी। और जिस तरह से हमारे पड़ोस वाला सुबह से लेकर रात तक उस कड़ाही के गंदे से घी में पकौड़े बनाता है और समोसे निकालता है , उस से तो इस घी के गुण ट्रांस-फैट्स से भी बीसियों गुणा नुकसानदायक हो जाते हैं। लेकिन अपनी सुनता कौन है !!
कुछ साल पहले तक तो मैं कभी कभी समोसे, जलेबी अथवा बेकरी में बनी वस्तुयें खा लिया करता था लेकिन पिछले काफी अरसे से मैंने इस तरह के खान-पान पर पूरा प्रतिबंध लगा रखा है। आप क्या सोच रहे हैं, आप भी छोड़ क्यों नहीं देते, पहले से ही बहुत खा लिया।
कृपया टिप्पणी में यह मत लिखियेगा कि इन चीज़ों को अगर खाया ही नहीं तो जीने का क्या लुत्फ़ ----क्योंकि जब शरीर में कोई तकलीफ़ लग जाती है ना तो बहुत मुसीबत हो जाती है। जितने हम से बन पाये उतना तो बच कर ही रहें, बाकी तो उस ऊपर-वाले पर छोड़ना ही पड़ता है।
hamesa ki trh achchhi jankari.. hum padh rahen hain aap likhiye.
जवाब देंहटाएंचोपडा जी, आप का लेख हमेश की तरह से बहुत ही अच्छा है.हम ने यह चीजे छोडी नही, बल्कि घर मै बन कर खाते है साल मै २,४ बार,ओर जो तेल एक बार बरत लो उसे फ़ेक देना चाहिये,हां भारत मै हमेशा ही इन चीजो से परहेज नही किया, बल्कि करन पडता है, ओर होटल का खाना ना बाबा ना.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हमेश की तरह अच्छा.धन्यवाद
जवाब देंहटाएंaap ki baat bilkul sahi hai.koshish karengey.
जवाब देंहटाएंlekin kaisey dil ko samjhayen-
-main to jab bhi bharat jaati hun to jee bhar kar chaat - pakodi
khaati hun-kyun ki waisa swad kahin nahin milta--aur UAE wapas aa kar jab irrtable bowels ke liye anitibiotics ka course lena padta hai tab afsos hota hai ki jeebh par tabhi kyun nahin qaboo kar paayee :)--aur khud se promise karti hun ki agli baar bahar ka kuchh nahin khaungee-lekin 'dilli ke gol-gappey aur chaat' dekhtey hi wohi dhaak ke teen paat!
शुद्ध देसी घी और मक्खन के सेवन की सिफारिश कई डॉक्टर और वैद्य करते हैं, संतुलित मात्रा में है भी यह पोषक तत्त्व. पर यह 'वनस्पति घी' उर्फ़ हायड्रोजनेटेड आयल थोड़ी सी भी मात्रा में मौत को बुलावा है.
जवाब देंहटाएंपर जो लोग कड़ा शारीरिक श्रम नहीं करते उनके लिए क्या देसी घी और क्या वनस्पति घी, दोनों ही ज़हर हैं. मैंने उत्तर भारत से लेकर दक्षिण तक गाँवों में ऐसे किसान परिवार देखे हैं, जिनके घरों में घी-दूध इफरात से उपलब्ध है, पर वे लोग घी बाज़ार में बेचकर घर में ख़ुद 'डालडे' का उपयोग करते हैं. ऐसा नहीं है की महीने में पाँच सौ या छह सौ का घी घर में बचा लेने से उन्हें कोई आर्थिक फर्क पड़ जाएगा, पर लालच और अज्ञान जो न कराये!
अब तो लोग यह कहने लगे हैं की, डालडे पर पले बढे इन्सान को अगर देसी घी खिलाओगे तो मरे भले न, बीमार ज़रूर हो जाएगा. कभी सुना था की देश में घी दूध की नदियाँ बहा करती थीं, और नौजवान पट्ठे घी पीकर अखाडे में दंड पेला करे थे, पर अब तो नदियाँ नाला भयीं और नौजवानों की रगों में अब डालडा दौड़ता है.