बुधवार, 5 नवंबर 2008

ऐसा क्या होता है कुछ लोगों में.....

फॉदर टोनी कुछ साल पहले सैंट मैरी बम्बई के प्रिंसीपल हुआ करते थे ---शायद आज कल भी वही हों, मैं कुछ कह नहीं सकता—लेकिन जब मेरे बेटे का वहां एडमिशन होना था तो हम केवल एक बार उन से मिले थे। उन की शख्शियत इतनी कमाल की ----इतनी नम्रता कि मुझे उसे ब्यां करने के लिये शब्द ही नहीं मिल रहे। उन्होंने हमारी बात बहुत ही ध्यान से सुनी और फिर रास्ता भी बता दिया।

मुझे फॉदर टोनी की याद अभी अभी इस लिये आ गई कि मुझे अभी बेटे का प्राईमरी का एक सर्टिफिकेट दिखा जिस पर उन के साइन हुए हुये थे। बस, यही सोच रहा हूं कि कुछ लोगों में कुछ तो बात होती है कि उन के साथ केवल चंद लम्हों की एक मुलाकात ता-उम्र के लिये अमिट छाप छोड़ जाती है। छाप ही नहीं छोड़ जाती, बल्कि बहुत हद तक प्रेरित भी कर जाती है कि हमें खुद भी किस तरह बिहेव करना चाहिये। I think this is the greatest education that we can pass on ---soft skills.

एक बात और भी है ना कि जब हम लोग ऐसे लोगों के बारे में सोचना शुरू करें जिन्हों से हम कभी प्रभावित हुये थे तो भई लिस्ट तो बहुत लंबी चौड़ी हो जाती है। हम कैसे ऐसे किसी भी बंदे की महानता के कायल हुये बिना रह सकते हैं जिस की किसी न किसी बात ने हमें कभी छुआ होगा। चाहे वह किसी हास्पीटल में वार्ड-ब्वाय हो, चाहे वह ड्रैसर हो, चाहे कोई आप का परिचित हो, चाहे कोई टीचर हो, चाहे कोई रिश्तेदार---------पता नहीं कुछ लोगों का बात करने का ढंग ही इतना बढ़िया होता है कि वे हमेशा के लिये हमें अपना कायल कर देते हैं। और हां, इस ढंग में कहीं भी रती भर भी नकलीपन अगर होगा तो वह भी दिख जायेगा।

कुछ लोगों की मुस्कान इतनी बढ़िया होती है , वे इतने genuine ढंग से पेश आते हैं कि आदमी अपनी सारी तकलीफ़ें भूल जाता है। और यह तो मैडीकल फील्ड में भी बहुत दिखता है।

मेरा अनुभव ने और मेरी आब्ज़र्वेशन ने मुझे यह सिखाया है कि अच्छा प्रोफैशनल होने के लिये अपने प्रोफैशन का ज्ञान होना तो ज़रूरी है ही , साथ में इन सब बातों का सलीका भी बेहद ज़रूरी है। वरना, सारे ज्ञान, सारे अनुभवों का कचरा हो जाता है।

अकसर हम लोग देखते हैं कि ज़रूरी नहीं कि वही डाक्टर अपने प्रोफैशन में सफल होते हैं जो बहुत मंजे हुये होते हैं----ठीक है , मंजा हुआ है कोई तो बहुत बढ़िया बात है लेकिन इस के साथ अगर आदमी इन दूसरी स्किल्स में भी निपुण है तो ही बात बनती है।

और नकलीपन का तो कोई स्कोप है ही नहीं----जिसे आदमी को हम कम पढ़ा-लिखा समझ कर या अनपढ़ जान कर write-off करने की कोशिश करते हैं वह भी इतना तो इंटैलीजैंट होता ही है कि हमारी मूक-भाषा ( non-verbal communication), हमारी बॉडी-लैंग्वेज को अच्छी तरह से समझ सके.......इसलिये कहीं भी दिखावे का तो कोई स्कोप है ही नहीं। और वैसे भी दिखावा एक दिन चलेगा—दो दिन चलेगा------लेकिन काठ की हांडी कितने दिन चूल्हे पर चड़ सकती है !!

हम लोग ने इतनी इतनी पोथियां पढ़ लीं, इतनी इतनी डिग्रीयां हासिल कर लीं, मेरे जैसे अनाड़ी इंटरनेट पर भी अपने अल्प ( अल्प ही नहीं, तुच्छ!!) ज्ञान की गगरी छलकाने से बाज नहीं आते, लेकिन हम किसी भी पेशे में हैं और जब कोई आम आदमी हमारे पास किसी काम के लिये आता है हम उस से कैसे व्यवहार करते हैं----यह केवल हम ही जानते हैं------कमबख्त कोई टैस्ट नहीं बना, कोई ऐसा गैजट नहीं बना, कोई ऐसा बॉस नहीं बना जो कि इस एरिया में अपने अधीन काम करने वालों का मूल्यांकन कर सके ------केवल हमारी अंतर्रात्मा ही है जो सब कुछ बिल्कुल सच जानती है। हमें उसे ही धोखा नहीं दे सकता। बात केवल इतनी सी है कि हमने जितना भी कुछ पढ़ा लिखा है ---वह तो हमारे किसी आम आदमी के साथ दो-मिनट के इंटरएक्शन के दौरान ही सामने आ जाता है।

मैं ऐसा समझता हूं कि हमें जितना ज़्यादा हो सके किसी भी आम आदमी को पूरा महत्व देना चाहिये। मेरी सोच मेरे कान खींच खींच कर मुझे यह कभी भूलने नहीं देती कि यार, खास को सब महत्व देते ही हैं, किसी आम बंदे से खास की तरह पेश आओ तो जानें।

कुछ साल पहले मैं यह बहुत सोचा करता था कि यार, सुबह उठो---हास्पीटल जाओ, वही रूटीन, वही बातें, वही काम। लेकिन मैंने फिर सोचना शुरू किया कि सब कुछ बाकी तो ठीक है वही है लेकिन इस हास्पीटल सैटिंग में भी एक सैंट्रल करैक्टर तो बिलकुल नया है -----मरीज़ रोज़ाना नये हैं......तो फिर क्यों न हो हमारा व्यवहार भी हर आने वाले से तरो-ताज़ा, उत्साह से भरा हुआ-----एक मरीज़ तो चंद मिनटों के लिये ही डाक्टर के पास आता है लेकिन इसी दौरान वह एक इंपरैशन बना लेता है।

किसी बैंक में जायें ----बिना आंख ऊपर उठाये ही स्टाफ एक काउंटर से दूसरे ---दूसरे से पांचवे की तरफ़ रैफर करते रहते हैं.....लेकिन अचानक एक महान आत्मा दिखती है जो कि एक अनपढ़ देहाती को दो-मिनट लगा के कुछ समझा रही होती है-----यही लाइफ है, बाकी कुछ नहीं .........
कुछ साल पहले एक जगह पढा था .....
When you are good to others,
You are best to yourself. !!

हम लोग कहीं भी सफर कर रहे हैं तो बहुत ज़्यादा चांस हैं कि हम लोग अपने सहयात्रीयों को दोबारा जिंदगी में दोबारा नहीं मिलेंगे। अगर हमें यह अवेयरनैस आ जाये तो कैसे हम लोग हर दूसरे बंदे के साथ चार-इंच की सीट के लिये नोक-झोंक कर सकते हैं या कैसे किसी को देखते ही थोड़ा और चौड़ा हो कर बैठने की कोशिश भी कर सकते हैं।

पता नहीं आज पोस्ट लिखनी शुरू तो कर दी लेकिन कोई अजैंडा था नहीं , वैसे ब्लागिंग है भी तो यही कि लिख कर हल्का हो लें, और क्या । एक बात तो लिखना भूल ही गया कि कईं बार किसी पोस्ट पर ऐसा कमैंट मिलता है कि वो हमेशा हमेशा के लिये याद रह जाता है, हमेशा के लिये कुछ नया, कुछ बढ़िया लिखने के लिये पुश करता रहता है।
ज़िंदगी का कोई भी पहलू ले लें, कोई भी क्षेत्र हो, आफीसर हैं, चपरासी हैं, सेठ हैं, खोमचे-वाले हैं, शायद कोई खास फर्क इस से पड़ता नहीं है – अगर हम लोगों ने सब के साथ बहुत ही बढ़िया ढंग से पेश आने पर मास्टरी कर ली है तो है बात ठीक, वरना तो बस .......बी.ए किया है एम ए किया ...लगता है सब कुछ ऐवें किया ….हाल चाल ठीक ठाक है !!!

2 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल सही कह रहे हैं । मुझे भी ऐसा ही लगता है । अपनी डायरी में मैंने ऐसे बहुत से लोगों के बारे में लिख रखा है जो सदा याद आते हैं । ये क्या काम करते हैं, कितना कमाते हैं यह बात इन्हें मेरे लिए इन्हें महत्वपूर्ण नहीं बनाती अपितु इनके काम करने का तरीका, इनका बर्ताव ही इन्हें यादगार बनाए हुए है । कुछ के बारे में मैंने अपने ब्लॉग में लिखा भी है बहुतों के बारे में पोस्ट करना शेष है ।
    घुघूती बासूती

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  2. बहुत सुंदर लिखा आप ने लेकिन जिन्हे हम खास समझ कर इज्जत देते है , वह इसे कई बार समझ नही सकते ओर इसे चम्मचा गिरी समझते है, ओर किसी आम को आप इज्जत दे तो वह आप की भावनओ की इज्जत भी करता है.
    धन्यवाद.
    बस दो मिठ्ठे बोल भी शेर को गुलाम बना सकते है

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