जब मैं अखबारों के लिये लिखा करता था तो पहले किसी भी रफ कागज़ पर आईडिया लिख लिया करता था.....फिर किसी दूसरे कागज़ पर लेख लिखता था.....एक-दो बार लिखने के बाद मैं या तो उसे फेयर कर लिया करता था...अन्यथा कंप्यूटर में डाल कर तुरंत फैक्स कर दिया करता था।
लेकिन अगर मुझे कोई लेख लिखने से पहले ही फेयर कागज़ थमा दे, तो मुझे लगता है कि मैं तो कुछ भी लिख ही ना पाऊं। पता नहीं मेरे साथ ऐसा क्यों है कि मैं किसी रद्दी पेपर जैसे पेपर पर ही अपने विचारों का खाका खींच सकता हूं। यह मैं बहुत बार सोचता हूं। और इन रद्दी कागज़ों में से मेरा सब से फेवरट है.....वह कागज़ की पैकिंग जिस में हम लोगों के ग्लवज़ पैक हो कर आते हैं। मेरे हास्पीटल के रूम में ये कागज़ प्रतिदिन कितने पड़े होते हैं और इन पर मैं एक-दो मिनट की फुर्सत के दौरान अपने आइडिया लिखता रहता हूं और जेब में बस इन्हे ठूंसता रहता हूं। उस के बाद पता नहीं कब किस कागज़ के भाग्य खुलते हैं..............जी, आप बिलकुल ठीक सोच रहे हैं कि तू अगर इतने रद्दी कागज़ इक्ट्ठे करता है तो फिर तेरा स्टडी-रूम कबाड़खाना तो लगना ही है। कईं बार मुझे कोई रद्दी कागज़ नज़र नहीं आता तो मैं अखबार के साथ आये हुये तरह तरह के हैंड-बिल्ज़ की पिछली तरफ़ भी अपनी कलम से खेल लेता हूं। और कईं बार किसी इस्तेमाल किये हुये एनवेल्प के इधर-उधर लिख कर मन को ठंड़ा कर लेता हूं।
मुझे ऐसा लगता है कि मैं इन रद्दी कागज़ों के ऊपर जब कलम चलाता हूं ना तो मुझे पूरी आज़ादी का अहसास होता है.....मैं शत-प्रतिशत पूरी स्वच्छंदता का अनुभव करता हूं.....मुझे लगता है कि जो भी मैं लिखूंगा, बस अपनी मरजी से लिखूंगा......यह मेरा एरिया है.....इस में कोई नहीं घुस सकता ......इस में मुझे किसी की टोका-टोकी पसंद नहीं है.....मुझे लगता है कि मैं अपने इलावा केवल इस रद्दी कागज़ के ही ऊपर ही तो अपना दिल खोल सकता हूं.....मुझे शायद यह भी तो लगता है किसी साफ़-सुथरे, फेयर कागज़ की तुलना में यह रद्दी कागज़ मेरे जैसा कमज़ोर भी है.....मैं शायद सोचता हूं कि इस मैले-कुचैले कागज़ में भी ढेरों कमज़ोरियां हैं , इसलिये यह मुझे क्या कहेगा!......मैं सोचता हूं कि यह मेरा सच्चा साथी है , मेरा हमराज़ है, मेरे दुःख-सुख का साझीदार है, इसलिये इस के ऊपर जब मैं अपनी कलम से अपने विचारों का कोई खाका खींच रहा होता हूं तो यह विचार मन में आते हैं कि यार, मैं भला इस बेकार से दिखने वाले ( दो-कौड़ी के भी नहीं!!) कागज़ को भी बेइमानी से लिख कर शर्मिंदा क्यों करूं। मुझे यह अहसास है कि इस के साथ किसी तरह की चालाकी करना अपनी मां के साथ फरेब करने के बराबर है। इन सब बातों की वजह से मैं इस मैले-कुचैले कागज़ों को अपना सब से बड़ा हमराज़ मानता हूं। लेकिन मेरी खुदगर्ज़ी की इन्तहा भी तो ज़रा देखिये.......इन का और मेरा साथ केवल लैप-टाप में लिखने तक का ही होता है।
इन कईं तरह के रफ कागज़ों को अपने सामने रख के मैं अपने लैप-टाप पर बैठ जाता हूं और जो भी ये रद्दे कागज़ मुझ से लिखवाते हैं मैं लिखता जाता हूं। लिखने के बाद या तो यहीं से लेख को पब्लिश कर देता हूं , नहीं तो पैन-ड्राइव में लेकर दूसरे किसी डैस्क-टाप से पब्लिश कर देता हूं।
सीधी सी बात करूं तो मुझे इन रद्दी कागज़ों पर कुछ भी लिखना दुनिया में किसी भी चीज़ की परवाह किये बिना अपने बचपन में मिट्टी के साथ खेलने के दिनों की याद दिलाता है.......शायद यही तो अब अपने बचपन के दिन जी लेने का एक बहाना है.....मुझे अकसर याद आते हैं वो दिन जब हम लोग गीली-रेत में खूब भागा-दौड़ा करते थे, अपना पांव उस में धंसा कर बड़े बड़े घर उस रेत में बना डालते थे ....अगले ही पल उसे गिरा कर नया घर बना डालते थे......और फिर आपस में एक दूसरे से पूछते थे कि देख, मैंने कितना बड़ा बना लिया...................जी हां, जैसे अब टिप्पणीयों की संख्या और आज कितनी बार पढ़े गये के आंकड़े ये सब बातें हमारे लेखन के बारे में बताते रहते हैं।
लेकिन मेरे दुःख-सुख में इतना साथ निभाने के बाद, मेरा मन निर्मल करने वाले , मुझे सुकून देने वाले उस रद्दी कागज़ का क्या हश्र होता है.....जानना चाहेंगे ??............लेख छपते ही पहली फुर्सत में उसे नोच कर रद्दी की टोकड़ी के हवाले कर दिया जाता है....जी हां, बिल्कुल उसी तरह जैसे अपना मतलब निकल जाने के बाद हम उसी बंदे से आंखें चुराने में ज़रा भी नहीं हिचकाते। वाह.....भई ....वाह.......हम इंसानों की भी क्या फितरत है......अपना उल्लू सीधा करने के बाद अगर हम एक छोटे से रद्दी के कागज़ को नहीं झेल सकते तो आदमी की क्या बिसात कि हमारे सामने हमारा उल्लू सीधा होने के बाद टिक भी पाए !!
इस रद्दी कागज़ से एक और बात याद आ रही है....जब चुनाव के दिनों में कपड़े के बैनर जगह-जगह लगे देखता हूं और अगले दिन किसी नुक्कड़ पर बैठे भिखारी को उस से अपना तन ढांप कर लंबी ताने देखता हूं तो मन ही मन एक विजय का , एक संतोष का, एक सुकून का अहसास करता हूं.......इतना संतोष कि मैं ब्यां नहीं कर पा रहा हूं.......क्योंकि बिना वजह अभी से ही भावुक हो रहा हूं.......वैसे भी अभी तो चुनाव होने में कईं महीने पड़े हैं !!
हर वस्तु पुनर्निर्माण के लिए प्रक्रिया में जाएगी यह प्रकृति का नियम है। किसी दिन हम और आप भी। दुखी हो कर कुछ नहीं होगा। हर चीज का पूरा इस्तेमाल करें जब तक वह इस प्रक्रिया में नहीं जाती।
जवाब देंहटाएंजरा मुस्कुराइए!
दिनेश जी ने सही कहा है.
जवाब देंहटाएंवैसे पहले मैं भी आपके फार्मूले पर ही चलता था. पर आजकल तो सीधा कंप्युटर
"सीधी सी बात करूं तो मुझे इन रद्दी कागज़ों पर कुछ भी लिखना दुनिया में किसी भी चीज़ की परवाह किये बिना अपने बचपन में मिट्टी के साथ खेलने के दिनों की याद दिलाता है.......शायद यही तो अब अपने बचपन के दिन जी लेने का एक बहाना है.....मुझे अकसर याद आते हैं वो दिन जब हम लोग गीली-रेत में खूब भागा-दौड़ा करते थे, अपना पांव उस में धंसा कर बड़े बड़े घर उस रेत में बना डालते थे ...."
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात याद दिला दी!!
हां, सृष्टि की प्रक्रिया अलग अलग लोगों में भिन्न होता है. जो आपके लिये सबसे अच्छा है उसे न छोडें!!
सही डाक्टर साहब। रद्दी कागज पर लिखना स्लेट पर लिखने जैसा मजेदार है। पूरी फ्रीडम होती है विचारों और शब्दों को बदलने/परिवर्धित करने की!
जवाब देंहटाएंकागज्पं पर लिखने की आदत ही जाती रही. अब तो हम हैं, हमारी तन्हाई और कम्प्यूटर.
जवाब देंहटाएंदिनेश ही बात में दम है, साथ ही हम भी कहते हैं:जरा मुस्कुराइए!