यह तो तय ही है कि दवायें बहुत महंगी है और दावे चाहे जितने जो भी हों, आंकड़े कुछ भी कहें( आंकड़ों की ऐसी की तैसी !)…लेकिन दवाईयां आम आदमी की पहुंच से दूर हो गई हैं। लेकिन अब आप सोचिये कि महंगी दवाईयां खरीद कर जब कोई आम बंदा अपने किसी परिजन को उन्हें देने के लिये भागा हुया जाता है तो अगर उसे पता हो कि वे तो नकली दवाईयां हैं, मिलावटी दवाईयां हैं, तो उस पर क्या बीतेगी ?......
अकसर लोग एक दूसरे ट्रैप में भी फंस जाते हैं.......कईं नीम-हकीम टाइप के डाक्टर अपनी टेबल पर ही बिल्कुल सस्ती सी, लोकल टाईप की दवाईयां सजा लेते हैं और उन्हें मरीजों को डायरैक्ट्ली बेचने लगते हैं। मुझे याद है मेरा एक सहपाठी कालेज के दिनों में अपने एक पड़ोसी नीम-हकीम के बारे में बताया करता था कि उस के बच्चे सारा दिन कैप्सूल भरते रहते थे.....जब हम लोग जिज्ञासा जताते थे तो उस ने एक दिन बताया कि खाली कैप्सूल बाजारा में 10-15 रूपये के एक हज़ार मिल जाते हैं और वे लोग उस में चीनी और मीठा –सोडा भरते रहते थे.....हमारा सहपाठी बताया करता था कि जब भी कभी उन के घर में खेलने-वेलने जाते थे तो हमें भी कुछ समय के लिये तो इस काम में लगा ही दिया जाता था। तो, चलिये इस बात को इधर ही छोड़ता हूं ॥वरना मेरी पोस्ट इतनी लंबी हो जाती है कि आप लोग चाहे कुछ मुझे कहें या ना कहें ...लेकिन मुझे इस का अहसास हो जाता है।
अच्छी तो आज यह लिखने के पीछे क्या कारण ?......केवल इतना ही कारण है कि मैंने परसों ( 17मई 2008) की टाइम्स ऑफ इंडिया में नकली दवाईयों के ऊपर एक बहुत ही बढ़िया संपादकीय लेख पढ़ा है। उस संपादकीय में यह भी दिया गया था कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार सारे विश्व में जितनी भी नकली दवाईयां पैदा होती हैं उन का 35 प्रतिशत भारत ही में बनता है। और यू।पी, पंजाब एवं हरियाणा में तो इस के गढ़ हैं। एक अन्य संस्था के अनुसार तो सारे विश्व की में जितनी भी नकली दवाईयां सरकुलेट होती हैं उन में से 75 फीसदी तो भारत से ही चलती हैं। आप भी कांप गये होंगे ये आंकड़े देख कर !!
संपादकीय में कुछ यह भी लिखा था कि अब भारत के ड्रग-कंट्रोलर जनरल द्वारा विभिन्न तरह की दवाईयों की क्वालिटी की जांच हेतु लगभग 31000सैंपलों का परीक्षण किया जाना है।
आप यह सुन कर कुछ ज़्यादा मत चौंकियेगा कि ऐसी रिपोर्ट हैं जिन से पता चला है कि नकली इंसुलिन के टीके लगने से शूगर के रोगियों की मौत हो गई और टीबी के मरीज नकली दवाईयां खाने की वजह से पहले से भी ज़्यादा बीमार हो गये।
उस संपादकीय में एक प्रश्न यह भी उठाया गया कि दवाईयों के दामों को तो बहुत अच्छे ढंग से नियमित किया जाता है लेकिन जहां तक दवाईयों की गुणवत्ता का संबंध है वहां यह वाली टाइटनैस नहीं दिखती । क्या इस का कारण यह है कि भारत में इतनी ज़्यादा दवाईयों की टैस्टिंग के लिये मूलभूत ढांचे की ही कमी है ?...इसलिये संपादक ने इस तरफ इशारा दिया है कि भारत के ड्रग-कंट्रोलर जनरल द्वारा जो स्टडी की जानी है उसे ड्रग-टैस्टिंग, ड्रग-क्वालिटी मॉनीट्रिंग के बारे में भी पूरी जांच-पड़ताल करनी होगी और इस एरिया में सुधार लाने के प्रयास करने होंगे।
मीडिया डाक्टर की टिप्पणी ---- मैं तो बस यही सोच सोच कर परेशान हो जाता हूं कि जो निर्दोष लोगों को बिना वजह मारते हैं उन्हें हम आतंकवादी कहते हैं ना, तो फिर ये नकली दवाईयां बनाने वाले , उन्हें पास करने वाले, उन्हें बेचने वाले क्या आतंकवादी नहीं हैं......मैं तो इन सब को भी आतंकवादियों का ही दर्जा देता हूं। कागज़ के टुकड़ों के लिये बिल्कुल निर्दोष जनता की ज़िंदगीयों से खिलवाड़। दो-तीन साल पहले एक बार खबरों में आया तो था कि नकली दवाईयों बनाने वालों और बेचने वालों के लिये मौत की सजा मुकर्रर हुई है ,लेकिन इस पर सही प्रकाश तो अपने चिट्ठाजगत के बड़े वकील साहब दिनेशराय द्विवेदी जी या अदालत ब्लाग वाले काकेश ही डाल सकते हैं कि ऐसा क्या कोई कानून बना हुया है और अगर है तो हमें यह भी तो ज़रा बता दें कि आज तक कितने लोगों को इस कानून के अंतर्गत सज़ा हो चुकी है।
अब आते हैं एक –दो पते की बातों पर......दोस्तो, क्या आप को लगता है कि आंकड़ों से किसी का पेट भरा है, क्या बड़े बड़े दावों से सब कुछ ठीक हुया है ....लेकिन जिस परिवार के एक आदमी की भी जान ये नकली दवाईयां ले लेती हैं ना , केवल वह परिवार ही जानता है कि इन नकली , मिलावटी दवायों की त्रासदी क्या है !
एक बात और भी तो है ना कि ज्यादातर लोगों के पास बाजार से खरीदी दवायों का कोई बिल ही नहीं होता.......मैं बस में चड़े किसी काले बैग वाले चुस्त चालाक सेल्स-मैन से खरीदी दर्द-निवारक दवाईयां की या आंख में डालने वाली बूंदों की बातें नहीं कर रहा हूं.....इन में क्या होता है अब तक तो हमारी समझ में आ ही जाना चाहिये.....वैसे मैं बात कर रहा हूं कैमिस्ट के यहां से खरीदी दवाईयों से जिन का बिल अकसर लोग लेते नहीं हैं।
तो एक पते की बात यह है कि आप कभी भी कैमिस्ट से दवाई लें तो उस से बिल लेने में किस तरह से झिझक महसूस न करें......आखिर यह आप की सेहत का मामला है। हर आदमी यही सोच रहा है कि उसे थोड़ा नकली दवाईयां थमाई जायेंगी....लेकिन क्या पता आप ही नकली दवा खाये जा रहे हों !!
अगर आप कैमिस्ट से खरीदी दवाईयों का बिल ले रहे हैं तो आप दवाईयों की क्वालिटी के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं क्योंकि उस बिल में उसे दवाई के बाबत सारा ब्योरा देना होता है....बैच नंबर, ब्रैंड-नेम, एक्पायरी डेट आदि.......और अगर कोई दवा का अनयुज़ूअल प्रभाव होता है तो आप अपना दुःखड़ा किसी तो बता सकते हैं ....वरना कौन करेगा यकीन आप की बात का ?
एक पते की बात मैंने अभी और भी करनी है ...वह यह कि आप लोग शायद महंगी बड़ी रकम की दवाईयां खरीदते समय तो बिल विल ले लेते होंगे लेकिन आमतौर पर मैंने लोगों में छोटी मोटी दवाईयों के लिये बिल मांगने में इतनी झिझक देखी है कि क्या बताऊं। लेकिन यह तो हमें याद रखना ही होगा कि जैसे एक चींटी हाथी को नाच नचा सकती है उसी तरह से केवल एक नकली या मिलावटी टेबलेट ही काफी है हमारी जिंदगी में ज़हर घोलने के लिये।
एक बात जो मैंने नोटिस की है कि हम लोग अकसर अपने पड़ोस वाले कैमिस्ट से तो बिल मांगने में कुछ ज़्यादा ही झिझकते हैं क्योंकि वो कुछ ज़्यादा ही फ्रैंडली सा दिखने लगता है.....लेकिन यह बात हमारे लिये ठीक नहीं है। जगह जगह कैमिस्ट की दुकानें खुली पड़ी हैं.....तो किसी और जगह से यह दवाईयां खरीदने में क्या हर्ज हैं ....जहां आप बेझिझक हो कर बिल मांग सकें। यकीन मानिये यह आप ही के हित में है.....भले ही बुखार के लिये टेबलेट्स का एक पत्ता ही खरीद रहे हों, बिल जरूर लें, जरूर लें......जरूर लें...............अगर अभी तक ऐसी आदत नहीं है, तो प्लीज़ डाल लीजिये.....अगर किसी फैमिलियर से कैमिस्ट से यह बिल मांगना दुश्वार लगता है तो अपनी और अपनों की सेहत की खातिर किसी दूसरे कैमिस्ट के यहां से दवाईयां आदि खरीदना शुरू कर दीजिये.......................यह निहायत ज़रूरी है........बेहद महत्त्वपूर्ण है..........क्योंकि केवल एक यही काम है जो आप लोग इन नकली दवाईयों से बचने के लिये कर सकते हैं........वरना अगर आप अगर सोचें कि आप असली-नकली में फर्क को ढूंढ सकते हैं, खेद है कि यह आप न कर पायेंगे............हम लोग तो इतने सालों में यह काम नहीं कर पाये।
वैसे मेरा प्रश्न तो वहीं का वहीं रह गया............क्या नकली दवाईयों से किसी तरह से संबंधित लोग...बनाने वाले, पास करने वाले, बेचने वाले हैं खूंखार आतंकवादी नहीं हैं..................अगर हैं तो चीख कर, खुल कर कहिये अपनी टिप्पणी में।
अपन तो बस होम्योपैथ और आयुर्वेद में ही विश्वास करते हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत डर लगता है ऐसी चीजों से.
डाक्टर साहब ! आपकी भावनाओ की कद्र करता हूँ। नकली दवा से जुडा हर व्यक्ति आतंकवादी है।रही बात महगीं दवा की तो,यह बात सत्य है,दवा सस्ती होनी चाहिए। पर एक बात आप भूळ गए,कि मरीज के लिए दवा का चयन डाँक्टर ही कर सकता है,और एक ही दवा अलग अलग कंपनिया अलग अलग दाम मे बेचती है। अक्सर महँगी दवा बेचने वाली कंपनी अच्छी मार्केटिंग के नाम पर डाक्टरो को सर्विसेस (??????) देकर महँगी दवा लिखवाती है,मरीज को तो कुछ पता ही नही चलता।बहरहाल आपने मुद्दा उठाया ये तारीफ और कमाल की बात है।आपको ढेर सारी बधाई।
जवाब देंहटाएंये तो आस्तीन के साँप हैं. सब जनते हुए भी कोई कुच नहीं कर सकता. जरूरत पड़ने पर इन्हीं लोगों के पास जाना पड़ता है.
जवाब देंहटाएंकरीब सन् 1995 की बात है, मेरी माताराम ने प्रिस्क्रिप्शन की दवाएं खरीदने के बाद बिल मांगने की गलती कर ली.हमारे परिवार के परिचित होते हुए भी दुकानदार और नौकरों ने बिल देने में २०-२५ मिनट लगा दिए. दुकान पर कोई खास संख्या में ग्राहक भी नहीं थे उस समय, पर जितने भी थे उन सबको निपटा कर आख़िर में बिल दिया गया. उसके बाद से आजतक मेरी तो बिल मांगने की हिम्मत नहीं पड़ी.
जवाब देंहटाएंकुछ फर्मेसिस्ट जो दवाये वापस लौटने की सुविधा देते हैं उनमें से ज्यादातर टेक्स बचाने के लिए कच्चा/स्टेम्प लगा बिल थमा देते हैं.
आपसे सहमत हूँ. निश्चित ही आतंकवादी ही हैं. बहुत सार्थक और जरुरी मुद्दे पर चर्चा की है आपने. बधाई.
जवाब देंहटाएंआंतकवादियों को मिलने वाली सजा से भी अधिक कठोर सजा के लायक हैं ये लोग लेकिन हमारी निकम्मी सरकारों के पास ये सोचने का समय कहाँ है. सरकारें तो ख़ुद को बचाने में ही सारा समय निकाल देती हैं जनता को ऐसे लोगों से बचाने का समय कहाँ से लायेंगी.
जवाब देंहटाएंआपसे असहमत तो हो ही नहीं सकते। बहुत समय पहले एक पत्रिका ने भारत में नकली दवाईयों की प्रतिशत ३० बताई थी। दवाई का बिल लेना तो आवश्यक है। मैं तो केवल एक ही दुकान से सदा दवा लेने में विश्वास करती हूँ और बिल भी लेती हूँ। दवाई हमारे जीवन का भोजन से भी अहम् भाग बन चुकी है क्योंकि उपवास के दिन भोजन तो छूट जाता है पर दवा नहीं। मेरी डॉक्टरों से विनति है कि लगातार दवाइयों पर जीने वालों, जैसे मधुमेह , हृदय रोगियों आदि के लिए तो कम से कम जहाँ तक हो सके जैनरिक दवा ही लिखें। कई बार तो मन होता है डॉक्टर से कहने का कि क्या कोई कम मंहगी दवा नहीं बता सकते।
जवाब देंहटाएंएक और बात मुझे समझ नहीं आती कि दवाइयों पर कर क्यों लगाया जाता है। व्यक्ति पहले ही बीमारी की मार से परेशान होता है ऊपर से कर भी देता है। या तो यह कर गरीबों को मुफ्त दवाई दिलाने के लिए लगाया जाए या नहीं ही लगाया जाए। भारत में गरीबी व ॠण का एक मुख्य कारण बीमारी व उस पर होने वाला खर्चा है।
नकली दवा बेचने वाले आतंककारी से भी गए गुजरे हैं । आतंककारी तो मौत मुफ्त में बाँटते हैं परन्तु ये तो जीवन के नाम पर मौत बेचते हैं। हम अनजाने में स्वयं अपनी मौत खरीद लाते हैं।
घुघूती बासूती
डाक्टसाब, बढ़िया लेख । आपसे सहमत हूं, चिंताओं में साझीदार भी।
जवाब देंहटाएंसही मुद्दे पे सार्थक आलेख -
जवाब देंहटाएं-लावण्या
अपका ये पोस्ट पढकर मुझे एक घटना याद आ गई.. लगभग 5 साल पहले की होगी.. मुझे फोटोसॉप साफ़्टवेयर की अच्छी जानकारी थी.. एक दिन मेरा एक बहुत ही करीबी मित्र मेरे पास आया और एक दवाई का लोगो दिखाते हुये बोला की क्या तुम बिलकुल ऐसा ही डिजाईन कर सकते हो? मेरे जीजाजी को इसकी जरूरत है.. मैंने जब ज्यादा पूछताछ की तो उसने बताया की उनको कुछ घाटा हो गया है सो वो इसके जरिये अपना घाटा कम करना चाहते हैं.. मैंने उसे मना कर दिया, वो मुझसे बहुत गुस्साया और कई दिनों तक बात नहीं किया क्योंकि उसे उम्मीद नहीं थी की उसका सबसे अच्छा मित्र उसे मना कर देगा.. कुछ दिनों के बाद उसकी मां की तबियत बहुत खराब हो गई.. जैसे ही मुझे पता चला वैसे ही मैं लगभग 3-4 रातों तक उसके साथ हास्पिटल में रहा और जितना मुझसे बन परा किया.. उस समय उसका पाला नकली दवाईयों से परा और तब जाकर उसे अपनी गलतियों का अहसास हुआ.. खैर इसका उज्जवल पक्ष ये रहा की उसे अहसास हुआ और तब से लेकर आज तक वो किसी गलत काम में नहीं परा है..
जवाब देंहटाएंवाजिब बात .........हमारी सहमति.....
जवाब देंहटाएंसही है की ये आतंकवादियों से भी बड़े आतंक वादी है।
जवाब देंहटाएंआपकी भावनाओ की कद्र करता हूँ।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सच कह रहे हैं आप.
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