रविवार, 25 मई 2008

वो फुल मस्ती वाले दिन !!

अभी अभी बारिश थमी है...मई के महीने के इन दिनों में बारिश.....सुहाना मौसम....हां,हां, मौसम ने करवट ली है...आज से नहीं पिछले तीन हफ्तों से यह मौसम बेहद हसीन सा बना हुया है। आज अखबार में तो आया है कि इस तरह की करवट के परिणाम कितने भयानक हो सकते हैं, लेकिन इस समय तो बस यूं ही लग रहा है कि चलो, यारो, कल जो होगा, देखा जायेगा, अभी तो इस मौसम का लुत्फ उठा लो। बस, इस समय बगीचे में झूले पर बैठे बैठे अपने बचपन की बरसातों वालों दिन याद आ गये.....

एक बात तो यह याद आई कि हम लोग बरसात के मौसम में इन झूलों के साथ कितनी मस्ती किया करते थे। सोच कर के इतनी हंसी आती है कि क्या कहूं। हमारे घर के बाहर एक बहुत बड़ा पेड़ हुया करता था जिस पर एक मोटी सी रस्सी के साथ पींघ ( झूला ) बनाया जाता था। मजबूत पेड़ और बहुत ही मजबूत रस्सी की वजह से कोई टेंशन नहीं होती थी......बस, जितनी हिम्मत हो, जितना ज़ोर हो, खींच लो उतनी ही ऊंचाईंयों तक..............कितना मज़ा आता था जब हमारे साथ कोई झूलने वाला डर रहा होता था। झूला झूलने वालों के साथ साथ आस पास खड़े बीसियों लोगों का भी अच्छा खासा मनोरंजन हो जाया करता था। फट्टा हम उस झूले को झूलते समय एक लकड़ी का मजबूत सा भी अकसर उस पर टिका लिया करते थे। सचमुच वो दिन बेहद मज़े वाले थे......लेकिन इतने सालों के बाद भी पता नहीं ऐसा लग रहा है कि ये सब बातें कल की ही हैं। पता नहीं इस समय को भी कौन से पंख लगे हुये हैं......ऐसा फुर्र से उड़ जाता है।

दूसरी याद जो आज सता रही है ...वह है सूआ खेलना। अब सूआ मैं आप को कैसे समझाऊं.....अच्छा तो सुनिए कि हम किसी बोरे वगैरा को सिलने के लिये सूईं की जगह एक बड़ी सी सूईं इस्तेमाल करते हैं ना ...जिसे सूआ कहते हैं। लेकिन जिस सूये के खेल की मैं बात कर रहा हूं यह लगभग डेढ़-दो फुट का नुकीला सा हुया करता था।

यह सूये वाली गेम केवल तब ही खेली जा सकती थी जब ताजी ताजी बरसात बंद हुई होती थी। हम लोग सीधे पास ही एक ग्राउंड की तरफ़ लपक पड़ते थे ...अभी बरसात पूरी तरह से रुकी भी नहीं होती थी। वहां जाकर उस सूये से ही गीली जमीन पर एक गोल सा आकार बनाया जाता था। टॉस करने के बाद, हमारा खेल शुरू हुया करता था.....जो टॉस जीत जाया करता था( टॉस भी तो सिक्के विक्के से थोड़े ही किया जाता था...अगर इतने सिक्के ही होते तो वहां हम सूया खेलने की बजाये कहीं बाज़ार ना भाग गये होते......सो टॉस के लिये भी पास ही पड़ी कोई ठीकरी वीकरी से काम चला लिया जाता था। ).....

तो टॉस जीतने वाला उस गोलाकार में खड़ा होकर ज़ोर से जमीन पर सूआ मारता था, अच्छा, वाह, यह सूआ तो धंस गया ज़मीन में........फिर उसे वहां से निकाल कर आगे मारता और फिर आगे से आगे चला जाता .....इस सारी यात्रा में दूसरा लड़का भी साथ ही होता । यह सिलसिला बहुत रोचक होता था....अभी याद आ रहा है कि किसी जगह पर एक-आध मिनट के लिये रूक भी जाते थे कि सूआ कहां मारें कि ज़मीन में धंस जाये.....ऐसा ना हो कि यह बिना धंसे ही ज़मीन पर गिर जाये.......वैसे तो यह खेल में अकसर चार-पांच सौ मीटर तक निकल जाना कोई बड़ी बात नहीं हुया करती थी.....लेकिन जैसे ही सूया ज़मीन में धंसने की बजाये गिर जाता, वहां से लेकर उस गोलाकार आकृति तक ( जो हमनें गेम के शुरू में बनाई होती थी).....दूसरे लड़के को हमें अपनी पीठ पर लाद कर लाना होता था. अगर तो वह सही सलामत बिना गिराये हमें उस गोलकार आकृति तक ले आता तो हमारी पारी खत्म और फिर उस की पारी शुरु.....वरना जहां पर वह हमें गिरा देता था या उस का सांस इतना फूल जाता था कि वह हमें उतरने को कह देता था, वहीं से फिर हमारा सूया जमीन में धंसना शुरू हो जाया करता था....( भगवान का शुक्र है तब इतना वज़न नहीं हुया करता था...हमारा ही नहीं, सभी बच्चों का ....वरना सभी की रीढ़ की हड्डियां हिल विल जाया करतीं। आज सोच रहा हूं कि पता नहीं हम यह सूया भी बरसात होते ही हम कहां से झटपट निकाल लिया करते थे......तुरंत हाजिर हो जाया करता था। तो, आप को भी हमारी इस बचपन की गेम में शामिल हो कर मज़ा आया कि नहीं !!

आप भी क्यों अपने बचपन के दिनों की कुछ गेम्स हम सब के साथ शेयर क्यों नहीं कर रहे ?......हम सब इंतज़ार कर रहे हैं.......कुछ समय तक तो इन राष्ट्रीय-अंतरर्राष्ट्रीय मुद्दों के बारे में सोचना बंद करिये और लौट चलिये अपने बचपन की ओर !!

7 टिप्‍पणियां:

  1. खेल बहुत खतरनाक था। सुआ खेलते हुए एक खिलाड़ी ने सुआ जमीन पर मारा गीली मिट्टी की परत के नीचे था पत्थ। नतीजा, सुआ पलट कर आँख की भौंह पर आ लगा। खेल बंद, और दौड़े मामा वैद जी के घऱ उन्होंने आँख में गए खून को साफ किया और मरहम पट्टी की। आज भी भौहं पर मामूली निशान हे।
    और जरा सा निशाना चूक न गया होता तो हमारा एक बाजार बंद नजर आता।
    गनीमत है कि ब्लॉग को बच्चे नहीं पढ़ते।

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  2. बहुत बढ़िया संस्मरण जी। ये दोनो काम हमने भी बचपन में किये हैं। पर अब लगता है कि बचपन जल्दी खत्म हो गया।
    चलिये कम से कम ब्लॉग में उसे लिखा-पढ़ा जा सकता है!

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  3. वाह, क्या खेल था ! हमने नहीं खेला।
    घुघूती बासूती

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  4. सुआ में तो अपना गुद्दा भी बड़ा सालिड था. अब आप सोचो कि हमें गोल तक उठा कर ले जाना...हमेशा बीच रास्ते से ही फिर से गुद्दा शुरु होता. हा हा!!!

    हम तो अभी भी खेलने तैयार हैं मगर कोई और हमें देखकर यह जहमत लेने तैयार ही नहीं. वैसे उतना खतरनाक भी नहीं था, उससे ज्यादा तो गुल्ली डंडे का खेल था.

    कभी यह पोस्ट पढ़ियेगा:

    http://udantashtari.blogspot.com/2007/09/blog-post_10.html

    बढ़िया लगा पढ़कर.

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  5. बचपन में जाने से अच्छा और क्या हो सकता है, पर ना तो समय है ना साथी :(

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  6. कभी खेला नही है पर आपका लेख पढ़कर रोमांच हुआ...

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इस पोस्ट पर आप के विचार जानने का बेसब्री से इंतज़ार है ...