शुक्रवार, 11 मार्च 2011

कागज़ के फूलों को सहेजने जैसा शौक है हेयर-कलर का क्रेज़

कंपनियां चाहे कुछ भी ढिंढोरा पीटें, बालों को कलर करने का काम पंगे वाला तो है ही ... लेकिन कल मुझे लगा कि इस के बारे में अकसर हम लोग केवल अपने तक ही सोच कर सीमित रह जाते हैं ... इस के एक बहुत ही अहम् पहलू के बारे कल में कैसे मैंने भी आज तक सोचा ही नहीं !!

कल बृहस्पतिवार था—हेयर-ड्रैसरों के यहां सन्नाटा छाया रहता है क्योंकि इक्कीसवीं सदी में भी लोग इस भ्रम से निकल नहीं पाए कि हफ्ते के कुछ दिनों में बाल कटवाना, दाढ़ी मुंडवाना गृहों के लिये ठीक नहीं है। बचपन से ही इस तरह की बेतुकी बातों में रती भर भी विश्वास न होने की वजह से हमेशा इन ‘वर्जित’ दिनों में ही हेयर ड्रेसर के यहां जाना ठीक लगता है ... बिल्कुल भी इंतज़ार ही नहीं करना पड़ता।

बाल काटते समय उस 20-22 वर्षीय युवक ने मुझ से पूछा कि डाक्टर साहब, यह फंगल इंफैक्शन क्यों होती है, इस का इलाज क्या है! मेरे पूछने पर उस ने बताया है कि उसे पैरों पर फंगल है, और हाथों पर भी है...मैंने सोचा कि पैरों पर तो शायद वही खारिश वारिश होगी जो अकसर सर्दी-वर्दी के दिनों में कुछ लोगों को हो जाती है।

उसने आगे बताया कि जब वह हेयर-कलर इस्तेमाल करता है तो अचानक उस के पैरों में खारिश बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है। आगे कहने लगा कि वह अपने लिये तो कभी इन कलर्ज़ का इस्तेमाल कभी नहीं करता ... लेकिन ग्राहकों के लिये वह दिन में कईं कईं बार हेयर-डाई का इस्तेमाल करता है...

उस ने आगे हाथ रखे तो मैं समझ गया कि यह चमड़ी रोग है ...Allergic contact dermatitis—मैंने उसे कहा कि दस्ताने डाल के अपना काम किया करे क्योंकि वह कभी भी हेयर-डाई करते वक्त ग्लवज़ नहीं डालता।

और मैंने उसे किसी चमड़ी रोग विशेषज्ञ से संपर्क करने के लिये कहा। अब बात उस की समझ में आ गई थी... मैंने बाहर आते वक्त उसे पैर दिखाने को भी कहा ...वहां पर भी हाथों की तरह ही पैरों की चमड़ी की तकलीफ़ – इसे फंगल समझ कर वह कईं कईं ट्यूबें इस्तेमाल कर चुका है ....वह भी क्या करे .. हिंदी के अखबारों में नित-प्रतिदिन इतने विज्ञापन आते हैं जो किसी को भी कोई भी विशेषज्ञ बना डालें।

उसे तो मैंने कह दिया कि यह सब हेयर-डाई के इस्तेमाल से हो रहा है और उसे चमड़ी रोग विशेषज्ञ से एक बार तो मिल ही लेना चाहिये ...हाथों वाली बात तो समझ में आती है  लेकिन पैरों पर एर्लिजक रिएक्शन हेयर डाई की वजह से ...बात कुछ ज़्यादा समझ में आती नहीं ...मैंने कल इस के बारे में गूगल भी किया ..लेकिन कुछ नहीं निकला...

सोचता हूं फेसबुक पर जो मेरे कुछ मित्र चमड़ी रोग विशेषज्ञ हैं जो अगर इस पोस्ट को पढ़ेंगे तो अपनी टिप्पणी में कृपया लिख दें कि क्या हेयर-डाई के इस्तेमाल करने से पैरों पर भी एलर्जिक रिएक्शन हो सकता है...

एब बार तो है कि अगर दर्द की एक टिकिया लेने से होने वाले रिएक्शन से सारे शरीर में खारिश, खुजली और फ़फोले से पड़ सकते हैं तो हेयर डाई से भी तो रिएक्शन से सब संभव ही तो है। लेकिन सोचता हूं कि यह अटकलबाजी न हो, इस लिये इस के बारे में प्रामाणिक बात का पता चलते ही इस पोस्ट को अपडेट करूंगा... हाथों पर तो उस वर्कर को हेयर डाई की वजह ही से समस्या हो रही है, कह रहा था कि अब दस्ताने डाला करेगा......

कल मुझे लगा कि कईं बार हम लोग केवल अपने बारे में ही सोचते हैं .... लेकिन उन लोगों की सेहत की फ़िक्र भी तो कोई करने वाला होना चाहिये जिन्हें इस तरह की समस्याओं का पता ही नहीं है, और कुछेक केसों में पता होते हुये भी पापी पेट के आगे यह हाथों, पैरों की खुजली घुटने टेक देती है !!

इस पोस्ट के शीर्षक को लिखते समय मुझे उस गीत का ध्यान आ गया जिसे मैं पिछले कईं दिनों से यू-ट्यूब पर ढूंढ रहा था लेकिन मिल नहीं रहा था .. आज अचानक दिख गया, बिल्कुल पोस्ट की बातों से मैच करता हुआ...




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हेयर ड्रेसर के पास जाने से पहले

नीम हकीम खतराए जान...

मैंने कुछ अरसा पहले अपने एक बुज़ुर्ग मरीज़ का ज़िक्र किया था कि वे किस तरह कभी कभी मेरे पास दस-बीस तरह की स्ट्रिप लेकर आते हैं, और मुझ से पूछ कर कि वे तरह तरह की दवाईयां किस किस मर्ज़ के लिये हैं उन के ऊपर छोटी छोटी पर्चियां स्टैपल कर देते हैं।

आज भी वह शख्स आये .. खूब सारी दवाईयां लिफ़ाफे में डाली हुईं ---कहने लगा कि जब मैं मरीज़ों से फ्री हो जाऊं तो उन्हें मेरे पांच मिनट चाहिए।

इस बार वे दवाईयों के साथ साथ पर्चीयां एवं स्टैपर के साथ साथ फैवीस्टिक भी लाए थे। मेरे से एक एक स्ट्रिप के बारे में पूछ कर उस के ऊपर लिखते जा रहे थे – ब्लड-प्रैशर के लिये, गैस के लिये, सूजन एवं दर्द के लिए आदि आदि।


 घर में रखी दो-तीन तरह की आम सी दवाईयों के बारे में जानकारी हासिल करने वाली बात समझ में आती है लेकिन इस तरह से अलग अलग बीमारियों के लिये इस्तेमाल की जाने वाली दवाईयों के ऊपर एक स्टिकर लगा देने से कोई विशेष लाभ तो ज़्यादा होता दिखता नहीं, लेकिन नुकसान अवश्य हो सकता है।


अब अगर घर में रखी किसी दवाई के ऊपर स्टिकर लगा दिया गया है कि यह ब्लड-प्रैशर के लिये है...यह काफ़ी नहीं है। चिकित्सक किसी को भी कोई दवाई देते समय उस के लिये उपर्युक्त दवाई  का चुनाव करते समय दर्जनों तरह की बातें ध्यान में रखते हैं --- जैसे ब्लड-प्रैशर की ही दवाई लिखते समय किसी के सामान्य स्वास्थ्य, उस की लिपिड-प्रोफाइल, गुर्दै कि कार्यक्षमता, उस की उम्र, वज़न आदि बहुत सी बातें हैं जिन्हें ध्यान में रखा जाता है। इसलिये इन दवाईयों पर लेबल लगा देने से और विशेषकर उन पर जिन्हें वह व्यक्ति ले नहीं रहा है, यह कोई बढ़िया बात नहीं है। अब सब तरह की दवाईयां अगर इस तरह से घर में दिखती रहेंगी तो उन के गल्त इस्तेमाल का अंदेशा भी बना ही रहेगा।

 एक दवा मेरे सामने कर के पूछने लगे कि यह किस काम आती है, मेरे यह बताने पर कि दर्द-सूजन के लिये है – फिर आगे से प्रश्न कि घुटने, दांत, सिर, पेट, बाजू, कमर-दर्द, पैर दर्द .....किस अंग की दर्द एवं सूजन के लिये ....अब इस तरह की बात का जवाब देने के लिये उन की पूरी क्लास लेने की ज़रूरत पड़ सकती थी ..... संक्षेप में मैंने इतना ही कहा कि इस तरह की दवाईयां अकसर कॉमन ही हुआ करती है।

फिर उन्होंने तथाकथित ताकत की दवाईयां – so called tonics—आगे कर दीं ... यह कब और वह कब, इस से क्या होगा, उस से क्या होगा.... बहुत मुश्किल होता है कुछ बातों का जवाब देना ... काहे की ताकत की दवाईयां ... पब्लिक को उलझाये रखने की शोशेबाजी...। एक -दो ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों के बारे में पूछने लगा कि यह किस किस इंफैक्शन के लिये इस्तेमाल की जा सकती हैं, मैंने अपने ढंग से जवाब दे तो दिया ...लेकिन उन्होंने यह कह कर बात खत्म की कि गले खराब के लिये तो इसे लिया ही जा सकता है... मैं इस बात के साथ भी सहमत नहीं था।

घर में दो तीन तरह की बिल्कुल आम सी दवाईयां ऱखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन अगर इधर उधर से इक्ट्ठी की गई दवाईयों पर स्टिकर लगा लेने से कोई समझे कि बात बन जाएगी, तो बिल्कुल गलत है, इस से बात बनने की बजाए बिगड़ने का जुगाड़ ज़रूर हो सकता है। बिना समझ के किसी को भी कोई दवा की एक टैबलेट भी दी हुई उत्पात मचा के रख सकती है।

इतनी सारी ब्लड-प्रैशर की दवाईयां तो हैं लेकिन उन्होंने इन्हें इस्तेमाल करना बंद किया हुआ है क्योंकि कुछ दिनों से उन्होंने एक होम्योपैथिक दवाई शुरू की है जिस की एक शीशी एक हज़ार रूपये की आती है, मेरे यह कहने पर कि आप नियमित ब्लड-प्रैशर चैक तो करवा ही रहे होंगे, वह कहने लगे कि नहीं, नहीं, मैं इस की ज़रूरत नही समझता क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्हें कोई तकलीफ़ है ही नहीं..... अब किसी को समझाने की भी एक सीमा होती है , उस सीमा के आगे कोई क्या करे!!

इन की अधिकांश दवाईयां यूं ही बिना इस्तेमाल किए बेकार ही एक्सपॉयरी तारीख के बाद कचरे दान में फैंक दी जाएंगी ....जब कि किसी को इन की बहुत ज़्यादा ज़रूरत हो सकती है। तो फिर क्यों न अस्पतालों में रखी दवा की दान पेटियों अथवा अनयुय्ड़ दवाईयों (unused medicines) के बक्से में इन को डाल दिया जाए.....ताकि किसी के काम तो आ सकें.... और स्वयं भी घर पर रखे-रखे इन के इस्तेलाम संबंधी गलत इस्तेमाल से बचा जा सके........ जाते जाते मैंने अपने अटैंडैंट से कहा कि इन बुज़ुर्ग की दवाईयों पर चिट लगाते हुये एक तस्वीर खींच लें, मैंने सोचा इस से मुझे अपनी बात कहने में आसानी होगी।

उन के जाने के बाद मैं फिर से दूसरे मरीज़ों में व्यस्त हो गया .....लेकिन मैं भी सुबह सुबह कैसी गंभीर बातें लेकर बैठ गया ... जो भी आपने मेरे लेख में पढ़ा उसे भुलाने के लिये इस गीत की मस्ती में खो जाइए ---



Updating at 6:55 AM (11.3.2011)
पोस्ट में नीरज भाई की एक टिप्पणी आई ...कमैंट बाक्स में जाकर कमैंट लिखना चाहा, तो लिख नहीं पाया ..(क्या कारण है, टैकसेवी बंधु इस का उपचार बताएं, बहुत दिनों से यह समस्या पेश आ रही है) .... इसलिये इसी लेख को ही अपडेट किये दे रहा हूं ....
@ नीरज जी, लगता है मुझे बात पूरी खोलनी ही पड़ेगी... हां तो, नीरज जी इन का एक बेटा किसी बहुत बड़ी कंपनी में सर्विस करता है जहां से इन्हें सभी तरह की चिकित्सा मुफ्त मिलती है। और जो मैं एक हजा़र रूपये वाली ब्लड-प्रैशर की होम्योपैथिक दवा की बात कर रहा था वह भी इन्हें वहीं से मिली हैं। बता रहे थे कि बेटा अच्छी पोस्ट पर है, इसलिये कंपनी के डाक्टरों की उन पर विशेष कृपा-दृष्टि बनी रहती है और वे उन्हें दो-तीन महीने बाद नाना प्रकार की दवाईयों से लैस कर के ही भेजते हैं।
अकसर दो तीन महीने में उन से सुन ही लेता हूं कि डाक्टर साहब, इस बार बेटे के पास गया था तो वहां पर मैंने 36 या 37 टैस्ट करवाए ... लेकिन सोचने की बात यह है जैसा कि मैंने लेख में भी लिखा कि वह अपने ब्लड-प्रैशर की जांच करवाने के लिये राजी नहीं है....
नीरज, धन्यवाद, यह इतना महत्वपूर्ण सवाल पूछने के लिये ...







शुक्रवार, 4 मार्च 2011

स्वस्थ लोगों को बीमार करने की सनक या कुछ और !

msnbc.com पर दो दिन पहले एक रिपोर्ट दिखी थी .. America’s past of US human experiments uncovered. इसे आप अवश्य पढ़िये क्योंकि तभी आप शायद समझ पाएंगे कि जब विदेशी कंपनियां अपनी दवाईयों, अपने इंजैक्शनों की टैस्टिंग के लिये भारत के लोगों को गिनि-पिग (guinea pigs) की तरह इस्तेमाल करते हैं तो क्यों मीडिया में इतना हो-हल्ला खड़ा हो जाता है। इसे जानने के लिये आप आगे पढ़िये।

अमेरिका में 1940 से 1960 के बीच कुछ ऐसे प्रयोग किये गये जिन में स्वस्थ लोगों को बीमार बना कर मैडीकल रिसर्च की गई। ये प्रयोग अपंग लोगों, कैदीयों, मानसिक रोगियों एवं गरीब अश्वेत लोगों पर किये गये।

मेरी तरह आप की यह सुन कर मत चौंकिये कि मानसिक रोगियों को हैपेटाइटिस बीमारी से बीमार किया गया। कैदियों को पैनडैमिक फ्लू नामक बीमारी के कीटाणु सूंघने के लिये दिये गये।

जैसे कि यह सब काफ़ी न था ---लंबे अरसे से बीमार लोगों को कैंसर कोशिकाओं का टीका लगा दिया गया।

आज से 65 साल पहले गिटेमाला में मानसिक रोगियों को सिफ़लिस (आतशक, एक यौन रोग) का रोगी बना दिया गया ... कुछ लोगों को सूज़ाक (gonorrhea, यौन रोग) की बीमारी से ग्रस्त करने के लिये उन के गुप्तांग पर सूज़ाक के जीवाणुओं के टीके लगाये गये।

और रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसे दर्जनों प्रयोग किये गये जिन्हें उस समय के मीडिया द्वारा कभी कवर भी नहीं किया जाता था। एक और रिसर्च के बारे में सुनिए – 600 अश्वेत मरीज़ों को जो सिफिलिस (आतशक) से ग्रस्त थे, उन्हें दवाई ही नहीं दी गई।

जिस msnbc.com की रिपोर्ट का मैंने ऊपर लिंक दिया है, उस में एक डाक्टर को दिखाया गया है कि किस तरह से 1945 में वार्ड में एक मरीज़ में मलेरिया रोग उत्पन्न करने के लिये प्रयत्नशील है।  यह सब मैंने आज पहली बार देखा है...

अब मेरे से और नहीं लिखा जा रहा, बाकी रिपोर्ट आप स्वयं ही पढ़ लीजिएगा ..... और इस तरह के कामों को सही ठहराने के लिये कुछ तर्क भी इस रिपोर्ट में दिये गये हैं जिन के साथ मैं तो व्यक्तिगत रूप से सहमत नहीं हूं.... आप का क्या ख्याल है ?

जब मैं डैंटिस्ट्री पढ़ रहा था तो हमारे प्रोफैसर साहब हमें एक Vipeholm Study (1945-55) के बारे में सुनाया करते थे किस तरह एक मानसिक रोग केंद्र में मानसिक रोगों में दंत-क्षय पैदा करने के लिये जम कर मिठाईयां आदि खिलाई जाती थीं और ये सुन कर ही हमारे चेहरे लाल हो जाया करते थे लेकिन अब वक्त के साथ लगता है सच में खून ठंड़ा पड़ चुका है, क्योंकि इतना सब कुछ पढ़ लेने के बाद भी कुछ भी नहीं हुआ। कहीं आप का सिर तो चकराने नहीं लग गया ?





पैरों की सेहत—मछली ने संवार दी, कुत्ते ने बिगाड़ दी ?

कुछ साल पहले से यह तो सुनने में आने लगा था कि पैरों की देखरेख भी अब ब्यूटी पार्लर में होती है जहां पर इस के लिये दो-तीन सौ रूपये लगते हैं ...लेकिन इस तरह के क्रेज़ के बारे में शायद ही आप ने सुना हो कि पैरों की साफ़-सफ़ाई के लिये छोटी छोटी मछलियों की मदद लेने की नौबत आ गई है।

इस तरह की साज सज्जा के दौरान एक पानी के टब में जिस में एक विशेष तरह की मछलियां पड़ी रहती हैं उन में पैरों को डुबो दिया जाता है और ये नन्ही मुन्नी मछलियां पैरों पर धीरे धीरे काट कर मृत चमड़ी (dead skin) को उतार देती हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि इस तरह का शौक पालने से तरह तरह की इंफैक्शन का जो खतरा मंडराने की बात होने लगी है, उसे समझने की ज़रूरत है। वैसे भी अपना देसी बलुआ पत्थर (sandstone, पंजाबी में इसे झांवा कहते हैं) इस काम के लिये क्या किसे से कम है ....एकदम सस्ता, सुंदर और टिकाऊ उपाय है, लेकिन अगर किसी को अथाह इक्ट्ठी की हुई दौलत से बेइंतहा खुजली हो तो कोई क्या करे? …. फिर तो शुक्र है कि इस काम के लिये मछली से ही काम चलाया जा रहा है !!

यह खबर देख कर बहुत दुःख हुआ .... रात को एक आदमी सोया, सुबह उठा तो देखता है कि उस के पांव की तीन उंगलियां और पैर का एक हिस्सा उस का पालतू कुत्ता खा गया है.. दरअसल इस आदमी को डायबीटीज़ रोग था जिस की वजह से उस के पैर सुन्न पड़ चुके थे, उन में किसी तरह का कोई अहसास नहीं होता था, इसलिये जब कुत्ता अपना काम कर रहा था तो उसे पता ही नहीं चला...एक दुःखद घटना। मधुमेह के रोगियों को यह खबर चेता रही है कि अपनी ब्लड-शुगर के स्तर को नियंत्रण में रखें, अपनी पैरों की भी विशेष देख भाल करें, छोटी मोटी तकलीफ़ होने पर विशेषज्ञ से परामर्श लें और रात में अपने कुत्ते को अपने कमरे में न रखें ......यह कुत्ते को अपने साथ रखने वाली बात मैंने कहीं पढ़ी नहीं है, लेकिन इस खबर से तो इस का यही मतलब निकलता है !!
Further reading --
For diabetics --keep your feet and skin healthy.

बुज़ुर्गों के आर्थिक शोषण को नासमझने की नासमझी

कुछ अरसा पहले मेरी ओपीडी में एक बुज़ुर्ग दंपति आये थे ...पता नहीं बात कैसे शुरू हुई कि उन्होंने अपनी असली बीमारी मेरे सामने रख दी कि उन का इकलौता बेटा जो तरह तरह के नशे लेने का आदि हो चुका है, उन की पेंशन छीन लेता है। विरोध करने पर अपने पिता पर हाथ भी उठाने लगता है, जब उन का छः-सात साल का पौता उस बुज़ुर्ग को बचाने की कोशिश करता है तो उस का पिता उसे भी पीट देता है...............और उन दंपति के सहमे हुये चेहरे और भी बहुत कुछ ब्यां कर रहे थे !

मैं सोच रहा था कि यह बुज़ुर्ग जो उच्च रक्तचाप की दवाईयां ले रहा है, इस से क्या हो जाएगा? तकलीफ़ कहीं और है जिसे देखने के लिये हमारी आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था के पास आंखें है ही नहीं.... चाहे ऐसे मरीज़ की हर माह दवाई बदल दी जाए, पुरानी दवाईयों में नईं और जोड़ दी जाएं ... तो क्या हम सोच सकते हैं कि यह ठीक रह सकता है ? ……..मुझे तो कभी भी ऐसा नहीं लगा!!

बुज़ुर्गों के शारीरिक उत्पीड़न (physical torture) के साथ साथ उन का आर्थिक शोषण भी किया जा रहा है, लेकिन ज्यादातर ऐसे किस्से ये बुज़ुर्ग ही दबाए रखते हैं ....वही पुरानी दलीलें ..घर की बदनामी होगी, बेइज्जती होगी, बेटा या बहू इस से और ढीठ हो जाएंगे वगैरह वगैरह ......इसलिये यह सिलसिला बुजुर्गों के दम निकलने तक चलता ही रहता है।

और इस तरह की यातना झेलने के बाद जब ये बुज़ुर्ग बदहवास से होते हैं तो यह कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है कि उम्र की तकाज़े की वजह से अब ये पगला गये हैं, अब इन का जाने का समय आ गया है।
आप को भी शायद यह लगता होगा कि यह सब तो हम जैसे देशों में ही होता होगा ...लेकिन न्यू-यार्क टाइम्स की यह रिपोर्ट .... When abuse of older adults is financial...वहां की परिस्थितियों के बारे में भी बहुत कुछ बताती है।

रिपोर्ट में कितनी साफ़गोई से लिखा गया है कि डाक्टर लोग बुज़ुर्गों के आर्थिक शोषण के मुद्दे को अकसर नज़रअंदाज़ कर दिया करते हैं। अगर कोई ऐसा मरीज़ कहता है कि उस ने अपने पैसे किसी जगह रखे थे लेकिन वह उसे मिल नहीं रहे, उस की पचास-साठ पुरानी शादी की अंगूठी पता नहीं कहां चली गई, अगर कोई बुज़ुर्ग कहता है कि उस ने एक खाली फार्म पर हस्ताक्षर तो कर दिये हैं लेकिन उसे उस की कोई समझ नहीं ....और भी ऐसी बहुत सी बातें ... तो ऐसे में डाक्टर क्या करते हैं ... उन की बातों की गहराई में जाकर कुछ ढूंढने की बजाए यही सोच लेते हैं कि ये सब भूल-भुलैया तो अब इन के साथ चलेंगी ही ...इसलिये उन्हें दी जाने वाली टेबलेट्स की लिस्ट में कुछ और दवाईयां जोड़ दी जाती हैं, या फिर कोई और टैस्ट करवाने की हिदायत दे दी जाती है। 

यह सब कुछ इस देश में भी हो रहा है ..और बड़े स्तर पर .. ... सोचने की बात है कि  किसी की अति-वरिष्ट नागरिक की लेबलिंग करने से क्या सब कुछ ठीक हो जाएगा?

यह तो बात पक्की है कि बुज़ुर्गों का हर तरह का शोषण हो रहा है ... और इस के एक प्रतिशत केस भी जगजाहिर नहीं होते ... और यह सब होता इतने नर्म तरीके और सलीके (subtle way) से है कि उन्हें घुट घुट कर मारने वाली बात दिखती है। भारत में अभी भी नैतिक मूल्य काफ़ी हद तक कायम तो हैं लेकिन पश्चिम की देखा देखी अब इन का भी ह्रास तेज़ी से हो ही रहा है। कानून तो बन गये कि मां बाप की देखभाल करना बच्चों की जिम्मेवारी है लेकिन ऐसा कानून कितने लोग इस्तेमाल करते हैं या कर पाते हैं ....यह बताने की कोई ज़रूरत नहीं !!

इस का कारण व इलाज यही है कि अब नईं पीढ़ी को सही संस्कार नहीं मिल पा रहे—आर्कुट, फेसबुक, ट्विटर पर सारा दिन जमे रहने से तो ये मिलने से रहे, ये केवल किसी सत्संग में बैठ कर किसी महांपुरूष की बातें सुन कर ही ग्रहण किये जा सकते हैं और साथ ही साथ बच्चे हर काम में अपने मां-बाप का ही अनुसरण करते हैं, इसलिये उन के सामने मां-बाप को भी आदर्श उदाहरण रखनी होगी .....वरना तो वही बात ... बीस-तीस सालों बाद वही व्यवहार यही बच्चे उन के साथ करने वाले हैं!!

यह दकियानूसी बात नहीं है कि बच्चों को किसी भी सत्संग के साथ जोड़ने में और जोड़े रखने में ही सारे समाज की भलाई है ताकि वे अपने नैतिक मूल्यों एवं जिम्मेदारियों के प्रति सचेत रह सकें ......इस के अलावा कोई भी रास्ता मेरी समझ में तो आता नहीं..... दुनिया तो ऐसी ही है कि एक 80 साल की महिला के बस द्वारा कुचले जाने पर मुआवजा देने से बचने के लिये एक सरकारी इंश्योरैंस कंपनी कहती है कि इस के लिये काहे का मुआवजा, यह तो बोझ है!! ……. लेकिन जज ने फिर उस कंपनी को कैसे आड़े हाथों लिया, यह जानने के लिये इस लिकं पर क्लिक करिये ...Insurance firm's view on old people insulting ..





गुरुवार, 3 मार्च 2011

डॉयबीटीज़ की मैनेजमेंट में हो रही विश्व-व्यापी गड़बड़

मैं अकसर यही सोचता रहा हूं कि डायबीटीज़ की मिस-मैनेजमैंट भारत ही में हो रही है, लेकिन कुछ रिपोर्टें ऐसी देखीं कि लगा कि इस से तो अमीर देश भी खासे परेशान हैं।

भारत में बहुत से लोगों को तो पता ही नहीं कि उन्हें मधुमेह है –कभी कोई चैकअप करवाया ही नहीं। पूछने पर बताते हैं कि जब हमें कोई तकलीफ़ ही नहीं तो फिर चैक-अप की क्या ज़रूरत है!

जब मैं किसी ऐसी व्यक्ति को मिलता हूं जो लंबे अरसे से डायबीटीज़ को अपने ऊपर हावी नहीं होने दे रहा तो मुझे बहुत प्रसन्नता होती है। लेकिन अधिकतर लोग मुझे ऐसे ही मिलते हैं जिन में मधुमेह की मैनेजमेंट संतोषजनक तो क्या, चिंताजनक है।

दवाईयों का कुछ पता नहीं, कभी खरीदीं, जब लगा “ठीक हैं” तब दवाईयां छोड़ दीं, कईं कईं सालों पर शूगर का टैस्ट करवाया ही नहीं, किसी शुभचिंतक ने कभी कोई देसी पुड़िया सी दे दीं कि यह तो शूगर को जड़ से उखाड़ देगी, कभी किसी तरह की शारीरिक सामान्य जांच नहीं, वार्षिक आंखों का चैक-अप नहीं, ग्लाईकोसेटेड हिमोग्लोबिन टैस्ट नियमित तो क्या कभी भी नहीं करवाया, रोग के बारे में तरह तरह की भ्रांतियां, नकली एवं घटिया किस्म की दवाईयों की समस्या, कभी ऐलोपैथी, अगले महीने होम्योपैथी, फिर आयुर्वैदिक और कुछ दिनों बाद यूनानी या फिर कुछ दिनों तक इन सब की खिचड़ी पका ली, शारीरिक श्रम न के बराबर, खाने पीने पर कोई काबू नहीं.............ऐसे में हम लोग किस तरह की डॉयबीटीज़ की मैनेजमेंट की बात कर सकते हैं !

डाक्टर अपनी जगह ठीक हैं, व्यवस्था ऐसी है कि किसी भी अस्पताल में मैडीकल ओपीडी देख लें...वे एक-दो मिनट से ज़्यादा किसी मरीज़ को दे नहीं पाते .... और जिन बड़े अस्पतालों में वे 15-20 मिनट एक मरीज़ को दवाईयां समझाने में, जीवनशैली में परिवर्तन की बात समझाते हैं, वे देश की 99.9प्रतिशत जनता की पहुंच से बाहर हैं।

लेकिन यह हमारी समस्या ही नहीं लगती ...एक रिपोर्ट देखिए जिस में बताया गया है कि संसार में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन को अभी पता ही नहीं है कि उन्हे शूगर रोग है और जिन का इलाज उचित ढंग से नहीं हो पा रहा है, जिस की वजह से वे मधुमेह से होने वाली जटिलताओं (complications)का जल्दी ही शिकार हो जाते हैं और एक बात—कल यह भी दिखा कि किस तरह से डायबीटीज़ रोग का ओव्हर-डॉयग्नोज़िज हो रहा है।

डायबीटीज़ एक महांमारी का रूप अख्तियार कर चुकी है और एक अनुमान के अनुसार आज विश्व भर में 28 करोड़ अर्थात विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग 7 प्रतिशत भाग इस रोग की गिरफ्त में है।

अमेरिका में लगभग 90 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन का मधुमेह ठीक तरह से कंट्रोल नहीं हो रहा है, मैक्सिको में यह आंकड़े 99 प्रतिशत हैं ... थाईलैंड में लगभग 7 लाख लोगों पर एक सर्वे किया गया जिस का रिज़ल्ट यह था कि उन में से 62 प्रतिशत लोगों में या तो डायबीटीज़ डायग्नोज़ ही नहीं हुई और या उन में इस अवस्था का इलाज ही नहीं हुआ................यह आंकड़े केवल इसलिये कि हम थोड़ा सा यह सोच लें कि हमारे देश में इस के बारे में स्थिति कितनी दहशतनाक हो सकती है, इस का आप भलीभांति अनुमान लगा ही सकते हैं। दो दिन पहले ही कि रिपोर्ट है (लिंक नीचे दिया है) कि इंग्लैंड में लगभग एक लाख लोगों का डायबीटीज़ का डायग्नोसिस ही गलत था।

सदियों पुरानी बात है ... जिसे बाबा रामदेव हर दिन सुबह सवेरे दोहरा रहे हैं ... परहेज इलाज से बेहतर है ... लोग पता नहीं क्यों इस संयासी के पीछे हाथ धो कर पड़े हुये हैं, राजनीति के बारे में मैं कोई भी टिप्पणी करने में असमर्थ हूं , मैं तो केवल यह जानता हूं कि विश्व में लोग इस महान संत की वजह से सुबह उठना शुरू हो गये हैं, कम से कम किसी की अच्छी बातें सुनने लगे हैं, थोड़ा बहुत अपनी खान-पान जीवनशैली को बदलने की दिशा में अग्रसर हुये हैं, थोड़ा बहुत योग करने लगे हैं, जड़ी-बूटियों की चर्चा होने लगी है......केवल यही कारण हैं कि मैं मानता हूं कि बाबा जिस तरह से विश्व की सेहत को सुधारने में जुटा हुआ है , उसे देख कर मैं यही सोचता हूं .........एक नोबेल पुरस्कार तो बनता है!!

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Diabetes out of control in many countries : study. (medline)
Review Reveals thousands wrongly diagnosed diabetics.


लगातार चलते रहने के लिये प्रेरित करता हुआ एक पुराना गीत ..


बुधवार, 2 मार्च 2011

अस्पताल में होने वाली इंफैक्शन की व्यापकता

अस्पताल में भर्ती लोगों को जो संक्रमण (इंफैक्शन) उन को वहां दाखिल होने के दौरान लग जाते हैं उन्हें हास्पीटल-एक्वॉयर्ड संक्रमण कहते हैं। सामान्यतयः इस विषय पर बात करना एक पाप समझा जाता है क्योंकि इस से अस्पतालों की साख पर प्रश्न उठ सकता है। मीडिया में दो एक साल में एक सनसनीखेज़ सी रिपोर्ट दिख जाती है कि भारतीय अस्पतालों में हास्पीटल इंफैक्शन रेट इतना ज़्यादा है, इस से ज़्यादा कुछ विशेष मुझे कभी दिखा नहीं।

मैं भी अकसर भारत से संबंधित इस तरह के आंकड़े इंटरनेट पर ढूंढता रहता हूं.. लेकिन मुझे बहुत अफसोस से कहना पड़ता है कि ये आंकड़े कभी दिखते नहीं है, इस का कारण जो मुझे लगा वह मैं पहली ही बता चुका हूं।

मैडीकल ऑडिट (medical audit) नाम की बात तो शायद कहीं दिखती नहीं ...बड़े बडे टीचिंग अस्पतालों में इस तरह की मीटिंग नियमित होती होंगी लेकिन भारत में तो मैं इन के बारे में कम ही सुनता हूं।और इस के कारण लिखने की ज़रूरत मैं नहीं समझता।

मैडीकल ऑडिट तो आप जानते ही होंगे ... यह एक ऐसी व्यवस्था है जिस को अगर पूर्ण इमानदारी से निभाया जाए तो चिकित्सा सुविधाओं को यह पता चलता रहता है कि किस किस जगह पर चूक हुई और ये गल्तियां फिर से न दोहरायी जाएं, इस के उपायों पर चर्चा भी होती है। एक महीने में जितने मरीज़ों की अस्पताल में मौत हो जाती है, उन के बारे में भी चर्चा होती है, क्या उन्हें समुचित इलाज दिया गया, क्या उन के सभी ज़रूरी टैस्ट करवा लिये गये अथवा उन की बीमारी का डॉयग्नोसिस क्या सही है, ये सारी बातें एक मैडीकल ऑडिट कमेटी जांचती है।

उसी तरह से अच्छे अस्पतालों में एक हास्पीटल इंफैक्शन कंट्रोल कमेटी भी होती है जो इस बात को लगातार सुनिश्चित करती है कि किस तरह से इस तरह के इंफैक्शन की व्यापकता में लगातार कमी लाई जाए। जो मैंने सुना है कि अधिकतर तौर पर बढ़िया बढ़िया कमेटियां तो बन जाती हैं, लेकिन यह कितना सुचारू रूप से काम कर पाती हैं, यह तो वही जानते हैं।

अब बात आती है, पारदर्शिता की .. ठीक है, आम आदमी ने सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल कर के अपना राशन-कार्ड तो बनवा लिया, पंचायत का लेखा जोखा तो मांग लिया लेकिन कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिन के बारे में शायद किसी आमजन ने सोचा ही नहीं है, और अस्पताल के भर्ती होने के दौरान जो इंफैक्शन किसी मरीज़ को लग सकती है (नोज़ोकोमियल इंफैक्शन – nosocomial infection), यह भी एक ऐसा ही मुद्दा है जिस के बारे में आम आदमी ज़्यादा अवेयर ही नहीं और न ही इस के बारे में कोई बात करने को राजी ही है।

लेकिन पारदर्शिता की दाद मैं उस समय देते न रह सका जब आज मैं न्यू-यार्क टाइम्स की एक रिपोर्ट देख रहा था कि अमेरिका में इंटैंसिव केयर यूनिट में सैंट्रल लाइन इंफैक्शन के केसों की संख्या में 2001 की तुलना में वर्ष 2009 में 58प्रतिशत की कमी आई है – 2001 में इस तरह के 43000 केस थे और 2009 में यह आंकडा 18000 तक आ गया है।

सैंट्रल लाइन इंफैक्शन से अभिप्रायः उन ट्यूबों से उपजे संक्रमण से है जिन्हें मरीज़ के अस्पताल में दाखिल होने के दौरान मरीज़ की गले अथवा छाती की बड़ी शिराओं (veins, रक्त की नाड़ी) में डाला जाता है जिन के द्वारा दवाईयां एवं न्यूट्रिशन मरीज़ों तक पहुंचाई जाती है।

यह नोट करें कि इस अमेरिकी रिपोर्ट में कहा गया है कि सैंट्रल-लाइन इंफैक्शन आम समस्या है लेकिन इस तरह के ज़्यादातर केसों से मरीज को बचाया जा सकता है। इस तरह के इंफैक्शन सीरियस हो सकते हैं और 12 से 25 प्रतिशत केसों में मौत भी हो सकती है।

एक समस्या और भी है.... अमेरिकी आंकड़े हैं कि वहां पर रोज़ाना लगभग तीन लाख पचास हज़ार मरीज़  लोग गुर्दे के रोगों के इलाज हेतु अपनी डॉयलायसिस करवाते हैं ..और 2008 में 37000 हज़ार मरीज़ों को सैंट्रल लाइन इंफैक्शन हो गई – और इस तरह की इंफैक्शन डायलिसिस के दौरान मरीज़ों को अधिक समय तक भर्ती रखे जाने और उन की मृत्यु का मुख कारण है। लेकिन हमारे अपने यहां के आंकड़े कहां हैं ?

यह पोस्ट केवल यह बात रेखांकित करती है कि अगर अमेरिका जैसा देश इतने सीरियस मुद्दे पर इतनी पारदर्शिता रख सकता है तो अपने यहां ऐसा करने में आखिर क्या परेशानी है? हमें क्यों इस तरह के आंकड़े कहीं नहीं दिखते --- मैं आम नागरिक की बात नहीं कर रहा हूं – इस तरह के विश्वसनीय जानकारी हमें भी कहां दिखती है। सब कुछ चटाई के नीचे सरका देने ही से क्या सब कुछ ठीक ठाक हो जाएगा?  ….सोचने की बात यह है कि अमेरिका जैसे देश में अगर इस तरह की इंफैक्शन इतनी व्यापक है तो हम लोग कल्पना कर सकते हैं कि हमारे यहां पर ज़मीनी वास्तविकता क्या होगी।

नीम-हकीमों द्वारा खोले गये अस्पताल, अन-ट्रेंड स्टाफ, अन-ट्रेंड नर्सें, शिक्षा का अभाव, तरह तरह के मैडीकल उपकरणों की रि-साईक्लिंग..... क्या फ़ायदा ये सब कारण गिनाने का .. चिकित्सा सुविधायों को स्वयं अपने अंदर झांकने की ज़रूरत है ... और एक बात .... कहीं से पता चले कि अपने देश के लिये इस तरह के आंकड़े कहां से मिलेंगे, तो बतलाईयेगा ......ठीक या गलत, जैनूईन या फ़र्ज़ी वो तो बाद की बात है, पहले किसी विश्वसनीय पोर्टल पर ये आंकड़े दिखें तो सहीं, फिर इस का इलाज भी हो जाएगा, लेकिन अगर मर्ज़ की व्यापकता का ही पता नहीं है, तो फिर इस निष्क्रियता रूपी कोढ़ का आप्रेशन कैसे होगा !!

Further Reading …
Fewer Patients in ICU getting Blood Infections
Fewer Bloodstream Infections in Intensive care, CDC says




एचआईव्ही दवाईयों की लूटमार से परेशान अफ्रीकी मरीज़

आप को भी विश्वास नहीं हो रहा होगा कि दवाईयों की लूटमार — मुझे भी नहीं हो रहा था लेकिन पूरी खबर पढ़ने के बाद यकीन हो जाएगा।

भारत में रहते हैं तो महिलायों की सोने की चेन की छीना-झपटी की वारदातें रोज़ सुनते हैं, बैंको से बाहर निकलते लोगों के पैसे छीने जाने की घटनाएं आम हो गई हैं, गाड़ियों में लूट-खसोट की घटनाओं को भी सुना है लेकिन यह दवाईयों की लूटमार के बारे में पहली बार ही सुन रहे होंगे।

मैंने कहीं पर पढ़ा था कि कईं देशों में लोगों की आर्थिक हालत इस तरह की हो चुकी है कि वे कुछ पैसे के लिये अपनी महंगी एचआईव्ही दवाईयां तक बेच देते हैं और अपनी ज़िंदगी को दवा न खाने की वजह से खतरे में डाल देते हैं।

लेकिन यह अफ्रीकी लोगों में वूंगा नामक नशे ने तो कहर ही बरपा रखा है। वहां पर एचआईव्ही संक्रमित लोगों की महंगी दवाईयां उन से लूट कर इस नशे के रैकेट में लिप्ट माफिया उन दवाईयों को डिटर्जैंट पावडर एवं चूहे मारने वाली दवाई से मिला कर एक बेहद घातक नशा तैयार करते हैं जिसे फिर वे महंगे दामों पर बेचते हैं।

यह तो आप जानते ही है कि अफ्रीका में एचआईव्ही-एड्स एक तरह की महामारी है, इस से संबंधित आंकड़े कुछ इस प्रकार हैं ..
  • अफ्रीका में लगभग 57 लाख लोगों में एचआईव्ही संक्रमण है
  • इन संक्रमित लोगों में से 18 फीसदी 15 से 49 आयुवर्ग से हैं
  • लगभग चार लाख साठ हज़ार लोग एंटी-रिट्रो-वॉयरल दवाईयां ले रहे हैं (2008 का अनुमान)
  • एड्स से अब तक तीन लाख पचास हज़ार मौतें हो चुकी हैं (2007 का अनुमान)
  • 14 लाख बच्चे अफ्रीका में एड्स की वजह से अनाथ हैं
    थोड़ा सा यह जान लेते हैं कि ये जो एंटी-रिट्रो-वॉयरल दवाईयां एचआईव्ही संक्रमित लोगों को दी जाती हैं, वे क्या हैं? ये महंगी दवाईयां इन मरीज़ों को इस लिये दी जाती हैं ताकि उन की गिरती रोगप्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटि) को थाम के रखा जा सके जिस से उन के जीवनकाल को बढ़ाया जा सके। भारत में आपने पेपरों में देखा ही होगा कि कभी कभी रेडियो एंव अखबारों में इस तरह के विज्ञापन आते हैं कि एचआईव्ही संक्रमित व्यक्ति फलां फलां चिकित्सालयों से ये दवाईयां मुफ्त प्राप्त कर सकते हैं ।

और यह निर्णय विशेषज्ञों का रहता है कि किन मरीज़ों में ये दवाईयां शुरु करने की स्थिति आ गई है ...यह सब एचआईव्ही संक्रमित बंदे की रक्त जांच के द्वारा पता चलता है कि उस में इम्यूनिटि का क्या स्तर है !

हां, तो बात अफ्रीका की हो रही थी – बीबीसी की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि वहां पर लोग इस तरह के आतंक से कितने भयभीत हैं... वे लोग स्वास्थ्य केंद्रों पर जाकर दवाई लेने से ही इतने आतंकित हैं ---कोई पता नहीं बाहर आते ही ये लुटेरे उन से कब दवाईयां छीन कर नौ-दो ग्यारह हो जाएं।

दोहरी मार को देखिये ---एक तरफ़ तो जिन से ये एचआईव्ही संक्रमण के लिये दी जाने दवाईयां छीन लीं –उन की जान को तो खतरा है ही, और दूसरी तरफ़ जिन्हें वूंगा नाम नशा तैयार कर के बेचा जा रहा है, उन की ज़िंदगी भी खतरे में डाली जा रही है।

लोग इन दवाईयों को स्वास्थ्य इकाईयों से लेते वक्त इतने भयभीत होते हैं कि वे अब उन्होंने ग्रुप बना कर जाना शुरू कर दिया है।

इंसान अपने स्वार्थ के लिये किस स्तर तक गिर सकता है, यह देख कर सिर दुःखने लगता है, मेरा भी सिर भारी हो रहा है, इसलिये अपनी बात को यहीं विराम देता हूं।

मंगलवार, 1 मार्च 2011

नेपाल में साधु न बेच पाएंगे भांग

नेपाल में साधू कल शिवरात्रि के अवसर पर भांग न बेच पाएंगे... कल शिवरात्रि के अवसर पर हज़ारों साधू नेपाल के सुप्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर पर इक्ट्ठा होंगे। भारत से भी बहुत से साधू वहां पहुंच रहे हैं।

साधुओं के द्वारा भांग पर लगी बिक्री के सिलसिले में कुछ साधुओं को तो अंदर कर दिया गया है और कुछ पर नज़र रखी जा रही है।

भांग के पकौड़े शिवरात्रि एवं होली के अवसर पर खूब चलते हैं ---हर बार इन के खाने से कईं हादसे होते हैं जिस कारण बहुत से लोगों को अस्पताल में भरती भी करवाना पड़ता है। तबीयत बिगाड़ने के लिये मैंने सुना है कि एक पकौड़ा ही काफ़ी है।

होली के अवसर पर तो लोग मस्ती में इस तरह की चीज़ें खाते हैं ... कईं बार कुछ यार दोस्त मज़ाक में इस तरह की चीज़ें खिला देते हैं जिस की वजह से अचानक तबीयत बिगड़ जाती है।

आज एक व्यक्ति बता रहा था कि खाते वक्त पता नहीं चलता, आम पकौड़ों की तरह ही होते हैं ये भांग के पकौड़े भी ...लेकिन कुछ समय बाद ही नानी याद आने लगती है, खाने वाले को तो शायद उतनी नहीं, जितनी उस के मित्रों एवं परिवारजनों को।

मैंने तो आज तक कभी भांग के ना ही तो पकौड़े खाये हैं और न ही भांग ही पी है ... बस अपना काम इस गीत को सुन कर ही चलाया है .......आप ने क्या सोचा है ?
Source : Nepal sadhus banned from selling cannabis at temple 







सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

सेब जैसा मोटापा पहुंचाता है ज़्यादा नुकसान

आम तौर पर किसे के मोटापे के बारे में जानने के लिये बी.एम.आई इंडैक्स (BMI Index) जान लिया जाता है और उसे के मुताबिक उसे मोटापा या पतला लेबल कर दिया जाता है।

अपना बीएमआई इंडैक्स जानने के लिये यहां पर क्लिक करिये .. देखिये इस साइट पर बताया गया है कि भारतीयों का बीएमआई इंडैक्स 23 से ज़्यादा नहीं होना चाहिए। सोच रहा हूं कि जो लोग यहां से बाहर जा कर बस गये हैं, वे भी कहीं यह तो नहीं सोच रहे कि उन के लिये कोई छूट नहीं है, यह वैल्यू उन पर भी उतनी ही लागू होती है।

आखिर यह बीएमआई इंडैक्स है क्या बला ? –अगर हम लोग अपने वज़न (किलोग्राम में) को अपनी लंबाई (हाइट—मीटरों में) के स्क्वेयर से डिवाईड  कर दें तो जो वैल्यू आती है, उसे बीएमआई इंडैक्स कहते हैं।

एक उदाहरण मेरी ही –मेरी लंबाई 5फुट 10इंच अर्थात् 175 सैंटीमीटर और वज़न 91 किलो तो मैंने जब ये वैल्यू साइट पर भरे तो मेरा बीएमआई इंडैक्स 30 आया है.....औरों को नसीहत .... वही वाली बात लगती है। और यह तब है जब मैं जंक लगभग नहीं के बराबर लेता हूं, देसी-घी मक्खन आदि को कोई चक्कर ही नहीं, धूम्रपान नहीं, ड्रिंक्स नहीं.....सब से बड़ी कमी है नियमित शारीरिक सक्रिय न रखने की।

कोशिश तो रहती है कि रोज़ाना 40-50मिनट साईक्लिंग कर आऊं लेकिन कईं बार मौसम का बहाना बना कर कईं कईं दिन छुट्टी मना लिया करता हूं लेकिन अब लगता है कि इस मामले में सुधरना पड़ेगा।

चलो फिर आप भी तब तक अपना बीएमआई इंडैक्स की वेल्यु देख लें... लेकिन एक बात जो मैंने पहले भी लिखी थी वह यह कि जो मोटापा हमारे पेट के आस पास है जिसे हम लोग सेब जैसा मोटापा (मुझे यही है !) कहते हैं वह ज़्यादा खतरनाक होता है ...इस की तुलना में जो मोटापा जांघों पर एवं नितंबों पर वसा के जमा होने से होता है यह उतना नुकसानदायक नहीं होता।

यही कारण है कि किसी को केवल बीएमआई इंडैक्स के आधार पर ही किसी की मोटा या पतला होने की लेबलिंग करने में पेच है – कारण बता दिया गया है। इसलिये लाखों लोगों की कमर का माप लिया गया और यह पाया गया कि बीएमआई इंडैक्स सामान्य होते हुये भी अगर कमर का घेरा बढ़ा है तो भी गड़बड़ ही है.. वैसे माशाल्लाह अपना तो इस “कमरे”  का घेरा भी 40-41 इंच है ही। इस के बारे में अच्छी तरह से समझने के लिये आप मेरा यह लेख अवश्य देखें --- साढ़े तीन लाख लोगों की कमर नापने के बाद।

और अब तो और भी आसानी से पता लगाया जा सकता है कि किस तरह से यह मोटापा हमारी सेहत पर कहर बरपा रहा है... बीबीसी की यह हैल्थ-स्टोरी देखें ...BMI misses obesity risks. कितना साधारण या पैमाना निकाल लिया गया है कि हमारी कमर का साइज हमारी लंबाई के आधे से ज्यादा नहीं होना चाहिये – अभी भी मुझे अपनी उदाहरण ही देनी पड़ेगी क्या ? – लंबाई 175 सैंटीमीटर –इस के हिसाब से मेरी कमर का साइज 88-90 सैंटीमीटर से ज़्यादा नहीं होना चाहिये लेकिन वास्तव में यह है 40 इंच के आसपास अर्थात् 100सैंटीमीटर ---इसलिये अब मुझे चिंता होने लगी है कि ये 10सैंटीमीटर कैसे कम होंगे?  सब से ज़्यादा ज़रूरी है एक्टिविटी बढ़ाई जाए।

वैसे क्या आप को भी लगता है हम लोग वही पुराना रिकार्ड क्यों लगा देते हैं –मोटापा, मोटापे का माप-तोल, मोटापे की श्रेणीयां----- ये सब कुछ बार बार पढ़ना उबाऊ सा ही लगता होगा न.... लेकिन मैं सोचता हूं कि इस तरह के रिमांईडर बार बार दिखते रहने चाहिये ---इस से पाठकों के साथ साथ लिखने वाले को भी बहुत फ़ायदा होता है, उसे कम से कम अपने बारे में भी सोचने का अवसर तो मिलता है।

सत्संग में हम सब लोग कहीं न कहीं जाते हैं, वहां पर भी अकसर वही बातें बार बार दोहराई जाती हैं ...एक बार किसी ने ऐसी बात आगे रखी तो महांपुरूषों ने उस की शंका का समाधान यह कहते हुये किया कि ठीक है, वही बातें हैं, साधारण बातें हैं लेकिन क्या इन्हें आपने अपने जीवन में उतारना शुरू कर दिया है.... इस का जवाब हम स्वयं दे सकते हैं कि हम कितना इन सतवचनों पर पूरा उतरते हैं, इसलिये इन की नियमित पुनरावृत्ति होती ही रहनी चाहिए।

उसी प्रकार ही ये मोटापे-वापे की बातें हैं... हम जब तक ये सब बातें मानते नहीं, खान-पान में बदलाव नहीं लाते, जीवनशैली बदलते नहीं, रोज़ाना शारीरिक व्यायाम करते नहीं तब तक तो इस तरह के लेखों के रूप में बार बार रिमांइडर भेजने का सिलसिला तो मेरे ख्याल में चलता ही रहना चाहिए ....पता नहीं कब कौन सी बात निशाने पर लग जाए।

बातें तो ये छोटी छोटी हैं, लगभग हम सब को पहले ही से पता हैं, लेकिन थोड़ा बहुत असर तो होता ही है, परसों मैंने जब यह बीबीसी स्टोरी पढ़ी तो तुरंत लैपटॉप बंद कर के आईक्लिंग करने निकल गया ---हमारे यहां आसपास हरे भरे खेत हैं, अगर फिर भी मेरे जैसे लोग घर पर ही पढ़े रहें तो कोई क्या करे! लगभग तीन साल पहले मैंने जब एक ऐसा ही लेख लिखा है – धूल चाटते वाकिंग शूज़ के बारे  तो भी मैं लंबे अरसे तक नियमित टहलने निकल जाया करता था। लगता है अभी बस इसे पोस्ट करूं और इस ‘कमरे’ की सलामती के लिये बाहर निकल ही जाऊं ---- कितना सही कहा भी तो गया है ... पहला सुख निरोगी काया !!


इतनी सीरियस से बातें सुनने के बाद चलिये मन को थोड़ा हल्का करते हैं ... तेरे गिरने में भी तेरी हार नहीं कि तूं आदमी है अवतार नहीं ..... मुझे यह गीत बहुत ही पसंद है।

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

एनर्जी ड्रिंक्स से बचे रहने में ही है बचाव

इस तरह की चीज़ों के बारे में हम लोगों को पता भी बच्चों से ही चलता है ..इन लोगों की स्कूल आदि में बातें चलती होंगी। एनर्जी ड्रिंक्स के बुरे प्रभाव तो समाचार पत्रों में आते ही रहते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि आज के युवा वर्ग को इन कोल्ड-ड्रिंक्स की लत लगा देने के बाद अब अगली बारी है इन एनर्जी ड्रिंक्स को पापुलर करने की।

कुछ दिन पहले मैं भी एक डिपार्टमैंटल स्टोर गया हुआ था ... मैंने उस से पूछा कि क्या यहां पर भी एनर्जी ड्रिंक्स मिलती हैं, तो मुझे उस शेल्फ की तरफ़ ले गया जहां पर इस तरह की ड्रिंक्स सजी हुई थीं। एक कैन की कीमत थी अस्सी रूपये और चार कैनों का एक पैक था...डिस्काउंट रेट पर।

उस के ऊपर लिखी इंफरमेशन पढ़ी .. वही सब जो मैडीकल न्यूज़ में दिख रहा था पिछले कुछ दिनों से कि ये सब ड्रिंक्स कैफ़ीन (caffeine) जैसे तत्वों से लैस होते हैं जिन से बहुत से नुकसान होते हैं ....और इन पर लिखा तो रहता है कि इन में कॉफी के एक कप चाय के बराबर कैफीन है लेकिन इस में इस से कहीं ज़्यादा मात्रा में कैफ़ीन होती है। कारण ? – इस में कंपनियों ने कईं तरह के हर्बल इनग्रिडीऐंट भी डाले होते हैं जिन की वजह से कैफ़ीन की मात्रा खूब बढ़ जाती है।

आज कल जिस तरह से ये ड्रिंक्स पापुलर हो रही हैं, इस से तो यही लगता है कि जब कोई भी वस्तु विकसित देशों से निकाले जाने के कगार पर होती है तो उसे हमारे यहां पापुलर करना शुरू कर दिया जाता है। आप इस लिंक पर जा कर इस के बारे में देखिये .... Energy drinks dangers.

कईं विकसित देशों में तो 12 से 17 साल के वर्ग के एक तिहाई युवा इस तरह की ड्रिंक्स नियमित रूप से लेने लगे हैं... और इन ड्रिंक्स के युवाओं के स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों का भी उन देशों में पिछले कईं वर्षों से अध्ययन किया जा रहा है और विशेषज्ञों के अनुसार इन ड्रिंक्स की वजह से बच्चों एवं युवाओं को दौरे (seizures) पड़ सकते हैं, उन के हृदय की धड़कन में अनियमितताएं(irregular heart rhythm) आ सकती हैं, उच्च रक्तचाप(high blood pressure) हो सकता है, और यहां तक की इस रिपोर्ट में (जिस का लिंक मैंने ऊपर दिया है) तो यह भी कहा गया है कि इस से मौत तक हो सकती है।

सोचने की बात तो यही है कि अगर कोई खाध्य वस्तु इतने पंगे कर सकती है तो उसे ट्राई ही क्यों किया जाए। और कोई इतनी सस्ती भी नहीं है ये ड्रिंक्स। अपनी देसी पेय पदार्थों में ऐसा क्या है कि वे एनर्जी न दे सकेंगे। सभी खिलाड़ी उन देसी चीज़ों को ही इस्तेमाल कर के पले-बड़े हैं।

ध्यान आ रहा है बाबा रामदेव की दो चार दिन पहले सुनी बात का --- एक सभा को संबोधित करते हुये वे कोल्ड-ड्रिक्स की पोल खोल रहे थे कि किस तरह से ये हमें केवल नुकसान ही पहुंचाती हैं। एक खिलाड़ी का नाम लेकर बच्चों को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि यह जो आप लोग विज्ञापन में उस खिलाड़ी को कोल्ड-ड्रिंक के समर्थन में बोलते सुनते हो ना, यह ड्रिंक्स ये खिलाड़ी लोग स्वयं नहीं पीते, ग्रामीण पृष्टभूमि से आने वाले ये स्टार देसी पेयों को पी-पीकर ही इतने बड़े हो गये कि इन कंपनियों की इन की नज़र पड़ सके।

सोचता हूं कि हर तरफ़ इतना गोरखधंधा चल रहा है कि मैडीकल विषयों के बारे में कंटैंट डिवेल्पमैंट का यही मतलब दिखने लगा है कि आमजन को किस तरह से नईं नईं हानिकारक वस्तुओं के बारे में लगातार जागृत रखा जाए...................मेरे विचार में तो एक बात तो है कि इस तरह की वस्तुएं बनाने वालों के पास इतना अथाह पैसा है कि वे इन की मार्केटिंग के लिये किसी भी हद तक जा सकते है।

लेकिन अगर आम आदमी ने कांटों से अपने आप को बचाना है तो सारी दुनिया पर कारपेट बिछाने की बजाए अगर अपने पैरों में ही चप्पल डाल ली जाए तो बात बन जाती है... है कि नहीं ? केवल जागरूक रहना ही एक हथियार है – यह देखना कि हम क्या खा रहे हैं, क्यों खा रहे हैं, और इस के हमारे शरीर में क्या प्रभाव हो सकते हैं।




तंबाकू कंपनियां पचास वर्षों तक बेचती रहीं सफ़ेद झूठ

मुझे याद है कि सत्तर के दशक में मेरे जो रिश्तेदार उन दिनों 35-40 रूपये का सिगरेट का पैकेट पिया करते थे, सारे परिवार में उन का अच्छा खासा दबदबा हुआ करता था कि इन की इतनी हैसियत है कि ये अपनी सेहत के प्रति जागरूक होते हुये “फोरेन ब्रांड” के सिगरेट पीते हैं... और आज से चालीस साल पहले चालीस रूपये की बहुत कीमत हुआ करती थी।

और मुझे याद है कि कभी कभी इस तरह के पैकेट लाने की अपनी ड्यूटी भी लगा करती थी और अमृतसर में तो ये केवल तब एक-दो महंगे पनवाड़ियों से ही मिला करते थे.. और मैं इन्हें खरीदते वक्त पता नहीं बिना वजह क्यों इतना “व्हीआईपी-सा” महसूस कर लिया करता था।

कल्पना करिये 1970 के दशक की ...रईस लोगों की एक तरह से ब्रेन-वाशिंग हो चुकी थी कि पैसे के बलबूते वे अपनी सेहत की भी रक्षा कर सकते हैं। मुझे अच्छी तरह से याद है कि आम आदमी—बीड़ीबाज या फिर एक रूपये का लोकल ब्रांड  इस तरह के “बहुत कम नुकसानदायक” सिगरेट पीने वालों को हसरत भरी निगाहों से देखा करता था।

आप ने भी पढ़ा –मैंने लिखा है ...बहुत कम नुकसानदायक सिगरेट... क्योंकि उन दिनों इस तरह के विदेशी ब्रांड़ों के सिगरेटों के बारे में ऐसा ही सोचा जाया करता था। और यह बात लोगों के मन में घर कर चुकी थी कि महंगा है तो बिना नुकसान के ही होगा।

किसी की भी बढ़ती संपन्नता का प्रतीक सा माने जाना लगा था इन सिगरेटों को --- मेरे बड़े भाई ने और कज़िन्स ने भी 1980 तक ये सिगरेट ही इस्तेमाल करना शुरू कर दिये थे। कुछ वर्षों बाद जब चर्चा होती थी कि यही सुनने को मिलता था कि हम तो भई चालू, घटिया किस्म के सिगरेट नहीं पीते, अपना तो यही ब्रांड है। और उस समय मैं भी यही समझने लगा था कि इतना महंगा है (उन दिनों शायद यह 50-60 रूपये का पैकेट मिला करता था) तो ठीक ही होगा।

फिर लगभग बीस वर्ष पहले यह सुनने में आया कि यह जो भ्रम फैलाया जा रहा है कि महंगे विदेशी ब्रांड वाले फिल्टर सिगरेट तरह तरह के विषैले तत्वों को फिल्टर करने के नाकामयाब हैं.... लेकिन तब भी बात लोगों की समझ में कहां आ रही थी?

लेकिन आज मैं यह खबर देख कर दंग रह गया हूं कि पिछले पचास वर्षों के दौरान तंबाकू कंपनियां झूठ ही बोलती रहीं। न्यू-यार्क टाइम्स में आज दिखी इस खबर से यह पता चला कि अमेरिका में एक अदालत ने यह कहा है कि कंपनियों को इस तरह के विज्ञापन समाचार पत्रों में देने होंगे कि वे पचास वर्षों तक यह झूठ बोल कर आमजन की सेहत के साथ खिलवाड ही करती रहीं कि कम टॉर वाला एवं कम निकोटिन वाले सिगरेट(लाइट सिगरेट –light cigarette) कम नुकसानदायक होते हैं और आदमी इन का आदि (addicted) भी नहीं होता।

कोर्ट ने यह भी कहा है कि इन कंपनियों को इस तरह के विज्ञापन भी खरीदने होंगे जिन में यह लिखा गया हो कि यह सब वे इस लिये करते रहे कि धूम्रपान करने वाले लोग इसे छोड़ने के बारे में सोचने की बजाए इस तरह के लाइट-सिगरेटों को अपना लें ताकि कंपनियों की अपनी सेहत, उनका मुनाफ़ा फलता फूलता रहे।

कंपनियों को यह भी कहा गया है कि वे ये भी घोषणा करें कि वे गलत प्रचार करती रहीं कि निकोटिन एडिक्टिव नहीं है ... वास्तविकता यह है कि इस की लत लग जाती है और चौंकने वाली बात यह भी है कि कंपनियां को यह भी घोषणा करनी होगी कि उन्होंने सिगरेटों के साथ कुछ इस तरह से छेड़छाड़ की कि जिससे इन्हें पीने वाले पक्के तौर पर इस व्ययसन का शिकार हो जाएं।

सोच रहा हूं कि आज के बाद स्कूली बच्चों को वह मुहावरा समझाने के लिये इसी उदाहरण को ले लेना चाहिए --- अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत--- लेकिन अगर केवल खेत ही चुग गया होता तो बात और थी, यहां तो कईं कईं सालों तक स्वस्थ शरीर रूपी पकी फसलों को इस झूठ से आग ही लगती रही... लाखों, करोड़ों, शायद अरबों (हिसाब कमज़ोर है मेरा) लोग खा लिये इस ज़हर ने पिछले पचास वर्षों ने ---- तो क्या उन की कब्रों पर भी एक Sorry note रखा जाएगा कि ...We are sorry to hide the truth.

तो आज के बाद किसी भी पाठक को यह नहीं लगना चाहिये कि यह सिगरेट महंगा है, विदेशी है, कम टॉर वाला है , लाइट सिगरेट है... तो यह ठीक ही होगा, नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है, प्रूफ आप के सामने है.. अदालत ने कंपनियों को ही स्वीकार करने को ही कह दिया है। और हां, यह तो आप पहले ही से जानते ही हैं कि बीड़ी भी किसी तरह से भी सिगरेट से कम नुकसानदायक नहीं है, ज़्यादा तो हो सकती है ... .....ओ हो, यार, यह मैं भी किस रेटिंग में पड़ गया कि कम नुकसानदायक, ज़्यादा नुकसानदायक ..... ज़हर तो ज़हर ही है, विदेशों में बने, देश के महानगरों में बने या आदिवासी क्षेत्रों में तैयार हो .......इस का स्वभाव ही है कि इस ने जाने लेने ही लेनी हैं।

Anyway, Choice is yours --- Tobacco or Health……………..you can’t have both!

Source : 
U.S Presses Tobacco Firms to Admit to Falsehoods About Light Cigarettes and Nicotine Addiction. 

किसी भी फ़िक्र को कैसे धुएं में उड़ाया जा सकता है, गाने की बात और है .....लेकिन क्या आप को लगता है कि अगर रियल लाइफ में भी देवानंद ने इस धुएं का ही सहारा लिया होता तो क्या वह अभी 90 वर्ष की आयु में भी इतने एक्टिव दिखते .... 


शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

परमानैंट मेक-अप तकलीफ़ों का पिटारा लेकर आता है

कोई शारीरिक तकलीफ़ हो जाना एक बात है, और अपनी जीवनशैली अथवा तंबाकू, शराब, ड्रग्स को लेकर रोगों को बुलावा देना भी समझ में आता है लेकिन इस से भी आगे की स्थिति है कि रोगों को बुलावा ही नहीं, उन्हें खींच कर, घसीट कर  तरह तरह के परमानैंट मेक-अप के द्वारा अपने अच्छे-भले स्वस्थ शरीर में प्रवेश करवा के आफ़त मोल ली जाए।

कुछ दिन पहले ही मैं बात कर रहा था –टैटू के बारे में ..किस तरह से ये तरह तरह की बीमारियां फैलाने का काम कर रहे हैं और हाल ही में जर्मनी में इस के उपयोग में लाई जाने वाली स्याही के बारे में प्रकाश में आया कि यह कैंसर तक का कारण बन सकती है।

एक आफ़त का आज और पता चला – आज से पहले मुझे इस परमानैंट मेक-अप नाम की बीमारी का नहीं पता था, अचानक आज मुझे यह समाचार दिख गया ...Tattoos as makeup? Read the fine print.  यह एक बहुत ही विश्वसनीय एवं लोकप्रिय न्यूज़-पेपर –न्यू-यार्क टाईम्स – में छपी है। मुझे कुछ कुछ आभास सा तो था कि कुछ कुछ गड़बड़ सी हो तो रही है परमानैंट मेक को लेकर लेकिन उम्मीद है कि यह न्यूज़ पढ़ने के बाद किसी की भी आंखें खुली की खुली रह जाएंगी.

मुझे डर जिस बात का लगता है वह यह है कि जब किसी विकसित एवं सम्पन्न दूर देश में ये सब खतरनाक किस्म के मेकअप पनप रहे हैं तो इसे भारत में आते देर नहीं लगेगी... मैंने पहले ही कहा है कि भारत में इन के चलन के बारे में मेरा ज्ञान ऐसा ही है, इसलिए यह बड़ी बात न होगी अगर बड़े महानगरीय शहरों में इस तरह के धंधे पहले ही से न चल रहे हों।

मैं यह पढ़ कर हैरान परेशान हूं कि किस तरह से लोग आंखों के परमानैंट मेकअप के लिये आई-लाईनर की जगह टैटू ही गुदवा लेते हैं, अपनी भौहों (eye brows) को बार बार शेप देने से झंझट से छुटकारा दिलाने के लिये भी टैटू की मदद ली जा रही है, होठों तक पर यह परमानैंट मेक-अप करवा लिया जाता है।

इस तरह के प्रसाधनों (cosmetic procedures) के कितने कितने भयंकर प्रभाव हैं यह जानने के लिये आप को न्यू-यार्क टाइम्स की स्टोरी पढ़नी होगी जिस का लिंक मैंने ऊपर दिया है। एचआईव्ही, हैपेटाइटिस, टीबी, कैंसर, भय़ंकर एलर्जिक रिएक्शन ..... अनेकों भयंकर रोग इस तरह का काम करवाने से हो सकते हैं।

और जब इस तरह के परमानैंट मेकअप को उतरवाने की बात आती है तो और भी बड़ा पंगा ... रिपोर्ट में एक ऐसे ही विशेषज्ञ के बारे में बताया गया है जो लेज़र-ट्रीटमैंट से इन्हें उतार तो देता है लेकिन एक मरीज़ में इस तरह के मेकअप को उतारने में एक वर्ष लग गया –छः बार उसे वहां जाना पड़ा और दस हज़ार यू-एस डालर उसे फीस देनी पड़ी।

यह पोस्ट केवल इस लिये है कि अगर कभी इस तरह के मेकअप भारत में प्रवेश कर भी जाएं ---यकीन मानिए ये अवश्य आएंगे – तो हम पहले ही से स्वयं भी सचेत रहें और दूसरों को भी सचेत करते रहें ताकि गलती से भी यह गलती न हो जाए।

वैसे भी जो रियल ब्यूटी है वह कहां इन सब धकोंसलों की मोहताज है ....अगर मन अच्छा है, विचार अच्छे हैं तो वह चेहरे पर झलक ही जाती है, इसलिये बाहरी रंग रूप बिल्कुल ही बेमानी है, रियल ब्यूटी अंदरूनी है, जो बाहर परिलक्षित होती है ....एक ईमानदार मुस्कान के रूप में, सब के साथ एक जैसे मृदु-स्वभाव के रूप में, प्यार-आदर-सत्कार से सभी के साथ पेश आने से, हर किसी के मर्म को समझने से.......लेकिन यह क्या मैं तो सुबह सुबह फलसफ़ा झाड़ने लगा, इसलिये समय है कलम को यहीं विराम दे दूं।

यहां उस गीत का लिंक देना चाहता था ...कागज़ के फूल... खुशबू कहां से आयेगी... लेकिन आधा घंटा यू-ट्यूब पर ढूंढने पर भी जब वह नहीं दिखा तो बचपन में सैंकड़ों बार सुना वह गीत दिख गया ... बात वह भी यही कह रहा है ... सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से, खुशबू आ नहीं सकती कागज़ के फूलों से .... बात कितनी सही है...वैसे यह पुरानी फिल्म दुश्मन का गीत है .. यह फिल्म मुझे बहुत पसंद है... वह सुपर डुपर गीत भी इसी का ही है ....एक दुश्मन जो दोस्तों से भी प्यारा है... अगर अभी तो नहीं देखी, तो ज़रूर देखियेगा... मानवीय संवेदनाओं को झकझोड़ने वाली फिल्म है !



शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

दूषित ग्लूकोज़ ने ली कईं जानें

आज दोपहर मैं जब लोकसभा टीवी पर प्रश्न-काल के दौरान एक प्रश्न को सुन रहा था तो मुझे उस समय तो समझ नहीं आया कि यह किस संदर्भ में है .. प्रश्न यही था कि अगर ग्लूकोज़ चढ़ाए जाने से ही जान चली जाए तो यह एक गंभीर मामला है ... संसद सदस्य ने यह भी कहा कि अगर किसी की जान किसी दवाई से होने वाले रिएक्शन की वजह से जाती है तो वह बात तो समझ में आती है लेकिन अगर ग्लूकोज़ चढ़ाये जाने से मौतें हो जाती हैं तो यह एक गंभीर मसला है। स्वास्थ्य राज्य मंत्री ने प्रश्न रखने वाले सदस्य को विस्तृत जानकारी देने को कहा।

मैं तब से यही सोच रहा था कि आखिर यह मामला है क्या ....लेकिन सारा मामला मेरी समझ में तब आया जब मैंने अभी अभी बीबीसी की यह न्यूज़ स्टोरी देखी...Tainted IV Fluid kills 13 pregnant women in India. राजस्थान के जोधपुर में पिछले दस दिनों में तेरह गर्भवती महिलायें दूषित ग्लूकोज़ ड्रिप की बलि चढ़ गईं।

इस तरह का केस तो मैंने भी पहली बार ही सुना है कि दूषित ग्लूकोज़ चढ़ने से इतने लोगों की मौत हो गई। यह एक बेहद दुःखद घटना तो है ही लेकिन इस दुर्घटना से सबक इस तरह के सीखने की ज़रूरत है कि इस तरह की घटना फिर से न घटे।

इतना तो आप सब भी सुनते ही होंगे कि ग्लूकोज़ या कोई भी इंट्रा-विनस फ्लूयड़ (intravenous fluid) लगने से किसी को कोई रिएक्शन-सा हो गया ...कंपकंपी छिड़ गई लेकिन उस तरह के केसों पर डाक्टर तुरंत काबू पा लेते हैं।

मौतें तो हो गईं ... अब कारण का पता भी लगा ही लिया जाएगा कि ऐसा क्या था उस “लोकल” ग्लूकोज़ की बोतलों में जिस से कि बहुत ज़्यादा रक्त बह जाने से इतनी महिलाओं की मौत हो गई ...लेकिन मुझे लगता है कि इस दुर्घटना से उस तबके को भी सीख लेने की ज़रूरत है जो समझते हैं अपनी मरजी से कभी भी किसी तरह की शारीरिक दुर्बलता दूर करने के लिये ग्लूकोज़ चढ़ाने से सब कुछ ठीक हो जायेगा।

और आम आदमी के इस भ्रम को गांवों, कसबों के झोलाछाप डाक्टर भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। पहले तो खबरे देखते-सुनते थे कि ग्लूकोज़ आदि आई-व्ही फ्लूयड़ लगाने के लिये इस्तेमाल की जाने वाले आई-व्ही सैट (कैनुला आदि) की बढ़े स्तर पर री-साईक्लिंग होती है, कोई पता नहीं नीम-हकीम इस तरह की दवाईयां चढ़ाने के नाम पर कौन कौन सी लाइलाज बीमारियां भोली भाली जनता को चढ़ा देते हैं।

आमजन के इस बात पर विचार करना चाहिये कि अगर एक बड़े अस्पताल में इस तरह की दूषित ग्लूकोज़ की बोतलें पहुंच गईं तो इस तरह की क्वालिटी वाली बोतलों अथवा अन्य दवाईयों को अन्य छोटी जगहों पर पहुंचते कहां देर लगती होगी !

इस बात का बेहद दुःख है कि इतनी महिलाएं जो अपने नवजात शिशुओं को लेकर खुशी खुशी घर आतीं वे कहीं और हमेशा के लिये चली गईं.... आखिर किसी का तो दोष है, देखियेगा अगले कितने दिन यही दोषारोपण- प्रत्यारोपण चलता रहेगा, कुछ ही दिनों में मामला ठंडा भी पड़ ही जायेगा लेकिन दिवंगत  महिलाएं जिन परिवारों से जुड़ी हुई थीं उन का यह घाव हमेशा हरा रहेगा।

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

पीने वालों को पीने का बहाना चाहिये ..

अभी अभी बीबीसी की यह न्यूज़-स्टोरी दिख गई ...Alcohol in moderation can help prevent heart disease. अब इस तरह की रिपोर्टें नियमित दिखनी शुरू हो गई हैं .. इन्हें देख-पढ़ कर मुझे बहुत चिढ़ सी होती है क्योंकि इस तरह की खबरें देख-सुन कर फिर हमें मरीज़ों की कुछ ऐसी बातों का जवाब देने के लिये खासी माथापच्ची करनी पड़ती है।

इसी तरह की ख़बरें देखने के बाद ही लोग अकसर चिकित्सकों को कहना शुरू कर देते हैं ... डाक्टर साहब, आप लोग ही तो कहते हो कि थोड़ी बहुत ड्रिंक्स दिल की सेहत के लिये अच्छी होती है, फिर पीने में बुराई कहां है?


मुझे तो ऐसा लगने लगता है कि ये जो इस तरह की ख़बरें हमें दिखती हैं न ये सब के हाथ में (महिलाओं समेत) जाम थमाने की स़ाजिश है। आज जिस तरह से मीडिया ऐसी ख़बरों को उछालता है, ऐसे में ये बातें आम आदमी से छुपी नहीं रहतीं और वह समझता है कि उसे जैसे रोज़ाना जॉम छलकाने का  एक लाइसैंस ही मिल गया हो।

आप इस तरह की रिपोर्ट ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि कितनी कम मात्रा की की बात की जा रही है...और शायद दूर-देशों में शुद्धता आदि का इतना इश्यू होता नहीं होगा।

भारत में विषम समस्याएं हैं—देसी दारू, नकली शराब, ठर्रा ...आए दिन इन से होने वाली मौतों के बारे में देखते सुनते रहते हैं, इसलिये इस तरह की खबर किसे के हाथ पड़ने का क्या अंजाम हो सकता है, वह हम समझ ही सकते हैं।

रोज़ाना हम शराब से तबाह हुई ज़िदगींयां एवं परिवार देखते रहते हैं ... घटिया किस्म की दारू और साथ में नमक या प्याज़ या फिर आम के आचार के मसाले के साथ तो दारू पी जाती है, वहां पर तो दारू के शरीर पर होने वाले प्रभाव उजागर होते कहां देर लगती है, छोटी छोटी उम्र में लोगों को अपनी ज़िंदगी से हाथ धोना पड़ता है।

लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं कि अंग्रेज़ी दारू सुरक्षित है--उस के भी नुकसान तो हैं ही, और माफ़ कीजियेगा लिखने के लिये सभी तरह की दारू--देसी हो या अंग्रेज़ी --  ज़िंदगींयां तो खा ही रही  है--गरीब आदमी की देसी ठेकों के बाहर नाली के किनारे गिरे हुये और रईस लोगों की बड़े बड़े अस्पतालों के बिस्तरों पर...लिवर खराब होने पर कईं कईं वर्ष लंबा, महंगा इलाज चलता है ....लेकिन अफ़सोस... !!  और एक लिवर ही तो नहीं जो दारू से खराब होता है !!

लेकिन एक बात जो इस तरह की रिसर्च के साथ विशेष तौर पर लिखी रहती है वह प्रशंसनीय है .... इस में लिखा है कि इस रिपोर्ट का यह मतलब नहीं कि जो दारू नहीं पीते, वे इसे थोड़ा थोड़ा लेना शुरू कर दें...नहीं नहीं ऐसा नहीं है, क्योंकि रोज़ाना दारू से होने वाले दिल के रोग से जिस बचाव की बात हो रही है, वह तो रोज़ाना शारीरिक श्रम करने से और संतुलित आहार लेने से भी संभव है.

तो फिर इस तरह की रिपोर्ट की हमारे देश के लिये क्या उपयोगिता है ... इस की केवल यही उपयोगिता है कि जो लोग सभी तरह की जुगाड़बाज़ी के बावजूद भी रोज़ाना बहुत मात्रा में अल्कोहल गटक जाते हैं वे शायद इस तरह की खबर से लाभ उठा पाएं। लेकिन मुझे ऐसा कुछ खास लगता नहीं ...क्योंकि पुरानी पी हुई दारू भी तो शरीर के अंदर अपना रंग दिखा ही चुकी होगी!

लेकिन फिर भी एक शुरूआत करने में क्या बुराई है ... अगर कोई एक बोतल से एक पैग पर आ जाए तो यह एक खुशख़वार बात तो है ही ....लेकिन सोचता हूं कि क्या यह कर पाना इतना आसान है ?  नहीं न, आप को लगता है कि यह इतना आसान नहीं है तो फिर क्यों न हमेशा के लिये इस ज़हर से दूर ही रहा जाए........ हां, अगर कोई इस रिपोर्ट को पढ़ कर डेली-ड्रिंकिंग को जस्टीफाई करे तो करे, कोई फिर क्या करे  ?
इसे भी देखियेगा ...
थोड़ी थोड़ी पिया करो ? 
Alcohol in moderation 'can help prevent heart disease' (BBC Story)




रविवार, 20 फ़रवरी 2011

हैपेटाइटिस-सी के बारे में सब को जानना आखिर क्यों ज़रूरी है?

आज कल अकसर हैपेटाइटिस-सी के बारे में सुनते रहते हैं .. पहले जितना हैरतअंगेज़ हैपेटाइटिस बी के बारे में सुन कर लगता था, अब वही स्थिति हैपेटाइटिस-सी की है।

बड़ी समस्या यही है कि आज से कुछ साल पहले तक रक्त ट्रांसफ्यूज़न से पहले रक्त दान से प्राप्त रक्त की हैपेटाइटिस-सी संक्रमण के लिये रक्त की जांच होती नहीं थी। यह जांच तो अमेरिका में ही नवंबर 1990 में शुरू हुई थी.... जहां तक मुझे ध्यान आ रहा है सन् 2000 तक इस के बारे में भारत चर्चा तो गर्म हो चुकी थी कि रक्त दान से प्राप्त रक्त की हैपेटाइटिस सी के लिये भी जांच होनी चाहिये।

मैंने आज सुबह यह जानकारी नेट पर सर्च करनी चाही कि वास्तव में भारत में यह टैस्टिंग कब से शुरू हुई लेकिन मुझे कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं मिली... इस के बारे में ठीक पता कर के लिखूंगा। मेरा एक बिल्कुल अनुमान सा है कि शायद पांच-सात पहले यह टैस्टिंग नहीं हुआ करती थी.... लेकिन फिर भी कंफर्म कर के बताऊंगा।

इतना तो है कि जो रक्त जनता को ब्लड-बैंक से पांच सौ रूपये में मिलता है उस की तरह तरह की टैस्टिंग के ऊपर सरकार का लगभग 1400 रूपये तो टैस्टिंग का ही खर्च आ जाता है ... एचआईव्ही, हैपेटाइटिस बी, सी , मलेरिया, व्ही.डी.आर.एल टैस्ट आदि ये सब टैस्ट किये जाते हैं।

हां, तो भारत में भी आज से कुछ साल पहले तक जो रक्त लोगों को चढ़ता रहा है उस की हैपेटाइटिस सी जांच तो होती नहीं थी... और प्रोफैशनल रक्त दाताओं की भी समस्या तो पहले ही रही है जिन में से कुछ नशों के लिये सूईंयां बांट लिया करते थे। गांवो-शहरों के नीम हकीम बिना वजह संक्रमित सूईंयों से दनादन इंजैक्शन बिना किसी रोक-टोक के लगाये जा रहे हैं, झोलाछाप डाक्टर सीधे सादे आम आदमी की सेहत के साथ खिलवाड़ किये जा रहे हैं... देश में जगह जगह संक्रमित औज़ारों से टैटू गुदवाने का शौक बढ़ता जा रहा है.... ऐसे में कोई शक नहीं कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्हें यह नहीं पता कि वे अन्य रोगों के साथ हैपेटाइटिस सी से संक्रमित हो सकते हैं।

हैपेटाइटिस सी ऐसी बीमारी है जिसके 20-30वर्ष तक कोई भी लक्षण नहीं हो सकते ...लेकिन लक्षण नहीं तो इस का यह मतलब नहीं कि यह वॉयरस शरीर में गड़बड़ नहीं कर रही। अब जिन लोगों को बहुत वर्षों पहले रक्त चढ़ा था या ऐसे ही कहीं किसी भी जगह से कोई टीका आदि लगवाया था या टैटू आदि गुदवाया था, मेरे विचार में ऐसे सभी लोगों को चाहे कोई तकलीफ़ है या नहीं, अपना हैपेटाइटिस सी टैस्ट तो करवा ही लेना चाहिये ... लेकिन अपने फ़िज़िशियन से बात करने के बाद.. शायद वह आप को कोई अन्य भी करवाने के लिये कहें, इसलिये सब एक साथ ही हो जाए तो बेहतर होगा।

और अगर टैस्ट पॉज़िटिव है भी तो हौंसला हारने की तो कोई बात है नहीं .... नईं नईं रिसर्च रिपोर्टे आ रही हैं कि इस पर भी कैसे कंट्रोल पाया जा सकता है। लेकिन सब से ज़रूरी बात है कि अगर हैपेटाइटिस सी का टैस्ट पाज़िटिव भी आया है तो उस से संबंधित सभी टैस्ट किसी कुशल फ़िज़िशियन अथवा गैस्ट्रोएंट्रोलॉजिस्ट ( पेट की बीमारियों के विशेषज्ञ) की सलाह अनुसार करवा कर उन की सलाह अनुसार (अगर वे कहें तो) दवाई का पूरा कोर्स भी ज़रूर कर लेना चाहिये। अभी अभी मैं एक रिपोर्ट पढ़ रहा था कि किस तरह इस बीमारी पर काबू पाया जा सकता है।
संबंधित जानकारी ....
New Hope for Hepatitis C






शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

टैटू गुदवाने से हो सकती हैं भय़ंकर बीमारियां

सुनते हैं कि पुराने ज़माने में टैटू गुदवाने का बड़ा शौक हुआ करता था.. और ये अपना नाम, अपने धर्म चिन्ह अथवा देवी-देवताओं की आकृतियां टैटू के रूप में गुदवाने का काम मेलों आदि में खूब ज़ोरों शोरों से हुआ करता था।

लगभग छः साल पहले हम लोग भी मुक्तसर में माघी का मेला देखने गये .. मुक्तसर शहर फिरोज़पुर से लगभग 50किलोमीटर दूर है और वहां का माघी का मेला बहुत प्रसिद्ध है। अन्य नज़ारों के इलावा वहां ज़मीन पर बैठे एक टैटू बनाने वाले को भी देखा.. वह 20-20, 30-30 रूपये में टैटू बनाये जा रहा था... जिसे जो भी आकृति चाहिये होती वह पांच मिनट में बनती जा रही थी।

कोई मशीन की साफ़ सफ़ाई का ध्यान नहीं, और यह संभव भी नहीं था। लेकिन लोग जो इस तरह का खतरनाक गुदवाने का काम करवाते हैं वे इस के संभावित दुष्परिणामों से अनभिज्ञ होते हैं ... यह उन्हें एचआईव्ही, हैपेटाइटिस बी एवं सी जैसी बीमारियां दे सकता है। मैं अकसर ऐसे मौकों पर सोचता हूं कि इस तरह के धंधे कब तक चलते रहेंगे .. या तो लोग ही इतने जागरूक हो जाएं कि इस सब के चक्कर में न पड़ें, वरना सरकारी तंत्र को मेलों आदि से इस तरह की “कलाओं” को दूर रखना चाहिये।

मुझे आज इस का ध्यान इसलिये आया क्योंकि सुबह मैं msnbc की साइट पर एक न्यूज़-स्टोरी देख रहा था जिस में बताया गया था कि जर्मनी में टैटू बनाने के लिये इस्तेमाल की जाने वाली स्याही में विषैले तत्व पाये गये जिस से चमड़ी का कैंसर तक होने का खतरा मंडराने लगता है। मैंने भी आज तक टैटू के अन्य नुकसान दायक पहलूओं के बारे में ही सोचा था ...और आज उस में एक बात और जमा हो गई है ...इस में इस्तेमाल की जाने वाली स्याही।

और एक बात ...अगर जर्मनी जैसे देश में ऐसी बात सामने आई तो आप स्वयं सोच सकते हैं कि हमारे देश में फुटपाथ पर बैठ कर इस तरह का धंधा करने वाले कैसी स्याही इस्तेमाल करते होंगे।

एक तो हिंदी प्रिंट मीडिया भी लोगों को बहुत उकसाता है... कुछ दिन पहले मैंने एक दूध की डेयरी पर पड़ी एक हिंदी की अखबार देखी.. उस में होठों के अंदर की तरफ़ विभिन्न आकर्षक आकृतियां गुदवाने के बारे में बताया गया था। और साथ में एक रंगीन तस्वीर भी छपी थी ... मैंने उस लेख को इसलिये पढ़ा क्योंकि मैं यह जानना चाहता था कि क्या इस से भयंकर बीमारियां होने के खतरे के बारे में कुछ लिखा गया है ...नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं लिखा गया था।

बात वही है, अब लोगों को स्वयं जागरूक होना होगा.. ये सब मुद्दे बेहद अहम् हैं .. लेकिन अखबारों के अपने मुद्दे हैं, उन की अपनी प्राथमिकताएं हैं.... क्योंकि उस लिप-टैटू के नुकसान बताए जाने से कहीं ज़्यादा उस अखबार ने एक लंबी-चौड़ी खबर के द्वारा पाठकों को यह बताना ज्यादा ज़रूरी समझा कि किस तरह से दस साल से बिना शादी के रहने वाले दो फिल्मी कलाकार अब अलग हो गये हैं.... अब हो गये हैं तो हो गये हैं, इस से आमजन को क्या लेना देना, यार, आम आदमी के सरोकारों की बात कौन करेगा ?

वैसे एक बात है कि ये जो बच्चे धुल जाने वाले टैटू को कभी कभी लगा कर अपना शौक पूरा कर लेते हैं, वही ठीक है। पता नहीं ना कि अब इस में कंपनियां किस तरह का कैमिकल इस्तेमाल करती होंगी, लगता है कि इस तरह के सभी शौंकों से दूर ही रहने में समझदारी है।



शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

तंबाकू उत्पादों के प्लास्टिक पाउचों में बिकने पर प्रतिबंध

आज मुझे दा हिंदु में यह खबर पढ़ कर बहुत खुशी हुई .. Plea for postponing ban on tobacco products in plastic pouches rejected. वैसे तो आज छुट्टी का दिन था, बिल्कुल आलसी सी सुबह ...लेकिन यह खबर पढ़ कर इतनी ताज़गी महसूस हुई कि सोच में पढ़ कर अगर खबर से ही इतनी खुशी मिली है तो 1 मार्च से जब यह प्रतिबंध लागू हो जायेगा तब मैं अपनी खुशी को कैसे संभालूंगा !

नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक हैल्थ ने एक विस्त्तृत रिपोर्ट में कहा है कि भारत में मुंह के कैंसर के लगभग 90 प्रतिशत केस तंबाकू के विभिन्न उत्पादों की वजह से होते हैं और खौफ़नाक बात यह भी है कि अब स्कूली बच्चे भी इस लत की चपेट में आ चुके हैं।

अच्छा एक बात है कि आप शायद सोच रहे होंगे कि अब ये सब उत्पाद प्लास्टिक पाउच में नहीं बिकेंगे, इस से भला मैं क्या इतना खुश हूं ... तो जानिए ......

  • -- सब से पहले तो यह है कि जब इतना प्लास्टिक इस तरह के उत्पादों की पैकिंग के लिेये इस्तेमाल नहीं होगा तो अपने आप में यह एक पर्यावरण के संरक्षण के लिये अनुकूल कदम है। इस तरह का नियम बनाने वालों को हार्दिक बधाई। 
  • -- ऐसा मैंने कहीं पढ़ा था कि प्लास्टिक पाउच की वजह से कुछ ऐसे तत्व भी इन उत्पादों में जुड़ जाते हैं जो कि इन के हानिकारक प्रभाव और भी बढ़ा देते हैं। ( अगर पैकेट पर पहले ही से लिखा है कि इस के इस्तेमाल से कैंसर होता है तो फिर किसी तरह के अन्य विष के जोड़ने की  कोई गुंजाइश रहती है क्या? ) 
  • -- इस खबर से खुशी मुझे इसलिये भी हुई है कि मुझे ऐसा लगता है कि अब इस तरह के "ज़हर" ( जो किसी की जान लेने की क्षमता रखते हैं, वे ज़हर नहीं तो और क्या हैं !) ..बड़े पैकेटों में नहीं बिकेंगे... और अगर बिकेंगे तो रोज़ाना क्लेश होंगे क्योंकि कागज के पाउच की वजह से रोज़ाना नईं नईं कमीज़ें खराब हुआ करेंगी और रोज़ाना बहन, मां, बीवी की फटकार कौन सहेगा? शायद इस की वजह से ही यह आदत कुछ कम हो जाए...
  • -- मेरे बहुत से मरीज़ अपनी ओपीडी स्लिप जब तंबाकू के किसी खाली पाउच में से निकाल कर मुझे थमाते हैं तो मुझे लगता था कि वे मुझे चिढ़ा रहे हों कि देखो भाई, हम तो इस तंबाकू ब्रांड के ब्रांड अम्बैसेडर हैं.... अब कहां से वे अपने कागज़, नोट आदि इस तरह के प्लास्टिक के पाउचों में रख पाएंगे.... एक तरह से यह भी एक विज्ञापनबाजी थी जो पब्लिक स्थानों पर बंद हो जायेगी, इसलिये भी मैं बहुत खुश हूं। 
वैसे मैं उन्हें अकसर कह ही दिया करता हूं कि यार, अपने एक फटे पुराने कागज़ की इतनी फिक्र करते हो और जो शरीर रोज़ाना धीरे धीरे तंबाकू की बलि चढ़ता जा रहा है, इस के बारे में कभी सोचा है?

एक समस्या है अभी अभी... रोज़ाना देखता हूं कि कुछ कालजिएट मोटरसाईकिल सवार युवक जो किसी पनवाड़ी की दुकान पर रूकते हैं और बिंदास अंदाज़ में एक नहीं, गुटखे के दो दो पाउच बड़े टशन के अंदाज़ में मुंह में उंडेलते ही बाइक पर किक मारते ही उड़ने लगते हैं, इन को शायद पैकिंग से कोई फर्क नहीं पड़ेगा... प्लास्टिक में हो या कागज़ में, इन्हें तो बस "किक" से मतलब है।

मैं तंबाकू के कोहराम पर कुछ लेख लिख चुका हूं , कभी फुर्सत हो तो एक नज़र मार लीजिए।

वैसे इस खबर से खुशी इस बात की भी है कि इस तंबाकू रूपी कोहराम के तालाब में किसी ने पत्थर मार के रिपल्ज़ (ripples...तरंगे) तो पैदा कीं .... अब देखते हैं इस उथल-पुथल से, इस झनझनाहट से कितना फ़र्क पड़ता है ... कुछ भी हो, एक अच्छी शुरूआत है , एक सराहनीय पहल है... After all, a journey of three thousand miles starts with the first step ! काश, किसी दिन ऐसी ही सुस्ताई सुबह को यह खबर भी मिले कि तंबाकू के सभी उत्पादों पर प्रतिबंध लग गया है... न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी .... क्यों नहीं हो सकता? सारी दुनिया आस पर ही तो टिकी हुई है !!

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

पान से भी होता है पायरिया

इस 26वर्षीय युवक के मुंह की तस्वीर से यह दिख रहा है कि इसे पायरिया रोग है— डाक्टरी भाषा में इसे Chronic gingivitis कहते हैं.. इस की परेशानी यह है कि वह जब भी ब्रुश करता है तो उस के मसूड़ों से रक्त निकलने लगता है। पायरिया रोग का यह एक अहम् लक्षण है, अन्य लक्षण जो इस फोटो में देखे जा सकते हैं ..

सूजे हुये मसूड़े जिन का रंग लाल हो चुका है
दांतों पर टॉरटर जमा हुआ है
नार्मल मसूड़ों में एक फीचर – stippling – इस के मसूड़ों से गायब है, इस का मतलब यह है कि सामान्य मसूड़े को देखने पर उनका टैक्श्चर बिल्कुल संतरे के छिलके जैसा लगता है, जो कि पायरिया में गायब हो जाता है..


यह युवक पहले तो कह रहा था कि वह रोज़ाना एक तंबाकू वाला पान पिछले छःमहीने से खा रहा है ..लेकिन मेरे बार बार पूछने पर फिर कहने लगा कि शायद एक साल ही हो गया होगा। लेकिन मुझे लगता नहीं कि पान केवल एक साल में ही इतनी गड़बड़ कर सकता है, मैं जजमैंटल नहीं हो रहा हूं लेकिन मेरा अनुभव बता रहा है कि यह लंबे समय से यह तंबाकू वाला पान खा रहा होगा।

वैसे उस ने पिछले एक सप्ताह से पान खाना छोड़ दिया है ... मुझे कईं बार लगता है कि जैसे रेल का टी टी दिन में कईं बार सुनता है कि ओह...ओह ...मेरी टिकट कहां गई?  किसी ने पर्स उड़ा लिया है ... टिकट तो मेरे पास ही थी.....उसी तरह हम लोग भी यह तंबाकू, गुटखा, पान, ज़र्दा के बारे में यह सुन सुन कर पक चुके हैं ..पहले खाता था, अब तो छोड़ चुके हैं! 

लेकिन हमारी यही कोशिश होती है कि कोई बात नहीं, आज के बाद तुम्हारे  मन में इन ज़हरीले पदार्थों के प्रति इतनी नफ़रत पैदा हो जाएगी कि तुम इन्हें देखोगे भी नहीं ... और अकसर मैं तो इस मिशन में कामयाब हो ही जाता हूं ..क्योंकि मुझे लगता है कि अगर मेरी हार होगी तो तंबाकू लॉबी की जीत हो जायेगी .....एक इंसान या यूं कह लें कि एक परिवार बरबाद हो जायेगा क्योंकि देर-सवेर कब यह आदत मुंह के कैंसर की खाई में धकेल देगी पता भी नहीं चलेगा और जब पता चलेगा भी तो बहुत देर हो चुकी होगी !!

दूसरी तस्वीर में आप देख सकते हैं कि उस के नीचे के अंदर वाले दांतों के अंदर भी कितना टॉरटर जमा हुआ है। इस का इलाज तो आसान है ही.. लेकिन उस के साथ साथ यह भी बेहद ज़रूरी है कि उस लत को हमेशा के लिये लात मार दी जाए जिस की वजह से यह सब हुआ। कह तो वह युवक भी रहा था कि अब तो पान को हाथ नहीं लगाऊंगा.और कह रहा था कि पिछले चार पांच वर्ष से वह रोज़ाना एक सिगरेट पीता है आज से वह भी छोड़ देगा।

जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि जितनी भयानक यह तकलीफ़ दिखती है उतनी है नहीं, इस उम्र में इस अवस्था का इलाज बिल्कुल आसान है लेकिन आगे से उसे सुधर जाना होगा।

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

ओव्हर-डॉयग्नोसिस से ओव्हर-ट्रीटमैंट का कुचक्र.. 3.(concluded)

अगर बीते ज़माने के चिकित्सकों के पास ऐसा हुनर था कि वे नब्ज़ पर हाथ रख कर किसी की शारीरिक एवं मानसिक हालत का पता लगा लिया करते थे तो क्या आज के चिकित्सक के पास यह क्षमता ही नहीं है ?

चिकित्सा क्षेत्र भी बाज़ारवाद से अनछुआ नहीं रह पाया और यह संभव भी नहीं था। जब महिलाओं के लिये बोन-स्कैन (हड्डी स्कैन) आदि के लिये कैंप आदि लगते हैं तो मुझे यह सब देख कर बड़ा अजीब सा लगता है कि जहां पर अधिकांश महिलायें ढंग का खाना तो खा नहीं पातीं, ऐसे में इन की हड्डीयों का स्कैन करने से क्या हो जाएगा?  महिलाओं में रक्त की कमी तो सालों-साल दूर होती नहीं और ये बोन-स्कैन .....।

बात क्लोरोक्विन से भी कड़वी है लेकिन अब है तो है ... इस से कैसे मुंह फेर लें .. चिकित्सा क्षेत्र में बड़ी बड़ी मशीनें आ गई हैं तो उन पर जंग तो कोई लगने नहीं देगा, खूब पैसा लगा है उन पर, इसलिये टैस्ट तो होंगे ही ... अब कौन सा टैस्ट ज़रूरी है और कौन सा नहीं, इस प्रश्न का उत्तर अगर पश्चिमी देशों में निरंतर ढूंढा जा रहा है तो हमारी तो बात ही छोड़ दें....यह एक विकराल समस्या तो है ही जैसा कि इस से पहली दोनों पोस्टों में यह डिस्कस किया जा चुका है।

आज आम आदमी भी ऐसा ही सोचने लगा है कि पांच-सितारा होटलों जैसी सुविधाओं से लैस टनाटन हास्पीटल खुल तो गये हैं ... खैरात बांटने के लिये तो खुले नहीं, इन के बिस्तरों पर सड़कछाप आम  आदमी तो सुस्ताने से रहा ... अब इन अस्पतालों में महंगे महंगे आप्रेशन होंगे, भारी भरकम पर्स वाले इन के बैडों पर कुछ दिन स्वास्थ्य लाभ पाएंगे, भारी भरकम बिल आएंगे तो बात बनेगी ......वरना, ये तो बंद पड़ जाएंगे।

हां, तो बात हो रही थी चिकित्सक के हुनर की ... अब चर्चा होने लगी है कि लगातार प्रगति करती तकनीकों की वजह से चिकित्सक एवं मरीज़ के संबंध पहले जैसे नहीं रहे, काफ़ी कमज़ोर पड़ गये हैं। ताली एक हाथ से नहीं बजती ...उसी तरह न तो मरीज़ के पास टाइम है, उस के अपने फंडे हैं, वह सोचता है कि धन के बलबूते पर वह सब कुछ खरीद लेगा ..महंगे से महंगा इलाज करवा लेगा ...लेकिन ज़रूरी नहीं कि महंगा इलाज ही उस के लिये उपर्युक्त हो और उस से सब कुछ ठीक भी हो जाए..।

सारा सिस्टम इस तरह का हो गया है कि कईं बार लगता है कि चिकित्सकों के पास भी पहले ज़माने के चिकित्सकों की तरह समय नहीं है, और इस में केवल उन का दोष नहीं है ... एक एक दो दो मिनट में मरीज़ “निपटाएं जाएंगें” तो फिर न तो मरीज़ की ही संतुष्टि होती है और न ही डाक्टर की प्रोफैशनल संतुष्टि... अकसर देखने में आता ही है कि अब मरीज़ के साथ पंद्रह मिनट बिताने की फुर्सत कहां? …..क्या कहा, फुर्सत ही फुर्सत है, डाक्टर लोग इतना समय आराम से दे देते हैं, तब तो बहुत बढ़िया बात है।

कहने को तो हम कह देते हैं कि पहले चिकित्सक बहुत लायक हुआ करते थे .. हों भी क्यों न? उन्हें अपने मरीज़ों की शारीरिक अवस्था के साथ साथ पारिवारिक, सामाजिक, मानसिक, आर्थिक, पारस्परिक संबंधों, और भी जितनी अवस्थायें हो सकती हैं, उन सब का ज्ञान होता था। ऐसे में वे मरीज़ का होलिस्टिक इलाज (holistic health care)  कर पाते थे क्योंकि वे अंदर की भी सभी बातें जानते थे, अब सब कुछ हो गया.... छिन्न छिन्न, ऐसे में किसी भी चिकित्सक से कहां वैसे हुनर की अपेक्षा की जा सकती है। ज़रूर होंगे ऐसे भी चिकित्सक कहीं तो लेकिन सुना है उन की संख्या नित-प्रतिदिन घटती जा रही है।

यह पोस्ट लिखते मुझे ध्यान आ रहा है कि आखिर दोष किस का है? मरीज़ का, डाक्टर का, समाज का, सामाजिक व्यवस्था का, बाज़ारवाद का, आधुनिकता की बेतहाशा अंधी दौड़ का, हमारे लगातार बिगड़ते सामाजिक संबंधों का, धार्मिक असहिष्णुता का ........ यकीनन दोष इन सब का ही है, केवल यह कहना कि डाक्टर अपनी जगह पर ठीक हैं, मरीज़ अपनी जगह पर ठीक हैं......इतना कह देना ही काफ़ी नहीं है...क्योंकि किसी भी समाज का स्वास्थ्य ऐसी अनेकों बातों पर भी निर्भर करता है जिन का मैडीकल क्षेत्र से कुछ लेना देना होता ही नहीं है। यह एक जटिल एवं विषम मुद्दा है ...जो भी है, एक अभिलाषा है कि कम से कम यह क्षेत्र बाज़ारवाद की मार से बच पाए....।

पोस्ट समाप्त करते करते ध्यान आ रहा है हमारे एक महान् प्रोफैसर का जो अकसर हमें कहा करते थे ... Listen to the patient, he is giving you the diagnosis ! (मरीज़ को ध्यान से सुना करो, वह अपना डॉयग्नोसिस स्वयं तुम्हें बता रहा होता है) ……और आज भी चिकित्सक पूर्णतयः सक्षम है ....क्या आप को पता है कि चिकित्सक किसी भी मरीज़ की बीमारी का पता यह देख कर लगाना शुरू कर देता है कि मरीज़ किस ढंग से चल कर उस के कमरे में आया है, मरीज़ का चेहरा, उस की सांसों की महक, उस की चमड़ी की हालत, उस के हाथों का तापमान.......अनेकों अनेकों तरीके हैं मंजे हुये चिकित्सक के पास उस की तकलीफ़ ढूंढने निकालने के लिये .....लेकिन इस सब के लिये उस के हाथों को छूना भी पड़ेगा, उस के कंधे पर हाथ भी रखना होगा, ज़रूरत पड़ने पर उस का पेट को हाथ भी तो लगाना होगा......इस का जवाब मैं आप के ऊपर छोड़ता हूं कि क्या यह सब उतने अच्छे ढंग से हो पाता है जहां बीसियों मरीज़ों लाइन में अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे होते हैं और साथ में उन की टिप्पणी बार बार चिकित्सक के कान में पड़ती रहती है ... यह डाक्टर नया है क्या ? इतना समय लगता है क्या दवाई लिखने में ?

सच्चा कौन है –डाक्टर या मरीज़? --इस पोस्ट का उद्देश्य केवल एक बात को रेखांकित करना है कि ताली दोनों हाथों से बजती है, ज़रूरत है समाज के सभी अंगों को अपने आप को टटोलने की....... बस, मुझे अभी इतना ही कहना है, अगर आप के मन में भी कुछ बातें हैं तो टिप्पणी में लिखियेगा।

ओव्हर-डॉयग्नोसिस से ओव्हर-ट्रीटमैंट का कुचक्र.. 2.

हां तो बात चल रही थी बिना वजह होने वाले सी.टी स्कैन एवं एम आर आई की .. यह सब जो हो रहा है हम पब्लिक को जागरूक कर के इसे केवल कुछ हद तक ही कम कर सकते हैं। मार्कीट शक्तियां कितनी प्रबल हैं यह आप मेरे से ज़्यादा अच्छी तरह से जानते हैं।

नितप्रतिदिन नये नये टैस्ट आ रहे हैं, महंगे से महंगे, फेशुनेबल से फेशुनेबल ... अभी दो दिन पहले ही अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने एक थ्री-डी मैमोग्राफी को हरी झंडी दिखाई है। वैसे तो अब मैमोग्राफी की सिफारिशें भी संशोधित की जा रही हैं ... वैसे भारत में तो यह समस्या (बार बार मैमोग्राफी करवाने वाली ) भारत में देखने को बहुत कम मिलती है ... क्योंकि विभिन्न कारणों की वजह से यहां महिलायें ये टैस्ट करवा ही नहीं पातीं... और विशेषकर वह महिलायें जिन्हें इन की बहुत ज़्यादा ज़रूरत होती है..... इन दिनों विदेशों में इस टैस्ट के बारे में भी गर्म चर्चा हो रही है ...और जिस उम्र में यह टैस्ट किया जाना शुरू किया जाना चाहिए अब उसे आगे बढ़ा दिया गया है ...

भारत में तो महिलायें अगर वक्ष-स्थल के नियमित स्वतः निरीक्षण (regular self-examination of breasts) के लिये भी जागरूक हो जाएं तो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी ...ताकि समय रहते वे किसी भी गांठ को अपनी डाक्टर को दिखा कर शंका का निवारण कर सकें।

अब थोड़ी बात करते हैं ..पौरूष-ग्रंथी (prostate gland) के लिये किये जाने वाले टैस्टों के बारे में ...एक उम्र के बाद पुरूषों के नियमित चैक-अप में प्रोस्टेट ग्लैंड की सेहत पता करने के लिये भी एक टैस्ट होता है .. Prostate specific antigen. यह एक तरह की रक्त की जांच है और इस की वेल्यू नार्मल से बढ़ी होने पर कईं बार अन्य टैस्टों को साथ रख कर देखते हुये प्रोस्टेट ग्रंथी के कैंसर से ग्रस्त होने की आशंका हो जाती है और पिछले कुछ महीनों में यह इसलिये चर्चा में है क्योंकि इस टैस्ट के अबनार्मल होने की वजह से प्रोस्टेट के इतने ज़्यादा आप्रेशन कर दिये गये और बहुत से लोगों को तो कैंसर का इलाज भी दे दिया गया  ...लेकिन चिकित्सा वैज्ञानिकों ने बाद में यह निष्कर्ष निकाला कि केवल इस टैस्ट की वेल्यू बढ़ी होने से ही इस ग्रंथी के इलाज के बारे में कुछ भी निर्णय लेना उचित नहीं है। इसलिये अब प्रोस्टेट ग्लैंड की बीमारी जानने के लिेये दूसरे पैरामीटर्ज़ पर भी ज़ोरों-शोरों से काम चल रहा है।

अमेरिका में हर साल 10 लाख बच्चों के टोंसिल का आप्रेशन कर के उन के टौंसिल निकाल दिये जाते हैं...और इन की उम्र 15 वर्ष से कम की होती है...लेकिन अब ताज़ा-तरीन सिफारिश कह रही है कि नहीं, नहीं, मॉडरेट केसों के लिये यह टौंसिल निकालने का आप्रेशन बंद किया जाए ....

तो, ये तो थी केवल कुछ उदाहरणें ... बातें केवल यही रेखांकित करती हैं कि हम लोग कभी भी शैल्फ-डॉयग्नोसिस के चक्कर में न ही पड़ें तो ठीक है, वरना तो रिस्क ही रिस्क है। और आप देखिये कि मैडीकल साईंस में रोज़ाना बदलाव हो रहे हैं.... विभिन्न तरह के टैस्टों की, दवाईयों की, आप्रेशनों की सिफारिशें नये शोध के मद्देनज़र अकसर बदलती रहती हैं, ऐसे में अगर कोई समझ ले कि नेट पर सेहत के बारे में दो बातें पढ़ कर वह स्वयं कोई टैस्ट करवा लेगा और स्वयं भी अपनी तकलीफ़ का निदान और शायद चिकित्सीय उपचार भी ढूंढ ही लेगा, तो ऐसा सोचना एकदम फ़िजूल की बात है.... इस जटिल शरीर-प्रणाली को समझते जब डाक्टरों की उम्र बीत जाती है तो फिर आम जन कहां ....!! लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं कि सामान्य बीमारियों, जीवनशैली से संबंधित रोगों के बारे में अपना ज्ञान ही न बढ़ाया जाए .....यह बहुत ज़रूरी है, इस से हमें होलिस्टिक जीवनशैली (holistic lifestyle) अपनाने के बारे में सोचने का कम से कम अवसर तो मिलता ही है।
शेष ...अगली पोस्ट में..



ओव्हर-डॉयग्नोसिस से ओव्हर-ट्रीटमैंट का कुचक्र.. 1.

अभी पिछले कुछ दिनों में ओव्हर-डॉयग्नोसिस और उस के बाद बिना वजह इलाज के बारे में बहुत कुछ देखने को मिला। कुछ ही दिन पहले की बात है कि एक स्टडी का यह परिणाम सामने आया कि अमेरिका में हज़ारों लोगों के हृदय के ऐसे आप्रेशन ( heart devices) कर दिये गये जिन की उन्हें ज़रूरत ही नहीं थी।

एक अंग्रेज़ी की कहावत है...little knowledge is a dangerous thing! लोगबाग भी बस टीवी पर एक कार्यक्रम देख कर या अखबार में एक "एड्वर्टोरियल"(जिस विज्ञापन को एक खबर का रूप दे कर आप के सामने पेश किया जाता है) पढ़ कर तय कर लेते हैं कि हो न हो, यह जो सिरदर्द कईं दिनों से हो रहा है, यह किसी ब्रेन-ट्यूमर की वजह से हो सकता है।

डाक्टर के पास जाकर सीधा यह कहने वालों की गिनती में कोई कमी नहीं है कि वे सी.टी स्कैन अथवा एम.आर.आई करवाना चाहते हैं...डाक्टर लोग अपनी जगह अलग परेशान हो जाते हैं कि यह क्या माजरा है। और अगर कोई ऐसा न करवाने का मशविरा देता है तो क्या फर्क पड़ता है, कोई दूसरा तो लिख देगा। और शायद जिस मरीज़ ने पैसे स्वयं भरने हैं उन का वैसे ही स्वागत है ...किसी भी सेंटर में जाकर कुछ भी करवा के आ जाएं। और जिन संस्थाओं में यह खर्च सरकार द्वारा वहन किया जाता है, वहां पर भी विभिन्न कारणों की वजह से इस तरह के टैस्ट खूब हो ही रहे हैं। कईं बार सोचता हूं कि इस तरह की एक स्टड़ी होनी चाहिये जिस से यह पता चल सके कि जितने भी ये सीटी स्कैन, एम आर आई टैस्ट हुये इन में से कितनों की रिपोर्ट में कुछ गड़बड़ी आई .... और कितने केसों का आगे इलाज इन की रिपोर्ट के आधार पर हो पाया।

अब खूब लिटरेचर आ चुका है कि बिना वजह किये गये सी टी स्कैन आदि से किरणें हमारे शरीर में कितना नुकसान पहुंचा सकती हैं.... वैसे मैं यह भी सोचता हूं कि मरीज़ के स्वयं डाक्टर को सीटी स्कैन के लिये न कहने ही से क्या सब कुछ ठीक हो जायेगा......इस का जवाब तो आप जानते ही हैं। लेकिन मरीज़ों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे कभी भी डाक्टर को स्वयं इस तरह के टैस्टों के बारे में न कहें.... they are the best judge ...they know inside out of our systems!

चौंकने वाली बात तो यह है कि एमआरआई जैसे महंगे टैस्ट हो तो गये और बहुत बार इन में कोई unrelated changes (अनरिलेटेड बदलाव) दिख जाते हैं जिन का न तो वैसे पता ही चलता, और न ही इन की वजह से कभी तकलीफ़ ही होती और इसलिये इन का न ही कोई इलाज ही किया जाता ....लेकिन देख कर तो मक्खी कैसे निगली जाए...अब जब रिपोर्ट में आ जाए कि यह यह बदलाव अनयुयुल हैं तो फिर उन के इलाज के चक्कर में अकसर लोग पड़ जाते हैं या यूं भी कह लें कि इस तरह के चक्कर में डाल दिये जाते हैं। कल ही एक स्टडी देख रहा था कि यह जो लो-बैक के दर्द (low back pain) के लिये भी इतने एमआरआई हो रहे हैं इन की ज़रूरत ही नहीं होती।
बाकी अगली पोस्ट में ....




सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

दवा की पुड़िया लेना खतरनाक तो है ही !

हर रोज़ मेरी मुलाकात ऐसे मरीज़ों से होती है जो पुरानी बीमारियों से जूझ रहे होते हैं और देसी दवाईयां ले रहे होते हैं.. और देसी दवाईयां कौन सी ? जो कोई भी नीम हकीम पुड़िया बना कर इन लोगों को थमा देता है और यह लेना भी शुरू कर देते हैं।

मैं किसी भी मरीज़ द्वारा इन पुडि़यों के इस्तेमाल किये जाने के विरूद्ध हूं। उस के कारण हैं ...मैं सोचता हूं कि नामी गिरामी कंपनियों की दवाईयां तो कईं बार क्वालिटी कंट्रोल टैस्ट पास कर नहीं पाती, ऐसे में इन देसी दवाईयों का क्या भरोसा? आज कल तो अमेरिका जैसे देशों में भी कुछ तरह की ये देसी दवाईयां खूब चर्चा में हैं .... यहां जैसा तो है नहीं वहां पर, टैस्टिंग होती है और फिर पोल खुल जाती है।

दूसरा कारण यह भी है कि अकसर सुनने में आता है कि नीम-हकीमों को यह पता लग चुका है कि ये जो स्टीरॉयड नाम की दवाईयां हैं, ये राम बाण का काम कर सकती हैं ....बस इन लालची किस्म के लोगों ने इन दवाईयों को पीस कर इन पुड़ियों में मिला कर आमजन की सेहत से खिलवाड़ करना शुरू किया हुआ है। यह आज की बात नहीं है, यह सब कईं दशकों से चल रहा है।

दो दिन पहले एक महिला आईं ... उस का पति बताने लगा कि यह गठिया से ग्रस्त है ..मैंने कहा कि कोई दवाई आदि ? ...उस ने बताया कि इसे तो केवल एक देसी दवाई से ही आराम आता है ...उस से यह झट खड़ी हो जाती है .. मेरे पूछने पर उस ने बताया कि यह दवाई पुड़िया में मिलती है। मैंने उसे समझाया तो बहुत कि इस तरह की दवाई खाने के नुकसान ही नुकसान है , इस तो कईं गुणा बेहतर यही है कि आप इस के लिये कोई इलाज न ही करवाएं ...कम से कम बाकी के अंग तो बचे रहेंगे (कृपया इसे अन्यथा न लें)..

उस महिला का पति बता रहा था कि इसे न ही तो ऐलीपैथिक और न ही होमोपैथिक, आयुर्वैदिक दवा ही काम करती है .. और यह पुड़िया पिछले कईं सालों से खा रही है। अब जिस पुड़िया में स्टीरॉयड मिले हों, उस के आगे दूसरी दवाईयां क्या काम करेंगी .... लेकिन ये देसी दवाईयां स्टीरॉयड युक्त सारे शरीर को तहस-नहस कर देती हैं ... जोड़ों का दर्द तो दूर इन से कुछ भी ठीक नहीं होता, ये तो केवल क्वालीफाइड डाक्टरों के द्वारा इस्तेमाल करने वाली दवाईयां हैं।

और प्रशिक्षित डाक्टर भी इन दवाईयों को मरीज़ों को देते समय बहुत सावधानी बरतते हैं। इन दवाईयों को लेने की एक विशेष विधि होती है ...जो केवल प्रशिक्षित एवं अनुभवी डाक्टर ही जानते हैं।

मैं अकसर मरीज़ों को कहता हूं कि अगर आप को देसी इलाज ही करवाना है तो करवाएं लेकिन उस के लिये प्रशिक्षित डाक्टर हैं --होम्योपैथी में , आयुर्वेद प्रणाली के चिकित्सक हैं , वे आप को ब्रांडेड दवाईयां लिखते हैं ...अच्छी कंपनियों की दवाई लें और अपनी सेहत को दुरूस्त करें।

नीम हकीमों द्वारा पुड़िया में स्टीरायड नामक दवाईयां मिलाने की बात के इलावा मैंने बहुत बार ऐसा देखा है कि कुछ कैमिस्ट मरीज़ को तीन-चार तरह की जो खुली दवाईयां थमाते हैं उन में भी एक छोटी सी टेबलेट स्टीरायड की ही होती है ...मरीज़ का बुखार जाते ही टूट गया और कैमिस्ट हो गया सुपरहिट ....चाहे वह उसे स्टीरायड खिला खिला कर बिल्कुल खोखला ही क्यों न कर दे।

कुछ चिकित्सक अपने मरीज़ों को खुली टेबलेट्स, खुले कैप्सूल देते हैं, मुझे इस में भी आपत्ति है, जब स्ट्रिप में, बोतल में बिकने वाली दवाईयां नकली आ रही हैं, रोज़ाना मीडिया में देखते पढ़ते हैं न, तो फिर इस तरह से खुले में बिकने वाली दवाईयों की गुणवत्ता पर सवालिया निशान क्यों नहीं लगता ?

बस ध्यान केवल इतना रहे कि पुड़िया थमाने वालों से और इस तरह की पुड़िया से दूर ही रहने में समझदारी है ... वरना तो बस गोलमाल ही है। लेकिन क्या मेरे लिखने से आज से पुड़िया खानी बंद कर देंगे .. देश की अपनी समस्याएं हैं ..गरीबी, अनपढ़ता, जनसंख्या का सुनामी.....अनगिनत समस्याएं हैं, मैंने भी यह लिखते समय  एक ऐसे कमरे में जहां घुप अंधेरा है, वहां पर एक सीली हुई दियासिलाई सुलगाने का जुगाड़ कर रहा हूं.... कभी तो इस गीली तीली में भी आग लगेगी.. जागरूकता का अलख जग के रहेगा , कोई बात नहीं, मैं इंतज़ार करूंगा।


मंगलवार, 18 जनवरी 2011

प्राइव्हेसी की जबरदस्त डिमांड तो है, आखिर क्यों ?

अकसर आज कल दिख ही रहा है कि घर के सदस्यों की संख्या से ज़्यादा मोबाईल फोन और लगभग उस से भी ज़्यादा सिमकार्ड होते हैं। लेकिन एक तो पंगा अभी भी है – अब बेवजह किस बात का पंगा? – प्राइवेसी का। एक स्कूल जाने वाले बच्चे को भी फोन पर बात करते वक्त प्राइवेसी चाहिए। प्राइवेसी से एक बात का ध्यान आ रहा है ...एक बार मैंने मीडिया एकेडेमिक्स की एक शख्सियत से यह बात सुनी थी कि जब से यह टीवी ड्राईंग-रूम से निकल कर बच्चों के बेडरूम में पहुंच गया है, अनर्थ हो गया है। क्या है न जब टीवी को सब लोग एक साथ बैठ कर देख रहे होते हैं तो अपने आप में ही एक अंकुश सा सब के ऊपर बना रहता है –किसी ऐसे वैसे सीन से पहले कोई न कोई रिमोट का कान खींच कर किसी प्रवचन की तरफ़ सब का ध्यान सरका देगा, कोई बहाना बना के दो मिनट पहले उठ जाएगा..., कोई बड़ा-बुज़र्ग यूं ही बच्चों को हल्का सा टोक देगा तुम भी यह सब क्या देखते रहते हो......कहने का मतलब कि किसी न किसी रूप में अंकुश तो रहता ही है जब सब लोग टीवी एक साथ देख रहे होते हैं। वरना आज प्रोग्राम तो ऐसे ऐसे चल निकले हैं कि क्या इन के बारे में जितना कम कहें उतना ही ठीक लगता है !

तो बात हो रही थी फोन पर बात करते वक्त प्राइवेसी की। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह बहुत अजीब सा लगता है। अब स्कूल जाने वाले बच्चे को ऐसी कौन सी प्राइवेसी चाहिए.....कुछ ज़्यादा समझ में नहीं आता। लेकिन एक बात और भी है कि बच्चे अपने घर ही से ये सारी बातें सीखते हैं और इसलिये शायद हम सब बड़ों को भी अपने आप को टटोलने की ज़रूरत है।

मुझे याद है कि कुछ समय पहले यह मोबाइल पर बात करते वक्त कोई कोना सा ढूंढ लेना थोड़ा अजीब सा लगता था। मेरा एक सीनियर था ...कुछ साल पहले की बात है ... जब भी मैं उस के पास बैठा होता और उस का मोबाइल फोन बज उठता तो वह झट से उसे लेकर टायलेट में घुस जाता। दो-तीन बार ऐसा हुआ..मुझे यह सब इतना अजीब लगा ...अजीब क्या लगा, इंसलटिंग लगा कि मैंने उस के पास जाना ही बंद कर दिया। बस अपने भी मन की मौज है। लेकिन अब देखता हूं कि लोग कुछ ज़्यादा ही सचेत हो गये हैं...किसी का मोबाईल फोन बजने पर उस के मुंह के भाव पढ़ कर यह अंदाज़ा लगा लेते हैं कि किसी बहाने उठ कर बाहर जान ठीक है या यहीं पड़े रहो।

अच्छा मोबाइल फोन आने पर यह प्राइवेसी ढूंढने का सिलसिला है बड़ा संक्रामक--- बस एक दूसरे को देखते देखते कैसे आदत पक जाती है पता ही नहीं चलता। लेकिन जो भी हो, अब मैंने निश्चय कर लिया है कि अब सब बातें सब के सामने ही किया करूंगा --- चलिये कभी कोई अकसैप्शन हो सकती है, लेकिन वह भी कभी कभी। हर बार फोन उठा कर अलग किसी कोने में घिसक जाना कुछ शिष्टाचार के नियमों के विरूद्द सा लगता है, है कि नहीं?  भला हम ने कौन सी ऐसी बातें करनी हैं किसी से जो कि हमारे परिवार के सदस्यों के सुनने लायक तो हैं नहीं, लेकिन लॉन में बात करते वक्त चाहे पड़ोसी का बंगला चपरासी सारी बातें सुन ले। बड़ी अजीब सी बात लगती है।

वैसे तो हम लोग जब कुछ लोग बैठे हों तो बच्चे हमारे कान में आकर कुछ कहना चाहे तो हम इसे भी अकसर डिस्कर्ज करते देखे जाते हैं ... कहते हैं कि बेटा, सब के सामने जो बात करनी है करो, लेकिन फिर यह मोबाइल फोन के नियम क्यों इतने अलग से हैं?

मोबाइल फोन से लौट चलते हैं उस ज़माने की तरफ जब केवल लैंडलाइन फोन का ही सहारा हुआ करता था और वह भी कभी कभी चला करता था क्योंकि हम इतने जुगाड़ू प्रवृत्ति के नहीं थे कि वे किसी लाइन-मैन को सैट कर के रखते ताकि वह फोन खराब होते ही भाग के आ जाता और तुरंत लाइन ठीक कर के चला जाता। ज़माना वह भी याद करना होगा जब लैंडलाइन फोन बजते ही घर में मौजूद दो-तीन पीढ़ियां उस फोन वाले मेज के इर्द-गिर्द यूं इक्ट्ठा हो जाया करती थीं जैसे कि कोई सैटेलाइट का परीक्षण किया जाने वाला है।

जो भी हो, दौर अच्छा था, खुलापन था, एक फोन आता था तो सभी के साथ बात होती थी ... दिखावेबाजी नहीं थी, अब तो बस दिखावेबाजी ज़्यादा है और असल बात शायद बहुत कम है। अपने आप से पूछने वाली बात यह है कि आखिर ऐसा कमबख्त है क्या जिसे हमें अपनों ही से छिपाने की ज़रूरत पड़ रही है। और तो और, उसी पुराने दौर में एक दौर यह भी हम ने देखा है जब किसी का पीपी ( PP number)  दे कर काम चला लिया जाता था और अकसर विज़िटिंग कार्डों पर यह अंकित रहता था कि  यह नंबर पीपी नंबर है। और फोन करते या सुनते वक्त कोई परवाह नहीं कि कितने पड़ोसियों ने हमारी बातें सुन ली होंगी ... इसलिये फोन करते वक्त समय का ध्यान रखना भी बेहद लाज़मी था वरना अगली बार से यह सुविधा खत्म...... चलो, छोड़ते हैं, उस दौर की भी अपनी बहुत सी मुश्किलें थीं और अगर इन्हें गिनाने लग गया तो एक छोटा मोटा उपन्यास ही बन जायेगा जो कि मैं अभी लिखने के बिल्कुल भी मूड में नहीं हूं।

हां, तो थोड़ा इस से भी पीछे चलिये....वह दौर जब ये ट्रंककाल करते लोग या तो हिंदी फिल्मी में देखे जाते थे या फिर शहर के बड़े डाकघर में। वहां पर भी कहां यह सब इतना आसान था, पहले फार्म भरो, फिर 50 रूपये का अडवांस जमा करो, फिर लग जायो लाइन में.....बार बार नंबरों की ट्राई.....ट्राई पर ट्राई.... बाबू के साथ चिक चिक कि बई, बात तो हुई नहीं और तुम कह रहे हो इतने मिनट के पैसे दो....अब बाबू की बला से, बात हुई या नहीं हुई, उस के सामने रखी स्टाप-वॉच की गिनती के आगे किसी की न चलती थी, बड़ी सिरदर्दी थी, मुझे नहीं याद कि मैं कभी उस दौर में इन बड़े डाकघरों में यह सो-कॉल्ड ट्रंककाल के लिया गया होऊं और सफल हो कर लौटा हूं ...हमेशा हारे जुआरी की तरह साइकिल उठा कर घर की तरफ़ चल पड़ता है।

लेकिन ऐसे खुशकिस्मत लोगों को देख कर मन में बड़ी तमन्ना होती थी जिन का झट से ट्रंककाल लग जाता था और वह अंदर केबिन में बंद होते हुये भी इतने ज़ोर से बातें करते थे कि मुझे याद है कि मेरे जैसी दुःखी आत्मायें उस अमृतसर के रियाल्टो टाकी के सामने बड़े डाकखाने पर यह कह कर मन थोड़ा हल्का ज़रूर कर लिया करते थे कि ....यार, इस को ट्रंककाल करने की आखिर ज़रूरत है, इस की तो आवाज़ ही इतनी दबंग और कड़क है कि अगर यह बाहर आकर थोड़ा और बुलंद आवाज़ में  बोल दे तो दिल्ली तक तो आवाज़ वैसे ही पहुंच जाए। यह बात माननी पड़ेगी कि अमृतसर के लोग हैं बड़ी मज़ाकिया – सब से बड़ी खूबी वे किसी पर हंसने की बजाए अपने पर भी हंसने से भी गुरेज़ नहीं करते। और हर स्थिति में खुशी ढूंढ लेने की कला रखते हैं..... जिउंदे वसदे रहो, मित्तरो......

बस, अब इस कॉल को बंद करने का वक्त आ गया है, लेकिन इस से मैंने तो एक सीख अपने आप के लिये ली है कि कोशिश करूंगा कि इस प्राइवेसी को खत्म करने के लिये पहल मैं ही करूं ---मैं फिर कह रहा हूं कि कुछ परिस्थितियां हो सकती हैं जिन में शायद हमें कभी कभार कुछ प्राइवेसी चाहिये हो, लेकिन हर कॉल को ही प्राइवेट कॉल बना लिया जाए तो बहुत बार यह मोबाईल सिरदर्द लगने लगता है।

वैसे एक बात और भी है न, टैक्नोलॉजी इतनी आगे बढ़ गई ....लेकिन क्या इस से इंसानों के रिश्तों में गर्मजोशी आई? ….मुझे तो ऐसा कभी भी नहीं लगा, फेसबुक आ गई, मॉय-स्पेस आ गया लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि विभिन्न कारणों की वजह से हर तरह ठंडक ही बढ़ती दिख रही है। गर्मजोशी को वैसे आज की नई पीढ़ी शायद ही समझ सके जिसे मां-बहन-बीवी का कईं कईं दिनों की दिन रात की तपस्या से तैयार किया स्वैटर चुभता है, मां की तैयार की गई टोपी आक्वर्ड लगती है लेकिन विदेशों में तैयार दो हज़ार की ब्रैंडड स्वैटर-टोपियां ही सारी गर्माहट देती हैं, ऐसे में कोई क्या कहे। फोनों की खूब बातें हो गईं वैसे असली गर्मी तो पुराने खतों में हुआ करती थीं ---इतनी गर्माइश की अगला खत आने तक मेरे पिता जी मेरी दादी की हिंदी में लिखी चिट्ठी लगभग रोज़ाना सुना करते थे ....एक दिन कोई सुना देता, दूसरे दिन कोई दूसरा काबू आ जाता .... और अगली चिट्ठी आने तक यह सिलसिला चलता रहता था।

चलिये, अब बंद भी करूं ....लेकिन एक निर्णय लेता हूं कि आज से पूरी कोशिश रहेगी कि मोबाइल फोन पर बात सब के सामने ही हो, ऐसी भी क्या बात है, ऐसी भी क्या प्राइवेसी है, ऐसा कुछ है ही नहीं, अगर थोड़ा गहराई में सोचेंगे तो पाएंगे कि ऐसा अलग सी जगह में दुबक कर बात करने जैसी कोई बात भी तो नहीं होती --- एक आम आदमी ने कौन सा अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के मर्जर की बातें करनी हैं, कौन से ट्रेड-सीक्रेट आपस में बांटने हैं...........ऐसा कुछ नहीं है तो चलिये लाते हैं आज से अपनी बातचीत में एक नये खुलापन ........ताकि हमारा आने वाला कल आज से बेहतर हो सके, और ये जो हम ने अपने ब्लड-प्रैशर को पक्के तौर पर बढाये रखने के पुख्ता इंतज़ाम कर रखे हैं, इन से छुटकारा पाएं.....

शनिवार, 8 जनवरी 2011

छुप छुप कर सिगरेट पीने वाले बच्चे को पकड़ना चाहेंगे ?

आज सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर पर मेरी नज़रें अटकी रह गईं... उस का शीर्षक ही कुछ ऐसा था .... Catch your children smoking with this kit... मुझे बहुत उत्सुकता हुई कि आगे पढ़ूं तो सही. हां, तो उस में बताया गया है कि जल्द ही इस देश में कुछ ऐसी किट्स आ जाएंगी जिस से आप अपने लाडले की चोरी चोरी चुपके चुपके सिगरेट का कश लगाने की चोरी पकड़ पाएंगे। इस के लिये   स्ट्रिप आती है और बच्चे के यूरिन से अथवा गाल के अंदरूनी हिस्से से एक स्वॉब (swab) सारे राज़ खोल देगा। और भी एक बात उस में लिखी है कि अगर कही किसी ने किसी अजनबी के साथ असुरक्षित संभोग कर लिया है और उसे एचआईव्ही संक्रमण का डर सताने लगा है तो भी ऐसे मिलन के दो दिन के बाद उस व्यक्ति का एचआईव्ही स्टेट्स बताने का भी जुगाड़ कर लिया गया है। 

कैसी लगी आप को खबर? मुझे तो बस यूं ही लगा यह सब कुछ। मुझे लग रहा है कि यह हमारे देश की ज़रूरत नहीं है। अपने बच्चों की चौकीदारी करते करते लोग थक चुके हैं – आज से 20 साल पहले लोग अपनी स्मार्टनैस दिखाते थे –चैनल लॉक की बातें कर के –और एक तरह से यह एक स्टेट्स सिंबल सा ही हो गया था कि हम ने तो अपने टीवी पर चैनल लॉक का जुगाड़ किया है। लेकिन क्या हुआ? – केवल कबूतर के आंखे बंद कर लेने से क्या हुआ? उस के बाद तकनीक ने इतनी तरक्की कर ली है कि टैक्नोलॉजी से जुड़े युवक आज की तारीख में सब कुछ कर पाने में सक्षम हैं। ऐसे में हम उन की नैतिक चौकीदारी (moral policing) कर के आखिर कर क्या लेंगे? मुझे तो यह बच्चों की सिगरेट पीने की आदत पकड़ कर तीसमार खां बनने की बात मे रती भर भी दम नहीं लगता. 

तो फिर क्या बच्चों को यू ही मनमानी करने दें ?  कोई भी काम ज़ोर-जबरदस्ती से होने से रहा – अगर हम लोग बच्चों का विश्वास ही जीत नहीं पाये तो हम ने क्या किया? वो कैसा घर जिसमें बच्चे बच्चे अपने माता पिता से दिल न खोलें .... सिगरेट की उस की आदत पकड़ कर कौन सा बड़ा पहाड़ उखाड़ लिया जाएगा –ऐसे तो अनेकों तरह की किटें और उपकरण चाहिये होंगे उन की चोरियां पकड़ने के लिये। लेकिन यह सब पश्चिमी तरीका है बच्चों को कंट्रोल करने का। क्योंकि यह देश तो चलता ही है कि उदाहरण के द्वारा –अब अगर मां-बाप तंबाकू का सेवन स्वयं नहीं करते तो बच्चे के सामने उस के मां बाप की उदाहरण है। सीधी सी बात है इस तरह की स्ट्रिप खरीदने की बजाए अगर बच्चे के संस्कारों पर ध्यान दिया जाए तो ही बात बन सकती है।

और दूसरी बात कि असुरक्षित संभोग के दो दिन बाद अगर किसी को अपना एचआईव्ही स्टेट्स जानने की उत्सुकता हो रही है और उसे अगर दो-तीन दिन बाद पता भी चल गया तो कौन सा किला फतह हो गया –अगर उस का टैस्ट नैगेटिव आया तो यकीनन् वह अगले एनकांउटर के लिये कुछ दिनों बाद अपने आप को रोक नहीं पाएगा --- और अगर कहीं पॉज़िटिव निकला तो भी बहुत गड़बड़ी ...क्योंकि वॉयरस को रोकने के लिये जो दवाईयां उसे एक्सपोज़र के 24 घंटे के अंदर शुरू कर लेनी चाहिए थीं, उन का असर 48-72 घंटे के बाद उतना यकीनी नहीं हो पाता--- अब इस केस में देखें तो अगर वह इंसान किसी अनजबी के साथ असुरक्षित संबंध ( एक तो मुझे यह असुरक्षित शब्द से बड़ी चिढ़ हैं, लिखने समय ऐसे लगता है जैसे कि यह कोई मैकेनिकल प्रक्रिया है जो अगर अजनबी के साथ सुरक्षित ढंग से की जाए तो ठीक है जैसे कि चिकित्सा शास्त्रियों ने इस की खुली छूट दे दी हो...... ) लेकिन ऐसा तो बिल्कुल नहीं है, हाई-रिस्क बिहेवियर तो हाई-रिस्क ही है, आग का खेल है, कितना कोई बच लेगा !!

यह खबर पढ़ते हुये मैं यही सोच रहा था कि इस देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें पता नहीं कि उन्हें उच्च रक्तचाप है, उन्हें पता नहीं कि उन्हें मधुमेह है ...ऐसे में उस तरह ध्यान देने की बजाए अब उन की बच्चों की चोरियां पकड़ने की तरफ उन को रूख करके उन की परेशानियां बढ़ाई जाएं। लेकिन होता यही है जब कोई प्रोड्कट यहां लांच हो जाता है तो फिर शातिर मार्केटिंग हथकंड़ों के द्वारा उस की डिमांड तो पैदा कर ही ली जाती है, मुझे इसी बात का डर है।

कोई बात नहीं, निकोटिन च्यूईंग गम भी आई --- मुझे बहुत से लोगों ने कहा कि आप भी लिखा करें – लेकिन मैंने भी कभी नहीं लिखीं ...क्यों? महंगी होने के कारण मेरे मरीज़ों की जेब इस की इज़ाजत नही देती और दूसरा यह कि मुझे कभी अपने किसी मरीज़ के लिये इस की ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई --- अच्छे ढंग से समझाने से कौन नहीं समझता? पच्चीस पच्चीस साल हो गये हम यही बातें कहते सुनते ....अगर फिर भी कोई हमारे अपनेपन की बातें सुन कर तंबाकू की चुनौतिया, गुटखा या बीड़ी के बंडल को आपके सामने ही कचरादान में न फैंक के जाए तो समझ लीजिए हमारी काउंसिलिंग में ही कहीं कमी रह गई।

हां, तो मैं अपनी बात को यहीं कह कर विराम देता हूं कि हर क्षेत्र में हमारा प्रबंधन पश्चिम के प्रबंधन के अच्छा खासा अलग है...... हम जुगाडू किस्म की मानसिकता रखते हैं, प्यार से पुचकार के शाबाशी से थोड़ी डांट डपट से  हल्की फटकार से किसी को भी वापिस सही लाइन पर लाने की कुव्वत रखते हैं .....हम कहां अपने सीधे-सादे लोगों को इन महंगे महंगे शौकों की तरफ़ धकेल सकते हैं!!

भाषणबाजी बहुत हो गई, इसलिये जाते जाते इस महान देश की महान जनता को समर्पित एक गीत सुनते जाइये ...


Catch your kid smoking with this kit

सोमवार, 3 जनवरी 2011

मीडिया समाज का आईना ही तो है !

आज सुबह सवेरे अंग्रेज़ी अखबार में पढ़ी मुझे दो खबरें अभी तक याद है –बाकी तो सब खबरें रोज़ाना एक जैसी ही होती हैं ऐसा मैं सोचता हूं।

एक खबर थी जिस में दिल्ली के पुलिस कमिश्नर एक महिला को पचास हजार का ईनाम देने की बात थी और साथ ही उस को यह अवार्ड दिये जाने की तस्वीर भी थी। महिला 40 से ऊपर की लग रही थी क्योंकि उस के बेटों की उम्र बताई गई थी जो कि 20 वर्ष के ऊपर के थे। हां तो इस महिला ने क्या किया? –इस महिला ने इतने अदम्य साहस का परिचय दिया कि इसे तो राष्ट्रीय स्तर पर भी पुरस्कृत किया जाना चाहिये। यह महिला एक मल्टीनैशनल बैंक में काम करती हैं, कुछ दिन पहले यह अपने घर की तरफ़ आ रही थी कि मोटर साईकल सवार युवकों ने इन के पास रूक कर कुछ पूछने के बहाने इन की चेन झपट ली.... इन्होंने उस वक्त इतना साहस दिखाया कि इन्होंने मोटर साईकिल के पीछे बैठे हुये लुटेरे का कॉलर पकड़ लिया। उस युवक ने कहा कि मुझे छोड़ दो, वरना मैं तुम्हें गोली मार दूंगा लेकिन यह महिला टस से मस न हुई। इस पर उस युवक ने इन के सिर पर अपनी पिस्टल से वार करना शुरू कर दिया ---लेकिन इन्होंने इस दौरान उस कमबख्त का क़ालर न छोड़ा ....इतने समय में आस पास लोग इक्ट्ठा हो गये और उस लुटेरे को धर दबोचा गया। मुझे यह खबर देख कर बहुत खुशी हुई – आज के वातावरण में जहां जगह जगह छोटी छोटी बच्चियों को जबरन उठा कर उन के सामूहिक उत्पीड़न की खबरें इतनी आम हो गई हैं कि जनआक्रोश का पानी नाक तक आ चुका है। मैं इस महिला को नमन करता हूं जिसने अपनी बहादुरी से एक उदाहरण पेश की है। काश, बलात्कार करने वालों की भी कोई शिकार सामने आए जो इन को कोई ऐसा सबक सिखा दे जिस वजह से ये बेलगाम दरिंदे सारी उम्र किसी लड़की के पास फटकने से डरने लगें। अभी अभी जो नांगलोई में एक लड़की के साथ दरिंदगी हुई , यह कितनी शर्मनाक बात है...... उन रईस दरिंदों का क्या होगा,यह आप सब को अच्छी तरह से पता ही है लेकिन उस बेचारी की तो सारी ज़िंदगी खऱाब हो गई।

हां , तो मैं आज की अखबार की दूसरी खबर की बात कर रहा था... दूसरी खबर थी कि उड़ीसा के मंदिर में दो बंगाली मुसलमान युवक दर्शन पहुंच गये, उन को पुलिस के हवाले कर दिया गया और पूछताछ के बाद छोड़ दिया गया। मुझे ऐसी खबरें पढ़ कर बहुत शर्मिंदगी होती है क्योंकि मैं तो 10 साल बंबई में रहा, बीसियों बार मस्जिदों में गया, मुझे तो किसी ने नहीं रोका........मुझे यह खबर पढ़ कर इतनी घुटन हुई कि मैं ब्यां नहीं कर सकता। मैं यही सोच रहा था कि अगर हम लोगों ने आज भी यह सब करना है तो फिर क्यों हम अपने बच्चों को पढ़ाते हैं कि भगवान, अल्ला, ईश्वर, वाहेगुरू ....सब एक हैं...God is one……..हमारी तकलीफ़ों का कारण भी हम ही हैं, हम दोगले हैं, कहते कुछ हैं, सोचते कुछ हैं और करते कुछ हैं। मैं सोच रहा हूं कि आखिर यह पुरान दकियानूसी नियम कौन बदलेगा कि सभी धार्मिक स्थानों पर हर कोई जा सकता है, ये सब के हैं .......ये सब के साझे हैं।

कईं कईं खबरें सच में हमें झकझोड़ देती हैं और बहुत सोचने पर मजबूर करती हैं।