शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

चाय में फ्लोराइड का मुद्दा भी कोई मुद्दा है !!

How much fluoride do U.S. water supplies contain ?
The majority of U.S. municipalities add fluoride ( which is toxic at high levels) to their drinking water, at rates between 0.7 and 1.2 ppm. The U.S. Centres for disease control states that this is a safe level. But what if you drink a lot of tea, which is very high in fluoride ? Do you want a double dose of fluoride ?
Food for thought.
आज का एक इंगलिश न्यूज़-पेपर अपने हैल्थ-कैप्सूल के माध्यम से अपने पाठकों को कुछ सोचने के लिये कह रहा है।
कैप्सूल का प्रश्न है – अमेरिका में सप्लाई किये जाने वाले पानी में फ्लोराइड की कितनी मात्रा रहती है ?
अमेरिका में अधिकांश म्यूनिसिपैलेटीज़ पीने वाले पानी में 0.7 से 1.2 ppm ( पार्ट्स पर मिलियन) की मात्रा में फ्लोराइड मिलाते हैं। अमेरिकी सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल के अनुसार पानी में इतने फ्लोराइड की मात्रा एक सुरक्षित स्तर है। चूंकि फ्लोराइड का स्तर चाय में बहुत ज़्यादा होता है और अगर आप बहुत ज़्यादा चाय पीते हैं तो .......? क्या आप फ्लोराइड की डबल-डोज़ चाहते हैं?

यह तो थी इंगलिश अखबार में छपे हैल्थ-कैप्सूल की। अब हम अपनी सीधी सादी देहाती बात करते हैं। वो, क्या है कि लावारिस फिल्म का वह गाना तो आपने मेरी तरह सैंकड़ों बार सुन ही रखा होगा कि जिस का कोई नहीं उस का तो खुदा है यारो, मैं नहीं कहता किताबों में लिखा है यारो !! तो, इस फ्लोराइड के मामले में भी उस नीली छतड़ी वाले ने लगता है हम पर रहम ही किया है। क्योंकि देश के अधिकांश भागों में हमारे यहां पानी में फ्लोराइड की यह मात्रा प्राकृतिक तौर पर ही मौजूद है। लेकिन कुछ कुछ इलाकों में यह फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज़्यादा है जिस की वजह से वहां पर डैंटल फ्लोरोसिस एवं हड्डियों से संबंधित कुछ जटिलतायें उत्पन्न हो जाती हैं। रहमो-करम की बात मैं इसलिये कह रहा हूं कि कुदरत ने अपने आप ही हमारी हैल्प कर दी है क्योंकि पानी में फ्लोराइड को संयंत्रों के माध्यम से डालना एक बहुत ही महंगा काम है। यह तो भई अमीर देशों के वश की बात है........क्या कहा आपने, हम किसी से कम हैं क्या ?- ठीक है , अगर किसी रेलवे-स्टेशन अथवा बस-अड्डे पर जिस तादाद में 10रूपये वाली पानी की बोतलें लोगों को थामते देखते हैं केवल उसी समय ध्यान आने लगता है कि यार, हम तो अमीर देश वाले हैं !!
आज कल तो नहीं, लेकिन आज से बीस साल पहले देश में ऐंटी-फ्लोराइड लॉबी बड़ी स्ट्रांग थी। इसलिये टुथपेस्ट में फ्लोराइड के मुद्दे को भी बहुत उछाला जा रहा था। लेकिन अब वह सब बीते समय की बातें लगती हैं। और जहां तक टुथपेस्ट में फ्लोराइड मिलाये जाने की बात है.....यह तो अब सारे विश्व भर में यह सिद्ध हो चुका है कि दांतों की सड़न से बचने का एक बहुत ही कारगर उपाय है ---फ्लोराइडयुक्त टुथपेस्ट । मुझे याद है कि 1989 में मैं पीजीआई चंडीगढ़ में दांतों की बीमारियों की रोकथाम से संबंधित एक ट्रेनिंग प्रोग्राम अटैंड कर रहा था जिस दौरान हमें पता चला कि देश में उपलब्ध कॉलगेट का ही एक ऐसा ब्रांड है ( शायद उस का नाम था ..कालगेट कैल्सीगार्ड) जिस में फ्लोराइड मिला हुआ है। अब तो हमारे यहां टुथपेस्ट के अधिकांश ब्रांड ही ऐसे हैं जिन में फ्लोराईड मिला हुआ है।
लेकिन हमारी समस्या है कि जिन इलाकों में पानी की फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज़्यादा है, उन क्षेत्रों में भी हम पानी में फ्लोराइड की मात्रा कम करने के लिये कुछ ज़्यादा कर नहीं पा रहे हैं।
लेकिन एक बात नोट करने वाली है कि देश के सभी इलाकों के लिये फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट तो चाहिये ही- क्योंकि जिन इलाकों में फ्लोराइड की मात्रा पानी में अधिक होती है, वहां के लोगों के दांतों की संरचना ही कुछ इस तरह की होती है कि उन के दांतों में सड़न पैदा होने की ज़्यादा संभावना रहती है.....इसलिये उन के लिये भी फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट का नियमित प्रयोग बहुत ज़रूरी है ताकि दांत सड़न से बचे रह सकें।
अब थोड़ी बात करते हैं कि अमेरिका वाले पानी में आखिर फ्लोराइड डालते क्यों हैं....उस का कारण यह है कि फ्लोराइड एक ऐसा trace element है जो हमारे स्वास्थ्य के लिये ज़रूरी होता है। विशेषकर जब दांत जबड़े के अंदर बन रहे होते हैं तो उन की मजबूत संरचना के लिये पानी में फ्लोराइड की उपर्युक्त मात्रा होनी बहुत आवश्यक होती है। इसी प्रकार हड़्डियों के स्वास्थ्य के लिये भी फ्लोराइड का उचित मात्रा में पीने वाले पानी में मौज़ूद रहना ज़रूरी होता है।
वैसे पानी के इलावा फ्लोराइड अलग अलग लैवल में हमारे खाने में भी मौजूद रहता है...जैसे कि मछली एवं चाय। और जहां तक चाय की बात है कि चाय में फ्लोराइड की मात्रा काफी होती है, मुझे नहीं लगता कि इसे कभी भी हमारे यहां एक इश्यू के रूप में देखा जाता है और वास्तव में यह कोई इतना बड़ा इश्यू है भी नहीं जितना कि इस इंगलिश अखबार के कैप्सूल ने बताया है।
हमारे यहां तो चाय इश्यू है मेनली चीनी के लिये-----क्योंकि हम लोग जितनी मीठी चाय पीते है, उस रास्ते से हम लोग कितनी चीनी अपने शरीर में धकेल देते हैं, असल इश्यू तो यही है ।

बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

श्रृंखला ---कैसे रहेंगे गुर्दे एक दम फिट !! ....भाग एक

पिछले वीकऐंड पर मैं दो दिन के लिये चैन्नई में था....वहां पर किडनी हैल्प ट्रस्ट नाम की एक संस्था पिछले लगभग 12 वर्षों से आसपास के हज़ारों लोगों पर एक अध्ययन कर रही है, कि क्या बिल्कुल साधारण से उपायों द्वारा लोगों को गुर्दे की क्रॉनिक बीमारियों से बचाया जा सकता है। मुझे वहां एक मैडीकल- राइटर के तौर पर आमंत्रित किया गया था।

इस संस्था के संचालक हैं – डा एम के मणि जो कि देश के सुप्रसिद्ध नैफ्रोलॉजिस्ट ( गुर्दा रोग विशेषज्ञ) हैं ..डा मणि मद्रास के अपोलो हास्पीटल के नैफ्रोलॉजी विभागाध्यक्ष भी हैं.....लगभग बीस लोगों को इस ट्रेनिंग वर्कशाप में बुलाया गया था। इस अध्ययन एवं ट्रेनिंग प्रोग्राम के बारे में विस्तार से तो मैं अपनी अगली पोस्टों में लिखता रहूंगा। इस अध्ययन में इन के साथ हैं जानी-मानी ऐपियोडेमियोलॉजिस्ट, डा मंजूला दत्ता एवं श्री रवि दत्ता जो इस ट्रस्ट का प्रबंधन कार्य देखते हैं।

दो-चार बहुत ही महत्त्वपूर्ण सी बातें लिख कर यह पोस्ट तो समाप्त करूंगा।
सब से पहली बात तो यह है कि गुर्दे की क्रॉनिक बीमारियों की वजह से गुर्दे काम करना बंद कर देते हैं। और एक बात है कि एक बार गुर्दे किसी क्रॉनिक बीमारी से ग्रस्त हो जायें तो या तो डॉयलैसिस रैगुलर करवाना पड़ता है ....और कुछ वर्षों के बाद तो गुर्दे के प्रत्यारोपण की ज़रूरत तो पड़ती ही है.......और हमारे देश में गुर्दे की तकलीफ़ों से जूझ रहे मरीज़ लाखों की संख्या में हैं और चंद मुट्ठी भर मरीज़ों के इलावा इतना महंगा इलाज करवाना इस देश की जनता के वश की बात है ही नहीं। यह तो एकदम तय है।

इसलिये केवल एक ही उपाय जान पड़ता है कि कैसे भी हो गुर्दे के रोगों से बच कर रहा जाये। क्या ऐसा संभव है ? – जी हां, देश के मशहूर किडनी विशेषज्ञों के अनुसार गुर्दे की क्रानिक बीमारी से बच कर रहना काफी हद तक संभव है।

गुर्दे की क्रानिक बीमारी के लगभग दस हज़ार मरीज़ों की एक स्टडी से पाया गया है कि लगभग इन में से 30 प्रतिशत केसों में डायबीटीज़ इस गुर्दे रोग का कारण होती है, अन्य 10 प्रतिशत केसों में हाई-ब्लड-प्रैशर की वजह से गुर्दे की बीमारी को देखा गया। इसी तरह से किडनी में पत्थरी की वजह से भी गुर्दे की बीमारी देखी गई है........सार के रूप में हमें वहां यही बताया गया कि गुर्दे की क्रॉनिक बीमारी के जितने भी कारण हैं उन में से लगभग 75प्रतिशत कारण ऐसे हैं जिन के बारे में हम कुछ न कुछ अवश्य कर सकते हैं ताकि गुर्दे की इस बीमारी से बचा जा सके।

कहने का भाव यह है कि अगर हम लोग मरीज के हाई-ब्लड-प्रैशर एवं उस की डायबीटीज़ को कंट्रोल में रखें तो हम गुर्दे की सेहत को काफ़ी हद तक बरकरार रख सकते हैं।

और विशेषज्ञों ने उस ट्रेनिंग प्रोग्राम ने एक बार पर बहुत ही ज़्यादा ज़ोर दिया कि चाहे कैसे भी जिस किसी भी दवा से यह संभव हो पाये- बीपी और डायबीटीज़ तो काबू में रहनी ही चाहिये। ऐसा नियंत्रण गुर्दे की सेहत के लिये बहुत ज़रूरी है।

लाइफ-स्टाईल की बात हो रही थी – बार बार उन्होंने ने यह भी कहा कि वज़न को तो कंट्रोल करना बेहद लाज़मी है ही ....इस के साथ ही साथ नमक एंव शूगर की खपत पर भी कंट्रोल करना होगा।

नमक के बारे में मुझे कुछ बातें जो वहां पर डिस्कस हुईं ध्यान में आ रही हैं। लेकिन तब तक आप एक होम-वर्क तो करिये- आप अपनी श्रीमति जी से या जो भी आप के घर में खाना बनाता है, उस से ज़रा यह पूछिये की आप के घर में एक महीने में नमक की लगभग कितनी खपत होती है। अच्छा आप यह सूचना मेरे को टिप्पणी में या ई-मेल में भेजियेगा., साथ में यह ज़रूर लिखियेगा कि परिवार में कुल सदस्य कितने हैं ....आगे की बात फिर करते हैं। वैसे ध्यान आ रहा है कि किसी ज़माने में मैंने कुछ लिखा था ...केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन!....कभी फुर्सत हो तो उसे थोड़ा देख लीजियेगा- यह रहा उस का लिंक

बुधवार, 24 सितंबर 2008

आज इन दो दवाईयों की दो बातें करते हैं ....

परसों लखनऊ में था – टाइम पास करने के लिये स्टेशन के सामने से एक बुक-शाप से सिम्स की किताब खरीद ली ......सिम्स यानि CIMS- Current Index of Medical Specialities. यह किताब तीन महीने में एक बार छपती है और हम लोग तो अपने कालेज के दिनों से इसे नियमित देखते रहते हैं। CIMS में बाज़ार में उपलब्ध दवाईयों के बारे में जानकारी दी गई होती है। सभी डाक्टरों के लिये यह बहुत उपयोगी प्रकाशन है। इस का दाम 120रूपये है। वैसे पब्लिक को तो इसे खरीदने की कोई ज़रूरत होती नहीं......क्यों कि उन के लिये इस की बहुत लिमिटेड उपयोगिता है ---काफी सारी बातें तो ले-मैन को समझ में आ ही नहीं सकती । और अगर ले-मैन इस के अनुसार स्वयं दवाई लेना शुरू करने की कोशिश भी करेगा तो अच्छा खासा जोखिम से भरा रास्ता है। वैसे अगर आप को किसी दवाई के बारे में कोई विशेष जानकारी चाहिये तो आप उस दवाई का नाम ( प्रैफरेबली उस के साल्ट का नाम) लिख कर गूगल सर्च कीजिये या विकिपीडिया पर सर्च कीजिये, आप को सटीक सी जानकारी मिल जायेगी।
अच्छा चलिये इस पोस्ट के शीर्षक के अनुसार दो दवाईयों के बारे में दो बातें करें। ऐसा है कि यह जो सिम्स मैंने खरीदी उस के पिछले कवर पर दो दवाईयों का विज्ञापन दिखा – एक तो थी stemetil- MD और Omez Insta. ये दोनों दवाईयां लोगों में अच्छी खासी पापुलर हैं, इसलिये इन के बारे में सोचा कि आप से भी दो बातें करते हैं।

Stemetil के नाम से तो आप में से बहुत से लोग परिचित ही होंगे....यहां पर यह बताना चाहूंगा कि यह स्टैमेटिल की टेबलेट ज्यादातर उल्टी के लिये इस्तेमाल की जाती है। इस में Prochloroperazine ( प्रोक्लोरोपेराज़ीन) नाम का साल्ट होता है उस एक टेबलेट में इस की मात्रा 5 मिलीग्राम रहती है। मुझे जिस बात ने यहां पर इस के बारे में लिखने पर मजबूर किया वह यह है कि मुझे यह कल ही पता चला कि अब यह Stemetil –MD के रूप में भी उपलब्ध है.........MD का मतलब कि mouth-dissolving tablet ………यानि कि इसे आप मुंह में रखेंगे और यह कुछ ही क्षणों में अपने आप घुल जायेगी और फिर इसे आप पानी के बिना भी अंदर ले जा सकते हैं। हां, अगर हालत ऐसी हो कि पानी पच रहा हो तो थोड़ा सा पानी पी लें, वरना कोई ज़रूरत नहीं।

इस मुंह में घुलने वाली गोली की ज़रूरत दोस्तो विशेषकर उन मौकों पर पड़ती है जब मरीज़ कुछ भी पचा नहीं रहा----उल्टिय़ों पर उल्टियां किये जा रहा है----दो-घूंट पानी भी पीता है तो उल्टी कर के बाहर निकाल देता है। ऐसे मौकों के लिये यह दवाई बहुत उपयुक्त है। और मेरे विचार में इस की एक स्ट्रिप आप के घरेलू मैडीसन-बॉक्स में होनी ही चाहिये। सीधी सी बात है कि अगर बंदा पानी भी नहीं पचा रहा तो उसे ऐसी टेबलेट मिल गई जिसे लेने के लिये उसे पानी की ज़रूरत ही नहीं रही।

ठीक है, ऐसी स्थिति से निपटने के लिये टीके वगैरा भी लगाये जाते हैं लेकिन घर पर कुछ समय के लिये इस तरह की टेबलेट को आजमाने में क्या हर्ज है ??

दूसरी दवाई है ........Omez Insta ….इस में Omeprazole powder होता है......Omeprazole powder for suspension ….इस पाउच में छः ग्राम के लगभग पावडर होता है जिसे पानी में घोल कर पी लिया जाता है जिस से गैस्ट्राइटिस में तुरंत राहत मिल जाती है। यहां पर यह बताना चाहूंगा कि Omeprazole के कैप्सूल तो डाक्टरों के द्वारा एसिडिटी एवं पैप्टिक-अल्सर डिसीज़ में अकसर प्रैसक्राइब किये जाते हैं.....लेकिन इस तरह एक पावडर के रूप में यह दवाई पहली बार आई है....ऐसा विज्ञापन में दावा किया गया है।

मेरा विचार तो यही है कि इस तरह की दवाई के भ दो-तीन पाउच तो आप को अपने मैडीसन-बाक्स में रखने ही चाहिये। अकसर आप ने देखा है कि हम लोग किसी पार्टी वगैरह में बदपरहेज़ी करने के बाद जब वापिस लौटते हैं तो हालत एक दम खराब हुई होती है.....फ्रिज में रखा ठंडा दूध भी ले लिया , ऐंटासिड की गोली भी ले ली, लेकिन कोई असर पड़ता नहीं दिखता ----ऐसे में आप को याद होगा हम लोग ENO के एक चम्मच को एक गिलास में घोल कर पी लिया करते थे। लेकिन कईं बार गैस्ट्राइटिस के सिंप्टम इतने ज़्यादा होते हैं कि पेट का एसिड बार बार मुंह तक आता है, बहुत ही अजीब सी खट्टी डकारें रूकने का नाम ही नहीं लेती और छाती की जलन परेशान कर देती है ....ऐसे में एक एमरजैंसी तरीके के तौर पर इस OMEZ- Insta को ट्राई किया जा सकता है। लेकिन यह ध्यान रहे कि इस का रैगुलर इस्तेमाल आप केवल अपने चिकित्सक की सलाह से ही कर सकते हैं क्योंकि जिन मरीज़ों को इस दवाई को रैगुलरी लेना होता है उन की अलग से इंडीकेशन्ज़ हैं, उन की अलग से डोज़ है। इसलिये बिना डाक्टरी सलाह के तो इसे आप एक एमरजैंसी हथियार के तौर पर ही इस्तेमाल कर सकते हैं। इतना ध्यान अवश्य रहे।

मुझे जो भी नई बात पता चलती है ...चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो, बस यही इच्छा होती है कि झट से नेट पर डाल दूं क्योंकि लगता है अगर दो बातें मेरी लिये ही नईं हैं तो शायद बहुत से और लोगों के लिये भी नईं ही होंगी ....और खासकर अगर वे बातें चिकित्सा के क्षेत्र से हों तो उन्हें सब से साझा करना तो और भी ज़रूरी हो जाता है।

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

रेल-गाड़ी के शौचालय के बारे में सोचा तो ......

रेल-गाड़ी की विभिन्न श्रेणीयों के शौचालय के बारे में जब हम सोचते हैं तो हमें वैल्यू-एडड सर्विस ( value added service) का फंडा एकदम क्लियर हो जाता है। चलिये, शुरू करते हैं....ए.सी फर्स्ट क्लास के डिब्बे से .....कुछ ऐसे कोच हैं जिन में डिब्बे के यात्री को अपने ए.सी कैबिन में बैठे बैठे एक हरी या लाल बत्ती से यह पता चल जाता है कि कौन सा शौचालय( कौन सी साइड का –इंडियन अथवा वैस्टर्न ) खाली है अथवा आक्यूपाईड़ है। शायद यह इसलिये कि सुबह सुबह पानी वानी पी कर अगर आदमी किसी भी शौचालय का रूख करे तो उसे किसी किस्म की निराशा न हो.....निराशा तो उस स्केल पर सब से नीचे टिकी पड़ी है, जिस के सब से ऊपर है......आप समझ ही गये हैं, अब हर बात लिखनी थोड़े ही ठीक लगती है।

यहां तक कि अगर आप ने अपने कैबिन में नोटिस नहीं भी किया तो शौचालय के दरवाजे के बाहर चिटकनी पर भी इस तरह का इंडीकेटर सा आ जाता है कि बाथ-रूम खाली है या यूज़ में है। अंदर गये हुये बंदे को भी कितना सुकून है कि वह इतमीनान से अपना टाइम ले सकता है---नहीं तो कईं बार हम लोग बिना वजह उस चिटकनी को यूं ही इधर उधर कर के अपनी एमरजैंसी का संदेश अंदर बैठे महांपुरूष तक पहुंचाना चाहते हैं......कि शायद इस से उस की आंतड़ियों की सफाई की चाल में कुछ फर्क पड़ जाये।

तो ठीक है, बंदा एसी फर्स्ट क्लास के शौचालय में पहुंच गया है ....लेकिन पहली बार अंदर जाने वाला अंदर का वातावरण ऐसा फील करता है कि यार, यह बाथरूम ही तो है ना.....उस में तरह तरह के स्विच, तरह तरह के नलके, डिब्बे पड़े होते हैं और इतनी तरह की हिदायतें दी गई होती हैं कि आदमी सोचता है कि इन्हें समझने के चक्कर में क्या पड़ना। बस अपने काम से फारिग हो कर बाहर निकलें। एसी फर्स्ट के बाथरूम की जो मैं बातें कर रहा हूं,ये सब खासकर राजधानी गाड़ियों पर ज़्यादा लागू होती हैं।

यात्रियों की सुविधा का इतना ख्याल कि बाथरूम के ऊपर एक छोटी सी खिड़की भी होती है ताकि ताज़ी हवा का आनंद लूटने की ख्वाहिशमंद आत्मायें इस का भी भरपूर आनंद ले सकें।

हां, हां,साबुन-पानी की तो कोई दिक्कत ही नहीं.......टिश्यू पेपर भी पड़ा है, लिक्विड-सोप भी है और एक सोप की टिकिया जो यात्रा शुरू करने से पहले अकसर आप को दी जाती है, वह भी है----यानि पूरा इंतजाम।

चलिये, बहुत हो गया.....चाहे एसी फर्स्ट का ही बाथ-रूम है, लेकिन टाइम कुछ ज़्यादा ही लगा दिया है। अब आते हैं, सैकेंड एसी के बाथरूम की ओर। बस उस कोच में मैंने बहुत अरसा पहले एक इंडीकेटर देखा था गेट के पास कि शौचालय खाली है या कोई उस में गया हुया है। वैसे सैकेंड एसी में भी पानी वानी की तो कोई खास दिक्कत होती नहीं.....हां, साबुन का जुगाड़ आप को पहले से कर के रखना होगा। लेकिन राजधानी गाड़ीयों में सैकेंड एसी में भी साबुन वगैरह की व्यवस्था रहती ही है।

अच्छा, अब आगे समझने वाली बातें शुरू हो रही हैं.....वैल्यू-एडड सर्विस की बातें समझनी शुरू करें ?---हां, तो कुछ सैकेंड एसी के शौचालयों में लिक्विड सोप का कंटेनर लगा होता है , कुछ में नहीं और कुछ में खाली या .......!! यानि कि सैकंड एसी में सफर करने वाले अपनी साबुनदानी घर पर न ही भूलें तो बेहतर है वरना उस कागज़ी-साबुन (पेपर-सोप) से ही हाथ धोने की रस्म निभानी होगी।

अब आते हैं थर्ड-एसी के डिब्बे के शौचालय में....सीटें काफी बढ़ गई हैं ...इसलिये सुबह सुबह शौचालय के बाहर वेटिंग-लिस्ट में खड़े लोग दिख जाते हैं। कुछ कोशिश करते हैं कि बगल वाले सैकंड एसी के शौचालय में जाकर ही फारिग हो आया जाये। हां, हां, पानी की कोई दिक्कत नहीं.....बस साबुन का जुगाड़ पहले से रखो, भाई।

अब चलते हैं उस स्लीपर कोच की तरफ़ जिस में सब लोग रिजर्वेशन करवा कर ही चलते हैं.....उस में भी अधिकतर कोई प्राबलम होती नहीं। पानी वानी अकसर मिल ही जाता है.......हां, थोड़ा खिड़की-विड़की के कांच को जरूर चैक कर लेना होता है कि यह कहीं टूटा वूटा तो नहीं है या कहीं पारदर्शी कांच ही तो नहीं लगा हुया है। चिटकनी की तरफ़ भी पहले से थोड़ा ध्यान दे ही लें तो बेहतर होगा। और अंदर घुसने से पहले दोनों कानों में थोड़ी रूईं ठूंसनी होगी ताकि बाहर खड़ी जनता की किच-किच आप की दैनिक दिनचर्या को किसी तरह से बाधित न कर पाये। इस स्लीपर में दिक्कत आती है तब जब लोग बिना रिजर्वेशन वाले भी इस में जबरदस्ती घुस जाते हैं और फिर सुबह तो हर तरफ़ सामान भरा होता है और ट्रंकों के ऊपर ट्रंक पड़े रहते हैं जिस से दूसरे यात्रियों को काफ़ी परेशानी होती है.....लेकिन मैं चाहता हूं कि आप भी मेरे साथ रेलों में सफर कर रहे एक आम भारतवाशी के इत्मीनान को याद करते हुये एक सलाम ठोंके। उस बाथरूम के बाहर खड़े सब की एमरजैंसी एक सी है, लेकिन फिर भी वे एक-दूसरे की बात सुन लेते हैं और जो केस बिल्कुल होप-लैस लगते हैं उसे परायरटी बेस पर तुरंत अंदर भिजवा दिया जाता है।

इन स्पीलर क्लासेस के पश्चिमी शौचालयों का तो और भी बुरा हाल लोगों नें उस के ऊपर चप्पलों समेत बैठ बैठ कर किया होता है। इसलिये वही लोग उस तरफ का मुंह करते हैं जो नीचे नहीं बैठ सकते।

रेल गाड़ी से संबंधित तो नहीं , लेकिन अपने ज्ञानदत्त् जी पांडे की ब्लाग मानसिक हलचल पर मैंने लगभग एक साल पहले एक बहुत ही बढ़िया पोस्ट पढ़ी थी जिस में उन्होंने हिंदोस्तानी बाथ-रूम के बारे में बहुत बढ़िया कुछ लिखा था।

अच्छा तो अब हम चलते हैं बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे की तरफ़ जिस में लोग बोरों की तरह से ठसे हुये हैं और उस में मेरी नानी/दादी, मेरी मां, मेरी बीवी , मेरी बहन और हमारी बेटियां की उम्र की औरतें भी ठसाठस भरी होती हैं..........मैं जब इन डिब्बों को इतना ठसाठस भरे हुये देखता हूं तो सोचता हूं कि यार, जब इन में से किसी को बाथ-रूम जाना होना होता होगा तो क्या हाल होता होगा...........इन लोगों को विशेषकर हर उम्र की महिलाओं को क्या तकलीफ़ें पेश आती होंगी, शायद इस की तो हम लोग ठीक से कल्पना भी नहीं कर पायें..........आप स्वयं सोचिये ठसा ठस भरे डिब्बे में से चल कर किसी महिला के लिये बाथरूम जाना कैसा अनुभव होता होगा। और यह भी हो सकता है कि उस डिब्बे में दो-चार लोग ऐसे हों जो डायबिटीज़ से परेशान हों। अकसर इन डिब्बों के शौचालयों की हालत भी कुछ इस तरह की हालत होती है कि चिटकनी का पूरा ध्यान रखना होगा और पानी तो पहले से ही देख लिया जाये कि चल रहा है कि नहीं ...................वरना बाद में तो ...अब पछताये होत क्या.....!!!

ये जो थोड़ी दूरी की पैसेंजर गाड़ियां होती हैं इन के शौचालयों को तो लोगों ने इतना मिसयूज़ कर रखा होता है कि क्या कहें---कईं बार इन के बल्ब तक उतरे होते हैं....अंदर सब तरफ गंदगी बिखरी पड़ी होता है, ऐसे में इस बात की तो बिल्कुल हैरानगी करें नहीं कि गोलू की अम्मा गई तो गोलू को गोद में उठा कर उसे साफ करने लेकिन यह क्या उसे तो वहां गंदगी की हवाड़ से शुरू हो गई मतली और गोलू बेचारा रह गया वैसा का वैसा ही .....लेकिन वह फिर भी मस्त है और दूसरे यात्रियों को देख कर किलकारियां मारता जा रहा है । और सामने वाले बाथरूम में से शहर जा कर आधा-दूध आधा-पानी बेचने वाले अपनी कैनीयों में बाथरूम से पानी भर भर उंडेलने में व्यस्त हैं क्योंकि शीघ्र ही उन का स्टेशन आने वाला है।

दो-चार महीने पहले एक बार रात को मैं और मेरा बेटा अंबाला स्टेशन पर बैठे हुये थे तो हमारे बैंच के सामने एक सैकेंड क्लास का ऐसा डिब्बा रुका जिस के शौचालय की खिड़की न थी ....लेकिन उस में भीड़ इतनी थी कि लोग इस बात की परवाह किये बिना उस का इस्तेमाल किये जा रहे थे। मेरे बेटे ने थोड़े मजाकिया अंदाज़ में मुझे कुछ कहा, तो मैंने उसे प्यार से समझा दिया कि यार, तू एक बार अपने आप को इन लोगों की जगह पर रख कर के देख......बात केवल इतनी ही कही कि यार, इन लोगों की इस अवस्था के बारे में एक फीकी सी मुस्कान भी चेहरे पर लाना घोर जुल्म है। और हम लोग वहां से उठ खड़े हुये।

लेकिन इतना लिखते लिखते लगता है कि वैल्यू-एडड सर्विस का कंसैप्ट मैं समझा पाया हूं........key words are …..इंडीकेटर्स, लिक्विड सोप, चिटकनियां, टूटी खिड़कियां, टूटे बल्ब ।

मैं इन सब श्रेणियों में सफर करने का फर्स्ट-हैंड तजुर्बा रखता हूं।

और जितना अब तक सीखा है वह यही है कि हमारी रेलें हमें बहुत कुछ सिखाती हैं....आपस में एक दूसरे की ज़रूरत का ध्यान रखना और सब से बड़ी बात जो मैंने बहुत शिद्दत से ऑब्जर्व की है और जिस बात में मेरा विश्वास पत्थर पर खुदे नाम जैसा है ....वह यह है कि जैसे जैसे ट्रेन की श्रेणी बढ़ती है........सुविधा तो बेशक बढ़ती ही है ....लेकिन हमारी टोलरैंस, हमारी सब्र, हमारा ठहराव, हमारी इत्मीनान......यह सब कुछ पता नहीं क्यों कम होता जाता है। ये सब विशेषतायें मैंने दूसरे दर्जे के बिना रिजर्वेशन वाले डिब्बे के यात्रियों के चेहरे पर बहुत अच्छी तरह से पढ़ी हैं........किसी के पैर में घिसी चप्पल है, किसी का कुर्ता छः जगह से टांका हुया है, कोई शायद समझता है कि उसे बात करने का ढंग नहीं है, कोई अपनी बढ़ी दाढ़ी या दूसरे किसी बाबूनुमा व्यक्ति की बढ़िया कमीज़ की वजह से बिना वजह अपने आप को छोटा समझ रहा है बिना यह जाने की यह उस ने आज ही स्टेशन के बाहर फुटपाथ से सैकेंड-हैंड खरीदी है, कोई अपनी मां के हाथ की रोटियां और आचार खाने में बिना वजह झिझक महसूस कर रहा है...........लेकिन कोई परवाह नहीं,दोस्तो, इन सब छोटी छोटी बातों का कोई मतलब है ही नहीं....असली हीरो इस देश के यही लोग हैं जिन में इतनी टॉलरैंस है, इतना सब्र है कि मैं तो भई इन की आंख में आंख डाल कर बात ही नहीं कर सकता। इस के इतने सब्र के पीछे कारण यही है कि इन सब के सपने एक से हैं.....ये एक दूसरे की तकलीफ़ समझते हैं और उस की मदद करने के लिये आगे आते हैं।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

ब्लड-प्रैशर का यह कैसा हौआ है ?....2

मैंने कुछ महीने पहले भी ब्लड-प्रैशर के इस हौवे के बारे में कुछ लिखा था जो यहां पड़ा हुया है, आज सुबह जब अपना रूटीन ब्लड-प्रैशर चैक करवाया तो अचानक उस के आगे फिर से कुछ लिखने की इच्छा हो गई। तो उस के आगे शुरू करता हूं।

आज मैंने जब ऑटोमैटिक मशीन से अपना ब्लड-प्रैशर चैक करवाया तो एक बाजू में 142/92 तथा दूसरी बाजू में 142/94 आया। यह ऑटोमैटिक मशीन वही वाली जिस के कफ को बाजू पर बांधने के बाद एक बटन दबा देने से कफ में अपने आप ही हवा भरनी शुरू हो जाती है और कुछ समय बाद ब्लड-प्रैशर की रीडिंग आ जाती है।

चूंकि पास में ही ब्लड-प्रैशर चैक करने की वह कन्वैंशनल मशीन ( स्फिगमोमैनोमीटर) पड़ी थी....तो विचार आया कि इस से भी बी.पी चैक करवा ही लिया जाये। उसी समय उस मशीन से चैक करवाया तो एक बाजू में 110/80 और दूसरी में 110/88 की रीडिंग थी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन दोनों मशीनों की रीडिंग्ज़ में दो-चार मिनट का ही अंतर था।

जब मैंने अपने फिजिशियन से पूछा कि आप रीडिंग पर विश्वास करेंगे तो उन्होंने कहा कि वह तो बरसों से चल रही कन्वैंशनल स्फिगमोमैनोमीटर की रीडिंग्ज़ पर ज़्यादा भरोसा करेंगे।

यह आज सुबह वाला किस्सा मैंने केवल इसलिये सुनाना ज़रूरी समझा ताकि मैं इस बार को रेखांकित कर सकूं कि आज के दौर में अगर हम डाक्टर लोग अपने आप को किसी मरीज़ के शूज़ में खड़े होकर देखते हैं तो हमें इस बात का आभास होता है कि आज के दौर में जब इस तरह की मशीनें घर-घर में आ चुकी हैं तो मरीजों का कंफ्यूज़ होना कितना स्वाभाविक सा है। रीडिंग्ज़ में अंतर तो आपने देख ही लिया है।

मैं इस समय किसी ना तो किसी मशीन की पैरवी कर रहा हूं और ना ही किसी के खिलाफ़ ही कुछ कह रहा हूं – केवल अपना अनुभव आप के सामने रख रहा हूं ताकि इस मुद्दे पर हम लोग कुछ चर्चा कर सकें।

सचमुच बी.पी का तो एक हौआ ही बना हुआ है- मैंने अपने उस पहली पोस्ट में शायद बहुत कुछ इस के बारे में लिखा था।

आज भी ब्लड-प्रैशर चैक करवाना हम में से कुछ लोगों के लिये एक हौआ ही है। खैर आप तो जानते ही होंगे कि मैडीकल साईंस में एक ऐँटिटि होती है ....वाईट-कोट हाइपर-टैंशन ..अर्थात् कुछ मरीज़ों में ऐसा देखा गया है कि जैसे ही वे किसी सफेद-कोट पहने डाक्टर को अपना बी.पी चैक करते देखते हैं तो उन का बी.पी अचानक शूट कर जाता है।

यह तो हम मानते ही हैं कि विभिन्न मशीनों में थोड़ी बहुत वेरिएशन तो होती ही है......इसलिये बार बार यही सलाह दी जाती है कि बी.पी के बारे में इतना ज़्यादा मत सोचा करें। यह जीवन-शैली से संबंधित है और जीवन-शैली में छोटे छोटे परिवर्तन लाने निहायत ही ज़रूरी हैं।

यह पोस्ट लिखने का एक मकसद यह भी है कि अगर आप अपने घर ही में हमेशा ऐसी ही किसी ऑटोमैटिक मशीन से अपना बी.पी चैक करते रहते हैं तो यह भी ज़रूरी है कि कभी कभी किसी फ्रैंडली फैमिली डाक्टर से भी अपना बी.पी अवश्य दिखवा लिया करें।

फ्रैंडली फैमिली डाक्टर से ध्यान आया कि यह भी देखा गया है कि अकसर कुछ केसों में जब किसी मरीज़ का बी.पी किसी फ्रैंडली नर्सिंग स्टाफ द्वारा लिया जाता है तो रीडिंग कम आती है।

एक बात और भी यहां कहना चाहूंगा कि ये जो कन्वैनश्नल बी.पी अपरेट्स ( स्फिगमोमैनोमीटर) भी होते हैं, किसी भी हास्पीटल में अगर कुछ अपरेट्स हैं तो थोड़ा बहुत फर्क तो इन की रीडिंग्ज़ में ही होता है लेकिन मुझे याद है कि बंबई में जिस हास्पीटल में काम करते थे वहां पर दो मशीनें ऐसी थीं जिन में यह वेरीएशन काफी ज़्यादा हुआ करती थी।

इतना लिखने के बाद मेरा यह प्रश्न बना हुया है....
क्या हर मरीज़ के बीपी की जांच इस तरह से कर पाना संभव है कि पहले एक मशीन से की जाए और फिर दूसरी से। ऐसे में कईं बार मरीज़ कहीं बिना-वजह दवाईयों के चक्कर में पड़ कर परेशान तो ना होते होंगे या फिर दवाई की ज़रूरत होने पर भी बिना दवाई के ही तो ना चलते रहते होंगे। यह सवाल मेरे मन में बरसों से है और पता नहीं कितने सालों तक चलता रहेगा।

इसीलिये जब डाक्टर मरीज के पास जाता है और उस की बी पी बड़ा हुआ होता है तो तुरंत ही उस की दवा शुरू नहीं कर दी जाती......उस का बीपी बार कुछ समय के बाद, कुछ दिनों के अंतराल के बाद चैक करने के बाद ही कोई दवा शुरू करने या ना करने का फैसला किया जाता है। जिस समय मरीज डाक्टर के पास आया है उस समय उस की क्या मनोस्थिति है इस बात का भी आप सब को पता है कि उस की बीपी की रीडिंग पर असर पड़ता है।

तो, सीधी सी बात है कि मामला शायद कुछ ज़्यादा ही पेचीदा है.....बिलकुल एक हौए जैसा लेकिन पूरी कोशिश करें कि इसे हौआ कभी बनने न दें। मस्त रहने की पूरी कोशिश करें........क्योंकि जहां मस्ती है, खुशी है, ज़िंदादिली है, हंसी-मज़ाक है वहां यह हौआ टिक नहीं पाता है। पिछले 25 सालों से ज़िंदगी की किताब से जो सीखा है, जो अनुभव किया है, आप के सामने रख दिया है।

आप के बी.पी के सदैव नियंत्रण में रहने के लिये ढ़ेरों शुभकामनायें।

दौलत जमा करने के लिये गिरने की भी हद है !!

आज सुबह ही खबर आई है कि चीन में मिल्क-पावडर बनाने वाली एक कंपनी पकड़ में आई है जो कि इस मिल्क-पावडर में मैलामाइन ( melamine) की मिलावट किया करती थी। आप भी सोच रहे होंगे कि कहां मिल्क-पावडर और कहां मैलामाइन।

आप का सोचना जायज़ है- मैलामाइन एक इंडस्ट्रीयल कैमीकल है जिसे कपड़ा उद्योग, पलास्टिक बनाने में एवं गौंद( gum) बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन आप शायद सोच रहे होंगे कि यह मैलामाइन नाम का कैमीकल मिल्क-पावडर में क्या कर रहा है ?

ध्यान देने योग्य बात यही है कि मैलामाइन देखने में बिल्कुल मिल्क-पावडर जैसा ही सफेद एवं पावडर जैसा ही दिखता है- इसलिये इसे खाद्य पदार्थों की मिलावट के लिये धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि इस से नकली तौर पर उन खाद्य पदार्थों में प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है।

मैलामाइन की मिलावट से किसी खाद्य पदार्थ का प्रोटीन कंटैंट कैसे बढ़ सकता है ?.....जी हां, बढ़ता वढ़ता कुछ नहीं है, लेकिन जब उस मिलावटी पावडर में पानी डाल कर उस के प्रोटीन कंटैंट को टैस्ट किया जाता है तो उस की रीडिंग बढ़ जाती है । इस का कारण यह है कि मैलामाइन में नाइट्रोजन की मात्रा बहुत अधिक होती है और किसी भी खाद्य पदार्थ में प्रोटीन की मात्रा का आकलन करने के लिये उस में नाइट्रोजन की मात्रा का ही आकलन कर लिया जाता है।
चीन में तो इस तरह के मिल्क-पावडर का इस्तेमाल करने वाले दो शिशुओं की तो मौत ही हो गई और 1253 बच्चे बुरी तरह से बीमार हो गये .....जिन में से बहुत से बच्चों के गुर्दों में पत्थरी बन गई।

पिछले साल मार्च 2007 में भी चीन में तैयार कुछ पालतू जानवरों के लिये खाद्य पदार्थों की वजह से अमेरिका में कुछ कुत्तों एवं बिल्लीयों की जब मौत हो गई थी तो बहुत हंगामा हुआ था।

कुछ महीने पहले मुझे ध्यान है अमेरिकी एजेंसी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने चीन में तैयार कुछ टुथपेस्टों के बारे में भी चेतावनी इश्यू की थी....इन में भी कुछ लफड़ा था।

वैसे आप ने भी नोटिस किया होगा कि आज कल बहुत से स्टोरज़ में कुछ इस तरह के विदेशी खाद्य पदार्थ अथवा पेय पदार्थ बिकते हैं जिन की भाषा हमें बिल्कुल समझ नहीं आती....लेकिन अकसर हम देखते हैं कि लोग ऐसी वस्तुओं को खरीदते समय भी ज़रा भी संकोच नहीं करते। बस सेल्स-मैन विभिन्न कारणों की वजह से इन की थोड़ी बहुत तारीफ़ कर देते हैं। इन प्रोडक्ट्स का कुछ पता नहीं कि ये कब तैयार हुये हैं, कब इन की एक्सपॉयरी है, क्या इनग्रिडिऐंट्स हैं......कुछ पता नहीं .....क्योंकि सब कुछ या तो उर्दू में या फिर ऐसी किसी दूसरी भाषा में लिखा होता है कि हमें इस के का कुछ पता ही नहीं चल पाता।

अकसर आप देखेंगे कि तरह तरह की चाकलेट्स में, तरह के आकर्षक वेफर्स में, जूसों में यह सब गोरख-धंधा खूब चलता है। मैं सोचता हूं कि हम लोग जब तक इन की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त ना हो जायें, हमें इन से तो बच कर ही रहना चाहिये, वरना चीन में मिलने वाले मिल्क-पावडर के बारे में तो आप ने सुन ही लिया।

किसी भी वस्तु पर किसी विदेश का ठप्पा का क्या श्रेष्ट हो गया कि हम लोग उस आइट्म के बारे में बेसिक से प्रश्न पूछने ही भूल गये। और तो और, अकसर आपस में भी लोग इस तरह की चाकलेट्स गिफ्ट वगैरा में देने लगे हैं.......पैकिंग बड़ी कैची होती है, देखने में इन की शेप-वेप बड़ी हाई-फाई होती है, इसलिये अकसर बच्चों को इन से दूर रख पाना अच्छा खासा दिक्कत वाला काम हो जाता है।

चीन के मिल्क-पावडर से ध्यान आ रहा है कि वहां तो ये मामले पकड़ में आ गये लेकिन हम लोगों का यहां क्या पता है कि हम लोग क्या क्या खाये जा रहे हैं, पिये जा रहे हैं.........आप सब यह तो जानते ही हैं ना कि हमारे यहां भी सिंथैटिक मिल्क बनाने के लिये मिल्क-पावडर का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है। लेकिन मैं तो इतने लोगों से पूछ चुका हूं कि दूध में कैमिकल्स की मिलावट है या नहीं ( नहीं, नहीं, पानी की नहीं.....वह तो अब हम लोग स्वीकार कर ही चुके हैं !!)….. उस को जानने का कोई घरेलू जुगाड़ तो होगा..............लेकिन मुझे कोई संतोषजनक जवाब अभी तक मिला नहीं।

रविवार, 14 सितंबर 2008

यह कैसी हिंदी है......कोरी सिरदर्दी है, दोस्तो।


कुछ दिन पहले जब मैं बाहर गया हुआ था तो मुझे मेरे बेटे की ई-मेल मिली ....खासी लंबी थी....इतनी लंबी कि मुझे उसे पढ़ते पढ़ते उस पर खीझ आ रही थी। लिखी तो उस बेचारे ने बहुत आत्मीयता से थी, लेकिन पता है उस खीझ का कारण क्या था.....वह रोमन स्क्रिप्ट में लिखी गई थी। अर्थात् ......Papa, aur aap kaise hain…….and so on……

ई-मेल तो पहले भी वह रोमन स्क्रिप्ट में कईं बार भेजता है, लेकिन कभी ये इतनी अखरती नहीं थीं। शायद इसलिये क्यों कि ये बिल्कुल छोटी छोटी हुआ करती थीं। लेकिन उस लंबी सी मेल को रोमन में पढ़ना ......मैं इतना बोर हुआ कि क्या बताऊं.......बिल्कुल सिरदर्दी सी लगी।

और जब मैं बेटे को मिला तो मैंने उसे कहा है कि यार, देख , तुम तो मुझे मेल इंगलिश में ही किया करो....और अगर तुम्हें हिंदी लिखनी ही हो तो देवनागरी में क्विल-पैड की मदद से लिखा करो।

चूंकि क्विल-पैड में लिखना भी थोड़ा जटिल तो है ही, इसलिये बेहतर यही  होगा कि रोमन में हिंदी लिखने वाले अपनी मेल को जितनी छोटी रखे उतना ही बढ़िया है, वरना तो भई रोमन में हिंदी पढ़ने वाले के सब्र का इम्तिहान हो जाता है। मैं तो यह सोचता हूं कि हिंदी-ब्लागरी में टिपियाते समय भी हमें इस बार का ध्यान रख लेना चाहिये। 
कितनी बार मैं अंग्रेज़ी अखबारों में या कईं बार हिंदी के अखबारों में भी पूरे पन्ने वाले या आधे-पन्ने वाले ऐसे विज्ञापन देखता हूं जो कहने को तो हिंदी में होते हैं लेकिन लिखे होते हैं...रोमन में। इन्हें देख कर भी बहुत अजीब सा लगता है।
सीधी सी बात है कि किसी भी जुबान का फ्लेवर उस की उचित लिपि के साथ ही कायम रह सकता है। वरना वही बात लगती है जिस तरह से थ्री-पीस सूट के साथ बाटा की हवाई चप्पल पहन ली  जाये .....इन दोनों का जैसे कोई मेल नहीं है, उसी तरह से सीधी-सादी हिंदी भाषा को भी अंग्रेज़ी एल्फाबेट का सूट-बूट न ही पहनायें तो बेहतर होगा.....कम से कम पढ़ने वाले का सिर तो नहीं दुःखेगा।

रही बात नेट पर हिंदी लिखने की.......इतने सारे साफ्टवेयर मौजूद हैं...जैसे www.quillpad.com या फिर सब से बढ़िया है कि inscript हिंदी टाइपिंग ही सीख ली जाये.......इसे सीखना बहुत आसान है .....आप अपने कंप्यूटर पर ही इसे सीख सकते हैं.......5-7 दिन में ही की-बोर्ड पर अंगुलियां चलनी शुरू हो जाती हैं....बाकी तो प्रैक्टिस की बात है।
अच्छी तो भई हिंदी टाइपिंग तो आप अपनी फुर्सत में देख लीजियेगा........लेकिन अगर हिंदी को रोमन में लिखना हो तो प्लीज़ लंबी लंबी बातें लिखने से ज़रा गुरेज करें तो बेहतर होगा। 

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

साफ़-सुथरा पानी पीना हो तो ....

कल मैं माउंट-आबू की सब से ऊंची जगह गुरू-शिखर पर था.....वहां पर दत्तात्रेय महाराज की तपोभूमि पर उन का मंदिर बना हुया है......वहां का नज़ारा बहुत मनोरम है.....वहां से नीचे नज़र मारने पर धुंध के कारण और कुछ तो दिखा नहीं लेकिन बिलकुल पास ही सैंकड़ों पानी की खाली बोतलें जरूर दिख गईं। अब अगर हम ध्यान करेंगे तो पायेंगे कि आखिर इस तरह के नॉन-बॉयोडीग्रेडेबल कचरे का क्या होगा......हम इन प्राकृतिक जगहों का नज़ारा देखने तो गये लेकिन बदले में इन्हें क्या दे कर आ गये.........!!

जब मैं बिलकुल छोटा था तो हम लोग सफर में एक पानी की सुराही साथ लेकर चला करते थे.....कुछ लोग पानी की मशक टाइप ले कर चला करते थे....जिसे वे ट्रेन की खिड़की के साथ टांग दिया करते थे। उस के बाद प्लास्टिक की बोतलें चल पड़ी.....जिन में पानी बहुत ज़्यादा गर्म हो जाया करता था। फिर बारी आई उन एक-दो लिटर की बोतलों की जिन में आज कल बच्चे पानी स्कूल ले कर जाते हैं। लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि लोग अब उसे भी नहीं उठाते.....अब तो बस उन दस-दस रूपये वाली बोतलों की ही चांदी है। जहां पर भी देखो, वहां बिखरी पड़ी होती हैं।

मैं अकसर सोचता हूं कि अगर पब्लिक इन बोतलों को खरीद कर पी रही है तो उस में उस का क्या दोष है.....क्या करे कहीं तो अब खाली बोतल फैंकी ही जायेगी ना........लेकिन इस से हम कितना कचरा इक्ट्ठा कर रहे हैं....सोच कर ही सिर चकराने लगता है। लेकिन इस में हम सब लोग जिम्मेदार हैं।
कचरे से बात चली तो ध्यान आ रहा है बड़ोदरा की एक हेयर-ड्रेसर की दुकान का....वहां बोर्ड लगा हुआ था कि डिस्पोज़ेबल रेज़र का इस्तेमाल करवाने पर दस रूपये एक्स्ट्रा देने होंगे.....यह दो चार दिन पहले की ही बात है और यह डिस्पोज़ेबल रेज़र मैंने उस दिन पहली बार ही सुना और देखा था।

खैर, बात चल रही है....पानी की ......पीने वाले प्रदूषित पानी की तो इतनी ज़्यादा समस्या है कि आए दिन हमारे आस पास ही कोई न कोई इस के बुरे-प्रभावों की चपेट में आया होता है। लेकिन हम लोग हर बात को इतना लाइटली लेने के आदि से हो चुके हैं कि सोचते हैं कि ज़्यादा वहम काहे का करना.....पानी ही तो है, सारी जनता यही ही तो पी रही है....कुछ नहीं होगा।

लेकिन कुछ कैसे ना होगा....बहुत कुछ होगा और बहुत कुछ हो रहा है ....पानी एवं खाद्य पदार्थों के दूषित होने की वजह से लाखों लोग हर साल अपनी जान गंवा देते हैं। हमें कुछ बेसिक बातों का ध्यान तो रखना ही चाहिये......यकीन मानिये, कईं बार पानी मड़्ड़ी सा दिख रहा है तो भी हम लोग इसे बड़ा केजुएली सा लेते हुये एक गिलास पी ही लेते हैं। किसी रेस्टरां में तो अकसर ऐसा होता ही है। बरसात के दिनों में पानी गंदा सा दिख रहा है और बास आ रही है फिर भी हम लोग बिना ज़्यादा फिक्र किये हुये उसे पी ही जाते हैं।

प्रदूषित पानी पी कर गड़बड़ तो होनी ही है और बेशक होती ही है। लेकिन इस में होता क्या है.......अकसर लोग अपनी मनपसंद कोई टेबलेट या कैमिस्ट की मनपसंद टेबलेट एक-आध दिन ले लेते हैं और जैसे ही सिंपटम्स खत्म होते दिखते हैं, दवाई लेनी बंद कर देते हैं। एक तो शायद दवाई ठीक ली नहीं, ( क्वालिटी की तो बात न ही करें तो ठीक है), और ऊपर से पूरा कोर्स लिया नहीं और उस से भी ऊपर यह कि उसी तरह का पानी लगातार पिया जा रहा है कि इस की वजह से अकसर लोग तरह तरह की पेट की क्रॉनिक-बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं।

इतनी जगहों पर देखता हूं कि एक्वा-गार्ड तो लगा हुआ है लेकिन उन की सर्विस करवाना किसी को याद नहीं है, पता नहीं कितने साल पहले सर्विस हुई होगी......लेकिन फिर भी बिना किसी सोच-विचार के हम लोग उसी स्रोत से पानी पिये जा रहे हैं।

मेरे विचार में तो पानी की गुणवत्ता पर हमेशा ध्यान देना ही होगा........सीधी सी बात है कि अगर पानी बिलकुल साफ,क्लीयर नहीं है तो यह समझिये कि वह बीमारियों की खान है, उसे मत पीजिये.....अकसर बरसात के मौसम में ऐसा होता है। इसलिये कम से कम इसे उबाल तो लीजिये। चाहे पीने के पानी को उबालना कितना भी कंबरसम क्यों न लगे, लेकिन इस के सिवा कोई चारा भी तो नहीं है।

बाहर कही भी जाये तो अपने साथ घर से ही उबाला हुया पानी अथवा एक्वागार्ड का पानी ही साथ लेकर चलें.......लेकिन बाहर से किसी भी नल से, किसी भी प्याऊ से यूं ही अपनी बेपरवाही का प्रगवाटा करते हुये कभी भी पानी न पियें...........यह कोई मैं किताबी बातें नहीं लिख रहा हूं.......जिन बातों को अपने ऊपर भुगत चुका हूं और भुगतने के बाद बहुत बहुत महंगी सीख ले चुका हूं......उसे ही आप के साथ शेयर कर रहा हूं। अगर पानी पास नहीं है अथवा उबले हुये पानी का प्रबंध नहीं हो सकता तो केवल और केवल बोतल वाला पानी ही खरीद कर पियें.....क्या करें, और कोई समाधान है ही नहीं !!

गंदे, दूषित पेय जल की तो समस्या इतनी विकट है कि सोच रहा हूं कि वर्ल्ड हैल्थ आर्गेनाइज़ेशन को एक बहुत बड़ा इनाम घोषित करना चाहिये ....कुछ इस तरह के आविष्कार के लिये कि किसी कैमिकल की एक बूंद हम लोग एक गिलास पानी में डाले और 10 सैकिंड में वह पीने लायक हो जाये।

पानी की क्वालिटी के बारे में इतना कुछ लिखा जा रहा है कि .........ये जो बोतलें भी मिलती हैं....दो-तीन साल पहले मीडिया में बहुत आ रहा था कि इन में कीटनाशकों के अवशेष मिले हैं.......लेकिन बात वही है कि कीटनाशकों से लैस वस्तुओं को खाना....( पानी, कोल्ड-ड्रिंक्स, सब्जी-भाजी, दालें, अनाज आदि) तो हमारी किस्मत का हिस्सा बन ही चुका है........लेकिन कईं तो इस तरह की बोतलें दिखती हैं, इन के नये नये नाम आ गये हैं.....कि पता ही नहीं चलता कि इन में मौजूद पानी ठीक ठाक भी होगा या नहीं........इसलिये इन बोतलें की खरीद के समय भी बढ़िया एवं स्थापित कंपनियों वाली पानी का बोतलों को ही तरजीह देना ठीक होगा।

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

मनीला में खुला पहला स्तन-दूध बैंक....

फिलिपिन्स की राजधानी मनीला अब माताओं को एक बैंक की सुविधा उपलब्ध हो गई है ...जहां पर वे पैसा नहीं बल्कि स्तन-दूध जमा करवा पायेंगी और निकलवा भी पायेंगी।

फिलिपिन्स का यह पहला कम्यूनिटी मिल्क बैंक पिछले शुक्रवार को खुला है और इस का उद्देश्य ही यह है कि उन बीमार बच्चों की मदद की जा सके जो इतने कमज़ोर हैं कि वे स्तन-पान करने में ही असमर्थ हैं या ऐसी माताओं की मदद के लिये जो शिशु को तुरंत अपना दूध नहीं पिला पातीं।
जिस दिन यह बैंक खुला उस दिन दो सो माताओं ने कम से कम 125 मिली दूध इस बैंक को भेंट किया। स्तन-दूध को इक्ट्ठा करने के लिये एक मैनुअल पंप का इस्तेमाल किया गया जिसे हर दूध-दाता ( Milk donor) ने लगभग 15 मिनट के लिये इस्तेमाल किया । एक मैनुअल ब्रैस्ट पंप की कीमत लगभग 40 यू.एस डालर बताई गई है।

खबर के मुताबिक हर मां से प्राप्त दूध को एक स्टैरीलाइज्ड कंटेनर में रखा जायेगा, जिसे कूलर में ट्रांसफर कर दिया जायेगा और स्थानीय हस्पताल में भेज दिया जायेगा। हास्पीटल के पास दूध को छः महीने तक रखने की सुविधा उपलब्ध है।

अभी यह खबर पढ़ी ही थी कि अमेरिका आंकड़ों पर भी नज़र पड़ गई।वहां पर 77फीसदी महिलायें स्तनपान करवाना शुरू तो करती हैं लेकिन छः महीने तक इसे केवल 36 फीसदी महिलायें ही करवा पाती हैं जब कि सरकार इस संख्या को 2010 तक 50 फीसदी तक तो लेकर जाना ही चाहती है। अमेरिकन एसोशिएशन ऑफ पैडीएटरिक्स शिशु को पहला पूरा साल ही मां का दूध देने की सिफारिश करता है।

तो , इस से गर्भवती भारतीय महिलाओं एवं बिलकुल छोटे शिशुओं की माताओं को भी तो एक अहम् सबक मिल रहा है ।

बुधवार, 20 अगस्त 2008

कौन सी दवा ले रहे हैं...इस का ध्यान तो रखना ही होगा !!

हमारे देश में कितने लोग हैं जो आम-सी दिखने वाली ( नोट करें दिखने वाली) तकलीफ़ों के लिये डाक्टर के लिये जाते हैं.....इस के पीछे छिपे कारणों में हम इस समय नहीं जाते कि ऐसा क्यों होता है.....लेकिन आम तौर पर बुखार, जुकाम, दस्त आदि के लिये अकसर लोग क्या करते हैं ?....अपनी जानकारी के अनुसार जिस भी किसी उपयुक्त दवा का नाम पहले से पता है, उसे ही पास वाले कैमिस्ट से मंगवा लेते हैं।

दवा कैमिस्ट ने कौन सी दी है ......किस कंपनी की दी है.....इस के बारे में अधिकतर लोगों को कुछ पता वता होता नहीं है। तो, दवा शुरू कर दी जाती है.....भगवान भरोसे ठीक हो गये तो ठीक है, वरना देखा जायेगा।

मैं पिछले सप्ताह दस्त रोग/ पेचिश से परेशान था.....मुझे पता था कि पानी की ही गड़बड़ी है, खैर दो-तीन दिन यूं ही देखा ....यही सोचा कि बाहर आकर अकसर ऐसा हो ही जाता है। लेकिन जब दो-तीन दिन बाद भी ठीक ना हुआ तो मैंने दस्त के लिये एक दवा जो मेरे पास मौजूद थी वह लेनी शुरू कर दी लेकिन उस दवाई को लेते मुझे दो दिन हो गये तो भी मुझे जब कोई फर्क नहीं पड़ा तो मुझे यकीन हो गया कि हो ना हो, यह दवा ही चालू है, घटिया किस्म की है।

मैं कैमिस्ट के पास जा कर एक बढ़िया किस्म की दवाई ले आया .....वैसे मैं नाम-वाम तो अपनी पोस्टों में लिखता नहीं हूं....लेकिन इस का लिख ही रहा हूं......बस इच्छा हो रही है सो लिख रहा हूं.....कंपनी से मुझे कुछ लेना-देना है नहीं। इस दवाई का नाम था....Tiniba 500mg …..यह लगभग पैंतालीस रूपये का दस टेबलेट का पत्ता आता था ...इस में Tinidazole 500mg ( टिनीडाज़ोल 500मिग्रा.) होता है। यह मुझे दिन में दो-बार 12-12 घंटे के अंतराल के बाद खानी है । हां, तो मैं यह बताना चाहता था कि इस की एक –दो खुराक लेने के बाद ही मुझे बिल्कुल फर्क पड़ गया। हां, लेकिन इसे पांच दिन खा कर पूरा कोर्स तो करना ही होगा और इस के साथ साथ पानी के बारे में विशेष ध्यान तो रखना ही होगा।

मेरा यह सारी स्टोरी लिखने का मतलब केवल इतना है कि कितने लोग इस तरह से दवा अपनी मर्जी से चेंज कर सकते हैं। कहने का मतलब है कि हम लोग तो चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़े हैं, अगर एक आम सी समस्या के लिये एक प्रचलित दवाई काम नहीं कर रही है तो सब से पहले तो इस का अर्थ यही निकलता है कि हो ना हो , दवाई में ही कोई गड़बड़ है। और यह सच भी है....आज कल दवाईयों के फील्ड में इतनी गड़बड़ है कि क्या कहें.....एक ही साल्ट की एक टेबलेट पांच रूपये में तो दूसरी किसी कंपनी की वही टेबलेट पचास रूपये में बिक रही होती है। यह बिल्कुल सच्चाई है।

और एक ही साल्ट की इन दोनों दवाओं के दाम में इतने ज़्यादा फर्क का कारण अकसर यही बताया जाता है कि एक जैनेरिक है और एक एथिकल है। इन में असली अंतर क्या है, यकीन मानिये मैं लगभग पिछले आठ-दस सालों से इस का जवाब ढूंढ नहीं पाया हूं। जब भी कोई सीनियर डाक्टर, मैडीकल रिप्रज़ैंटेटिव अथवा कोई पहचान वाला कैमिस्ट मिलता है तो इस का जवाब तो देता है लेकिन मैं आज कल पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हुआ हूं।

अब एक ही साल्ट की दवा एक तो पांच रूपये में और दूसरी पचास रूपये में बिके और यह कह दिया जाए कि एक तो जैनेरिक है और दूसरी एथिकल है.........चूंकि जैनेरिक में कंपनी को टैक्स वगैरा की काफी बचत हो जाती है, विज्ञापनबाजी पर ज़्यादा खर्च नहीं करना पड़ता, ........इसलिये इस जैनेरिक दवाईयों को कंपनी सस्ते में बेच पाती है। लेकिन मुझे कभी भी पता नहीं कभी भी यह बात क्यों हज़्म नहीं होती ( नहीं...नहीं, दस्त की वजह से नहीं, वह तो अब थैंक-गॉड ठीक है) ......मुझे हमेशा यही सवाल कचोटता रहता है कि क्या इस की क्वालिटी बिल्कुल वैसी ही होगी.....पता नहीं मुझे क्यों ऐसा लगता है। जिस से भी पूछा है ,वही कहता है कि हां, हां, बिलुकल वैसी ही होती है जैसे एथिकल ब्रांड की होती है।

चलिये यह चर्चा तो चलती रहेगी। बिलकुल ठीक उसी तरह से जिस तरह से हमारे देश में सेल्फ-मेडीकेशन चलती रहेगी यानि लोग अपनी ही समझ अनुसार, अपने ही ज्ञान अनुसार दवाईयां खरीद खरीद कर खाते रहेंगे। इसलिये कुछ बातें यहां रेखांकित करने की इच्छा सी हो रही है।

मेरे कहने से कोई भी सेल्फ-मेडीकेशन खत्म करने वाला नहीं है। लेकिन इतना तो हम कर ही सकते हैं कि बिलकुल आम सी समस्याओँ के लिये अपने फैमिली डाक्टर से मिल कर बढ़िया कंपनी की दवाईयों के नाम एक फर्स्ट-एड के तौर पर ही सही किसी डायरी में लिख कर रखें........और जब भी ये दवाईयां बाज़ार से खरीदें तो इस का बिल बिना झिझक ज़रूर लें।

हमारे देश में अपने आप ही दवा खरीद कर ले लेना बहुत ही प्रचलित है। मैं आज ही किसी अखबार में पढ़ रहा था कि अमेरिका के हस्पतालों में हर साल एक लाख चालीस हज़ार ऐंटीबायोटिक दवाईयों के रिएक्शन के केस पहुंचते हैं। अब हम लोग खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि अगर अमेरिका में ये हालात हैं जहां पर हर बात पर इतना कंट्रोल है, लोग अच्छे-खासे पढ़े लिखे हैं, बिना डाक्टरी नुस्खे के दवा मिलती नहीं..........तो फिर हमारे यहां पर क्या हालत होगी। पता नहीं इन घटिया किस्म की चालू दवाईयों के कितने किस्से बेचारे लोगों की कब्र में उन के साथ ही हमेशा के लिये दफन हो जाते होंगे।

अब आप इमेजन करिये.........एक टीबी मरीज बाजार से खरीद कर दवा खा रहा है, लेकिन उस की टीबी ठीक नहीं हो रही तो उस का डाकटर क्या करेगा.....उस की दवाईयों की खुराक बढ़ायेगा ....नहीं तो दवाईयां चेंज करेगा, ......यह सब कुछ करने पर भी अगर बात नहीं बनेगी तो उस के केस को Drug-resistant tuberculosis अर्थात् ऐसी टीबी जिस पर दवाईयां असर नहीं करती, डिक्लेयर कर देगा। और फिर उस का इलाज शुरू कर दिया जायेगा। कहने का भाव केवल इतना ही है कि टीबी जैसे रोगों के लिये कुछ चालू किस्म की घटिया दवाईयां मरीज़ की ज़िंदगी से खिलवाड़ करती हैं, यह अकसर हम लोग अखबारों में पढ़ते रहते हैं।

मैं बहुत बार सोचता हूं कि आदमी करे तो क्या करे................वही बात है कि दवा का जब नाम आये तो कभी भी किसी किस्म का समझौता नहीं करना चाहिये, यह बहुत ही लाजमी है, बेहद लाजमी है, इस के इलावा कोई भी रास्ता नहीं है, दवाई बढ़िया से बढ़िया कंपनी की जब भी ज़रूरत पड़े तो ले कर खानी होगी.......वरना अगर किसी के बच्चे का बुखार दो-तीन दिन से ऐंटीबायोटिक दवाई खिलाने के बाद भी नहीं उतर रहा तो उस की हालत पतली हो जाती है.......एक एक मिनट बिताना परिवार के लिये पहाड़ के बराबर लगता है।

ऐसे में क्या आप को नहीं लगता कि नकली दवाईयां बेचने वाले, स्टाक करने वाले, और इन्हें बनाने वाले भी उजले कपड़े के पीछे छुपे (काला धंधा गोरे लोग) खतरनाक आतंकवादी ही हैं। बस, अभी तो इतनी ही बात करना चाह रहा था......आशा है कि आप मेरी इस पोस्ट के सैंट्रल आइडिये को समझ ही गये होंगे।

रविवार, 17 अगस्त 2008

कितने सारी बातें तो वही पुरानी ही हैं ?

I have written this post in English and later on using quillpad have arrived at this form. I think it is Hindi and Bhojpuri and Bangla mixed !!........
आज में खाली बैठा यही सोच रहा था की हम सब लोग चिकित्सा क्षेत्रा में हो रही नयी नयी खोजों को जानने के लिए तो बहुत बेताब रहते हैं लेकिन सोचने वाली बात यह भी है की क्या जिन बातों का हमें पहले से पता है क्या हम उन को मान भी रहें है ?

अब सीधी सीधी बात करते हैं ….क्या आप को लगता है की जितनी बातें हम लोगों को अपने खाने पीने के बारे में पता हैं ….क्या हम उन को अपनी ज़िंदगी में उतार पाए हैं. हमें अपने आप से ही इस का जवाब पुकछना होगा. हमें पता है की चीनी हमारे लिए इतनी खराब है…..फिर भी क्या हम चीनी खाने से चूकते हैं क्या !!

हमें पता है की रेग्युलर शारीरिक परिश्रम करना हम लोगों के लिए बहुत ही ज़रूरी है तो क्या हम लोग यह सब करते हैं क्या.?

हमें पता है की हमारे पानी में घड़बड़ है…तो फिर भी हम लोग क्यों बार बार अपने सिस्टम को टेस्ट करते हैं. मैं एक डॉक्टर हून…….जितनी बार भी बाहर गया हून, हमेशा पेट खराब ही हुआ है…..कहीं भी …चाहे दो दिन के लिए ही गया हून, लेकिन पेट खराब होने की सौघट साथ ही लेकर आया हून.
अब इस के बारे में मेरे कुत्छ भाई कहेंगे की तुम अक़ुआगुआर्द का हमेशा पानी पीट हो….इस लिए इम्यूनिटी कमज़ोर पद जाता होगा बाहर जेया कर. इस लिए कई लोग सोचते हैं की तोड़ा तोड़ा ऐसे ही पानी कहीं से भी ( होटेल, पार्टी एट्सेटरा) पे लेना ही चाहिए……इस से इम्यूनिटी ठीक रहती है.
कुत्छ साल पहले तक तो भाई मैं भी कुत्छ ऐसा ही सोचता था……लेकिन अब मेरी सोच में बदलाव आ गया है………नहीं, यह कोई वैज्ञानिक समाधान नहीं है की हम लोग सब जानते हुआी भी अपनी इम्यूनिटी को टेस्ट करें.

पानी की ही बात लीजिए…….उस की वैज्ञानिक टेस्टिंग की तो बात क्या करें…..हमें बहुत बार पता भी होता है की जो पानी हमारे सामने जुग में पड़ा हुआ है उस का रंग सॉफ नहीं है अर्थात हू क्लियर नहीं है लेकिन फिर भी हम लोग विभिं कारणों की वजह से उस झट से पी कर आफ़त मोल ले लेते हैं.
लेकिन, एक समस्या दूसरी भी तो है ना……हर आदमी के बस की क्या बात है की हू बाहर जाने पर केवल बॉटल का ही पानी पीया करे……..नहीं ना, तो फिर इस का क्या समाधान है ? मैं कल बेज़ार में घूम रहा था बरोडा में तो मेने देखा की एक फुटपॅत पर एक मेज पर रखी एक एक रुपी की थैलियाँ बिक रहीं थी…………..देख कर, बहुत अजीब सो लगा………यही लगा की अब शायद अपनी मया की अंगुली पकड़ कर बेज़ार में आया हुआ बूतचा यह कहेगा की मया, सॉफ पानी की एक थैली दिला दो ना !!!

बस में बात केवल इतनी ही कहना चाह रहा हून की हमें पता है की पानी अगर सॉफ नहीं हा तो यह हमारे लिए ठीक नहीं है ……लेकिन फिर भी हम लोग ऐसे पानी को पे कर कितने ही बार वोही पेट ही बीमारिओं को खुला न्योता देने से कहाँ पेरहेज़ करते हैं?
ऐसी बहुत सारी बाते हैं जिन्हे हम लोग बहुत लाइट्ली ले लेते हैं.
इस लिए हमें छ्होटी छ्होटी बातों का भी बहुत ख़याल रखना चाहिए…..
कितने सारी बातें तो वही पुरानी ही हैं ?
( Document created using Quillpad on 17th Aug, 2008)

शनिवार, 16 अगस्त 2008

. कोई समाधान है ?

आप को मैं एक समाधान के लिए लिख रहा हून. कृपया इस के बारे में मुझे जानकारी की ज़रूरत है. हिन्दी…हिन्दी….हिन्दी हम लोग कह तो देते हैं लेकिन इस को अपने पीसी के एलवा कहीं भी लिखना एक सिरदर्दी है…….इस के बारे में शायद हम लोगों को जानकारी ही नहीं है ….एनीवे, मेरे से अब इंग्लीश फोनेटिक्स के द्वारा क्विलपॅड पर लिखा नहीं जा रहा…इस लिए अँग्रेज़ी में लिख कर हिन्दी ब्लॉग्गिंग के नियम तोड़ रहा हो……आशा है इस के लिए आप मुझे क्षमा करेंगे.
Please suggest some remedy ……
Dear friends, for the last 2-3 days I have access to a computer which does not have the facility of Hindi writing just by pressing the Alt and Shift key as was possible with my PC/Laptop where I am using Vista/XP.

I just wanted that I would write the posts in Hindi on my laptop and then using a pendrive would publish them. But that is not feasible as I have tried the same.

After that I tried to add Hindi language through languages and regional option bars after going into the control panel. However, that option is also close as they dont have Hindi in the list of languages. I have been told that re-installing XP will help but that is not possible before a couple of days.

Then, my son told me to write my article in notepad and then using a pendrive to get it published. However, that has also been tried but it failed…as no text in Hindi was visible.

Then, I was told to write in Quillpad using phonetic in English and it would get converted into Hindi before getting it published on my blog. However, I tried to write two lines and then tried to publish it on to the blogger …..it succeeded but it is so cumbersome to write in English phonetics….actually I am used to it.

Then, I noticed that on the computer I am working has a LeaP office installed on it…..I had seen it for the first time although I had heard about it many times but my impression was that it is for people who know Remington Hindi typing. So, choosing the Inscript mode, I again wrote in Hindi and then after copying that text(written in Hindi)….I tried to paste it into an e-mail to sent by gmail…..however, the hindi text never appeared on pasting that copied Hindi text …….So,now I don’t know what to do…..but one thing is sure that for me, writing on quillpad is very cumbersome.

Please reply the following question ….
---How Leap office can be used to do Hindi Blogging using inscript typing mode?
---Any other way for Hindi typing(may be online) using inscript mode which is compatible with hindi blogging?
Please do reply

शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

सै्क्स शिक्षा.....श...श....श.....चुप रहो, वरना पाप लगेगा !!

यहां तो भई यौन-शिक्षा पर कभी भी न बनेगी एक राय.......

दो तीन पहले मैं अपने 10साल के बेटे के साथ हेयर-ड्रैसर की दुकान पर बैठा अपनी बारी की इंतज़ार कर रहा था....उस के टीवी पर केबल टीवी पर दिखाई जाने वाली वही हिंदी डबिंग वाली कोई अंग्रेज़ी फिल्म चल रही थी। दो-तीन मिनट बाद एक जबरदस्त चुंबन का सीन आ गया.....अब मेरा बेटा मेरे मुंह की तरफ़ देख रहा था और मुझे स्वयं इस कद्र शर्मसार होना पड़ रहा था जैसे कि इस में मेरा ही कोई कसूर है। खैर, घर में होता तो जिस किसी के हाथ में भी रिमोट होता है वो इस तरह के सीन की दूर-दूर की संभावना होते होते ही रिमोट का बटन दबा देता है, लेकिन नाई की दुकान पर चल रहे चैनल पर तो अपनी मर्ज़ी नहीं ना चलती।

हां, तो आज के अखबार में एक बार फिर से एक खबर दिखी है ...जिस का शीर्षक है....यौन-शिक्षा पर नहीं बन रही एक राय। उस खबर के पहले पैरे को यहां लिख रहा हूं....बच्चों को यौन शिक्षा देने के लिए उपयुक्त पाठ्यक्रम पर एक राय नहीं बन पा रही है। यहां, यूनीसेफ व नाको द्वारा तैयार पाठ्यपुस्तकों में ज़रूरत से ज्यादा खुलापन नज़र आ रहा है, वहीं नाको ने किशोर शिक्षा कार्यक्रम पर जिन पुस्तकों को तैयार किया है, वो युवा संगठनों, शिक्षाविदों को कुछ ज्यादा ही संकुचित लगती हैं। उन्होंने इसमें संशोधन की मांग की है।

अगले पैरे मैं यहां लिख नहीं रहा हूं क्योंकि इस तरह की खबरें मैं और आप देख कर, पढ़ कर , सुन-सुन कर थक चुके हैं। बच्चों की यौन शिक्षा भी तो भई एक राष्ट्रीय मुद्दा ही हो गया है......आए दिन कोई न कोई दिखती है कि वहां वहां स्कूल किताब में यह शिक्षा इस तरह से दी जा रही है, वहां उस ढंग से दी जा रही है.......कोई ग्रुप तो पूरी तरह से इस तरह की शिक्षा का घोर विरोध कर रहा है। कईं जगहों पर तो बड़े विरोध होने लगते हैं।........पिछले कितने ही सालों से यह सब कुछ चलता चला जा रहा है।

यह सब देख कर बेहद दुख हो रहा है कि इस सौ करोड़ से भी ज़्यादा के देश में क्या इतने सुलझे हुये लोग भी नहीं हैं जो बच्चों की सैक्स शिक्षा का प्रारूप तैयार कर सकें।

कारण पता है क्या है....हम लोग दोगले हैं....मुझे अपनी एक प्रोफैसर के शब्द याद आ रहे हैं......हीर-रांझा के किस्से सारे लोगों को बहुत पसंद हैं....लेकिन शर्त है कि हीर पड़ोसी के घर से संबंध रखने वाली हो। कोई भी परिवार यह गवारा नहीं करता कि हीर उस के घर से हो।

ठीक है, अब तक यौन शिक्षा पर एक राय नहीं बन पाई है.....तो क्या टीवी पर जो रोज़ाना जबरदस्त अश्लीलता परोसी जा रही है.....उस पर कोई मां का लाल रोक लगा सकता है.....!! और तो और इंटरनेट पर जो कुछ भी आज बच्चों को उपलब्ध है, उस को कौन कंट्रोल कर सकता है.....क्या है यह किसी के बश की बात !!

तो फिर यौन शिक्षा की एक राय बनाने के लिये इतना रोना-धोना आखिर क्यों......कुछ भी करो,लेकिन भई एक बार शुरू तो करो..... उस सिस्टम में जो खामियां समय के साथ नज़र आएंगी उन्हें तुरंत दूर किया जा सकता है। लेकिन, हम सब को अपनी आंखों से यह संकीर्णता का चश्मा तुरंत ही उतार फैंकने की बहुत ज़रूरत है।
आप का क्या ख्याल है ?

वो बारिश का पानी ....

आज अभी इस वक्त इस भीगी-भीगी सी दोपहर में यह पोस्ट लिखने की इंस्पीरेशन है....दो बिलकुल छोटे छोटे बालक जो अभी 10 मिनट पहने मुझे सड़क के किनारे चलते हुये दिखे....यहां यमुनानगर में इस समय बरसात हो रही है....और ये दो बालक बिलकुल आप के और मेरे बचपन के दिनों की तरह जान-बूझ पर बरसात के खड़े पानी में से उछल-कूद कर जा रहे थे......घुटने तक उन का पायजामा पानी से भीगा हुया था, लेकिन इस की किसी परवाह होती है इस उम्र में। मुझे उन्हें देख कर बहुत ही खुशी हुई कि यार, आज भी कोई तो है हम जैसा जो कि बरसात को इतना एंज्वाय करता है, इक्ट्ठे हुये बरसाती पानी का भी इतना लुत्फ़ उठाता है।

यकीनन हम जैसे जैसे बड़े होते हैं हम लोग बड़ी बड़ी खुशियों की खोज में अपने आसपास बिखरी हुई छोटी छोटी खुशियां रोज़ाना नज़रअंदाज़ करते रहते हैं। उन में से एक बहुत अहम् है....बरसात में भीगना, खूब भीगना ।

सोच रहा हूं कि यह जो आज कल जगह जगह रेन-डांस आर्गेनाइज़ करवाये जाते हैं, इन में कहां बारिश में भीगने जैसी बात होती है। इसलिये मैं सोचता हूं कि जिस किसी का भी बारिश में भीगने का दिल करे उसे कभी भी मना नहीं करना चाहिये।

बारिश का मतलब है कि कुदरत जश्न मना रही है, सारी कायनात झूम रही है, पेड़-पौधे बारिश की फुहार से फूले नहीं समा रहे तो हमें आखिर कौन रोक सकता है !!

हम लोग भी कुछ दिन पहले बारिश में दो-तीन घंटे भीगते रहे थे। बच्चों को इन छोटी छोटी खुशियों से दूर नहीं रखना चाहिये ....बल्कि शुरू शुरू में तो उन्हें खुद इनीशिएट करना चाहिये कि जाओ, बारिश का मज़ा लो। कुछ नहीं होता, न ही ठंडी़ लगती है ...ना ही कोई बीमार होता है, जब कोई अपनी खुशी से कुछ भी कर रहा है तो उसे किसी बात की फिक्र नहीं होती।

एक बार फिर लिख रहा हूं कि आज मुझे उन दोनों बच्चों की मस्ती देख कर बेहद खुशी हुई......शायद मैं अपने बचपन की सुनहरी यादों में कईं खो गया था।

वैसे अगर बारिश में भीगने की कभी इच्छा हो तो ज्यादा सोचना नहीं चाहिये, ....हमारी समस्या ही तो यही है कि दूसरे लोगों के हिस्से का भी हम भी सोचने लगते हैं कि यार, वो क्या कहेंगे............कहेंगे...जो उन का मन करेगा कहेंगे........लेकिन आप को बारिश में भीगने से कौन रोक रहा है।

बारिश में भीगना दो तरह है ...एक तो वह जो आप रास्ते में जाते हुये अचानक बारिश से भीग जाते हैं और दूसरा भीगना वह है जिस के लिये आप पांच-दस मिनट के लिये अपने घर से बाहर आ जाते हैं.....मैं इस दूसरे वाले भीगने की ही बात कर रहा हूं, दोस्तो।

बुधवार, 6 अगस्त 2008

डाक्टर के मन में क्या क्या चल रहा होता है ?

मैं सर्विस कर रहा हूं ...रोज़ाना 35-40 मरीज़ दांतों के एवं मुंह की तकलीफ़ों के देखता हूं। हर मरीज को देखते हुये कुछ न कुछ मन में चल रहा होता है जिसे आज पहली बार ओपनली शेयर करने की इच्छा सी हो रही है। एक बार आज विचार आया कि चलो यह सब कुछ पोस्ट में ही डाल देता हूं...शायद आप को भी मुझ जैसे डाक्टरों के मन में झांकने का एक मौका मिल जाये।

चलिये शुरू से ही शुरू करता हूं ....दोस्तो, अभी मुझे दंत-चिकित्सक बने हुये कुछ अरसा ही हुआ था तो मुझे दांतों के ट्रीटमैंट का खोखलापन समझ में आने लगा था ( मेरा कहने का मतलब यही है कि दांतों की बीमारियों से बचाव तो इलाज से कईं गुणा कारगर है। .....इस की डिटेलड चर्चा फिर कभी करूंगा।) पहले तो यह बताना चाहता हूं कि कुछ हालात ऐसे थे, बनते गये कि मैं शुरू से ही सरकारी नौकरी में ही रहा हूं। बहुत बार मित्रों की तरफ़ से प्रैशर था कि क्या यार, तुम भी, अपना बढ़िया सा क्लीनिक खोलो और फिर देखो। लेकिन मैंने भी इस बारे में किसी की न सुनी.....क्योंकि मुझे सामाजिक विसंगतियां अपने फील्ड में भी दिखने लगीं। ज़ाहिर है इस के बारे में मैं क्या कर सकता था, इसलिये बस एक मूक दर्शक की भांति देखता रहा ...सब कुछ सुनता रहा।

यही देखा करता था कि नाना प्रकार के कारणों की वजह से अधिकांश लोगों के लिये तो यार दांत के दर्द से निजात पाने का केवल एक ही उपाय था कि चलो, दांत निकलवा कर छुट्टी करो। लेकिन दूसरी तरफ़ कुछ लोग एक दांत सड़ जाने पर उस पर हज़ारों ( जी हां, हज़ारों !!) रूपये खर्च कर के भी उसे बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। लेकिन मेरी नज़र में इस तरह के लोगों की गिनती बेहद कम रही...मेरा पूरा विश्वास है कि आज भी इस तरह के लोगों की गिनती आटे में नमक के ही बराबर है.....इस के बहुत से कारण हैं जिस का उल्लेख किसी दूसरी पोस्ट में करूंगा।

बहुत बार देखा कि हम सरकारी हस्पताल में काम करने वाले डैंटिस्टों की तो पीठ शाम को दोहरी हुई होती है और हमें अपने कुछ प्राइवेट प्रैक्टीशनर बंधु शाम को भी बड़े फ्रैश दिखते हें( हां, बहुत से दोस्त ऐसे भी हैं जो हम से कईं गुणा ज़्यादा मेहनत करते हैं )......अकसर सुनते हैं कि बाहर प्राइवेट प्रैक्टिस में तो ढंग के तीन-चार मरीज़ ही आ जायें तो समझो उस दिन का कोटा पूरा हो गया।

जब हम लोग हाउस-जाब कर रहे थे तो हमारे साथ काम करने वाली कुछ लड़कियां अकसर यह कमैंट बहुत मारा करती थीं कि आज तो इतने गंदे-गंदे मरीज़ आये कि बता नहीं सकती । गंदे से उनका मतलब होता था जिन के मुंह की हाइजिन बेहद खस्ता हालत में होती थी और मुंह से बदबू बहुत आया करती थी। मुझे पर्सनली यह सब सुन कर बेहद बुरा लगता था.....लेकिन मैंने खुले तौर पर उन के सामने कभी भी अपनी आपत्ति दर्ज नहीं की। मैं यही सोचा करता था कि यार, सरकारी कालेज में 550रूपये की सालाना फीस लेकर अगर सरकार ने हम लोगों को किसी काबिल किया है और वह भी इन "गंदे-गंदे" मरीज़ों के दिये हुये टैक्स से जमा हुये पैसे को खर्च कर के .....तो क्या हम अब इन का दामन कैसे छोड़ दें........अब जैसे भी हैं, हमें ही तो इन्हें ठीक-ठाक करना है, हमें डाक्टर बनाने में इन का भी पूरा योगदान है और अब जब हम लोगों की तरफ़ ये बहुत उम्मीद से देख रहे हैं तो हम इन्हें कहें कि हम तो भई किसी एनआरआई लड़की से शादी करवा के बाहर जा रहे हैं। मैंने ग्रेजुएशन 25 साल पहले किया था .....तब यह रिवाज बहुत था। मेरे भी बहुत से बैच-मेट्स इसी तरह से उन्हीं दिनों बाहर निकल गये थे। ( ऑफर तो मुझे भी थे और वह भी हाउस-जाब करते ही, लेकिन कभी मन ने हामी नहीं भरी ) ।

बात कहां से कहां निकल गई......हां, तो मैं कहता हूं कि जब भी मैं किसी भी मरीज को देखता हूं तो झट से पता तो लग ही जाता है कि इस की तकलीफ़ का प्रोगनोसिस ( इस का रिजल्ट क्या निकलने वाला है ) क्या है !

आप मेरी दांतों की बीमारियों से संबंधित पोस्टों को कभी फुर्सत में देखेंगे तो पायेंगे कि मैं अपने आप ही मरीज़ों द्वारा दांतों पर ठंडा-गर्म लगने के लिये बाज़ार से खरीद कर इस्तेमाल करने का घोर विरोधी हूं।

लेकिन पता नहीं पच्चीस साल बाद आज मेरे मन में यह विचार आया है कि यार, तुम ने तो कह दिया कि यह गलत है , वह गलत है......लेकिन कभी इन मरीज़ों की भी तो सोच कि अगर ये इस तरह की दवाई-युक्त पेस्टें भी न खरीदें तो ये आखिर करें क्या, ये करें तो क्या करें ??

मैंने अपने मन से कईं प्रश्न पूछ डाले......
क्या तेरे को लगता है कि यह अपने मसूड़ों का पूरा इलाज जिस में हज़ारों रूपये खर्च होंगे, एक मसूड़ों का विशेषज्ञ डाक्टर चाहिये.....कम से कम 10-15 बार उस विशेषज्ञ के चक्कर काटने के लिये क्या यह मरीज़ तैयार है ?
क्या इस मरीज़ की इस तरह की हैसियत है कि यह इस तरह का इलाज करवा सके ?
क्या यह तुम्हारे कहने मात्र से ही तंबाकू, गुटखा, पान-मसाला छोड़ देगा ?
...........
............
ये डाट्स मैंने इस लिये डाल के छुट्टी की है कि यह चर्चा अपने आप में बहुत लंबी चल निकलेगी क्यों कि मुझे इन सभी बातों का जवाब न ही में मिलता है।

और बात सही भी है कि जब तक मरीज़ अकसर ( बहुत ही ज़्यादा बार ) हम तक पहुंचता है उस के दांत एवं मसूड़े बहुत ही बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुके होते हैं......और हम चाह कर भी बहुत बार विभिन्न कारणों की वजह से उन्हें बचा पाने के लिये कुछ कर नहीं पाते हैं।

समस्या यह भी तो है ना कि हमारे यहां लोगों में बीमारी से बचने का कोई बढ़िया ढंग तो है नहीं....बस दांत दुखा तो दवा ले ली और बार बार दुखा तो उखड़वा दिया । तंबाकू, पान, गुटखा खूब खाया जा रहा है। इतनी विकट समस्या है कि मैं ही जानता हूं कि जब कोई भी मरीज सामने होता है तो हमें उस की हालत पर कितनी करूणा आ रही होती है क्योंकि हमें पता है कि कुछ भी हो, अब इस के दांत कुछ ही समय के मेहमान हैं.........लेकिन मरीज़ समझते हैं कि उन्हें तो कोई तकलीफ़ नहीं है, बस मसूड़ों से खून-पीप निकलती थी...लेकिन जब से ब्रुश करना छोड़ा है, वह भी बंद है.......बहुत से मरीज़ों की सोच यही है।

लेकिन फिर भी इन मरीज़ों में भी हमारी कोशिश यही होती है कि किसी भी तरह से अगर ये हमारी बातें मान लें तो इन के दांतों की आयु बढ़ सकती है , पायरिया रोग को फैलना किसी तरह से बंद हो जाये, मुंह से आने वाली बदबू जिस की यह बार-बार शिकायत करता रहता है, उस का किसी तरह से निवारण हो जाए।

एक बात ध्यान में आ रही है कि मैं Yahoo! Answers पर लोगों के दांतो के रोगों से संबंधित प्रश्नों का जवाब देता हूं और मुझे लगता है कि दांतों की समस्या निश्चित रूप से ही बहुत विकट है। अपने यहां तो लोग अकसर विभिन्न कारणों की वजह से क्वालीफाइड डैंटिस्ट के पास न जाकर, ऐसे ही किसी भी झोला-छाप के हत्थे चढ़ जाते हैं, लेकिन विकसित देशों में लोगों की परेशानियां कुछ अलग ढंग की हैं.....वे अपने डैंटिस्ट से बात करते इस कद्र डरते हैं कि जैसे वह कुछ हौवा हो.....पता नहीं उधर का सिस्टम ही कुछ ऐसा होगा। अगर मेरी बात का यकीन न हो तो मेरे से पूछे गये सवाल और मेरे द्वारा दिये गये जवाब इस लिंक पर जा कर पढ़ लीजियेगा। यहां पर क्लिक करें।

और हां, बात इतनी लंबी हो गई है कि अब विराम लेता हूं......लेकिन डाक्टर के मन में क्या क्या चल रहा होता है.....इस की अगली कड़ी शीघ्र ही लेकर आप के सामने हाज़िर होता हूं।

तब तक इतना ही कहना चाहूंगा कि दांतों की पूरा देखभाल किया करो, दोस्तो, रात को सोने से पहले भी ब्रुश कर लिया करो और रोज़ाना जुबान को टंग-कलीनर से ज़रूर साफ कर लिया करो. और डैंटिस्ट के पास हर छःमहीने में जाकर अपने दांतों का चैक-अप ज़रूर करवा लिया करो, दोस्तो...........because they say
......a stitch in time saves nine !!
Please take care !!

मंगलवार, 5 अगस्त 2008

डाक्टर क्या करें?...मरीज अपनी जगह सच्चे हैं, वे क्या करें ?

आज मेरे पास एक अधेड़ महिला आई...दांतों का इलाज करवाने के बाद कहने लगी कि मेरे शरीर में बेहद खारिश रहती है..उस के लिये भी मुझे दो-टीके लिख दो...मैंने कहा कि यह तो मेरा फील्ड नहीं है। आप किसी चमड़ी रोग विशेषज्ञ से मिलें.....कहने लगी कि पिछले 15 वर्षों से जगह जगह धक्के खा चुकी हूं। बस, ऐसे ही चल रहा है। कहने लगी कि कुछ समय देसी दवाई की पुड़ियां भी खूब खाई हैं, लेकिन बाद में पता चला कि वह नीम-हकीम तो स्टीरायड्ज़ ही पीस-पीस कर लोगों को खिलाता रहा...जिस की वजह से शरीर फूल गया है। फिर कहने लगी कि उस के बाद मैंने होम्योपैथिक दवाई भी ली, लेकिन मेरी तकलीफ़ दूर नहीं हुई। पीजीआई तक के चमड़ी-रोग विभाग के डाक्टरों को दिखा के आ चुकी हूं। बेहद निराश सी थी।

मैंने उस को इतना ज़रूर समझाना चाहा कि जितने भी इलाज आप ने मेरे को बताये हैं, उन में से जब तक आप चमड़ी-रोग के माहिर डाक्टर की देख-रेख में इलाज करवाती रहीं...वही श्रेष्ट था। मैंने कहा कि मैं भी अगर आप को खारिश बंद करने का कोई टीका लिख भी दूंगा या कोई ट्यूब का नाम लिख कर दे भी दूंगा तो मैं आप का कोई इलाज-विलाज नहीं कर रहा हूं.....बस, आप को कुछ दिनों के लिये कुछ राहत दे रहा हूं ....लेकिन हो सकता है कि उस ट्यूब से आप का रोग दब तो जाये लेकिन कुछ अरसे बाद वह रोग और भी उग्र रूप में सामने आ जाये।
मैंने उसे यह भी बताया कि यह तो आप जान ही गई होंगी कि कुछ चमड़ी-रोगों का ठीक होना इतना आसान भी नहीं होता, ऐसे में अगर आप किसी विशेषज्ञ से सलाह लेकर दवाई या परहेज करती रहेंगी तो कम से कम बीमारी के अंधाधुध फैलने के चांस तो कम होंगे या बिना-वजह ऐसे ही तरह-तरह की दवाईयां खाने या लगाने से जो बुरे प्रभाव शरीर पर होंगे, उन से तो बचे रहेंगे।

सोच रहा हूं कि उस महिला के मन में तो मैंने दो बातें डालने की कोशिश की, लेकिन पता नहीं कितना असर हुआ होगा। लेकिन आजकल मुझे यह ध्यान आने लगा है कि इस तरह से सारा दिन बोलते रहना ही हम जैसे डाक्टरों का कर्म है.....मरीज के ऊपर होने वाले असर रूपी फल का विचार छोड़ दें, क्या ऐसा संभव है ?

मैं और मेरी डाक्टर पत्नी अकसर यह डिस्कशन कर के बहुत फ्रस्टरेटेड होते हैं कि यार, क्या आज कल क्या हो गया है ......मरीज़ों को क्या हो गया है, हमें क्या हो गया है, दवाईयों को क्या हो गया है, ओवर-ऑल सारा सिस्टम ही ऊपर-नीचे हो गया लगता है।

अस्पताल में आम साधारण बीमारियों के मरीज़ों की लंबी लंबी लाइनें लगी होती हैं.....मैं अनेकों बार कहता हूं कि ये छोटी मोटे खांसी-जुकाम के लिये हम लोग मुलैठी चूसने वाले हैं, गरारे करने वाले हैं, शहद-नींबू लेते हैं और शायद ही कोई डाक्टर होगा जो इन छोटे मोटे रोगों के लिये इतने ऐँटीबॉयोटिक वगैरा लेता होगा.......लेकिन.......अब क्या लिखूं ?

8-10 साल के बच्चे आते हैं .....इतने कमज़ोर से....आंखें अंदर धंसी हुईं......मां-बाप ने तीन टॉनिकों की शीशीयां पकड़ी होती हैं कि ये खिलाने के बावजूद भी यह बढ़ नहीं रहा.......बार बार कहना पड़ता है कि बंद करो इस का सारा जंक-फूड् और इसी टॉनिक की शीशीयों की बजाये दाल-रोटी-सब्जी खिलाना शुरू करो।

कुछ दिन पहले मैं एक इंजैक्शन को देख रहा था, जो कि एंकाईलोज़िंग-स्पांडीलाइटिस के एक मरीज़ को लगना था, उस की कीमत देख कर मैं दंग रह गया.....उस की कीमत 42000रूपये( ब्यालीस हज़ार रूपये) थी.....और ऐसे कईं इंजैक्शन इस तरह के मरीज़ों को लगाने पड़ते हैं। मैं सोच रहा था कि ठीक है, हमारा विभाग अपने कर्मचारियों एवं उन के परिवारजनों को इस तरह की सुविधा उपलब्ध करवाता है, लेकिन बाहर, प्राइवेट ज़्यादातर लोग इस तरह का इलाज कहां करवा पाते होंगे !!

समस्या बहुत विषम है.....इलाज इतना महंगा है कि ज़्यादातर लोगों की पहुंच से बाहर है। समस्या इस लिये भी विकट है कि बहुत से लोग तो उपर्युक्त डाक्टर तक पहुंच ही नहीं पाते और अगर पहुंच भी जाते हैं तो इलाज करवाना इतना महंगा है कि पूरा करवा ही नहीं पाते !!

लिखते लिखते लगने लगा है कि इस विषय पर तो मेरे पास ऐसे ऐसे अनुभव हैं कि मैं एक अच्छी खासी किताब लिख सकता हूं। वही बात है कि डाक्टर आखिर क्या करें ?...और मरीज़ अपनी जगह पर ठीक हैं कि वे क्या करें ?
बाकी अनुभव फिर कभी बांट लेंगे लेकिन अपने इतने लंबे अनुभव का निचोड़ कुछ ही पंक्तियों में रखना चाह रहा हूं.......ज़्यादातर बीमारियों ( 80फीसदी से भी ज़्यादा) का संबंध हमारी जीवन-शैली से है। हमें अपना खान-पीन ठीक ठाक रखना चाहिये, सभी तरह के व्यसनों से दूर रहना चाहिये, शारीरिक कसरत नियमित करनी चाहिये और प्रतिदिन प्राणायाम् करना चाहिये।

पता नहीं ऐसा लिख के मैं ठीक कर रहा हूं कि नहीं, लेकिन आज लिख ही देता हूं कि मेरे लिये तो डाक्टरी पेशा एक बहुत ज़्यादा फ्रस्टरेटिंग एक्सपीरियंस है.....क्या यार, ज़्यादातर बीमारियों क्रॉनिक होती हैं....उस में हमारी दवाईयों ने केवल बीमारी के लक्षणों को दबाना मात्र होता है, मैंने तो यही देखा है कि कोई कुछ भी दावा कर ले जब तक लाइफ-स्टाइल में बदलाव नहीं किया जाता, कुछ भी....बिलकुल कुछ भी ...होना संभव ही नहीं है (इस से संबंधित मेरी एक पोस्ट के लिये यहां क्लिक कीजिये)

अकसर सोचता हूं कि कोई मरीज अगर गुर्दे फेल होने से या लिवर फेल होने से ऑफ हो गया.....तो हम ने उसे उस हालत तक पहुंचने से रोकने के लिये क्या किया ....हम ने उन बीमारियों से बचाव के उपायों को कितनी हद तक इस्तेमाल किया। हां, वो बात दूसरी है कि इन क्रॉनिक रोगों में तो मरीज़ का भी काफी रोल रहता ही है, लेकिन वही बात है कि उस को जागरूक करने का काम क्या सारे समाज का नहीं है ?

पता नहीं, मैंने इस में क्या लिखा है, क्या नहीं लिखा है.....लेकिन कुछ तो हल्का महसूस कर रहा हूं। मैं तो अपने अटैंडैंट से मज़ाक कर रहा था कि यार, हम लोग रिटायर हो कर किसी बड़े से हस्पताल के बारे एक तंबू गाड़ कर डेरा जमा लेंगे.....धूनी रमायेंगे, हस्पताल से बाहर आ रहे निराश लोगों को खूब सारे आशीर्वाद दिया करेंगे....... और उन्हें बीमारियों के बारे में जागरूक किया करेंगे.....तंबाकू, दारू उन का छुड़वाया करेंगे।

इतना सब कुछ लिखने के बावजूद यही कहना चाह रहा हूं कि एक्अूट बीमारियों के लिये तो चलो आज की आधुनिक चिकित्सा प्रणाली ठीक है, डायग्नोस्टिक टैस्ट बहुत उम्दा चल पड़े हैं.......लेकिन पुरानी बीमारियों के समाधान के लिये और अपनी इम्यूनिटी को परफैक्ट रखने के लिये तो बाबा रामदेव की शरण में जाना ही होगा। इसीलिये मैं सोच रहा हूं कि बाबा को तो मैडीकल फील्ड का नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिेये जिस ने योग क्रिया एवं प्राणायाम् को इतना लोकप्रिय बना दिया कि बाबा के नाम का डंका पश्चिमी देशों में भी बजने लगा है।

रविवार, 3 अगस्त 2008

वजन कम करने का सुनहरी फार्मूला !!

अकसर हम लोग खूब पढ़ते रहते हैं कि वजन कम ऐसे होगा, वैसे होगा.....लेकिन कईं बार कुछ ऐसा दिख जाता हैकि हम लोग इस बारे में सोचने पर मजबूर हो ही जाते हैं जैसा कि मेरे साथ पिछले सप्ताह हुआ....मैंने इंगलिश के अखबार में एक कैप्सूल पढ़ा.......

वजन कम करने का सुनहरी फार्मूला क्या है ?
उस के आगे लिखा था कि कम खाओ। प्रतिदिन 500 कैलेरी कम का सेवन करें और हर हफ्ते एक पौंड वजन कमहो जायेगा। और अगर इस के साथ साथ खूब शारीरिक परिश्रम भी करेंगे तो वजन कम होने की यह प्रक्रिया और भी तेज़ हो जायेगी।


बात मेरे भी मेरे मन में लग गई। सोचा कि क्या किया जाए। वैसे किसी नॉन-मैडीकल बंदे से इस बात का ज़िक्र किया जाये तो शायद वह यही कहेगा कि कल से नाश्ता बंद या लंच बंद, या कल से फल बिल्कुल बंद...या कल से चावल बंद ....ऐसे कईं ही विचार किसी के भी मन में आने लगेंगे कि किसी तरह से ये 500 कैलेरी रोजाना कम करनी हैं।

लेकिन यह बात बिलकुल गलत है कि बिना सोचे समझे नाश्ता बंद कर दिया ....लंच बंद कर दिया......हमें सभी आहार करने हैं लेकिन फिर भी अपनी कैलेरी को कम करना है। और विशेषकर यह ध्यान रखना तो और भी ज़रूरी है कि कैलेरी कम करनी है, ठीक है लेकिन आहार तो फिर भी संतुलित ही रहना चाहिये....ऐसा नहीं होगा तो शरीर में तरह तरह की तकलीफ़ें होने लगेंगी। और फायदे की बजाए नुकसान होने की ज़्यादा आशंका है।

अब आप सोच रहे होंगे कि नाश्ता भी लेना बंद नहीं करना, लंच भी खाना है, फल भी खाने हैं तो फिर ये 500 कैलेरी कैसे कम होंगी। तो, ठीक है, मैं अपनी उदाहरण दे कर यह बाद स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं आज कल धीरे धीरे प्रतिदिन 500 कैलेरी कम करने की तरफ़ कैसे बढ़ रहा हूं....

1. मैं बहुत मीठी चाय पीने का शौकीन हूं.....मतलब कि पांच-छः चीनी के चम्मचों का ज़्यादा सेवन ....अर्थात् लगभग तीस ग्राम चीनी ज़्यादा.....यानि कि लगभग 125 कैलेरी का ज़्यादा सेवन......तो मैंने पिछले कुछ दिनों से चाय में चीनी का सेवन बिलकुल कम करना शुरू कर दिया है। और कुछ सही, 100 कैलेरी की तो बचत हो गई।दही में भी चीनी बिलकुल डालनी बंद कर दी है और मीठी लस्सी भी बंद कर दी है।

2.वैसे तो आज सुबह ही दो जंबो साइज़ के आलू के परांठे खाये हैं और वैसे भी रोज़ाना दो परांठे नाश्ते में लेता हूं। पता नहीं पिछले कईं वर्षों से ये परांठे छोड़ रखे थे लेकिन फिर से शुरू कर रखे हैं अर्थात् लगभग बीस ग्राम घी का सेवन इन परांठों की वजह से हो ही जाता है.......तो लगभग 200 कैलेरी तो इन्हीं परांठों के द्वारा ही शरीर में पहुंच गईं। तो अबयह फैसला किया है कि आने वाले दो-तीन दिनों में परांठों को भी पूरी तरह बंद कर दूंगा।
अगर मैं यह भी कर पाऊं तो कुल 300 कैलेरी एक्स्ट्रा प्रतिदिन लेने से बच जाऊंगा।

3. आगे आइए....आप के सामने एक और राज़ खोल ही दूं कि किस तरह आदमी अपनी आदतों के हाथों का खिलौना होता है।
पिछले कुछ सालों से मैंने दाल में घी या मक्खन के एक-दो चम्मच उंडेलने बंद किये हुये थे लेकिन पिछले कुछ महीनों से फिर यह काम करने लगा था जो कि पिछले कुछ दिनों से बंद पड़ा है। यानि की लगभग 50-100 कैलेरीकी और बचत।

4. बचपन से ही एक आदत है कि लगभाग रोज़ाना( डाक्टर, तू तो यार खुदकुशी की पूरी तैयारी कर रहा है !!) चावल में दूध-चीनी या घी-चीनी डाल कर खाना( वैसे बचपन में तो चीनीके परांठे भी खूब खाये हैं) .....अब अगर मेरी उम्र में यह सब चलता रहेगा तो कैसे चलेगा......यह तो वही बात हो गई कि आदमी अपने पैरों पर खुद कुल्हाडी मारता रहे। अब अगर दूध-चीनी-चावल या घी-चीनी-चावल रोजाना खाये जा रहे हैं तो लगभग 100-150 कैलेरी तो शरीर के अंदर जा ही रहे हैं। तो, अब मैंने कईं दिनों से यह वाली आदतभी छोड़ दी है क्योंकि ज़्यादा वज़न के बुरे परिणाम रोज़ाना देख कर, सुन कर, पढ़ कर डरने लगा हूं।

मैंने अपने खाने पीने की बातें यहां इस लिये लिखी हैं कि मैं एक बात को रेखांकित कर सकूं कि हमें कम खाने के लिये अपना खाना कम करने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन यूं ही ऊल-जलूल खाने से बचना होगा जैसे कि बच्चे के हाथ में बिस्कुट देखे तो खुद भी दो-तीन खा लिये....आधी कटोरी भुजिया ऐसे ही ज़रूरत होते हुये भी निगल डाली......ये कैलेरीज़ हमें देती तो कुछ भी नहीं, केवल गलत जगहों पर जा कर जम जाती हैं।

वैसे आप भी कहीं यह तो नहीं सोच रहे कि यार, डाक्टर तू अपनी पोस्टों में प्रवचन तो अच्छे-खासे करता है लेकिन तेरा खुद का खाना-पीना इस तरह का है या रहा है, यह पढ़ कर बहुत हैरानगी हो रही है। ठीक है, आप का हैरान होना मुनासिब है, लेकिन मेरी मजबूरी यह है कि मैं आपसे झूठ नहीं बोल सकता...जब तक मैं पूरी सच्चाई आप के सामने रखूंगा तो मैं अपनी बात ठीक तरह से कह ही नहीं पाऊंगा।

और हां, यह भी बताना चाह रहा हूं कि पिछले कुछ दिनों से रोज़ाना 30-40 मिनट का भ्रमण करना भी शूरू करदिया है। लेकिन बस एक ही मुश्किल है कि इन आमों के ऊपर कंट्रोल नहीं हो रहा.......रोज़ाना दो-तीन आम तो खा ही लेता हूं......क्या करूं ये आम मेरी कमज़ोरी हैं। लेकिन, एक सुकून है कि चलिये अब तो आम खत्म होने का टाइम आने को है। अगले सीज़न से एहतियात बरतूंगा।

तो, इतनी बातें करने का मतलब तो बिलकुल साफ़ ही है कि हम अपने आहार में छोटे मोटे बदलाव कर के भीअपनी कैलेरी की खपत को अच्छा-खासा कम कर सकते हैं। आप किस सोच में पड़ गये ??....मेरे साथ साथ आप भी तो कुछ बदलाव करिये, साथ रहेगा तो बदलाव निभ जायेंगे, मैं आप के resolutions की इंतज़ार कर रहा हूं।

एटीएम - एनी-टाईम-मगजमारी !!

क्या यार, ये एटीएम हैं या एनी-टाईम-मगजमारी......ये भी हमें अकसर बहुत ही नाज़ुक समय में धोखा दे जाते हैं। इस लिये मुझे तो ये मगजमारी के केन्द्र ज़्यादा लगने लगे हैं।

इन मगजमारी केन्द्रों पर जा कर मुझे तो अकसर निराशा ही हाथ लगती है। शायद 10 फीसदी मौकों पर ही मैं इन के थ्रू पैसा निकालने में सफल होता हूं।

एक बार जब मैं बार एक ऐसे ही एटीएम( मगजमारी केन्द्र) पर चक्कर लगा लगा कर परेशान हो गया तो मैंने मैनेजर से मिल कर इन मशीनों के डाउन-टाईम के किसी लॉग के बारे में जानना चाहा। मैं यह जानना चाह रहा था कि एक महीने के दौरान यह जो आपकी एटीएम मशीन किन्हीं भी कारणों की वजह से खराब रहती है, क्या इस का कोई रिकार्ड मेनटेन किया जाता है क्या ...( लॉग-बुक) , तो उस ने भी मुझे अच्छा खासा टरका दिया कि हां, हां, यह सारा रिकार्ड तो हैड-आफिस में रखा ही होता है। मैं सारा माजरा समझ गया।

अभी लिखते लिखते एक बात ध्यान में और भी आ रही है कि यार, आप सब हिंदी ब्लोगिंग करने वाले ज़्यादा मुश्किल हिंदी मत लिखा करें। सीधी-सादी बोल चाल वाली भाषा लिखा करें.....कईं बार जब किसी मुश्किल शब्द से भिड़ना पड़ता है तो बाकी की पोस्ट पढ़ने में ही कंटाला आता है। मैं समझता हूं कि हम लोगों का काम है हिंदी को बढ़ावा देना.....ज़्यादा संभ्रांत हिंदी लिख कर हम कौन सा हिंदी को पिछले 60 वर्षों में आगे बढ़ा पाये हैं....हमें आम आदमी की, अनपढ़ आदमी वाली हिंदी लिखनी होगी जिसे रिक्शे वाला भी समझे , कुली भी समझे और पनवाड़ी भी समझ ले। मुझे खुद हिंदी के बड़े बड़े शब्द देख कर बहुत डर लगता है। खास कर जिन टैक्नीकल शब्दों के नाम हिंदी में बहुत मुश्किल हैं, उन्हें तो देवनागरी लिपि में ही लिख के छुट्टी करनी चाहिये। शायद मैं कहीं हिंगलिश की बात तो नहीं कर रहा......अगर हमारी भाषा आम आदमी की होगी तो उसे भी लिखने की प्रेरणा मिलेगी।

हां, तो उस एनी टाईम मगजमारी मशीनों की बात चल रही थी। मेरा तो भई इन के साथ अनुभव बेहद बेकार रहा है....लोगों के अनुभवों की भी दासतानें सुनता रहता हूं लेकिन अभी तो अपनी ही बात करूंगा।

हां, तो मैंने भी शौक शौक में शायद एक बिलकुल बेहूदा से स्टेट्स-सिंबल के रूप में दो-तीन बैंकों के एटीएम ले रखे हैं जिन में से एक तो पिछले एक महीने से गुम है.....इसी उम्मीद से रिपोर्ट नहीं लिखवाई कि इस कमबख्त को दोबारा बनवाना भी अच्छा खासा मुश्किल काम है....शायद कहीं पड़ा मिल ही जाए।

आज सुबह मुझे कुछ पैसे ज़रूरी चाहिये थे। घर के पास एक एटीएम पर गया.....दो तीन बार ट्राय किया....बार बार यही आया कि transaction declined..... ! कईं बार मेरे जैसे बंदे को यह भी वहम हो जाता है कि कहीं मेरे एटीएम से बाहर निकलने पर ही यह मशीन नोट न उगल दे। खैर, जब मेरे पीछे जैंटलमेन ने भी यह बताया कि पैसे नहीं निकल रहे तो तसल्ली हुई कि ठीक है, इस मशीन में पिछले सैंकड़ों मौकों की तरह इस बार भी धोखा दे दिया।

बरसात में भीगते हुये मैं उसी बैंक के एक दूसरे एटीएम जो कि चार-पांच किलोमीटर दूर था वहां पहुंच गया, लेकिन वहां पर भी निराशा ही हाथ लगी।

मैंने सोचा चलो स्कूटर पर चलते चलते भीग तो चुका ही हूं अब तीसरा एटीएम भी ट्राई कर लिया जाये ..जो कि वहां से तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर था। लेकिन वहां पर भी कुछ हाथ नहीं लगा।

ये एटीएम के सालाना हम से कुछ पैसे लिये जाते हैं...तो क्या ये consumer protection act के दायरे में नहीं आते ?....मुझे लगता तो है कि ये ज़रूर आते होंगे....आदमी को पैसों की ज़रूरत है, लेकिन उसे ठीक मौके पर एटीएम से पैसे नहीं मिलते तो क्या यह सर्विसिज़ की कमी नहीं है ? ....मुझे लगता तो है कि यह कमी है लेकिन अब अकेला आदमी कहां कहां मगजमारी करे।

हां, इन मगजमारी सैंटरों के साथ हुये मेरे दर्जनों अनुभवों ने तो मुझे सिखा दिया है कि यार, इन पर कभी भी ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा मत करो......इन्होंने मुझे तो ऐन मौके पर बहुत बार धोखा दिया है। कईं बार तो रेलवे स्टेशन पर भी मेरे साथ यह हो चुका है।

तो इसलिये इस से यही सीख मैंने ली है कि जेब में अच्छे-खासे पैसे हर समय रहने चाहिये....क्योंकि इन मगजमारी केन्द्रों का तो कोई भरोसा ही नहीं है।

मुझे यह समझ में यह नहीं आता कि कंप्यूटर के क्षेत्र में इतनी तरक्की होने के बावजूद भी किसी एटीएम में कैश खत्म होने पर इस के बारे में सूचना स्क्रीन पर क्यों नहीं आ जाती....कैश खत्म होने पर भी सैंकड़ों लोग अगली सुबह तक उस मशीन से मगजमारी करते रहते हैं और यह सिलसिला तब तक जारी रहता है जब तक अगली सुबह बड़ा-बाबू आकर उस मशीन में नोट नहीं ठूंस देता।

और हां, एक बार और भी है कि हम लोग बहुत तरक्की कर चुके हैं....मुझे कैसे पता चला ?.....बस, सुनी सुनाई बात कर रहा हूं....तो ऐसे में आखिर क्यों कईं बार हम लोग मीडिया में रिपोर्ट पढ़ते हैं कि फलां-फलां एटीएम से कुछ नोट नकली निकले।

इन्हीं कारणों से मुझे तो यही ठीक लगता है कि जब बैंक खुला हुया हो तभी ही atm पैसे निकलवाने चाहिये......वरना बाद में तो बहुत झिक-झिक हो जाती होगी अगर नकली नोट वगैरा निकल आता होगा तो ।

एटीएम के बाहर लिखा भी रहता है कि एक समय में एक ही आदमी अंदर जायेगा लेकिन आम तौर पर एटीएम के अंदर कईं कईं लोग घुस जाते हैं......बिलकुल एसीडी बूथ जैसा माहौल ही बनता जा रहा है।

पिछली बार मैंने दो-बार एक एटीएम से पैसे निकलवाये तो मुझे मेरे साथ खड़ा एक जैंटलमैन कहने लगा कि ....अब बस करो, कैश खत्म हो जायेगा।

आज यमुनानगर में इतनी उमस है कि क्या बताऊं....ऐसे में इस एटीएम की बात और कितनी खींचूं ......इतना ही कह कर विराम लेना चाह रहा हूं कि हमारे एटीएम सिस्टम के साथ कुछ ज़्यादा ही गड़बड़ है........कहीं बैंकों ने इन्हें भी तो एक स्टेटस सिंबल की तरह ही तो नहीं खोल दिया और अब ये माथा-पच्ची एवं मगजमारी के अड्डे बन चुके हैं। बेचारे अनपढ़ लोगों की हालत तो इन जगहों पर और भी दयनीय होती है.....उन्हें तो कईं बार यही लगता है कि उन का पैसा मशीन में ही फंसा रह गया है।

जो भी हो, मेरा तो एक्सपीरियैंस इन के साथ काफी खराब ही रहा। trasaction declined ....भला क्यों भई , कोई खैरात बांट रहे हो क्या ??

शनिवार, 26 जुलाई 2008

बच्चे पैदा करने की इतनी भी क्या जल्दी है !!

शादी के बाद बच्चे पैदा करने की इतनी भी क्या जल्दी कि इस के लिये कुदरत के नियमों से डायरैक्ट पंगा ही लेलिया और एक ऐसा उपाय इस्तेमाल कर डाला कि शायद मेरी तरह आप ने भी इस जल्दबाजी के लिये इस तरह केइस्तेमाल की बात न सुनी होगी।

यह तो आप जानते ही हैं कि आई.वी.एफ अर्थात् in-vitro fertilization तकनीक आज कल खूब चल निकलीहै...इस तकनीक में शरीर से बाहर ही अंडे एवं शुक्राणु का मेल करवा कर उसे महिला के गर्भाशय में डाक्टर द्वारारख दिया जाता है। जिन दंपतियों में शादी के बाद विभिन्न कारणों की वजह से बच्चा होने में दिक्कत होती है उनमें पूरी जांच के बाद इस तरह की तकनीक इस्तेमाल की जाती है।

लेकिन मुझे तो दोस्तो आज पता चला कि इस तकनीक का इस्तेमाल अमेरिका की एक बेहद सुप्रसिद्ध विवाहितहस्ती ने इसलिये किया कि वह नार्मल तरीके से गर्भधारण की इंतज़ार के झंझट में नहीं पड़ना चाहती थी। इस केबारे में आज के इंगलिश न्यूज़-पेपर में एक ब्रीफ सी खबर छपी है।

उस खबर में बताया गया है कि उस हस्ती ने ऐसा इसलिये किया क्योंकि उस महिला को इस बात की बहुत हीजल्दी है कि जल्दी जल्दी ही उस के बहुत सारे बच्चे हो जाएं। और इस के लिये एक तो उस ने नैचुरल कंसैप्शन कीबजाए आई.व्ही.एफ का रास्ता चुना और यह रास्ता चुनने का दूसरा कारण यह भी है कि इस आई.व्ही.तकनीकद्वारा जुड़वा बच्चे होने का चांस नार्मल गर्भ-धारण की तुलना में 25 गुणा बढ़ जाता है। तो, फिर गुड-न्यूज़ यही हैकि उसे जुड़वा बच्चे पैदा हुये हैं।
वैसे तो हर किसी की अपनी लाइफ़ है, क्या परिस्थितियां हैं, हम लोग कैसे कोई टिप्पणी कर सकते हैं, लेकिन वोब्लागर ही क्या जो बिना-वजह टिप्पणी देने से बाज आ जाए। तो, मुझे तो भई यही लगता है कि यह तो कुदरत केनियमों के साथ बिलकुल डायरैक्ट पंगा है कि अब लोगों की बेताबी इतनी बढ़ गई है कि नार्मल कंसैप्शन का भीइंतज़ार इन्हें गवारा नहीं है।

एक बात और भी है ना ....उस छोटी सी खबर में यह भी बताया गया है कि उस हस्ती ने इस तकनीक के लिये 12 हज़ार डालर खर्च किये हैं.......सोच रहा हूं कि जब कोई बड़ी हस्ती इस तरह की तकनीक का सहारा ( केवलजल्दबाजी के लिये ही !!....... well, that is what is written in that snippet and let’s believe it ! ) लेती हैतो कईं बार दुनिया को इस का गलत मैसेज मिलता है.....कहीं यह भी कोई फैशन-फैड ही ना बन जाए कि कौननार्मल-कंसैप्शन के चक्कर में पड़े, पता नहीं कितने साईकल्ज़ व्यर्थ ही निकल जाएं.......अब अगर लोगों की सोचइस तरफ हो जायेगी कि नहीं, भई , हमें तो तुरंत रिज़ल्ट चाहिये.....तो फिर वही बात हो गई कि फास्ट-फूड ज्वाईंटसे कुछ भी लेकर खाने वाला कैसे चूल्हे-चौके में चक्कर में पड़े।

वैसे सोच रहा हूं कि अगर किसी हस्ती ने इस तरह की तकनीक का सहारा लिया भी है तो उसे मीडिया द्वारा इतनातूल क्यों दिया जाता है..........पता है क्यों ?..... ताकि हम हिंदी ब्लागरों को भी पता चलता रहे कि दुनिया में क्याक्या चल रहा है, दुनिया कितनी आगे निकल चुकी है और किस कदर हम लोग मदर-नेचर से जबरदस्त पंगे लियेजा रहे हैं और फिर उसे ही कोसने लगते हैं।