शनिवार, 13 सितंबर 2014

उस दिन पेड़ वाले बाबा से मुलाकात हो गई...


दो चार दिन पहले की ही तो बात है....लखनऊ जंक्शन के पास ही एक बड़ा व्यस्त एरिया है...नाका हिंडोला... मैं उस के आस पास ही एक एफ.एम रेडियो को तलाश रहा था। अचानक मेरी नज़र एक संत जैसे दिखने वाले इंसान पर पड़ी ..जो कि एक हरे रंग के साईकिल पर जा रहा था...जिस पर पेड़ की फोटो भी बनी हुई थी..मुझे ऐसे लगा कि जैसे कोई दरवेश उस रास्ते से गुज़र रहा हो। अच्छा और भी लगा जब उस के साईकिल के कैरियर पर टिके हुए पीपे पर लिखा हुआ था..पेड़ वाला बाबा।



इच्छा हुई कि शायद यह रूक जाएं तो इन से चंद बातें ही कर ली जाएं। लेकिन वह बाबा तो अपनी मस्ती में मस्त ही चला जा रहा था.....मैं भी उसी जगह खड़ा उसे देखता रहा ... मैंने सोचा कि बाज़ार में काफी भीड़ है, शायद यह दरवेश आगे चल कर कहीं रूक जाए, इसी उम्मीद के साथ मैं उन के रूकने की इंतज़ार कर ही रहा था कि मुझे लगा कि वह हरे रंग का साईकिल कुछ दूर जा के रूक गया है।



मैं तेज़ी से चल कर झट उन के पास पहुंच गया। वे एक डिब्बे में पानी भर के गमले में लगे कुछ पौधों को पानी देने की तैयारी कर रहे थे। मुझे यह मंजर देख कर मज़ा आ गया। मैंने उन के पास जा कर कहा कि मुझे आप का काम देख कर बहुत अच्छा लगा....इसलिए मैं दूर से आप का पीछा करते करते यहां तक पहुंच गया। वे बहुत खुश हुए।


अच्छा पहले तो इन का इंट्रो करवा दूं.....जैसे कि इन के साईकिल पर ही लिखा गया है ...ये हैं श्रीमान मनीष तिवारी जी जिन्हें लोग पेड़ बाबा के नाम से जानते हैं....फिर मैं उन के साथ पांच दस मिनट तक बतियाता रहा, वह हंसी हंसी मेरी बच्चों जैसी सभी जिज्ञासाएं शांत किए जा रहे थे।

चलिए, आप से भी यह शेयर करता हूं....वे पिछले बीस वर्षों से यह सेवा कर रहे हैं। उन्हें इस काम को करने में परम आनंद की अनुभूति होती है। जगह जगह पेड़ लगाना और फिर उन की देखभाल करना यह उन्हें भाता है। अपने लगाए हुए पौधों को रोज़ाना पानी देने पहुंच जाते हैं।

रोज़ाना पानी देने की बात से मेरे को ध्यान आया.. नाका हिंडोला एरिया से चंद कदमों की दूरी पर कुछ हाटेल हैं जिन के बाहर मैंने अकसर बीसियों ज़रूरतमंदों (भूखो)  को किसी दानवीर की प्रतीक्षा करते देखा है। उन की आंखें हर राहगीर में एक दानवीर को टटोलती नज़र आती हैं। जैसे ही वह पेड़ बाबा पेड़ों को पानी दे रहा था तो मुझे यही अहसास हुआ कि जैसे सारा दिन इस संसार को तपिश को सहने वाले पेड़ भी इस दरवेश की इंतज़ार ही कर रहे थे कि वह आकर उन की भी प्यास बुझाएगा। फिर ध्यान आया कि मैंने अपने फ्लैट की बालकनी में लगे पौधों को कब पानी दिया था, पानी देना तो दूर मैंने उन्हें पिछली बार देखा था, मुझे तो यह भी याद नहीं....और बातें मैं कितनी बड़ी बड़ी करता हूं कि मैं वनस्पति प्रेमी हूं.....यह हूं, वह हूं।

बहरहाल, अब कुछ समय के लिए अपनी बातें हांकना बंद  करता हूं...उस दरवेश की बातें करते हैं...... सच में वह पेड़ बाबा ही थे, जिस तरह के आस पास से गुज़रने वाले लोग उन के पांव छू कर उन का आशीर्वाद लेकर आगे चल रहे थे, यही लग रहा था कि किसी भी नेक काम में हाथ डालने की देरी होती है, अपने अाप कारवां बनता जाता है।

मनीष तिवारी ने बताया कि यह जो आप जगह देख रहे हैं, क्या आप पहले इस तरफ़ से कभी गुज़रे हैं... मैंने कहा...हां, यहां तो बहुत गंदगी और बदबू हुआ करती थी। कहने लगे कि यहां कूड़े-कर्कट के ढेर और लोगों ने मूत्रालय बना रखा था, वे नहीं देखते थे कि माताएं-बहनें भी उसी राह से गुज़र रही हैं।

कुछ महीने पहले इन्होंने इस एरिया की स्वयं सफाई की.....जो कुछ भी नीचे बह रहे गंदे नाले में डालने लायक था, इन्होंने फावड़े की मदद से नीचे गिरा दिया... फिर गमलों में पौधे लगाए...एरिया एक दम साफ़-सुथरा दिखने लगा है.... और बेकार पड़ी पाइपों पर सुंदर सुंदर कथन भी लिखवा दिए .. जैसा कि आप इन चित्रों में देख सकते हैं।

ऐसे लोग जब निष्काम भाव से अपना काम करते हैं तो आस पास के लोग अपने आप जुडऩे लगते हैं.....मैंने देखा कि उन्हें देखते ही आस पास के युवक उन के लिए डिब्बे में पानी भर भर कर लाने लगे ....पौधों की प्यास बुझाने के लिए।

बात कर रहे थे .. उन्हें सुनना अच्छा लगता था....कहने लगे कि गंदगी के साथ साथ यह जगह जगह पेशाब करने की आदत भी बुरी है... जहां कुछ नहीं लिखा रहता और किसी पेशाब करने वाले को टोक दो तो वह तपाक से कह देता है कि कहां लिखा है यहां पेशाब करना मना है ....और जहां लिखा रहता है और अगर वहां किसी को टोक दो तो वह कह देता है .. कि यह तो सब ऐसे ही लिख देते हैं।

मुझे उन की बातें सुन कर यही लग रहा था कि यार, संत केवल क्या बड़े बड़े मठों में ही होते हैं...या फिर यह  भी चलते फिरते संत ही हैं.....जिन के मन में मानवता के लिए इतना प्रेम भरा हुआ है। किसी चीज़ की कोई इच्छा नहीं, अपेक्षा नहीं, बस अपनी धुन में निरंतर लगे रहने की तमन्ना, जोश, मिशन.......। संसार का आज बीते हुए कल से बेहतर बनाने का जज्बा।

मैंने उन का फोन नंबर लिया... अपना उन्हें दिया.....और जब बताया कि मैं भी पास के एक अस्पताल में चिकित्सक हूं तो बहुत खुश हुए... कहने लगे कि आप की संवेदनशीलता देख कर बहुत अच्छा लगा और वह तब और भी खुश हुए जब मैंने उन्हें बताया कि आज ही दोपहर में मेरी श्रीमति जी ने माली को बुला कर बालकनी में रखे गमले में बढ़ रहे पेड़ों को अपनी बिल्डिंग के नीचे छोटे से पार्क में शिफ्ट करवा दिया।  बहुत खुश हुए कि यह हुई न बात....  ज़मीन के पेड़ को ज़मीन की गोद तक पहुंचा दिया, बहुत अच्छा किया।

फिर उन्होंने बोनसाई के ऊपर अपने विचार रखे....कहने लगे कि यह भी कोई बात हुई कि आज का मानव पेड़ों की नसबंदी कर के, उसे काट काट के इतना छोटा करने की धुन में उन्हें बोनसाई बना कर अपने ड्राईंग रूम में सजाने के चक्कर में पड़ा हुआ है। जो मज़ा, आनंद खुले में हरे भरे पेड़ों को देखने में, उन्हें निहारने में, उन के नीचे खड़े हो कर उन्हें बनाने वाले चित्रकार, शिल्पकार के बारे में सोचने में है, वह घर के अंदर कमरों में मुरझाए हुए पत्तों वाले पेड़ों को देखने से कहां मिल सकता है।

इ्च्छा हो रही थी कि इन से बातें करता जाऊं......लेिकन दुकानें बंद होने का समय हो रहा था, इस लिए इन से इजाजत लेकर मैं वापिस मार्कीट की तरफ़ चल पड़ा।

हां, एक बात तो शेयर करना भूल ही गया.. मेरे यह पूछने पर कि क्या आप की कोई संस्था है तो उन्होंने बताया...नहीं, नहीं, मैं तो बस अकेला ही इस काम में लगा हूं...क्योंकि मुझे अपार खुशी मिलती है। और मैं इस बात को प्रमाणित करता हूं कि जो हज़ारों वॉट की मुस्कान मैंने इन के चेहरे पर देखी वह शायद करोड़पति पूंजीपतियों के यहां कभी नहीं दिखती। मैंने झिझकते हुए कहा कि आप जीविकोपार्जन के लिए क्या करते हैं......बताने लगे कि कुछ नहीं, घर से अनाज, दालें... सब कुछ आ ही जाता है, बाकी वही काफ़ी होता है, बाकी समय इन्हीं पेड़ों को समर्पित है।

शहर की कईं जगहों पर इन्होंने पेड़ लगाए हैं....और कुछ एरिया के नाम तो ले रहे थे लेकिन लखनऊ की जगहों से मैं इतना अच्छा से वाकिफ़ नहीं हूं, इसलिए कुछ याद नहीं रहा।

इस पेड़ बाबा को मिलने के अगले दिन लखनऊ के बंगला बाज़ार एरिया में मैं अपने स्कूटर पर जा रहा था तो मुझे एक मोटरसाईकिल पर कुछ लिखा नज़र आया......अनाथ बच्चों और पेड़ पौधों को लगाने में समर्पित .....एक आदमी मोटरसाईकिल पर जा रहा था......मैंने फोटो तो खींच ली......उस पर उस ने मोबाईल भी लिखा हुआ था... आगे चल कर वह एक फ्रूट की रेहड़ी पर रूक भी गया......लेकिन मैंने उस से बात करने की हिम्मत न की........ शायद ज़रूरत ही न समझी....क्योंकि मैं एक दरवेश से पहले मिल चुका था जिस के आचरण में मुझे त्याग, प्रेम, करूणा, वात्सल्य की कहीं ज़्यादा खुशबू आई थी। देखिए, मैं इस दूसरे समर्पित इंसान से मिला तक नहीं लेकिन उस के बारे में एक ओपिनियन कैसे पहले ही से बना लिया.........मेरे जैसे लोग पता नहीं कब इन हरकतों से बाज़ आएंगे...शायद कभी नहीं, यह कहीं फितरत ही तो नहीं बन चुकी।

पेड़ बाबा को समर्पित यह गीत....


शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

कुछ दवाईयां भी मसूड़ों को फुला देती हैं...

ऐसी कुछ दवाईयां हैं जो मसूड़ों पर बुरा प्रभाव डालती हैं......मुझे आज इस मरीज़ को देख कर इस बात का ध्यान आ गया कि ब्लड-प्रेशर की कुछ दवाईयां भी ऐसा ही प्रभाव डालती हैं।

दो वर्ष पहले की महिला के मसूड़ों की तस्वीर ... 
यह तस्वीर आप जो यहां देख रहे हैं यह ६०-६५ वर्ष की एक महिला की है जो कि मेरे पास ठीक दो वर्ष पहले आई थीं... मैंने तब अपने इंगलिश ब्लॉग पर इस विषय पर एक लेख भी लिखा था..... Blood pressure pill can lead to big gums. 

आप इस लिंक पर जा कर इस पोस्ट को देख सकते हैं। यह महिला इतनी परेशान थी तब ...मसूड़ों पर हाथ लगते ही खून आने लगता था....बहुत ही ज़्यादा परेशानी थी इन्हें।

जब इन की हिस्ट्री ली तो पता चला कि ये निफैडेपीन नामक दवाई लेती हैं, तब मैंने इन्हें फिज़िशियन के पास भेजा... उन्हंोंने दवाई चेंज कर दी......और फिर इन्होंने मसूड़ों का थोड़ा इलाज करवाया.....फिर उस के बाद मेरा तबादला हो गया और उन्हें देख नहीं पाया।

लेकिन आज एक अन्य महिला जिसे मैंने कुछ महीने पहले इसी तकलीफ़ से ग्रस्त पाया था...वह भी   चेकअप के लिए आईं तो अच्छा लगा ... इन के मसूड़े भी काफ़ी फूले हुए थे, काटने-छांटने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई थी और न ही यह उस समय कुछ ज़्यादा करवाने के लिए राज़ी ही हुईं थीं। उच्च रक्तचाप की दवाई बदल दी गई थी। मसूड़े दस-पंद्रह दिनों में ही ठीक होने लगे थे....सूजन घटने लगी थी, रक्त बहना बंद होने लगा था...।

अब इन्हें कोई तकलीफ़ नहीं है, मसूड़ों से रक्त नहीं आता, ब्लड-प्रेशर के लिए जो नईं दवाई लेती हैं..उस से वह भी नियंत्रण में रहता है, किसी बात पर पति को मेरे सामने झिड़क भी दिया कि तुम अपनी सेहत की बहुत टेंशन करते हो.....

इस महिला के मसूड़े भी कुछ महीने पहले ऊपर जैसी महिला जैसे ही थे.
आप इस तस्वीर में भी देख सकते हैं कि मसूड़े लगभग ठीक ही लग रहे हैं.....पूरे के पूरे ठीक तो नहीं है एक डैंटिस्ट की नज़र से.....लेकिन उस में कुछ इन की पुरानी ब्रुश करने की गलत आदतों का भी परिणाम शामिल है... वैसे मैं तो यहां दवाईयों का मसूड़ों पर होने वाले प्रतिकूल प्रभाव को ही रेखांकित करने की कोशिश कर रहा था।

अच्छा, यह क्लास तो खत्म हुई........आप किस सोच में पड़ गये.......कि आप भी यही दवाई लेते हैं...कहीं आप को भी यह तकलीफ़ न हो जाए। ऐसा कुछ नहीं है, वैसे तो मैडीकल फील्‍ड में कुछ भी ज़्यादा निश्चित होता नहीं, लेकिन आप यह मान कर चलें कि अगर आप इस तरह की कोई दवा ले भी रहे हैं अपने डाक्टर की सिफारिश पर.....तो लेते रहिए। ऐसा प्रतिकूल प्रभाव यह दवाई लेने वाले हर इंसान में नहीं होता। निश्चिंत रहें, खुश करें, इसलिए मैं अकसर कहता हूं नेट पर ज़्यादा सेहत संबंधी विषयों को नहीं खंगालना चाहिए।

हां , एक बात है कि अगर आप कोई भी दवा ले रहे हैं और मसूड़ों की इस तरह का हालत है... तो भी आप का कोई अनुभवी दंत चिकित्सक ही यह कह पाएगा कि यह तकलीफ़ आप को फलां फलां दवाई की वजह से है.. और फिर वह आप को फ़िजिशियन के पास भेजेंगे ....और फिजिशिय़न भी पूरा लाभ और रिस्क का आंकलन करने के बाद ही आप की कोई भी दवा चेंज करते हैं.......इस का मतलब यही है कि कईं बार उस दवाई से मरीज़ को जो लाभ हो रहे हैं उस का पलड़ा ज़्यादा भारी रहता है इस से मसूड़ों पर होने वाली प्रभाव की तुलना में ......ऐसे में दवाई चेंज नहीं की जाती, यह सब निर्णय केवल फ़िज़िशियन ही लेने में सक्षम होते हैं............ऐसी और भी कईं दवाईयां हैं जिन में मसूडों में सूजन आ सकती है, मिर्गी रोग के लिए ली जाने वाली कुछ दवाईयां, किडनी (गुर्दा) प्रत्यारोपण के बाद ली जाने वाली कुछ दवाईयां.......आदि ........लेकिन हर व्यक्ति में ये प्रभाव नहीं पाये जाते...................इसलिए दिल पे मत ने ले यार............लिखने के लिख दिया, ज़्यादा सोचा मत करें.........

यार , आप तो सीरियस हो गए....चलिए उस का भी कुछ जुगाड़ करते हैं.......यह सुनिए.... वीडियो को न भी देखें या उस पर ध्यान न भी करें तो भी लिरिक्स तो ठीक ठाक ही हैं......हम सब के लिए एक हेल्दी संदेश लिए हुए...

दांत की क्विकफिक्स रिपेयर

जी हां, दांत की क्विकफिक्स रिपेयर भी होती है.....लेकिन इस में क्विकफिक्स या फेवीक्विक का कोई कमाल नहीं है, यह कमाल तो है आज की तारीख में उपलब्ध बेहतरीन मैटीरियलज़ (materials) का जो एक तो दांतों के साथ बिल्कुल मैच करते हुए विभिन्न शेड में आते हैं और दूसरा इस तरह के मैटिरियल आने लगे हैं जो दांतों के साथ बिल्कुल एकदम एक ही हो जाते हैं......दांतों के साथ इस तरह से बांडिंग कर लेते हैं कि आप कुछ भी खाएं-पिएं यह बंधन नहीं टूटता।

अच्छा, एक उदाहरण के ज़रिये अपनी बात कहता हूं.........यह तस्वीर एक १८-१९ साल के युवक की है, चार पांच रोज़ मेरे पास आया था.....आप उस के अगले दांत की हालत देख रहे हैं ना.....यह दांत दंत-क्षय की वजह से पूरी तरह से सड़ चुका है लेकिन इसे इस में दर्द कभी भी नहीं हुई.....शायद कुछ कह तो रहा था कि पांच छः वर्ष पहले एक बार थोड़ी दर्द हुई थी।

चाहे उसे दर्द हुई या नहीं, लेकिन दांत की अवस्था देखने पर ही पता चलता है कि उस की आरसीटी..रूट कैनाल ट्रीटमैंट---होना ज़रूरी है और उस के बाद उस पर कैप आदि का लगवाना ज़रूरी लगता है। दांत को उखड़वाने की कोई ज़रूरत नहीं। मैंने उसे समझाया तो कहने लगा कि वह तो उसे पता है, वह तो बाद में वह करवा ही लेगा लेकिन इस समय उसे किसी विशेष इंटरव्यू और एक विशेष कार्यक्रम में जाना है, इसलिए वह इस तरह के दांत के साथ जा नहीं सकता, इसलिए इस भद्दे से दांत का कुछ कर दें।

मैं हमेशा हर मरीज़ को पूरा और सही इलाज करवाने के लिए ही प्रेरित करता हूं लेकिन इस लड़के की आवाज़ में इतनी बेबसी सी लगी कि मैंने सोचा चलो इस का कुछ जुगाड़ करते हैं।

आधुनिक डैंटिस्ट्री.... इस दांत को ठीक करने में मेरा कोई विशेष योगदान नहीं है......आज कल डैंटल मैटिरियल ही इतने इतने अच्छे उपलब्ध होने लगे हैं.....हमारे अस्पताल में हम बढ़िया विदेशी किस्म के ही मैटिरियल इस्तेमाल करते हैं.....अब मुझे पता नहीं कि हिंदोस्तान में इस तरह के मैटिरियल क्यों नहीं तैयार हो सकते.....बस, जो भी है, मुझे विदेशी और अच्छी कंपनियों के मैटिरियल पर ही भरोसा है क्योंकि बरसों बरसों तक इन मैटिरियल ने लोगों के मुंह में रहना होता है, हर तरह के तापमान और हर तरह के ऐसिडिक, तीखी, नमकीन ...कुछ भी चीज़ को सहना होता है ...इसलिए मैं हमेशा ही से पिछले ३० वर्षों से सब से बढ़िया मैटिरियल ही इस्तेमाल करता हूं..

प्रमाण इस का तब मिलता है जब मुझे मेरे नेटिव प्लेस में कोई कहता है कि डा साहब, यह फिलिंग जो आपने की थी, पच्चीस साल पहले वह तो वैसी की वैसी है, या जब मैं अपने बड़े भाई के दांतों पर २५ वर्ष पहले की हुई फिलिंग देखता हूं तो अच्छा लगता है...अभी दो दिन पहले जब मुझे एक सहपाठिन ने व्हाटस-एप पर बताया कि उस के पति मुझे १६-१७ वर्ष तक याद करते रहे ...जब तक उन के मुंह में मेरे द्वारा की हुई फिलिंग टिकी रही......यह एक मुश्किल तरह की फिलिंग थी, जो अगर ध्यान से ....या मन लगा के न करो तो कुछ ही महीनों में या तो गिर जाती है या फिर आसपास के मसूड़े में सूजन पैदा कर देती है। लेकिन मैं यहां यह क्यों लिख रहा हूं.......अपनी तारीफ़ करने से बाज़ नहीं आता मैं भी...  Self praise has no recommendation! ... अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने वाली बात ही तो है यह भी।

एक बात और भी है ना कि आखिर क्यों न करें अपना काम मन लगा के, अच्छे से काम करना चाहिए ...अपना पूरी क्षमता लगा कर। किसी को भी देखें हर वह आदमी जो अपने धंधे को ईमानदारी से करता है, उस के काम में ईश्वर कृपा से निखार आने लगता है।

हां तो बात उस ऊपर वाले युवक की हो रही थी......सरकारी अस्पताल में काम करते हुए मेरे लिए कोई मुश्किल काम नहीं था उसे कहना कि नहीं, नहीं, काम तो तुम्हें पूरा ढंग से ही करवाना होगा।

जुगाड़बाजी........लेकिन फिर जब मैंने उस की जगह पर अपने को खड़ा कर के देखा तो मुझे लगा कि इस का जुगाड़ तो कर ही देना चाहिए....ये कुछ दिन के लिए बाहर तो जा ही रहा है, और अगर कुछ करवाए बिना भी गया तो वहां से लौटने के बाद इस के दांत का यह हिस्सा भी नहीं बचेगा......अवश्य टूट जायेगा। वैसे तो यह देश ही सारा जुगाड़बाजी पर चल रहा है ....।

जुगाड़ ठीक ठाक ही तो लग रहा है... 
यही सोच कर मैंने उस के दांत का इस तरह का जुगाड़ कर दिया  ...आईने में देख कर उस की तो बांछें खिल गईं.....मुझे भी खुशी हुई..लेकिन मैंने उसे समझा दिया कि यह केवल जुगाड़ है, तुम्हें लौट कर पूरा इलाज करवाना होगा.....वह समझ गया।

बहरहाल, यह जुगाड़ कितना समय चलेगा, चलेगा तो खूब लेकिन पूरी आरसीटी तो करवानी ही होगी.. वरना कभी भी दर्द तो हो ही सकता है। यह तो केवल उस युवक की फरमाईश पर कर दिया था। अब आप सोच रहे होंगे कि मैंने तो रिपेयर का अच्छा जुगाड़ कर दिया और अगर यह वापिस ही न आया तो........ नहीं आए तो नहीं आए, सरकारी अस्पताल है, लेकिन ऐसा नहीं, मैं चाहता हूं कि वापिस आए और उस का काम मैं ढंग से पूरा करूं.......इसीलिए शायद आप नोटिस करेंगे कि मैंने इस जुगाड़ को भी इतना परफैक्ट भी नहीं बनाया कि वह सही इलाज करवाने के लिए लौटे ही ना........आप इस जुगाड़ को साथ वाले स्वस्थ दांत से कम्पेयर कर के देखेंगे कि इस की बनावट में बिल्कुल थोड़ी सी कमी इसीलिए रख छोड़ी है।

मैटिरियल कौन से इस्तेमाल किए हैं..........एक तो लाइट-क्यूर कंपोज़िट और दूसरा ग्लॉस-ऑयोनोमर सीमेंट.....मुश्किल नाम हैं ना, मुझे भी पच्चीस साल पहले बहुत मुश्किल जान पड़ते थे, लेकिन इस से आप को क्या, बस मैंने तो ऐसे ही अपने ट्रेड-सीक्रेट आप के सामने खोल दिए.....

क्या आपने अपने दांतों को समय रहते रिपेयर करवा लिया है, अगर नहीं, तो अपने दंत चिकित्सक से शीघ्र ही संपर्क करिएगा।

दांतों और मैटिरियल का इतना बढ़िया जोड़--बंधन देख कर यह गीत याद आ गया....

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

ह्यूमन वेस्ट टपकाने वाला पुल...

आप को याद होगा मैंने लखनऊ के एक रेलवे पुल के बारे में लिखा था ....अगर आपने उस पोस्ट को देखा होगा....रेलवे पुल के नीचे से गुज़रते वक्त क्या आपने कभी यह सोचा?

कल शाम को फिर वही नज़ारा......मुझे इसी पुल के नीचे से गुज़रना था.....लेकिन अचानक लोगों को काफ़ी संख्या में खड़े होते देख कर एक बार तो अचानक लगा कि ज़रूर कोई न कोई ट्रैफिक पुलिस का अभियान चल रहा होगा, ट्रैफिक वाले दो-तीन दिन से बड़े मुस्तैद से दिख रहे थे। 


लेकिन फिर अचानक उस स्कूल के लौंडे की बात याद आ गई जो मैंने पिछली पोस्ट में आपसे शेयर की थी कि चलती गाड़ी से पुल के नीचे चल रहे लोगों पर ह्यूमन वेस्ट (शौच, मल, थूक और गुटखा-पानमसाला की पीक).. गिरने का अंदेशा रहता है। 

पिछली बार जैसा कि मैंने बताया था कि रूकने वाले सभी स्कूटर-मोटरसाईकिल चलाने वाले ही होते हैं... मैं भी स्कूटर पर था..

जैसा कि आप इस कल की तस्वीर में देख सकते हैं कि गाड़ी पुल के ऊपर से गुज़र रही थी ...एक बार तो मुझे लगा कि कुछ नहीं होता, ऐसे ही बेकार में रूके रहो, आगे बढ़ने की इच्छा हुई तो......लेकिन तुरंत अकल ने कमीज़ पहन कर यह समझाया कि तू यह सोच, अगर उस स्कूली लौंडे की बात का तुझे आज ही प्रमाण मिल गया तो क्या करेगा, तू जा पायेगा बाज़ार जहां भी तू जा रहा है...... बाज़ार तो क्या, मल, शौच कमीज़ पर ढो कर बच्चे तेरा घर तक भी पहुंचना मुश्किल हो जायेगा। 

इसलिए बाकी लोगों की तरह मैंने भी स्कूटर को रोकने में ही समझदारी समझी और अपने मोबाईल के कैमरे से यह तस्वीर खींच ली जिस में गाड़ी पुल के ऊपर से गुज़र रही है और नीचे लोग अपने कपड़े बचाने के लिए खड़े हैं......गाड़ी के गुज़र जाने की प्रतीक्षा में। 

आज अभी हिंदुस्तान अखबार देखी है तो पता चला कि लखनऊ में दो ओव्हर-ब्रिज बनने वाले हैं.........ध्यान यही आया कि वह तो ठीक है, लेकिन क्या इस तरह के पुल का कुछ हो सकता है......सोचने वाली बात यह है कि यह नीचे सड़क पर चलने वालों की कितनी सिरदर्दी है। हर बार रूको....जब भी गाड़ी गुज़र रही हो, वरना मैला, शोच और थूक पीप से अपना दिन खराब करने का रिस्क मोल लो। 

हां, यार, एक बात और........लखनऊ में यही पुल एक ऐसा पुल नहीं है.......वैसे तो मैं लखनऊ को ज्‍यादा जानता नहीं हूं, लेकिन इस तरह के पुल मैंने लखनऊ के आलमबाग एरिया में भी देखे.....शायद मवैया एरिया के आसपास।

इस से पहले मेरा कभी इस और ध्यान ही नहीं गया है..........कभी आप भी लखनऊ आईए तो इन से सावधान रहिएगा, फिर न कहिएगा कि किसी ने सचेत नहीं किया था........वैसे तो यह झंझट केवल दो पहिया वाहनों पर और पैदल चलने वाले के लिए ही है। 

पता नहीं इस समय सड़क की बातें करते करते यह आशा फिल्म का यह गीत कहां से ध्यान में आ गया.....शायद १९८० में देखी थी यह फिल्म......गीत भी बड़ा पापुलर हुआ था....लीजिए सुनिए ......यह भी सड़क की ही बात कर रहा है...... लेकिन बातें यह सारी की सारी सही कह रहा है.....ये हंसते हैं लेकिन दिल में....यह गाते हैं लेकिन महफिल मे...........हम जीते हैं ये पलते हैं........


मां तुझे सलाम....

मेरी मां पिछले तीन चार दिनों से अपनी बुक-शेल्फ को ठीक करने में व्यस्त दिख रही थीं।

उन्होंने कल सभी किताबों की एक सूची तैयार की होगी।

अभी अभी बताने लगीं कि वह दो लिस्टें बनाना चाहती थीं और इसलिए दो कागज़ के पन्नों के बीच एक कार्बन भी रखा था लेकिन नीचे वाले पन्ने पर कुछ भी लिखा नहीं आया।

जैसा कि मेरे जैसे लोग ओव्हर-कॉन्फिडैंट और ओव्हर क्लेवर भी समझते हैं अपने आप को.......मुझे यही लगा कि उन्होंने दो पन्नों के बीच कार्बन को गलत तरीके से रख दिया होगा, और मैंने उन से भी यही कहा।

वैसे यह गलती मैं भी कईं बार करता हूं और लिखने से पहले पेन को ऐसे ही घिसा कर चेक भी कर लिया करता हूं कि नीचे वाले कागज़ पर भी छप रहा है कि नहीं। बॉय-चांस उन के हाथ में वे दो पन्ने और कागज़ थे, मैंने उन से लिए और अपने नाखून से ऊपर वाले पन्ने पर कुछ लिखना चाहा......नीचे वाले पन्ने पर नहीं आया तो मुझे लगा कि हां, यह कार्बन ही उल्टा पड़ा था।

मैंने फुर्ती से कार्बन पल्टा, नाखून से ऊपरी पन्ने पर कुरेदना चाहा तो भी नीचे वाले पन्ने पर कुछ नहीं आया।
इतने में मेरी मां कहती हैं कि कार्बन तो जैसे मैंने रखा था वैसे ही रखेंगे तो ही ठीक आएगा.........मैं भी यही समझा। लेकिन मां ने आगे बताया कि हां, मुझे लगता है कि लिखना ज़ोर से जाना चाहिए था। मैं भी उन की बात से सहमत हो गया... लेकिन मुझे एक बात और भी लगी कि जिस कागज़ के पन्ने पर वे लिस्ट तैयार कर रही थीं वह कुछ था भी मोटे किस्म का, इसलिए भी नीचे वाले कागज पर प्रिंट नहीं आया होगा।

बहरहाल, यह अभी अभी का किस्सा सिर्फ़ हम सब को याद दिलाने के लिए कि सारी माताएं कितनी सीधी होती हैं, बिल्कुल बच्चों जैसे होती हैं।

मेरी मां के बारे में चंद बातें....... मैं पचास की उम्र पार कर गया हूं लेकिन आज तक उन्होंने कभी भी मेरे ऊपर हाथ नहीं उठाया, यार, हाथ उठाना तो दूर कभी मुझे झिड़का तक नहीं... शायद यही कारण है कि मैं भी अपने बच्चों के साथ कुछ वैसा ही हूं। लेकिन मैं ऐसा नहीं कह सकता हूं कि मैंने अपने बच्चों पर हाथ नहीं उठाया-- दो एक बार तो मैंने कभी उन की चंपी की ही थी.......लेकिन वे शायद भूल चुके हैं या भूलने का नाटक करते हैं जब कहते हैं कि पापा ने हमें कभी नहीं मारा।

वैसे मेरे पिता जी ने मुझे एक बार थप्पड़ मारा था.....बस केवल एक बार, मैं बार बार उन के सिगरेट के पैकेट को कुर्सी से नीचे गिरा रहा था ...मुझे अच्छे से याद है, पांच-छः वर्ष का रहा होऊंगा।

अच्छा, मां की एक और तारीफ़........मुझे नहीं याद कि स्कूल, कॉलेज और बेरोज़गारी के चंद महीनों के दौरान मैंने अपनी मां से कुछ रूपयों की फरमाईश की हो और उस ने अपनी अलमारी के किसी कोने में पड़े वे पैसे मुझे खुशी खुशी न दिए हों। मेरे पिता जी ने भी मेरी किसी भी फरमाईश को नहीं टाला, कभी भी नहीं। कभी यह भी याद नहीं कि मैं मां के साथ बाज़ार गया होऊं और किसी भी चीज़ के मेरा मन मचल गया हो और मां ने वह तुरंत न दिलाई हो......चाहे वह गन्ने का रस, आईसक्रीम या कोई खिलौना, कुछ भी।

एक बात और, कभी भी कुछ भी कहा वह बात हमेशा मान ली......कभी भी कोई किंतु-परंतु नहीं। अगर कहीं जाने के लिए कह दो, तो ठीक.......कहीं न जाने का बहाना मैं बना दूं तो भी वे बिल्कुल राज़ी। हर बात में हां में हां मिलाने वाली मां...........शायद इस देश की सारी माताएं मेरी मां जैसी ही होती होंगी।

और एक बार, कभी नहीं याद कि कुछ खाने की इच्छा ज़ाहिर की हो, और इस मां ने रात में उठ कर भी वह न बनाया हो। स्कूल जाने से पहले दही-परांठे का नाश्ता उन अंगीठी के दिनों में भी, स्कूल के लिए लंच में परांठे और सब्जी, चार-पांच बजे घर आ कर गर्मागर्म खाना.. ये सब काम हर दिन करना उन की दिनचर्या में शामिल रहा और सब से बड़ी बात हंस हंस कर........अब क्या क्या लिखूं यार।

हर एक की बात में आ जाना........उस दिन मेरा छोटा बेटा अपनी दादी से बात कर रहा था......बीजी, हुन केले दर्जन विच दस ही मिलदे ने। और मुझे यह जान कर इतनी हैरानी हुई कि वे इस बात से हैरान तो हुई लेकिन उन्होंने उस की बात मान ली.........बाद में उसने बता दिया कि वह मजाक कर रहा था। मुझे खोसला का घोंसला फिल्म का वह संवाद बहुत अच्छा लगता है कि बच्चों की बातों में आने की कोई उम्र नहीं होती।

यार, ऐसे तो लिखता ही जाऊंगा....... फिर कभी...........लेकिन एक बात का विचार आ रहा है कि हम अपने मां-बाप से जिस तरह का बर्ताव पाते हैं.......वही शायद हम फिर अपनी ज़िंदगी में अपने संपर्क में आने वाले लोगों में बांटते चले जाते हैं... क्या मैं ठीक कह रहा हूं?

वैसे मेरी मां अपना एक ब्लॉग भी लिखती हैं.......आप यहां इसे देख सकते हैं.....क्या कहूं, क्या न कहूं?

पेशे-खिदमत है सभी मांओं की महानता को समर्पित पंजाब का यह सुपर-टुपर गीत..........उस गायकी की बादशाह कुलदीप मानक की आवाज़ में.........मां हुंदी ए मां ओ करमा वालेयो..........


शनिवार, 6 सितंबर 2014

काश! टेढ़े मेढ़े दांत सही करवाना सब के बस में होता..

आज सुबह मूड बड़ा खराब हुआ जब एक १२ वर्ष का लड़का अपनी मां के साथ आया..उस के टेढ़े मेढ़े दांत थे ..बाहर की तरफ़ निकले हुए.. वे लोग उसे सीधा करवाने आये थे।


चूंकि मैं वैसे भी इस तरह के इलाज का विशेषज्ञ नहीं हूं और न ही जिस सरकारी अस्पताल में मैं काम करता हूं वह इस तरह की इलाज उपलब्ध ही करवाता है।

मैंने उसे एक सरकारी डैंटल कालेज में जाने को तो कह दिया.....लेकिन मुझे यह कहते हुए बिल्कुल एक फार्मेलिटी सी ही लगती है। बहुत ही कम बार मैं देखता हूं कि लोग वहां इस काम के लिए जा पाते हैं......और शायद कईं सालों में कोई एक मरीज दिख जाता है जिसे सरकारी डैंटल कालेज में भेजा हो और जिस के बेतरतीब दांतों का इलाज वहां से पूरा हो गया है। ऐसा नहीं है कि वे लोग ये सब करते नहीं हैं, लेकिन जिन मरीज़ों को इस तरह का इलाज चाहिए होता है उन की संख्या ही इतनी बड़ी है कि उन की भी अपनी सीमाएं हैं।

यह बातें सब मैं अपने अनुभव के आधार पर लिख रहा हूं। टेढ़े मेढ़े दांतों वाले बच्चे देख कर मन बेहद दुःखी होता है....इसलिए कि मैं जानता हूं कि इन में से अधिकतर इस का कुछ भी इलाज नहीं करवा पाएंगे। मूड बड़ा खराब होता है। अच्छे भले ज़हीन बच्चे होते हैं लेकिन इन बेतरतीब दांतों की वजह से बस हर जगह पीछे पीछे रहने लगते हैं, बेचारे खुल कर हंसना तो दूर, किसी से बात भी करने में झिझकने लगते हैं।

हां, तो मैं उस १२ वर्ष की उम्र वाले लड़के की बात कर रहा था। मैंने ऐसे ही पूछा कि इन दांतों की वजह से कोई समस्या, तो उस की मां ने कहा कि इसे स्कूल में बच्चे चिढ़ाने लगे हैं।

उस की मां का इतना कहना ही था कि उस बच्चे की आंखों में आंसू भर आए... और एक दम लाल सुर्ख हो गईं। मुझे यह देख कर बहुत ही बुरा लगा कि यार, इस बच्चे को दूसरे बच्चों ने कितना परेशान किया होगा कि मेरे सामने अपनी तकलीफ़ बताने से पहले ही इस के सब्र का बांध टूट गया। मैंने उसे धाधस बंधाया कि यार, देखो, ये जो स्कूल में परेशान करने वाले लड़के होते हैं ना, इन की बातों पर ध्यान नहीं देते, यह तुम्हारी पढ़ाई खराब करने के लिए यह सब करते हैं, यह सुन कर उस ने तुरंत रोना बंद कर दिया।

इस देश में हर तरफ़ व्यापक विषमता है......कोई मां-बाप तो बच्चे के एक एक दांत के ऊपर हज़ारों खर्च कर देते हैं लेकिन अधिकांश लोगों की इतनी पहुंच नहीं होती, पैसा सीमित रहता है, जिस की वजह से इस तरह का बेहद ज़रूरी इलाज चाहते हुए भी वे करवा नहीं पाते।

सरकारी अस्पतालों में कहीं भी...... सरकारी डैंटल कालेजों में भी इस तरह का इलाज........टेढ़े मेढ़े दांतों पर तार लगाने का या ब्रेसेज़ लगाने का काम पूरी तरह से या फिर ढंग से होते मैंने देखा नहीं है......इतनी चक्कर पे चक्कर कि मरीज़ में या उस के मजबूर मां-बाप में एक्स्ट्रा-आर्डिनरी सब्र ही हो तो ही मैंने इस इलाज को पूरा होते देखा है। इस तरह की इलाज ही नहीं, ये दांतों के इंप्लांट, ये फिक्स दांत आदि भी कहां सरकारी अस्पतालों में लग पाते हैं.........

किरण बेदी की एक किताब का यकायक ध्यान आ गया.....कसूरवान कौन?.......मुझे भी नहीं पता कि कसूरवार कौन......मरीज़ों की इतनी बड़ी संख्या.. सरकारी अस्पतालों के दंत विभाग ...यहां तक कि सरकारी डैंटल कालेज भी ...आखिर क्या करें, उन की भी अपनी सीमाएं हैं--- स्टॉफ की, बजट की...समय की..........वे भी कितने मरीज़ों को इस तरह का इलाज मुहैया करवा सकते हैं।

मैंने बहुत बार अब्ज़र्व किया है कि इस तरह के टेढ़े-मेढ़े दांतों से परेशान लड़के-लड़कियां डिप्रेस से दिखते हैं.....बुझे बुझे से......प्राईव्हेट में इस का खर्च १५-२० हज़ार तो बैठ ही जाता है। अब मैंने इन मां-बाप को इस बात के लिए मोटीवेट करना शुरू कर दिया है कि आप लोग बच्चों की कोचिंग, ट्यूशन आदि पर भी हज़ारों रूपये बहा देते हो, इसलिए आप किसी क्वालीफाइड आरथोडोंटिस्ट (जो दंत चिकित्सक टेढ़े मेढ़े दांत को सही करने का विशेषज्ञ होता है).... से मिल कर ही इस का करवा लें, अगर ऐसा करवा पाना आप के सामर्थ्य में है।

तो मैं फिर किस मर्ज की दवा हूं........मैं अपने पास आने वाले हर बच्चे का इलाज इस तरह से करता हूं कि मेरी कोशिश यही रहती है कि वह किसी तरह से इस तरह के महंगे इलाज से बच जाए......पैसे के साथ साथ समय की भी बचत.... और अगर कभी बाद में उसे इस तरह के इलाज की ज़रूरत भी पड़े तो वह साधारण से इलाज से ही ठीक हो जाए। मेरी शुरू से ही यह मानसिकता रही है.......... पूरी कोशिश करता हूं.......जो मेरे कंट्रोल में है पूरा करता हूं......इसे Preventive Orthodontics कहते हैं।

वापिस उसी बच्चे पर आता हूं........मैं उस की मां को यह सब समझा ही रहा था कि उस बच्चे की आंखे फिर से भर आईं....मुझे फिर बुरा लगा..... फिर मुझे कहना ही पड़ा...यार, तुम इन बच्चों की बातों पर ध्यान ही न दिया करो....सब से ज़्यादा ज़रूरी तो पढ़ना ही है.... मै पूछा .. तुम ने कल प्रधानमंत्री मोदी का भाषण सुना.....झट से चुप गया और कहने लगा, हां......मैंने कहा ...अच्छा लगा?.. उसने कहा ... हां....मैंने कहा कि तुम देखो कि अगर एक चाय बेचने वाला इंसान इतनी कठिनाईयों को झेल कर देश के प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच गया तो तुम क्या नहीं कर सकते, जिन लोगों ने आगे बढ़ना होता है, वे किसी की बातों पर ध्यान नहीं देते...........मुझे सख्ती से यह भी कहना पड़ा.......कुत्ते तो भौंकते ही रहते हैं, शेर चुपचाप मस्ती से आगे निकल जाता है........यार, मुझे पता नहीं यह कहावत ठीक भी थी कि नहीं, लेकिन अगर उस बालक का मूड उस बात से सही हो गया तो ठीक ही होगी।

मैंने उसे एक सरकारी डैंटल कालेज में भेज तो दिया है........कि एक बार चैक तो करवाओ, फिर देखते हैं कि इस के लिए क्या बेस्ट किया जा सकता है। 

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

जब मैंने अपने टीचर का जेब-खर्च शुरू किया...

आज है अध्यापक दिवस, गुरू उत्सव, टीचर दिवस ..कुछ भी कह लें।

मैंने आज देखा कि सोशल मीडिया पर लोगों ने अपने अपने टीचरों के बारे में लिखा।

मैं भी अपने सभी टीचरों के बारे में लिखना चाहता हूं लेकिन यही डर लगता है कि कहीं किसी का नाम छूट न जाए। अगर एक भी नाम छूट गया तो बहुत नाइंसाफी हो जाएगी।

उस्ताद की लिस्ट ही इतनी लंबी होती है..सब से पहले शुरूआत अपनी मां सब से पहली गुरू...पिता जी अपने गुरू....फिर हर ऐसा आदमी या औरत जो अभी तक ज़िंदगी में मिले और जिन से कुछ न कुछ सीखा।

मैं ऐसा मानता हूं कि हर आदमी या औरत जिस से भी मैं मिलता हूं .....इन में से कोई भी ऐसा नहीं है जिससे मैंने कुछ न कुछ सीखा न हो। हर व्यक्ति विलक्षण है... हर व्यक्ति के पास कुछ ऐसे अनुभव हैं जिस से हम लाभान्वित हो सकते हैं।

फिर भी अपने प्राइमरी टीचर -- पांचवी कक्षा के टीचर का नाम लेने की भी बहुत इच्छा हो रही है... लेकिन लिखूंगा नहीं....कारण आप दो मिनट में समझ जाएंगे, वे मुझे १९७३-७४ में पांचवी एवं छठी कक्षा में पढ़ाते थे। अच्छे से अपने विषयों को पढ़ने में रूचि उन की वजह से ही हुई।
This photograph is from the 1973 Magazine of DAV Multipurpose Higher Secondary School, Amritsar.
पांचवी कक्षा में जब मेरी छात्रवृत्ति आई तो बहुत अच्छा लगा. 10रूपये महीना तीन साल के लिए .....यह तस्वीर तब की है......यह सब उन मास्टर साहब की मेहनत का परिणाम था। रविवार के दिन भी वे हमें बुलाते मुझे अच्छे से याद है......सरकंडे की कलम तैयार करते हमारे लिए..... फिर हिंदी में सुंदर लिखने के गुर सिखाते....गणित-बीज गणित सब कुछ अच्छे से समझ आ जाता था।

मुझे याद है जब मैं छठी कक्षा में था तो मुझे बीजगणित में थोड़ी मुश्किल आने लगी....कुछ िदन मैंने देखा....एक दिन घर आकर रोने लगा.....मेरे पिता जी ने मेरे मास्टर जी को एक चिट्ठी लिखी थी उर्दू में......और उस दिन से मैं उन मास्टर साहब के पास कुछ महीने के लिए गणित की ट्यूशन रखी....महीने के अंत में मेरे पिता जी उन की ट्यूशन फीस एक लिफाफे में बंद कर के मेरे हाथ भेज दिया करते थे....पच्चीस रूपये महीना।

यह किसी टीचर को उस की फीस भेजने का सलाका भी मैंने उस १२ वर्ष की आयु में अपने पिता जी से ही सीखा....इस मायने में भी वे मेरे गुरू हुए.....अपने बच्चों के टीचरों को फीस खुले में कभी नहीं भेजे.....हमेशा बच्चे लिफाफा ही लेकर जाते रहे।

मैं अपने उस मास्टर जी से उन के अंत तक टच में रहा.....लगभग १५ वर्ष की बात है...... एक बार मैं उन्हें मिला उन के घर जाकर....किसी लेखक शिविर में गया हुआ था.....ढूंढते ढांढते पहुंच गया था उन के घर.. एक बहुत पुराना कंबल लपेटे हुए थे.... और यादाश्त खो चुके थे.....

एक बात लिखनी बड़ी घटिया लग रही है..... बहुत ही घटिया और ओछी सी लग रही है.....लेकिन केवल इसलिए लिख रहा हूं कि अपने टीचरों का हमें हमेशा सम्मान करते रहना चाहिए। वह बात यह है कि वे एक संयुक्त परिवार में रहते थे और मुझे उस दिन उन की स्थिति ऐसी लगी कि उन को भी जेबखर्च मिलना चाहिए।

मैं बड़ी विनम्रता पूर्वक उन्हें हर महीने ५०० रूपये मनीआर्डर करने शुरू कर दिए...... वे उस फार्म पर दस्तखत करने के भी लायक नहीं थे शायद, हमारे मास्टर साहब की श्रीमति जी के उस पर हस्ताक्षर हुआ करते थे। ओ ..हो...मुझे कितना अफसोस हुआ था पता है ...कुछ ही महीने बीतने पर फोन आया था कि मास्टर साहब नहीं रहे।

फिर एक घटिया और ओछी बात अपने बारे में कहता हूं. माफ़ करिएगा......लेकिन फिर भी इसलिए लिख रहा हूं कि पता नहीं कोई इस से प्रेरणा ले ले ........उन के स्वर्गवास के बाद मैंने उन की धर्मपत्नी को भी हर माह ५०० रूपये का मनीआर्डर करना जारी रखा..........लेकिन बेहद अफसोस जनक बात यही कि यह भी सिलसिला कुछ ही महीने चल पाया क्योंकि वे भी कुछ ही महीनों में चल बसीं। मुझे बहुत दुःख हुआ था उस दिन।

मास्टर साहब, से जुड़ी यादें........रौबीला व्यक्तित्व, मजाल कि क्लसा में कोई चूं भी कर जाए...... दोपहर के खाने के वक्त एक छात्र की ड्यूटी लगती कि जाओ बाहर दुकान से २५ पैसे का दही लेकर आओ (१९७३ के दिन) .....अपने खाने के डिब्बे में एक डिब्बा वह घर से दही के लिए खाली ही लाते थे...अच्छा लगता था उन के साथ स्कूल में दिन बिताना।

सब कुछ कल की ही बातें लगती हैं......... फिर स्कूल छोड़ने के बाद भी उन से मेल जोल बरकरार रहा... वह कभी कभी मेरे पिता जी से मिलने आ जाया करते थे.........और मैं बरसों तक उन से वैसे ही डरता था...एक तरह का सम्मान जिस का हम मान-सम्मान करते हैं.. उस से थोड़ा डर कर ही रहते हैं.........बस भाग कर बाज़ार से बिस्कुट, बरफी या समोसा लाना जब वे हमारे यहां आते थे तो अच्छा लगता था, बहुत अच्छा।

थैंक यू.........मास्टर जी।


और हां, एक उस्ताद को कैसे भूल गया.......यह है मेरा बड़ा बेटा......जिस ने मुझे इस लायक बनाया कि मैं यह सब आज नेट पर हिंदी में लिखने लायक हो पाया.......उस को उस की पढ़ाई के दिनों में मैंने बड़ा बोर किया...विशाल, यह कैसे करते हैं, वह कैसे करते हैं, यह बता यार, वह कैसे होगा........खीझ जाता था कईं बार....ईश्वर उसे दीर्घायु दे, स्वस्थ एवं खुश रखे और वह डिजिटल व्लर्ड में आप का मनोरंजन करता रहे। आमीन।

उस के इस योगदान के बारे में मैंने छः वर्ष पहले उस का धन्यवाद किया तो था.......मुझे नेट पर हिंदी में लिखना किस ने सिखाया......
थैंक विशाल, once again, मेरा उस्ताद बनने के िलए.....अपनी पढ़ाई की कीमत चुका कर भी मेरे प्रश्नों के उत्तर ढूंढते रहने के लिए.... तुम हमेशा मेरे उस्ताद ही रहोगे.......थैंक गॉड, उस दिन मैं तुम्हारी बात मान कर अपनी मूंछों पर कालिख पोतने से बचा लिया... when you told me 2-3 years ago......"dad, why all this? It doesn't suit you, must learn to age gracefully." Quite right!!


गुरुवार, 4 सितंबर 2014

पोर्नोग्राफी -- हां या ना?

दो दिन पहले सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इस तरह के प्रश्न डालने शुरू किए.. संदर्भ यही था कि केंद्र सरकार विचार कर रही है कि सभी पोर्नोग्राफी (अश्लील साइटों) को बंद कर दिया जाए। आप का क्या ख्याल है, हां या ना.....मेरे विचार में हां, बिल्कुल सही निर्णय है, अगर यह हो जाए तो शायद बहुत कुछ बच जाए।

मैं यह ऐसा किसी नैतिक पुलिस के हवलदार की तरह नहीं कह रहा हूं....मुझे पता है लोग हर तरह की आज़ादी चाहते हैं......वे पोर्नोग्राफी देखें या नहीं, यह उन का शायद व्यक्तिगत मामला है....पता नहीं कितनी सच्चाई है इस बात में...लेकिन अगर इन पोर्नोग्राफी वेबसाइट्स की वजह से समाज में तरह तरह के सैक्स अपराध होने लगें और सरकार इस तरह का कोई कदम उठाती भी है तो मेरे विचार में बिल्कुल सही है।

केवल हमारा मन ही जानता है कि हम ने क्या कभी कुछ अश्लील देखा कि नहीं, यह देखने से हमें कैसा अनुभव हुआ... केवल यह हमारा मन ही जानता है। किस उम्र में हम ने पहली बार कुछ इस तरह का अश्लील देखा, यह भी हमारे मन ही में कैद रहता है.....लेकिन वह सब कुछ देखने का विपरीत असर ही हुआ।

मैं कुछ अनुभव बांटने लगा हूं......केवल यह बताने के लिए कि पोर्नोग्राफी हम लोगों के ज़माने में भी थी, केवल स्वरूप बदला है ...शायद इस चक्कर में पड़ने की उम्र और भी कम हो गई है.....मोबाईल से कुछ भी देख सकते हैं आज बच्चे, नेट है....सब कुछ बस एक क्लिक की दूरी पर उपलब्ध है।

मुझे अच्छे से याद है कि मैं आठवीं या नवीं कक्षा में रहा होऊंगा...1975-76 के दिन.....मुझे कहीं से एक नावल पड़ा हुआ मिल गया.. शायद मेरे से ८ साल बड़े भाई का ... हिंदी का नावल था... उस में एक दो पेज़ मुझे बड़े उत्तेजक लगते थे....मैं उन्हीं पन्नों को अपनी किताब में रख कर बार बार पढ़ता था. अच्छा लगता था, यह सिलसिला कुछ दिन तक चला। फिर पता नहीं कब यह सिलसिला अपने आप बंद हो गया।

हां, उन दिनों स्कूलों में कुछ बच्चे मस्तराम के छोटे छोटे नावल लाते थे....... ऐसा नहीं कि यह एक आम सी बात थी.....बस, कभी पता चल जाता था कि आज फलां फलां छात्र मस्त राम लाया है......अजीब सा लगता था यह सब। शायद एक आध बार कोई एक कहानी पढ़ भी ली हो... शायद नहीं यार, पढ़ी ही थी....उस उल्लू के पट्ठे की भाषा पढ़ कर उत्तेजना कम और हंसी कहीं ज़्यादा आती थी।

लेकिन सब से अहम् बात जो मैं आप से शेयर करना चाहता हूं कि नवीं कक्षा में एक लड़का अश्लील तस्वीरों वाली किताब भी कभी कभी लाया करता था और आधी छुट्टी के समय और दो पीरियड के बीच टीचर के आने से पहले वह छुप छुप के दूसरे छात्रों को भी वे तस्वीरें दिखाया करता था। शायद यह काम उस ने सारे वर्ष में दो-चार बार किया होगा।

बड़ा अजीब लगता था वह सब देखना........... अजीब कहूं या यह कहूं कि अच्छा लगता था.......लेकिन जो भी हो उस से पढ़ाई में खलल तो पड़ता ही था......उन तस्वीरों को देखने के बाद फिर उस दिन पढ़ाई में मन नहीं लगता था... सच बता रहा हूं।

बस, मैं रेखांकित इसी बात को करना चाहता हूं कि पोर्नोग्राफी तो पहले भी थी, हां, अब यह सब बहुत आसान हो गया लेकिन १९७५-७६ के आस पास यह सब कुछ चल रहा था .. उस के पहले का ब्यौरा किसी और को देना होगा।

देखो यार, जो भी हो, मैं तो पोर्नोग्राफी के बारे में इतना जानता हूं कि जैसी इनपुट होगी वैसी ही आउटपुट होगी.....जैसे विचार अंदर डाले जाएंगे वैसी ही प्रतिक्रिया बाहर आयेगी..........यह तो एक स्वाभाविक सी ही बात है, है कि नहीं? ...  

मेरे विचार में पोर्नोग्राफी देखने वाले की ज़िंदगी में भूचाल सा आ जाता है......वह जो देखता है, उसे वैसे ही करना चाहता है....अब यह अमेरिका तो है नहीं...इसलिए उसे हर समय शिकार की तलाश रहती है। वरना, आपने कभी ये शब्द सुने थे.....गैंग-रेप, सामूहिक बलात्कार, अप्राकृतिक यौनाचार.......बच्चों का शोषण...आए दिन इन्हीं खबरों से अखबारें भरी पड़ी होती हैं। अगर पोर्नोग्राफी खत्म हो जाएगी, दिमाग में इस तरह के फितूर का कीड़ा घुसेगा ही नहीं तो शायद समाज में शांति बनी रहे। आमीन।

यह भी देखिए......
अप्राकृतिक यौन संबंधों का तूफ़ान...

इतना कुछ पढ़ने के बाद, चलिए अब यह सुंदर गीत सुनते हैं....हम को मन की शक्ति देना.....दूसरों की जय से पहले खुद की जय कहें.......

बरसों बाद किया प्राणायाम्...

कल और परसों मैंने बरसों बाद प्राणायाम् किया। इसे मैंने सिद्ध समाधि योग के कार्यक्रमों एवं रिट्रिज़ (retreats) के दौरान अच्छे से सीखा था...लगभग २० वर्ष पहले...मुंबई में रहता था तब.. कईं वर्ष तक उसे नियमित करता रहा...और बार बार सिद्ध समाधि योग के प्रोग्राम भी अटैंड किया करता था। अच्छा लगता था, बहुत हल्का लगता था।

ध्यान (meditation) भी वहीं से सीखा... सब दीक्षा वहीं से हासिल हुई.....कृपा हुई गुरू ऋषि प्रभाकर जी की.. वे इस के संस्थापक थे।

इस पोस्ट के ज़रिये मैं कोई भाषण देने की इच्छा नहीं रखता। बस केवल अपने अनुभव आपसे शेयर करना चाहता हूं .. जो सीखा .. उसे आप के समक्ष रखना चाहता हूं।

प्राणायाम् आप कृपया कभी भी किताब पढ़ कर या टीवी में देख कर न करें......आप इसे सिखाने वाले किसी गुरू का पता करें.....हर काम सीखने के लिए उस्ताद चाहिए होता है, उसी प्रकार इस सूक्ष्म ज्ञाण के लिए भी एक विशेषज्ञ चाहिए होता है..... गलत मुद्राएं विपरीत असर भी कर सकती हैं। यह एक बेहद वैज्ञानिक प्रक्रिया है दोस्तो।

मेरा अपना अनुभव प्राणायाम् का बेहद सुखद रहा। पता नहीं मैंने बीच में क्यों इसे करना छोड़ दिया....बस आलस की पुरानी बीमारी....लेकिन अभी भी जब भी इस का अभ्यास करता हूं तो बहुत ही हल्का महसूस होने लगता है....।

जैसा कि आपने भी सुना ही होगा कि प्राणायाम् में आखिर ऐसा भी क्या है कि आधे घंटे के प्राणायाम् अभ्यास के बाद इतनी स्फूर्ति और नवशक्ति का आभास होने लगता है....तुरंत ..बिल्कुल उसी समय....।

इस का कारण है कि सामान्य हालात में हम लोगों की सांस लेने की प्रक्रिया हमारे बाकी कामों की तरह बड़ी शैलो (सतही) होती है...हम ज़्यादा अंदर तक सांस नहीं भर पाते....जिस की वजह से ऑक्सीजन की सप्लाई भी पूरी मात्रा में हमारे फेफड़ों तक नहीं पहुंचती.... और ज़ाहिर सी बात है कि अगर वहां नहीं पहुंचती तो फिर शरीर के विभिन्न अंगों तक भी यह पर्याप्त मात्रा में पहुंच नहीं पाती......नतीजा हम सब के सामने... थके मांदे रहना, उमंग का ह्रास, बुझा बुझा सा दिन........लेकिन प्राणायाम् करते ही नवस्फूर्ति का संचार होने लगता है।

एक ज़माना था .. कईं वर्ष तक मैं सुबह और शाम दोनों समय प्राणायाम् अभ्यास किया करता था और दोनों समय ध्यान करना भी मेरे दैनिक जीवन का हिस्सा हुआ करता था.......लेकिन सब कुछ जानते हुए भी ..इन सब के महत्व को जानते हुए भी पता नहीं क्यों यह सब कईं वर्ष तक छूटा सा रहा.........अब फिर से करने लगा हूं तो अच्छा लगता है.....मन भी इस से एकदम शांत रहता है।

तनाव को दूर भगाने का इस से बढ़िया कारगर उपाय हो ही नहीं सकता, मैं इस की गारंटी ले सकता हूं.

स्वस्थ लोग तो करें ही, जो भी किसी पुरानी जीवनशैली से संबंधित बीमारी जैसे की मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसे रोग हैं, माईग्रेन हैं......जो लोग अवसाद या डिप्रेशन आदि के शिकार हैं, वे भी इस जीवनशैली को एक बार अपना कर तो देखें। जीवन में बहार आ जाएगी।

हां, एक बात अकसर मैं सब के साथ साझा करता रहता हूं कि जब हम लोग नियमित प्राणायाम्-ध्यान करते हैं तो हम अपने खाने के बारे में भी ज़्यादा सजग रहने लगते हैं......अपने विचारों को भी देखने लगते हैं......इस के बहुत ही फायदे हैं.....क्या क्या गिनाऊं........हमारे सारे तन और मन को एक दम फिट करने का अचूक फार्मूला है......कोई पढ़ी पढ़ाई बात नहीं है, अापबीती ब्यां कर रहा हूं।

तीस पैंतीस मिनट प्राणायाम् में लगते हैं....बस.........और इतने फायदे। आप भी आजमा कर देखिए।

फ्रिज में पानी किन बोतलों में रखें?

अपने अनुभव के आधार पर अपने पुराने लिखे को बदलते भी रहना चाहिए। इतनी इतनी बड़ी किताबों के संशोधित संस्करण निकलते रहते हैं. इसलिए ब्लॉगिंग में भी किसी बात पर टस से मस हुए बिना अड़े रहना ठीक नहीं लगता।

इसलिए दो साल पुरानी बात को थोड़ा बदल रहा हूं, अपने दो वर्ष के अनुभव के आधार पर।

मुझे किचन में रखी प्लास्टिक की बोतलें देख कर बहुत अजीब सा लगता है... देख कर ही सिर भारी होने लगता है.... वैसे तो जो प्लास्टिक की बोतलें बाज़ार में पानी डाल कर फ्रिज़ में रखने के लिए बिकती हैं, वे तो दो एक ही हैं, उन का भी कोई भरोसा नहीं है.....क्या प्लास्टिक इस्तेमाल करते होंगे, किस ग्रेड का इस्तेमाल होता होगा इन्हें बनाने में.......कहां कहां कोई मगजमारी कर सकता है?

वैसे किचन में कईं बार पुरानी मिनरल वाटर की बोतलें, पुरानी कोल्ड-ड्रिंक्स की प्लास्टिक की बोतलें दिख जाती हैं जिन के बारे में बस इतना कहना चाहता हूं कि ये बोतलें केवल और केवल सिंगल इस्तेमाल के लिए होती हैं...... और यह भी विकसित देशों में तैयार इन बोतलें के बारे में कहा जाता है। इसलिए आप भली भांति सोच विचार कर सकते हैं कि क्या हम लोग इस तरह की बोतलों में पानी स्टोर कर के ठीक करते हैं ?

इसी प्लास्टिक की समस्या की वजह से ही मैंने दो वर्ष पहले एक पोस्ट लिखी थी......अभी ढूंढी तो मिल गई......प्लास्टिक की वॉटर बोतल फ्रिज में रखते समय सोचें ज़रूर.... इस में मैंने एक तरह से फ्रिज में कांच की बोतलों में पानी भर कर रखने की सिफारिश की थी। यह दो वर्ष पुरानी बात थी जब मैंने प्लास्टिक की बोतलों के बारे में कुछ भयानक बातें पढ़ी थीं।

लेिकन अनुभव के आधार पर इन दो वर्षों में जो सीखा वह आप से शेयर करना चाहता हूं......कांच की इन भारी भरकम बोतलों में पानी भर कर रखना बड़ा मुश्किल सा काम है......इन्हें बार बार उठाना --इधर उधर करना ही भारी भरकम सा काम है।

एक बात और भी तो है कि इन भारी भरकम कांच की बोतलों में पानी भरना भी थोड़ा सा मुश्किल काम है......थोड़ा बहुत वेस्ट हो जाता है इन्हें भरने के चक्कर में........इन्हीं दो कारणों की वजह से हम ने भी अब इन में पानी स्टोर करना बंद कर दिया है।


इसलिए यह विचार आते ही कल रात मैंने जब फ्रिज से पानी उठाने के लिए इसे खोला तो ये स्टील और तांबे की बोतलें एक लाइन में लगी देख कर अच्छा लगा, सोचा आप से भी यह तस्वीर शेयर करता हूं......वैसे भी तांबे में पानी स्टोर करने के कुछ लाभ भी तो बताते ही हैं आयुर्वेदिक विशेषज्ञ.....इस तरह की स्टील और तांबे की बोतलों को साफ़ करना भी आसान है........लेकिन मेरी श्रीमति कहती हैं कि तांबे की बोतलों की यदा कदा चमकाने में खासी मशक्कत करनी पड़ती है।

बहरहाल, हम लोगों की पुरानी आदतें कहां इतनी आसानी से जाती हैं....... कांच की बोतलों में पानी रखने की जगह पर यह कांच का जग ज़रूर फ्रिज में पड़ा रहता है।

पानी की बातें करते करते गंगा मैया का ध्यान आ गया....... कल सुप्रीम कोर्ट ने भी गंगा की सफाई करने हेतु तैयार एक्शन-प्लॉन को देखने के बाद सरकार से पूछा है कि क्या गंगा इस सदी में साफ़ हो पाएगी?

Are plastic bottles a health hazard?

गंगा मैया को समर्पित यह सुंदर गीत........या भजन...कितने वर्षों से इसे बड़े बड़े लाउड स्पीकरों पर सुनते आ रहे हैं...



मंगलवार, 2 सितंबर 2014

मेरे पसंदीदा और नापसंदीदा विषय़...

अतीत के झरोखों से आज इस विषय पर कुछ कहने की इच्छा हो रही है....

स्कूल से शुरू करता हूं.. स्कूल के दिनों में जो विषय मुझे सब से बेकार और उबाऊ लगता था ..वह हिस्ट्री-ज्योग्राफी था। मुझे याद है कि मैंने किताबें तो उस की कईं इक्ट्ठी कर रखी थीं लेकिन कभी भी इंटरस्ट आया ही नहीं। मास्टर लोगों के ऊपर भी बड़ा निर्भर करता है ना। स्कूल की छुट्टी होने से पहले वाला पीरियड उसी का था लेकिन वर्दी की वजह से पीटता रहता था वह हम लोगों को --बारी बारी से।

इस विषय में इतना कमज़ोर रहा था कि अभी तक भी हिस्ट्री-ज्योग्राफी का ज्ञान बस यहां तक सीमित है कि हिंदोस्तान से आगे समुद्र हैं ..एक अमेरिका है, एक इंगलैंड ...यूरोप का भी नाम सुना है। बिल्कुल ज़ीरो हूं हिस्ट्री-ज्योग्राफी में। हिस्ट्री पढ़ने की कभी इच्छा नहीं हुई..सिवाए उस पेटू बादशाह के जो बहुत सा खाना खाया करता था....शायद मुहम्मद तुगलक .. और एक महमूद गजनवी के बारे में पढ़ने में रूचि थी जिसने हमारे देश में बड़ी लूटपाट मचाई। बाकी कोई तारीखें याद नहीं हुईं .. नफ़रत थी..... पलासी, पानीपत की पहली, दूसरी, तीसरी लड़ाई.....यार लड़ लो न एक ही बार में, क्यों बार बार लफड़े कर के छात्रों को परेशान करते हो।

दसवीं की परीक्षा के बाद मुझे रिज़ल्ट आने तक इसी बात की चिंता थी कि वैसे तो बाकी विषयों में मेरे ८०-९०प्रतिशत तो आएंगे ही .. लेकिन हिस्ट्री-ज्योग्राफी में फेल हो जाऊंगा.....बड़ी बदनामी हो जायेगी, यही बात परेशान करती रहती थी। लेकिन शुक्र हो उस अनजान टीचर का जिस ने पता नहीं किस शुभ घड़ी में पेपर जांचे होंगे और पता नहीं उस में उसे कौन सी गप्प पसंद आ गई होगी कि १५० में से ९६ अंक आ गए.......पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की मेरिट में आने की इतनी खुशी न थी जितनी हिस्ट्री-ज्योग्राफी में पास होने की थी।

हां, कालेज चलते हैं........मेरा कालेज में सब से पसंदीदा सब्जैक्ट था .......बॉटनी.....वनस्पति विज्ञान। बहुत अच्छा लगता था दसवीं के बाद अगले दो साल उस विषय को पढ़ना....पेढ़-पोधों, पत्तियों को जानना अच्छा लगता था.....बहुत ही अच्छा.....इतनी अच्छे से अमृतसर के डीएवी कालेज के कंवल सर पढ़ाया करते थे कि कब पीरियड खल्लास हो जाता था पता ही नहीं चलता था। मैं सोचता था अगर डाक्टरी वाक्टरी में नहीं भी गया तो चुपचाप बीएससी और फिर बॉटनी में एमएससी और उस के बाद पीएचडी करूंगा। आज भी मुझे पेढ़-पौधों- पत्तियों से बेहद लगाव है.. जुड़ाव है........इस कद्र यह जुड़ाव है कि मेरे विचार में सारी कायनात में दो तरह के लोग हैं.......वनस्पति प्रेमी और वनस्पति को प्रेम न करने वाले।

हां, यार, एक बात याद आ गई.....मैंने ३५-३६ साल पुरानी अपनी बॉटनी की एक कापी भी संभाल कर रखी हुई है.... अभी इस ढूंढ कर एक चित्र यहां टिकाता हूं।

अब चलिए मैडीकल कालेज के अनॉटमी विभाग की तरफ़.........मुझे ज़रा भी समझ नहीं आता था. लगता था कि कहां फंस गये। सब कुछ सिर के ऊपर से निकल  जाता था। न तो कुछ थ्यूरी और न ही प्रैक्टीकल में पल्ले पड़ता था..... पता नहीं उस विभाग में ही कुछ तो था......सब कुछ डरावना डरावना सा.....सारी बूथियां खौफ़नाक....जैसे शोक मनाने आई हों।

कुछ न समझ पाने के चक्कर में मैं उस में पहली बार फेल हो गया....मैं पहली बार फेल हुआ था.......फिर क्या था, कुछ रट्टे वट्टे लगाये, दो तीन महीने, कुछ भी समझ नहीं आया फिर से.......बस जैसे तैसे पास हो गया सप्लीमैंटरी परीक्षा में......बस उस के बाद सब विषयों में रूचि बनती चली गई........और तीसरे वर्ष में आते आते टेम्पो इतना बन गया कि यूनिवर्सिटी में टॉप घोषित कर दिया गया....बस फिर तो ...उस रास्ते पर चल निकला।

इस पोस्ट की प्रेरणा मुझे मेरे एक मित्र डा कुलदीप बेदी की एक फेसबुक पोस्ट देख कर मिली जिस में उन्होंने एक खोपड़ी की तस्वीर टिकाई थी.....उस पर मैंने जो टिप्पणी दी वह भी आप के साथ शेयर कर रहा हूं.......

"मैं तो देखते ही डर गया.....अनॉटमी की वह खौफ़नाक सप्ली याद आ गई।।।
थैंक गॉड, जैसे तैसे पास हो गये.....
मेरे जैसा बंदा और लेटरल टैरीगॉयड की डाईसैक्शन.....मैं भी एग्जामीनर को इस तरह से ओरिजन और इन्सर्शन दिखाने लगा जैसे वह पहली बार देख रहा है किसी नईं डिस्
कवरी को.....उस दिन बड़ा बुरा लगा था.....डियर बेदी।
प्रैक्टीकल का ही तो बस थोड़ा अासरा था, थियूरी तो पहले ही गोल थी। और ऊपर से मैं ग्रेज़ एनाटमी की पोथी ऐसे रोज़ खोल के बैठ जाता था......... और दो मिनट में नींद आ जाया करती थी।"

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

मैला ढोने की सुथरी यादें....

Courtesy: Google Images
मेरे जैसे पढ़े लिखों की शायद यह समस्या है कि हम लोग मीडिया में दिखने वाली किसी भी बात पर आसानी से विश्वास कर लेते हैं। जैसा कि मैं भी पिछले कुछ सालों से समझने लगा था कि अब मैला ढोने का काम बंद हो चुका होगा क्योंकि इतनी बार सरकारी विज्ञापन देखे कि अगर कोई किसी को इस तरह का काम करने के लिए मजबूर करेगा तो उस पर कानूनी कार्रवाई की जाएगी। शायद यह कहीं लिखा देख भी लिया होगा मैंने कि यह काम अब नहीं होता।

कल बीबीसी की एक रिपोर्ट दिख गई.....जिसे देख कर बहुत दुःख हुआ कि आज भी यह काम भारत में बहुत सी जगह चल रहा है। एक बार तो यकीन नहीं आया लेकिन जब पूरी रिपोर्ट पढ़ी तो दिल दहल गया कि किन किन मजबूरियों में लोगों को यह काम करने को विवश किया जाता है। --- बीबीसी की रिपोर्ट....भारत का मैला ढोने वाले --तस्वीरों में.

मुझे भी अपनी परसिन्नी की याद आ गई .. अधेड़ उम्र की महिला....१९६७ से १९८४ तक की मेरी यादें --पंजाब..जिस सरकारी क्वार्टर में हम लोग रहते थे उस में ड्राई-लैटरिन ही थी।

और यह परसिन्नी बेचारी रोज़ मैला ढोने आ जाती थी, सभी लोग चाहते थे कि परसिन्नी सुबह सुबह सब से पहले उन के यहां ही पहुंच जाए। हाथ में एक तसला और एक लोहे का एक पतरा सा उठाये रहती थी परसिन्नी।

दर्जनों या फिर पता नहीं कितने घरों वह परसिन्नी मैला ढोने का काम करने जाती होगी......मुझे अच्छे से याद है हर घर से तीन-चार या फिर पांच रूपया महीना उसे मिला करता था। हां, त्योहार के वक्त कुछ ऐसा थोड़ा बहुत ज़्यादा।
कभी कभी किसी घर से चाय या कल की बची रोटी सब्जी भी खाने को मिल जाती थी, और कभी कभी फटे-पुराने कपड़े।

पानी वानी भी वह घर से नहीं मांगा करती थीं....क्योंकि मैंने देखा कि कुछ घरों में जब उसे किसी बर्तन से पानी भी पिलाया जाता था तो उस से बराबर दूरी बना कर रखी जाती थी।

मुझे यह भी याद है कि मुझे उस परसिन्नी पर हमेशा ही तरस आाता था......हर एक (जी हां, हर एक घर में) उस के चाय पीने के लिए एक प्याली जिस का हैंडल टूटा हुआ होता था और जो सब से पुरानी प्याली या गिलास हुआ करता था....वह उस मैला ढोने वाली के लिए रख दी जाती थी। और इस कप को उस टॉयलेट की किसी बन्नी पर टिका दिया करती थी वह चाय वाय पीने के बाद........ जब भी उसे चाय दी जाती तो इस का सीधा सीधा यही मतलब हुआ करता था कि वह अपनी ही प्याली या गिलास में उसे पियेगी।

मुझे यह देख कर बहुत गुस्सा आता था.....सिर दुखता था..... क्यों, यार, परसिन्नी से ऐसा व्यवहार क्यों?.... लेकिन फिर भी जो सच्चाई है वह मैंने ब्यां कर दी है। लेकिन इस बात के लिए मैं अपने मां-बाप की हमेशा प्रशंसा करता हूं कि उन्होंने कभी भी परसिन्नी से अच्छा ही व्यवहार ही किया.....मुझे अच्छे से याद है कि वह शायद दो बातें मेरी मां या मेरे पिता जी से किया करती थीं...... जैसे कोई सलाह आदि लेना। मैंने कईं बार उसे घर में पांच मिनट के लिए किसी पेड़ वेड़ आदि के नीचे सुस्ताते भी देखा। मुझे नहीं याद कि मैंने कभी भी उसे नाम से बुलाया हो......शायद ही कभी आप शब्द का भी इस्तेमाल किया हो.......लेकिन ऐसा लगता है कि किसी आदमी की हम कितनी इज्जत करते हैं यह हमारी आंखों से पता चल ही जाता है, और यह मूक भाषा वह भी जानती थीं।

अब सोचता भी हूं तो कितना मुश्किल लगता है कि यार, पहले एक तसले में मैला डालो, फिर उसे थोड़ा बाहर जाकर किसी बड़े से कचरेदान में पलट कर आओ......फिर वापिस दूसरे घरों से मैला ढो कर फिर से उस कचरेदान में खाली कर के आओ........कितना अमानवीय काम लगता है ना।

मैं इस समय उस परसिन्नी को याद कर रहा हूं तो मेरी आंखें बार बार भर आ रही हैं.......

एक बात और बताऊं आप को.....जिन घरों से तो परसिन्नी सारा मैला अपने तसले में डाल कर ढो कर दूर किसी कचरेदान में डाल आती थी..वे तो खुश.......लेकिन जिन घरों का मैला कभी कभी वह पानी डाल कर बहा देती, बस वही लोग उसे कोसना शुरू कर देते कि यह क्या हुआ.. यह तो सारी गंदगी बाहर खुली नालियों में पहुंच जायेगी। मुझे इस बात पर भी बहुत ही गुस्सा आता कि यार, और क्या इस बेचारी की चार रूपये महीने में जान लोगे?

परसिन्नी जब नहीं आती थी तो क्या होता था.......पता है उस का एक १५-२० साल का लड़का भी था, उस की छुट्टी के दिन कभी कभी वह भी आ जाया करता था......लेकिन मुझे अब लगता है कि उस के लड़के के मन में इस काम के प्रति विद्रोह था........वैसे देखा जाए तो हो भी क्यों नहीं ?

वैसे एक बात बताऊं जिस दिन अपनी परसिन्नी नहीं आती थी..... सारे घर की हालत खराब हो जाया करती थी। उस टायलेट के आसपास बदबू और मक्खियों का बोलबाला हुआ करता था.....फिर लोग अखबार हाथ में लेकर जाया करते थे कि पहली मैल के ऊपर अखबार फैंक कर फिर से उसे मैला करने के लिए तैयार कर सकें।

एक बार जब मैं अपने बेटों को ये सब बातें सुना रहा था तो वे बहुत ठहाका लगा कर हंसने लगे। लेकिन मेरे लिए यह कभी भी ठहाका लगाने का विषय नहीं रहा......ड्राई टॉयलेट को मेरे लिए इस्तेमाल करना तो कुछ भी कष्टदायक नहीं था उस कष्ट की तुलना में जो परसिन्नी रोज़ सहती थी......मुंह पर कपड़ा बांध कर जब वह उस टॉयलेट के अंदर घुसती और पसीना पसीना होकर बाहर निकला करती।

अब मुझे कोई वर्कर कहता है ना कि गुटखा वुटखा खाना इसलिए शुरू किया कि साहब, हमारा काम थोड़ा गंदगी में ही होता है, गुटखा आदि खाने से मन ठीक रहता है, उस समय मेरा ध्यान उस महान् परसिन्नी की तरफ़ चला जाता है क्योंिक उस ने तो कभी तंबाकू न चबाया, न ही कुछ और नशा ही किया।

मैंने बीबीसी की रिपोर्ट देखी तो मुझे अहसास हुआ कि यह काम तो अभी भी देश में कईं जगह चल रहा है। मैंने सोचा कि मेरे दिन बदल गये तो सारे संसार के ही बदल गये। इस परिप्रेक्ष्य में यही कहना है कि लाल किले से जब इस बार घर घर में टॉयलेट बनवाने का वायदा किया गया तो मुझे बहुत अच्छा लगा।

धन्यवाद, डियर परसिन्नी, आप ने जो हमारे लिए इतने वर्ष किया.......हम उस का कर्ज़ कभी चुका ही नहीं सकते। लेकिन एक बात तो है कि मैंने जिस हालात में आप को काम करते देखा, जो आप की हालत देखी......उसने मुझे सफाईकर्मियों की भूमिका के प्रति अति संवेदनशील बना दिया........और मेरा यह विश्वास पक्का हो चुका है कि किसी भी संस्था के लिए सब से अहम् कर्मचारियों की श्रेणी सफ़ाई सेवकों की ही है......ये एक दिन भी नहीं आते तो क्या हालत हो जाती है, संस्था बंद होने के कगार पर आ जाती है। क्या हम ने इन्हें इन का हक लेने दिया........आरक्षण-वक्षण तो मिला तो सोचने वाली बात यह है कि यह परसिन्नी जैसे कितने परिवारों को मिला।

वैसे जब परसिन्नी थक कर बैठ जाती और कोई उदास सी बात करती तो मेरी मां उसे कहती ....परसिन्नी, तू वेखीं, अगले जन्म विच तूं राज करेंगी............... (तुम देखना, अगले जन्म में तुम राज ही करोगी)........और यह सुनकर हल्की हल्की मुस्कान लिए वह अपनी टोकरी उठाती और अगले घर की तरफ़ बढ़ जाती।

यह लेख देखने के बाद शायद आप इसे भी पढ़ना चाहेंगे........
Cleaning Human Waste...... "Manual Scavenging', caste and discrimination in India

शनिवार, 23 अगस्त 2014

शीघ्र पतन वतन सब मन ही में होता है..

मुझे अच्छे से याद है कि लगभग छः-सात वर्ष पहले ऐसे ही आक्रोश में आकर शीघ्र-पतन के मुद्दे पर अपने विचार लिख दिये थे....शीघ्र पतन का फैसला भी होगा अब घड़ी की टिक टिक से।  आक्रोश का कारण... बस केवल इतना ही था कि किस तरह से आज के युवकों को इस मुद्दे पर गुमराह कर के ये नीम हकीम करोड़ों रूपये लूट रहे हैं।

मैं जब भी अपने ब्लॉग के स्टैटेस्टिक्स देखता हूं तो सब से ज़्यादा सर्च किए गये यही लेख हैं... तो मैंने सोचा कि इस संबंध में बिल्कुल परफैक्ट जानकारी पाठकों तक पहुंचनी चाहिए।

जिस वेबपेज का लिंक मैं नीचे दे रहा हूं उस से ज़्यादा विश्वसनीय जानकारी इस मुद्दे पर आप को कहीं भी नहीं मिल सकती।

इस पेज पर देखिए कि कितना साफ साफ लिखा है कि यह एक आम समस्या है लेकिन इस के पीछे किसी शारीरिक कारण का होना बहुत ही कम होता है। और कितनी सफाई से लिखें ये लोग कि यह शीघ्रपतन की समस्या मन की उपज है और किस तरह से आज के तनाव की वजह से इस तरह की समस्याएं सामने आने लगी हैं।

यह वेबपेज इंगलिश में है, आशा है सभी पाठक पढ़ ही लेंगे और समझ भी लेंगे.......... इस शीघ्रपतन की समस्या से जूझने के लिए (चाहे वह मानसिक ही क्यों न हो).....कुछ फार्मूले भी इस में बताए गये हैं........पहले मैंने सोचा उन्हें हिंदी में लिख दूं.....लेकिन फिर पता नहीं ऐसा करते करते रूक गया....थोड़ा अजीब सा लगा....... जो कि एक मैडीकल लेखन करने वाले को लगना नहीं चाहिए। मुझे लगता है कि मेरे ब्लॉग की रीडरशिप अलग तरह की है.. शायद इसलिए मैं इतने खुलेपन से खुलासा करने से झिझक गया।

लेकिन फिर भी अगर आप मुझे इस तरह की फीडबैक देंगे कि इस तरह की जानकारी को भी मुझे हिंदी में सरल भाषा में भी उपलब्ध करवाना चाहिए तो मैं तैयार हूं यह सब करने के लिए। निष्कर्ष यही है कि बस रिलैक्स होना सीखो, मस्त रहना सीखो...

यह रहा लिंक ..  http://www.nlm.nih.gov/medlineplus/ency/article/001524.htm      ...वैसे आप इस लिंक ..शीघ्र पतन पर भी क्लिक कर के इस वेबपेज पर पहुंच सकते हैं। इसे पढ़ कर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि ईमानदारी से किसी जानकारी को कैसे पाठकों तक पहुंचाने का काम मैडलाईन जैसे अमेरिकी संस्थाएं कर रही हैं। इसे अच्छे से पढ़ें और इस ज्ञान का आगे भी ज़रूरतमंदों के साथ बांटने में संकोच न करें ... you lose nothing, isn't it?



रेलवे पुल के नीचे से गुज़रते वक्त क्या आपने कभी यह सोचा?

प्रश्न ही कितना अटपटा सा लगता है कि क्या रेलवे पुल के नीचे से गुज़रते वक्त आपने कभी कुछ सोचा?... इस में सोचने लायक बात ही क्या है, आप यही सोच रहे हैं...मैं भी आप की तरह ही सोचा करता था... लेिकन पिछले रविवार के दिन से मैं भी सोचने लगा हूं।

चारबाग स्टेशन के पास वाला पुल 
हुआ यूं कि पिछले रविवार के दिन मैं एक कार्यक्रम में जा रहा था, जिस जगह पर कार्यक्रम होना था --लखनऊ के हज़रतगंज-- यहां पर चारबाग एरिया से होकर जाना होता है। रास्ते में यह पुल पड़ता है जिस की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं... इस पुल के नीचे से मैं सैंकड़ों बार गुजर चुका हूं, लेकिन उस दिन मैंने क्या देखा कि कुछ साईकिल, स्कूटर, मोटरसाईकिल सवार इस पुल के दोनों किनारों पर चुपचाप खड़े थे। ज़ाहिर सी बात है कि मैंने भी अपने स्कूटर को ब्रेक लगा दी। 

इस तरह से लखनऊ शहर के लोगों को रूकते देखना मुझे हैरान कर गया क्योंकि ये तो रूकते ही नहीं हैं....बस जब व्हीआईपी मूवमैंट होती है तो ट्रैफिक पुलिस वाले १०-१५ मिनट सारा यातायात रोके रखते हैं, और तो कहीं मैंने इतना सिरियसली ट्रैफिक रूकता देखा नहीं। 

हां, जिस समय इस पुल के दोनों तरफ़ दो पहिया वाहनों वाले रूके हुए थे, उस समय इस पुल के ऊपर से एक ट्रेन सरक रही थी। मुझे यही अंदेशा हुआ कि यह पुल बहुत पुराना लगता है ......ये लोग भी शहर के पुराने जानकार है, शायद कोई चेतावनी होगी कि जब पुल से गाड़ी निकलने तो रूक जाना ज़रूरी है, क्योंकि पुल पुराना है। 

अभी मैं यह सोच ही रहा था कि गाड़ी पूरी आगे निकल गई और झट से सारे दुपहिया वाहन चल पड़े......मैं भी चल पड़ा......सस्पैंस मेरे मन में ही रह गया कि ये बीस के करीब लोग रूके क्यों रहे............मेरे से रहा नहीं गया तो मैंने अपनी बाईं तरफ़ जा रहे एक साईकिल सवार स्कूली छात्र से पूछ ही लिया.......यार, ये लोग रूक क्यों गये थे?

अंकल, गाड़ी से हृमन वेस्ट मेटीरियल (human waste material) नीचे गिरता है ना, बस उसी से बचने के लिए रूकना पड़ता है, उस ने कितनी सहजता से मेरी जिज्ञासा को शांत कर दिया।

रेल की पटड़ियों के बीच वाली खाली जगह 
तभी मेरा ध्यान इस पुल के ऊपर गया......धत तेरे की.......वह स्कूल का बच्चा सच कह गया........ऊपर से यह इस तरह से खुला था जिस तरह के आप इस तस्वीर में देख रहे हैं। 

यह पुल लखनऊ के चारबाग मेन स्टेशन से लगभग कुछ दो-तीन सौ मीटर की दूरी पर ही है और यात्रियों को वैसे ही कहा जाता है कि स्टेशन पर आप लोग ट्रेन की टॉयलेट का इस्तेमाल न करें....ताकि स्टेशनों को साफ़ सुथरा रखने में मदद मिल सके........लेकिन जैसे ही ट्रेन छूटती होगी और फिर इस तरह के पुल से सब तरह के वेस्ट मेटिरियल की बरसात होती होगी.........इसीलिए लोगों ने इस से बचने का जुगाड़ भी ढूंढ लिया कि चंद मिनट रूकने में ही बेहतरी है...

काश, लखनऊ के कुछ लोग जो हर जगह पान-पानमसाला-तंबाकू-गुटखा थूकते रहते हैं वे जब सड़कों पर वाहनों पर चलते हुए थूकते हैं तो दूसरे के साफ़-सुथरे कपड़ों के बारे में भी थोड़ा संवेदनशील रहा करें, यहां तो यह बहुत ही आम समस्या है.......पहली बार यही देखा कि महंगी कारें चलाने वाले भी कईं बार रोड़ के किनारे गाड़ी रोकते हैं, झटके से दरवाजा खोलते हैं और पाव-भर थूक-पीक-पान से व्हीआईपी रोड़ को रक्त रंजित कर के आगे सरक जाते हैं........

आप को लग रहा होगा कि वे इतने संवेदनशील हैं कि सड़क पर दूसरे लोगों पर पीक न पड़े, इस का ध्यान रखते हुए यह करते होंगे, लेिकन मुझे लगता है अपनी महंगी कार को पीक के रंग से बचाने के लिए वे यह ईनायत करते होंगे हैं..

हां, तो अपने शहर में भी इस तरह के पुलों के नीचे से गुज़रते वक्त ध्यान रखिएगा......फिर मत कहिएगा कि किसी ने पहले सावधान नहीं किया। 

पिछली सवारी के लिए हैल्मेट क्यों नहीं भाई?

ऐसी तस्वीरें उद्वेलित करती हैं लेकिन हम भी यही कुछ करते हैं...
मुझे यह बात बहुत परेशान करती है कि टू-व्हीलर पर पिछली सवारी के लिए हैल्मेट क्यों अनिवार्य नहीं कर दिया जाता. 

यही एक उपाय है कि पिछली सीट पर बैठी इस देश का महिलाएं भी हैल्मेट पहनने लगेंगी। दूसरा कोई उपाय मेरी समझ में तो नहीं आ नहीं रहा। और इस की पालना न करने पर चालक का तुरंत चालान होना चाहिए। 

तेज़ रफ़तार से चल रहे दो पहिया वाहनों को देख कर और पीछे बैठी महिलाओं को देख कर डर जाता हूं.... मैं क्या मेरा १७ वर्ष का बेटा भी डर जाता है और मुझे अकसर कहता है कि पापा, पिछली सवारी के लिए भी हैल्मेट कंपलसरी होना चाहिए. मैं उस से बिल्कुल इत्तेफाक रखता हूं। 

लेकिन शुरूआत घर से ही होनी चाहिए......मेरे स्कूटर के पीछे बहुत बार बीवी भी बैठती है और मां भी बैठती हैं, लेकिन मुझे उन्हें बिना हैल्मेट के बिठाना बहुत अजीब सा लगता है, डर लगता है ... अपने सिर पर हैल्मेट डालना उस समय एक अपराध सा लगता है कि यार, हमारी जान क्या ज़्यादा महंगी है या फिर पीछे बैठा इंसान हाड़-मांस का नहीं बना है। 

उस दिन भी मैं और मेरा बेटा कार से स्टेशन से आ रहे थे तो बेटे को एक स्कूटर के पीछे एक बुज़ुर्ग मां बैठी दिख गई....हो गया शुरू ..बड़ा संवेदनशील किस्म का बंदा है ..झट से उस मां-बेटे की फोटू खींच ली और कहने लगा कि पापा, यह तो गलत बात है कि पीछे बैठे बंदे के लिए हैल्मेट ज़रूरी नहीं है। 

कईं बार मैं सोचता हूं कि यार यह देश भी कैसा है, कुछ जगहों पर तो हैल्मेट पहनने की तरफ़ कोई ध्यान नहीं देता, कुछ में केवल चालक ही हैल्मेट पहनेगा क्योंकि यह कानून है उन राज्यों में ...लेिकन उन राज्यों की प्रशंसा करनी चाहिए जिन्होंने दोनों सवारों के लिए चालक और पीछे बैठी सवारी के लिए भी हैल्मेट अनिवार्य किया हुआ है। मुझे बहुत अच्छा लगता है यह देखना --शायद चंडीगढ़ में यही व्यवस्था है...

मुझे ऐसा लगता है कि देश में हर जगह यह कानून लागू हो जाना चाहिए कि पीछे बैठी सवारी और बापू के साथ स्कूटर पर आगे खड़े बच्चे भी हैड-प्रोटैक्शन तो पहनेंगे ही। 

सच में कहूं कईं बार बहुत अपराधबोध होता है .......लेकिन क्या हम ने कभी अपनी तरफ़ से पहल की .......कभी मां या बीवी को पीछे बैठाने से पहले कहा कि आप भी हैल्मेट पहन लें, .......नहीं ना, क्योंकि रिवाज ही नहीं है, हमें यह भी तो डर सताने लगता है कि कहीं हम लोग सड़क पर जाते हुए कार्टून ही न लगें........अब सोचने की बात है कि यह मेरे जैसे ठीक ठाक पढ़े लिखे बंदे की मानसिकता है, तो फिर वह आदमी जिसे हम लोग कम पढ़ा लिखा लेबल करते हैं, अगर वह ऐसी सोच रखे तो वह गंवार........

ठीक है, बात हो तो हो गई, लेकिन एक राष्ट्र स्तर पर एक अभियान चलना चाहिए कि सारे देश में पिछली सवारी के लिए भी हैल्मेट ज़रूरी होना चाहिए वरना चालक से मोटी रकम ज़ुर्माना के रूप में वसूली जानी चाहिए। हम इतने लंबे समय से गुलाम रहे हैं, शायद हम सब यही भाषा समझते हैं। आप का क्या ख्याल है..... 

नेट से प्राप्त जानकारी और सेहत संबंधी निर्णय

मुझे बड़ी हैरानी हुई थी कल ओपीडी में जब उस २५-३० उम्र की महिला ने यह कहा कि उसने अपनी टुथपेस्ट इसलिए बदल दी क्योंकि नेट पर उसने एक बार देखा था कि उस में मौजूद घटकों से कैंसर हो जाता है।

समस्या यह थी कि उस पेस्ट को छोड़ कर जिस मंजन को उस ने थाम लिया था उसी मंजन की वजह से ही उसे दांतों में तकलीफ़ हो रही थी। हैरानी मुझे यह सुन कर हुई जब मैंने उसे नेट पर इन मंजनों आदि के बारे में भी कुछ पढ़ने को कहा तो वह तुरंत कहने लगी....कि इंटरनेट कहां है हमारे यहां, बस तब एक बार देखा था।

यह छोटी सी बात इसलिए आपके समक्ष रखी कि किस तरह से नेट पर उपलब्ध जानकारी आज लोगों को अपने फ़ैसले स्वयं करने के लिए एक आज़ादी सी दे रही है, देखते हैं कि यह आज़ादी ठीक भी है कि नहीं।

मेरा व्यक्तिगत विचार है कि नेट पर किसी भी शारीरिक समस्या के बारे में छोटी-मोटी जानकारी पा लेना तो एक बात है, लेकिन उसी के आधार पर जाकर अपने आप दवाई खरीद लेना या कोई ब्लड-टैस्ट करवाने या अल्ट्रासाउंड या सी टी स्कैन करवाने पहुंच जाना बिल्कुल गलत बात है। इससे कोई भी फायदा होने वाला नहीं है।

सब से पहले तो यह जान लें कि इंगलिश में भी सेहत संबंधी मामलों में अच्छी और सही जानकारी के साथ साथ इतनी गलत और भ्रामक जानकारी नेट पर पड़ी है कि सर्च करने वाले के लिए यही तय करना कईं बार मुश्किल हो जाता है कि कौन सही कह रहा होगा, कौन गलत।

इतनी इतनी कठोर और निर्दयी मार्कीट शक्तियां हैं कि आप को पता लगे बिना ही आप कहीं न कहीं बुरे फंस सकते हैं, किसी ने कोई टैस्ट बेचना है, किसी ने कोई सप्लीमैंट, कोई सेहत ही बेचने का ठेका लिए हुए है........सब कुछ बहुत ही ज़्यादा कंफ्यूज़िंग सा कर रखा है इन सब ने मिल कर --- यह जानने के लिए कि बेटा होगा या बेटी जैसे टैस्टों की किटें तो नेट पर बिकने लगी हैं।

लेकिन अंग्रेजी में फिर भी हाल इतना बुरा नहीं है, भ्रामक सामग्री की भरमार के साथ साथ विश्वसनीय सामग्री भी भरी पड़ी है, बस हमें छांटना आना चाहिए। इसी विषय पर मैंने एक पोस्ट कुछ दिन पहले लिखी थी...(बिल्कुल विश्वसनीय हैल्थ जानकारी हिंदी में मैडलाइन प्लस पर)  और एक कुछ वर्ष पहले लिखी थी (इंटरनेट पर स्वास्थ्य संबंधित जानकारी के लिए वेबसाइटें), और मैं आज भी उन में लिखी सभी बातों पर कायम हूं।

जितनी दुर्दशा हिंदी में उपलब्ध सेहत संबंधी जानकारी की है, उतनी तो शायद..।

कल सुनील दीपक  के ब्लॉग पर एक अच्छी पोस्ट देखने को मिली.......आप भी पढ़िए..  भाषा, स्वास्थ्य अनुसंधान और वैज्ञानिक पत्रिकाएं । हिंदी में सेहत संबधी विषयों पर जानकारी का टोटा है।

नेट पर सेहत से संबंधित विषयों पर बहुत ही खराब किस्म की जानकारी --भ्रामक तरह की-- भरी पड़ी है। ऊपर मैंने मैडलाइन प्लस का लिंक बताया है जहां पर सब कुछ विश्वसनीय ही मिलेगा और काफ़ी कुछ हिंदी में भी।

मुझे लगता है कि नेट पर सेहत की बारे में जुड़ी बातें केवल एक आधार के तौर पर पढ़ ली जाएं ....और आज की पीड़ी जैसे अभ्यस्त हो चुकी है कि फोन करने पर पिज़ा, अगले ही दिन फ्लिप-कार्ट से मंगवाई किताब की डिलिवरी.........ऐसा सेहत के साथ नहीं होना चाहिए......आज कर घर पर ही रक्त की जांच के लिए ब्लड-सैंपल लेने आ जाते हैं, ठीक है, अगर किसी चिकित्सक ने कहा है तो बिल्कुल ठीक है, आप घर पर ही सैंपल दें, लेकिन अपने आप कुछ पढ़ कर नहीं... और न ही अनाप-शनाप दवाईयां नेट से खरीदें।

सी टी स्कैन सैंटरों पर किस तरह से धड़ाधड़ सी टी स्कैन हो रहे हैं, आपको क्या लगता है कि अगर आप किसी सी टी स्कैन सैंटर या एमआरआई सैंटर पर जा कर कहेंगे कि कुछ समय से सिरदर्द जा नहीं रहा, तो क्या आप को लगता है कि वहां पर मौजूद स्टाफ आप को पहले अपने फैमिली फ़िज़िशियन से मिलने का सलाह देगा............बस, आप तो वहां से सी टी या एमआरआई करवा के ही लौटेंगे। करोड़ों रूपयों की मशीनें हैं, सफ़ेद हाथी तो हैं नहीं वे सब। काम करेंगी तो ही बैंकों की भारी किश्तें निकल पाएंगी।

इसलिए मेरी तो यही सलाह है कि नेट पर किसी भी सेहत से जुड़ी जानकारी को ध्यान से पढ़ें, इतना भी ध्यान से नहीं कि उस में लिखी सभी अशुभ एवं अप्रिय बातों को अपने ही शरीर में देखने लगें...... बस, पढ़ना तो ठीक है, लेकिन उस के आधार पर न तो मन में कोई उलझन या भ्रांति ही पैदा होने दें और न ही कोई निर्णय केवल उस पढ़ाई के आधार पर लें।

आप के पास अभी भी कुछ कुछ शहरों में आपका अपना फैमली डाक्टर उपलब्ध है......जो आपके शरीर के बारे में ही नहीं आप के मन के बारे में भी लगभग सब कुछ जानता है, उस पर भरोसा रखें, वह आगे किसी विशेषज्ञ के पास भेजे या कोई टैस्ट-वैस्ट करवाने को कहे तो ही अपना मन बनाएं, वरना सैकेंड ओपिनियन लेने में भी आखिर दिक्कत क्या है। बस, नेट पर दुकानें सजा कर बैठे जालसाज़ों से बच कर रहें, वे बैठे ही बस आप की व्लनेरेबिल्टी का फायदा उठाने के लिए।

एक उदाहरण क्या ध्यान आ गया...... आप ने किसी शारीरिक तकलीफ़ के किसी लक्षण को सर्च किया........आप को उस के पच्चीस कारण पता चल गये, पहली तो बात यह है कि आप कल्पना करेंगे कि जो सब से भयानक कारण है वही आप के केस में होगा, आप बेकार मन ही मन चिंता पाले रहेंगे लेकिन किसी फैमली डाक्टर के जब बात करने पहुंचेंगे तो उस के पके बालों के आधार पर, बीस तीस वर्ष प्रोफैशन में घिसने के आधार पर, और आप की चाल-ढाल देख कर वह दो मिनट में ही शायद आप की चिंता शांत कर दे और कुछ ज़रूरी किस्म के टेस्ट करवा के आप को भरोसा भी दिला दे।

I am reminded of a funny saying ......... Hypochondriacs...beware while reading medical literature. You may die of a misspelling! (हाईपोकांडर्रिक्स उन्हें कहते हैं जो हर समय अपने शरीर में विभिन्न रोगों की कल्पना करते रहते हैं).......

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

नकली दांत कईं बार सैट नहीं बैठते...

महोदय नमस्कार ,अपनी माता जी ,को मैंने एक अच्छे डॉक्टर से डेन्चर लगवाया था जो आज 8 महीने बाद भी सेट नहीं हो पाया है ,वो जब भी उसे लगाकर कुछ खा ले..  तो कई दिन तक मसूड़ों में जख्म हो जाते है ,डॉक्टर कहते है ऐसे ही मसूड़े पकेंगे ,अब तंग आकर वो उसका इस्तेमाल ही नहीं करती ,क्या वही डेन्चर सेट हो सकता है ?

उस डॉक्टर की काबिलियत पर मुझे शक है ...


यह प्रश्न एक जेंटलमेन ने इस ब्लॉग पर लिखी एक पोस्ट पर टिप्पणी के रूप में लिखा। जब मैं उन्हें इस का जवाब लिखने लगा तो मुझे लगा कि यह तो एक पोस्ट ही बन गई है जिस से दूसरों का भी फॉयदा हो सकता है, तो जनाब आप भी पढ़िए....

मैंने आप की माता जी की समस्या पढ़ी। कईं बार ऐसा होता है विशेषकर महिलाओं में कि वे या तो खराब-हिलते हुए दांत उखड़वाने में देर करती रहती हैं या फिर निकलवाने के बाद नकली दांत लगवाने में देर कर देती हैं. इस कारण से और वैसे भी  बहुत सी भारतीय महिलाओं में जबड़े की हड्‍डी इतनी अच्छी हालत में बचती नहीं, कहने का मतलब कि वह इतनी अच्छी नहीं रह पातीं कि उस पर नकली दांत टिक पाएं...... 

बहरहाल, यह समस्या महिलाओं में अधिकतर नीचे वाले नकली दांतों के सैट के साथ ज़्यादा आती है.... लिखिएगा कि क्या उन्हें भी नीचे वाले सैट से ही समस्या है। 

एक बात और अगर आप चाहें या मुनासिब समझें तो उन के नकली दांतों की एक फोटू और अगर अपने खींच सकें तो उन के मुंह के अंदरूनी हिस्से की एक फोटो ---बिना दांतों के ..... ऊपर और नीचे वाले मसूड़ों की अलग अलग, मुझे भेज दें। 
वे तस्वीरें देखने से ही काफ़ी अंदाज़ा हो जाएगा। 

चिंता न करें......हर बात का समाधान हो जाता है। मैं उस अनजान दंत चिकित्सक का पक्ष नहीं ले रहा हूं लेकिन अगर हड्डी ही कमजोर होगी तो नकली दांतों को टिकने में दिक्कत तो होती ही है. शायद उस ने पहले बता ही दिया होगा। 

मेरे विचार में बिना मरीज़ को देखे, बिना कोई तस्वीर देखे, इतना ही पढ़ने से आप को काफ़ी अंदाज़ा लग गया होगा। 

और एक बात कि अगर आप की मां जी ने उस सैट को निकाल कर बाहर रख दिया है, तो ठीक ही किया है, इस तरह के सैट से जो बार बार जख्म मुंह में हो जाते हैं ये असहनीय दर्द देते हैं......वैसे उन के मुंह के जख्मों के लिए तीन चार दवाईयां लिख रहा हूं..Dentogel/Dologel/Zytee/Emergel..इन में से कोई भी एक ले कर उन्हें कहें कि हाथ धोने के बाद उस जख्म में लगा दें और पांच मिनट बाद थूक दें। 

ध्यान दें कि हाथ धोने के बाद वे उसे टावल आदि से पोंछें नहीं, बल्कि एक-दो मिनट में अपने आप हाथ सूखने के बाद ही उस दवाई की दो बूंदे उस जख्म पर लगाएं। 

शुभकामनाएं..........और भी कुछ पूछना चाहें तो बेझिझक पूछिए। 

बुधवार, 20 अगस्त 2014

खुरदरे मंजन बिगाड़ देते हैं दांतों का हुलिया

जब हम लोग कालेज में पढ़ते थे और हमें खुरदरे मंजनों के बारे में चंद पंक्तियां पढ़ाई जाती थीं कि इस से दांत नष्ट हो जाते हैं तो हम तरफ़ इतना ज़्यादा ध्यान भी नहीं देते थे क्योंकि उस उम्र में हमें लगता था कि सारा संसार तो बढ़िया पेस्टें ही इस्तेमाल कर रहा है।

लेकिन प्रोफैशन में तीस वर्ष बिताने के बाद अब यह लगने लगा है कि जितना नुकसान तंबाकू-गुटखा-पानमसाला मुंह के अंदर वाले हिस्सों (दांतों का भी)  का कर रहा है, उतना ही नुकसान ये खुरदरे मंजन दांतों का किए जा रहे हैं।

अब प्रोफैशन है, नौकरी है तो बार बार वही बातें महीने में सैंकड़ों मरीज़ों के साथ दोहरानी पड़ती हैं लेकिन अब तो जैसे ऊब सी होने लगी है।

यार इतना भी इन खुरदरे खराब किस्म के मंजनों का क्या प्रेम कि पब्लिक इन्हें छोड़ ही नहीं पाती?......बहुत से मरीज़ तो ऐसे आते हैं जिन के दांतों का हुलिया देख कर मैं उन से दो-तीन मंजनों-पेस्टों के नाम लेता हूं कि क्या आप ये इस्तेमाल कर रहे हैं। अधिकांश केसों में मेरा शक सही निकलता है।

जब हम ने नईं नईं डैंटिस्ट्री पढ़ी तो हमें यह लगता था कि यार ये जो लोग बसों, फुटपाथों में खुली शीशियों में मंजन-वंजन बेचते हैं, केवल यही गड़बड़ हैं, लेकिन जितने भी ये देशी किस्म के मंजन वंजन बेच कर आप को फंसाया जा रहा है, इन में से अधिकांश बेकार ही हैं......until unless proven otherwise!

मुद्दा एक और भी तो है कि अब अगर ये मंजन घर में आते हैं तो छोटे छोटे बच्चे भी इन्हीं मंजनों से दांत कूचने लगते हैं।

खुरदरापन इन मंजनों का ऐसा कि आप अगर अपनी अंगुली से इसे मसलें तो आप को बिल्कुल महीन और बारीक ही लगेगा। लेकिन इन अधिकांश मंजनों में बहुत मात्रा में गेरू-मिट्टी (लाल मिट्टी)  पड़ी रहती है और कुछ में तो तंबाकू भी मिला रहता है और शीशी के ऊपर नहीं लिखा रहता कि इस में तंबाकू भी है।

पब्लिक को गिरफ्त में लेने के लिए इन मंजनों के नाम बड़े भारतीय किस्म के रखे जाते हैं लेकिन ये सब के सब बेकार हैं, यह बात अपने अनुभव के आधार पर लिख रहा हूं। कितने ही मरीज़ रोज़ाना दिखते हैं जिन में इन मंजनों की वजह से दांत घिस जाते हैं और फिर वे दर दर की ठोकरें खाते फिरते हैं उन को रिपेयर करवाने के चक्कर में, नसीब वाले हैं जो यह काम करवा पाते हैं, वरना तो उखड़वाने को ही अधिकतर दांतों का इलाज समझा जाता है।

मुझे अकसर लोग पूछते हैं कि ये मंजन जो किसी बाबा ने या किसी संत ने बनाये हैं, वे कैसे हैं, मैं जब खुरदरे मंजनों की बात कर रहा हूं तो इन सब मंजनों को भी साथ ही में शामिल कर रहा हूं। मेरी माता जी के दांत ठीक ठाक ही थे, लेकिन जब से उन्होंने एक ऐसे ही मंजन और उसी नाम की पेस्ट का इस्तेमाल किया तो लगभग एक-डेढ़ वर्ष के बाद उन के आगे से दांत बुरी तरह से घिस गये और अजीब किस्म के काले-भूरे से दिखने लगे (Dental Staining)....पहले तो मैंने इस तरफ़ ध्यान नहीं दिया, वैसे भी होता है ना......घर का जोगी जोगड़ा.........फिर मुझे उन का यह मंजन और पेस्ट बंद करवाना पड़ा।

देश में बहुत से संत लोग हैं, बाबा हैं, सभी अच्छे  हैं, अच्छा काम कर रहे हैं, इन के बाकी उत्पाद भी ठीक हैं, मैं भी सेवन करता हूं लेकिन टुथपेस्ट या मंजन में इन का क्वालिटी कंट्रोल शून्य के समान है........ऐसा मैं उन लोगों के दांतों की हालत देख कर कह सकता हूं जो इन्हें कुछ ही महीने इस्तेमाल करने पर दांतों की ठंड़ा गर्म  और रंग बिगड़ने आदि जैसी शिकायतों के साथ दंत चिकित्सकों के पास पंक्तियां लगाने लग जाते हैं। दरअसल विभिन्न कारणों की वजह से इन मंजनों-वंजनों की गुणवत्ता पर कोई कंट्रोल रहा ही नहीं है।

तो फिर मेरी सलाह है कि आप किसी भी इंटरनेशनल ब्रांड की बढ़िया किस्म की पेस्ट इस्तेमाल करें......और अपने दांतों की सेहत को सुरक्षित रखें।

अब कोई अगर यह तर्क देना चाहे कि मैं गलत कह रहा हूं.....देशी मंजन ही बढिया हैं, इन से उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई बल्कि उन के दांत बच गए, उन से मैं क्षमा मांगता हूं, मेरे पास इस तर्क का कोई जवाब नहीं है, वैसे भी मैं बहस में कम ही पड़ता हूं। जो मेरा अनुभव रहा हज़ारों दांतों के मरीज़ों के साथ मैंने आप से साझा कर लिया, अगर आप का अनुभव इन मंजनों वंजनों आदि के बारे में कोई अलग है, कोई बढ़िया किस्म का रिजल्ट आपने पाया है तो कमैंट्स में शेयर करिए......... वैसे विशेषज्ञ की बात मान लेनी चाहिए, पते की बात कह रहा हूं।

देश में यह पेस्टों मंजनों का धंधा करोड़ो-अरबों का है, मेरी किसी विशेष पेस्ट के लिए सिफारिश नहीं है।

इन पेस्टों मंजनों के बारे में कुछ साल पहले भी कुछ लिखा था, अभी सर्च करता हूं... अब पता नहीं उस समय क्या लिख दिया था, लेकिन जो भी लिखा होगा---सच ही लिखा होगा, इस की पूरी गारंटी है....... Check this out at the following links......

यह रहा टुथपेस्ट का कोरा सच --भाग एक
यह रहा टुथपेस्ट का कोरा सच - भाग दो 




सोमवार, 18 अगस्त 2014

मुन्ना भाई फसाई..

मुन्ना भाई फसाई...... मुझे भी आज की टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय पन्ने पर यह शीर्षक देख कर थोड़ी हैरानी तो हुई। साथ में ही यह भी लिखा था........मुन्ना भाई फसाई-- जिसे बिरयानी में पंक्षियों की बीट तो पसंद है लेकिन स्विस चाकलेट नापसंद है।
Munna Bhai FaSSAI (Times of India, 18Aug 2014)

दो मिनट उस कॉलम को पढ़ने के बाद बात समझ में आने लगी कि यहां तो भारतीय खाध्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (Food Safety and Standards Authority of India) ...FSSAI....नामक संस्था की बात की जा रही है।
पढ़ते पढ़ते मुझे ध्यान आया कि पंद्रह दिन पहले मैंने भी तो इस संस्था के बारे में कुछ लिखा था......खाद्य पदार्थों में मिलावट की जांच के लिए। 

लिखा तो था मैंने कईं बार इस के बारे में लेकिन मुझे यह बिल्कुल ध्यान नहीं रहता कि लिखा क्या था, अच्छा लिखा था, कहने का मतलब उस के बारे में अच्छा अच्छा लिखा था कि नहीं, यह नहीं याद अब। इसीलिए लिंक ऊपर दे दिया है। वैसे भी जैसे हलवाई अपनी तैयार की हुई मिठाई खाने से परहेज करता है, मैं भी वैसा ही हूं अपने लेख पढ़ने से कतराता ही हूं। कारण आप को बताने की ज़रूरत नहीं।

बहरहाल, जिस तरह से हिंदोस्तान के हर बाज़ार में रेहड़ी, छाबों, फुटपाथों पर खाने पीने की चीज़ें बिकती हैं, कईं बार यही लगता है कि यार इन को आखिर कौन कंट्रोल कर रहा है। बस, इतना ज़रूर सुनते हैं कि जब ज़्यााद गर्मी पड़ती है तो गन्ने का रस बेचने वालों की ऐसी की तैसी हो जाती है, दीवाली या अन्य बड़े त्योहारों के आसपास हलवाईयों की ......या कभी कभी पके फल बेचने वालों पर सेहत विभाग का नजला गिर जाता है। इस के अलावा कभी कभी इधर उधर से घी, मावा, तेल, बेसन आदि के सैंपल तो भरे जाते हैं लेकिन उन में से कितनों को कैद हुई, यह मेरे बताने की ज़रूरत नहीं, आप सभी आंकड़ों से परिचित हैं।

कईं बार होता है मैं बाज़ार में किसी समोसा-कचौड़ी-जलेबी की दुकान पर रूकता हूं........फिर जब हर पीस पर बीसियों मक्खियां भिनभिनाते देखता हूं तो बिना कुछ खरीदे ही वहां से निकल लेता हूं। यह पिछले कुछ महीनों में कईं बार हो चुका है।

यह क्या यह तो मैं अपनी ही रिपोर्ट तैयार करने लग गया। नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है ...टाइम्स आफ इंडिया के इस कॉलम में भी यही बताया गया है कि देश में हर जगह स्ट्रीट फूड बिक रहा है, हम जितनी मरजी ढींगे मार लें, लेकिन इन विक्रेताओं की क्वालिटी कंट्रोल पर कितना नियंत्रण है, यह भी जगजाहिर है। फिर भी यह सब धड़ल्ले से बिकता रहता है, लोग बार बार बीमार, बहुत बीमार होते रहते है।

टाइम्स आफ इंडिया का यह कॉलम मैंने पढ़ा तो है, लेकिन मेरी इंगलिश इतनी अच्छी नहीं है कि मैं सब कुछ अच्छे से समझ लूं। पर जो मैं बात अच्छे से समझ गया हूं यह जो संस्था है फसाई इसे देश की इस तरह के खुले में, धूल मिट्टी में तर-बतर खाद्य पदार्थों की तरफ़ तो देखने की इतनी फुर्सत नहीं है लेकिन बाहर से जो आयात की गई खाने-पीने की वस्तुएं आती हैं .... करोड़ों-अरबों का माल विभिन्न बंदरगाहों पर रूका रहता है क्योंकि इस फसाई संस्था द्वारा कोई न कोई आपत्ति लगी होती है।

"FSSAI was given the mandate to make eating safer. But it is for a reason that trade calls it FaSSAI, HIndi for 'trapped'! "... (from the column) 
और फसाई के साथ मुन्ना भाई लगने का अभिप्राय तो आप जानते ही हैं।

कॉलम में लिखा है किस तरह से इस कार्यालय के अंदर आयात किये जाने वाले खाद्य पदार्थों पर नियंत्रण पर मंथन होता है और उसी दफ्तर के बाहर कुलचे-छोले बेचने वाले से उसी दफ्तर में काम करने वाला बाबू लंच के समय वहीं पर यह सब खाता है और बार बार साथ में हरी मिर्च की फरमाईश करता है।

अच्छा लगा यह कॉलम देख कर, बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता दिखता है।

लगता है आप का ज़ायका तो खराब हो गया यह पढ़ कर......यह बात तो ठीक नहीं है, आज कृष्ण जन्माष्टमी है......शुभ दिन है, ज़ायका अभी ठीक किए देते हैं...... अभी अभी अनूप जलोटा जी के एक कार्यक्रम से लौटा हूं.....एक घंटे से भी ज़्यादा उन्हें लाइव सुनने का सौभाग्य मिला आज .......एक बहुत ही अच्छा अनुभव रहा.....उन के सभी सुप्रसिद्ध भजन सुन कर मज़ा आ गया..........कभी कभी भगवन को भी भक्तों से काम पड़े......

कछुओं की तस्करी......लखनऊ टू मुंबई

लखनऊ में सब्जियां अच्छी मिलती हैं, आम भी अच्छे मिलते हैं, जून-जुलाई के महीने में तो भरमार होती है आमों की..... हर तरफ़ ये आम ही आम दिखते हैं बाज़ारों में।

मैं अकसर कईं बार सोचा करता हूं जिस तरह की सब्जियां या आम यहां दिखते हैं अगर ये बंबई जैसे शहरों में भेजे जाएं तो किसानों या व्यापारियों को काफ़ी मुनाफ़ा हो सकता है।

पता नहीं लखनऊ के कितने आम बंबई पहुंचते हैं या नहीं, लेकिन आज दैनिक जागरण से यह पता तो चल ही गया कि किस तरह से लखनऊ से बंबई दिल्ली जाने वाली पुष्पक एक्सप्रेस में कछुओं की तस्करी रूकने का नाम ही नहीं ले रही।

दो साल में एक हज़ार से ज्यादा कछुए लखनऊ जंक्शन पर पकड़े जा चुके हैं। सोचने वाली बात यह है कि अगर हज़ार पकड़े गये हैं तो कितने हज़ार (या फिर लाख..) तो मुंबई पहुंच चुके होंगे।

परसों इसी गाड़ी के जनरल कोच में २८६ कछुए लावारिस हालत में एक बोरे में बरामद किये गये। इन्हें बाद में चिड़ियाघर में छोड़ दिया गया।

लावारिस तो कहने को हुआ......जिस का होगा, अब वह कैसे कहे कि यह उस का है। वह पट्ठा भाग खड़ा हुआ होगा। सूत्रों का कहना है कि छोटे कछुओं को होटलों में सप्लाई करने के लिए मुंबई ले जाया जाता है।

पता नहीं ये तस्कर क्या करते होंगे इन कछुओं का, लेकिन यह इतना आसान सा षड़यंत्र भी नहीं लगता कि यहां से गये और वहां होटलों में बिक गये। ज़रूर कुछ न कुछ काला रहस्य तो होगा इस कारोबार के पीछे।

मुझे अच्छे से ध्यान में नहीं आ रहा....याद भी बिल्कुल नहीं आ रहा ...लेकिन धुंधला सा याद है कि कहीं पढ़ा था कि ये कछुए विदेशों में बहुत ज़्यादा दामों में बिकते हैं........इन्हें कुछ अनाप-शनाप दवाईयां भी बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है,  मुझे ऐसा ध्यान आ रहा है।

इन जीवों का बंबई जाने पर क्या हश्र होता है ..क्या नहीं होता, लेकिन एक बात तो बहुत अहम् है कि इतने सारे कछुओं को जब उन को प्राकृतिक आवास (natural habitat) से उठा लिया जाता है तो यह पर्यावरण के संतुलन (ecological balance)  को गड़बड़ाने का एक अन्य साधन ही है।

इस तरह से चुराये गये कछुओं का क्या होता है, कुछ आप ने भी कहीं पढ़ा-सुना हो तो कमैंट में लिखियेगा। 

नकली पान मसाले का गोरखधंधा ज़ोरों पर

आज की दैनिक जागरण के लखनऊ संस्करण में एक मुख्य खबर दिखी..... जिस का शीर्षक था... बिक गया तो असली पकड़ा गया तो नकली। और यह खबर नकली पान मसाले के बारे में थी।

पान मसाला कारोबारियों के लिए असली-नकली का खेल मुनाफा कमाने का धंधा बन गया है। जब तक बाजारों में बिना किसी रोक टोक पान मसाला बिकता रहता है, किसी कंपनी को इसकी फिक्र नहीं रहती है लेकिन जैसे ही माल पकड़ा जाता है, उसे नकली करार देने की होड़ शुरू हो जाती है।

इस खबर में इस तरह के अन्य केसों का भी उल्लेख किया गया है, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की जाती।

आप को यह खबर पढ़ कर कैसा लगा। मुझे तो कुछ ज़्यादा अजीब नहीं लगा। जब कारोबारी किसी भी अन्य चीज़ को नहीं बख्शते.......ऐसे में वे पान मसाले जैसी धड़ा-धड़ बिकने वाली वस्तु को कैसे अपने लालच से अछूता रख सकते हैं।
इस तरह की खबरें मैं पहले भी कईं बार देख चुका हूं।

सोच कर भी लगता है कि जो हानिकारक पदार्थ पहले ही से खाने-चबाने वाले की सेहत को बुरी तरह से खराब कर देने की क्षमता रखती हो, उस में भी मिलावट।

इस मिलावट से तो बस वह ध्यान आ गया कि किसी ने नकली ज़हर खा लिया और उस की जान बच गई।

पान मसाला जैसे पदार्थ इसे इस्तेमाल करने वाली की सेहत को जितना बिगाड़ देते हैं ..अब सोचिए कि अगर उस में भी मिलावट हो तो फिर इसे खाने वाले का क्या होगा।

बहरहाल, यह खबर मैंने आप तक ऐसे ही पहुंचा दी --मन किया.....लेकिन यह मेरे को कोई विशेष खबर लगती नहीं है क्योंकि हर पान मसाला खाने-चबाने वाला अच्छे से जानता है कि वह आग से खेल रहा है, फिर भी खेलता है ...और उस आग में मिलावट है या नहीं, इस तरफ़ देखने की फुर्सत ही किसे है। बस गुटखे-पान मसाले की एक हवस है, वह पूरी होनी चाहिए।