आज है अध्यापक दिवस, गुरू उत्सव, टीचर दिवस ..कुछ भी कह लें।
मैंने आज देखा कि सोशल मीडिया पर लोगों ने अपने अपने टीचरों के बारे में लिखा।
मैं भी अपने सभी टीचरों के बारे में लिखना चाहता हूं लेकिन यही डर लगता है कि कहीं किसी का नाम छूट न जाए। अगर एक भी नाम छूट गया तो बहुत नाइंसाफी हो जाएगी।
उस्ताद की लिस्ट ही इतनी लंबी होती है..सब से पहले शुरूआत अपनी मां सब से पहली गुरू...पिता जी अपने गुरू....फिर हर ऐसा आदमी या औरत जो अभी तक ज़िंदगी में मिले और जिन से कुछ न कुछ सीखा।
मैं ऐसा मानता हूं कि हर आदमी या औरत जिस से भी मैं मिलता हूं .....इन में से कोई भी ऐसा नहीं है जिससे मैंने कुछ न कुछ सीखा न हो। हर व्यक्ति विलक्षण है... हर व्यक्ति के पास कुछ ऐसे अनुभव हैं जिस से हम लाभान्वित हो सकते हैं।
फिर भी अपने प्राइमरी टीचर -- पांचवी कक्षा के टीचर का नाम लेने की भी बहुत इच्छा हो रही है... लेकिन लिखूंगा नहीं....कारण आप दो मिनट में समझ जाएंगे, वे मुझे १९७३-७४ में पांचवी एवं छठी कक्षा में पढ़ाते थे। अच्छे से अपने विषयों को पढ़ने में रूचि उन की वजह से ही हुई।
पांचवी कक्षा में जब मेरी छात्रवृत्ति आई तो बहुत अच्छा लगा. 10रूपये महीना तीन साल के लिए .....यह तस्वीर तब की है......यह सब उन मास्टर साहब की मेहनत का परिणाम था। रविवार के दिन भी वे हमें बुलाते मुझे अच्छे से याद है......सरकंडे की कलम तैयार करते हमारे लिए..... फिर हिंदी में सुंदर लिखने के गुर सिखाते....गणित-बीज गणित सब कुछ अच्छे से समझ आ जाता था।
मुझे याद है जब मैं छठी कक्षा में था तो मुझे बीजगणित में थोड़ी मुश्किल आने लगी....कुछ िदन मैंने देखा....एक दिन घर आकर रोने लगा.....मेरे पिता जी ने मेरे मास्टर जी को एक चिट्ठी लिखी थी उर्दू में......और उस दिन से मैं उन मास्टर साहब के पास कुछ महीने के लिए गणित की ट्यूशन रखी....महीने के अंत में मेरे पिता जी उन की ट्यूशन फीस एक लिफाफे में बंद कर के मेरे हाथ भेज दिया करते थे....पच्चीस रूपये महीना।
यह किसी टीचर को उस की फीस भेजने का सलाका भी मैंने उस १२ वर्ष की आयु में अपने पिता जी से ही सीखा....इस मायने में भी वे मेरे गुरू हुए.....अपने बच्चों के टीचरों को फीस खुले में कभी नहीं भेजे.....हमेशा बच्चे लिफाफा ही लेकर जाते रहे।
मैं अपने उस मास्टर जी से उन के अंत तक टच में रहा.....लगभग १५ वर्ष की बात है...... एक बार मैं उन्हें मिला उन के घर जाकर....किसी लेखक शिविर में गया हुआ था.....ढूंढते ढांढते पहुंच गया था उन के घर.. एक बहुत पुराना कंबल लपेटे हुए थे.... और यादाश्त खो चुके थे.....
एक बात लिखनी बड़ी घटिया लग रही है..... बहुत ही घटिया और ओछी सी लग रही है.....लेकिन केवल इसलिए लिख रहा हूं कि अपने टीचरों का हमें हमेशा सम्मान करते रहना चाहिए। वह बात यह है कि वे एक संयुक्त परिवार में रहते थे और मुझे उस दिन उन की स्थिति ऐसी लगी कि उन को भी जेबखर्च मिलना चाहिए।
मैं बड़ी विनम्रता पूर्वक उन्हें हर महीने ५०० रूपये मनीआर्डर करने शुरू कर दिए...... वे उस फार्म पर दस्तखत करने के भी लायक नहीं थे शायद, हमारे मास्टर साहब की श्रीमति जी के उस पर हस्ताक्षर हुआ करते थे। ओ ..हो...मुझे कितना अफसोस हुआ था पता है ...कुछ ही महीने बीतने पर फोन आया था कि मास्टर साहब नहीं रहे।
फिर एक घटिया और ओछी बात अपने बारे में कहता हूं. माफ़ करिएगा......लेकिन फिर भी इसलिए लिख रहा हूं कि पता नहीं कोई इस से प्रेरणा ले ले ........उन के स्वर्गवास के बाद मैंने उन की धर्मपत्नी को भी हर माह ५०० रूपये का मनीआर्डर करना जारी रखा..........लेकिन बेहद अफसोस जनक बात यही कि यह भी सिलसिला कुछ ही महीने चल पाया क्योंकि वे भी कुछ ही महीनों में चल बसीं। मुझे बहुत दुःख हुआ था उस दिन।
मास्टर साहब, से जुड़ी यादें........रौबीला व्यक्तित्व, मजाल कि क्लसा में कोई चूं भी कर जाए...... दोपहर के खाने के वक्त एक छात्र की ड्यूटी लगती कि जाओ बाहर दुकान से २५ पैसे का दही लेकर आओ (१९७३ के दिन) .....अपने खाने के डिब्बे में एक डिब्बा वह घर से दही के लिए खाली ही लाते थे...अच्छा लगता था उन के साथ स्कूल में दिन बिताना।
सब कुछ कल की ही बातें लगती हैं......... फिर स्कूल छोड़ने के बाद भी उन से मेल जोल बरकरार रहा... वह कभी कभी मेरे पिता जी से मिलने आ जाया करते थे.........और मैं बरसों तक उन से वैसे ही डरता था...एक तरह का सम्मान जिस का हम मान-सम्मान करते हैं.. उस से थोड़ा डर कर ही रहते हैं.........बस भाग कर बाज़ार से बिस्कुट, बरफी या समोसा लाना जब वे हमारे यहां आते थे तो अच्छा लगता था, बहुत अच्छा।
थैंक यू.........मास्टर जी।
और हां, एक उस्ताद को कैसे भूल गया.......यह है मेरा बड़ा बेटा......जिस ने मुझे इस लायक बनाया कि मैं यह सब आज नेट पर हिंदी में लिखने लायक हो पाया.......उस को उस की पढ़ाई के दिनों में मैंने बड़ा बोर किया...विशाल, यह कैसे करते हैं, वह कैसे करते हैं, यह बता यार, वह कैसे होगा........खीझ जाता था कईं बार....ईश्वर उसे दीर्घायु दे, स्वस्थ एवं खुश रखे और वह डिजिटल व्लर्ड में आप का मनोरंजन करता रहे। आमीन।
उस के इस योगदान के बारे में मैंने छः वर्ष पहले उस का धन्यवाद किया तो था.......मुझे नेट पर हिंदी में लिखना किस ने सिखाया......
थैंक विशाल, once again, मेरा उस्ताद बनने के िलए.....अपनी पढ़ाई की कीमत चुका कर भी मेरे प्रश्नों के उत्तर ढूंढते रहने के लिए.... तुम हमेशा मेरे उस्ताद ही रहोगे.......थैंक गॉड, उस दिन मैं तुम्हारी बात मान कर अपनी मूंछों पर कालिख पोतने से बचा लिया... when you told me 2-3 years ago......"dad, why all this? It doesn't suit you, must learn to age gracefully." Quite right!!
मैंने आज देखा कि सोशल मीडिया पर लोगों ने अपने अपने टीचरों के बारे में लिखा।
मैं भी अपने सभी टीचरों के बारे में लिखना चाहता हूं लेकिन यही डर लगता है कि कहीं किसी का नाम छूट न जाए। अगर एक भी नाम छूट गया तो बहुत नाइंसाफी हो जाएगी।
उस्ताद की लिस्ट ही इतनी लंबी होती है..सब से पहले शुरूआत अपनी मां सब से पहली गुरू...पिता जी अपने गुरू....फिर हर ऐसा आदमी या औरत जो अभी तक ज़िंदगी में मिले और जिन से कुछ न कुछ सीखा।
मैं ऐसा मानता हूं कि हर आदमी या औरत जिस से भी मैं मिलता हूं .....इन में से कोई भी ऐसा नहीं है जिससे मैंने कुछ न कुछ सीखा न हो। हर व्यक्ति विलक्षण है... हर व्यक्ति के पास कुछ ऐसे अनुभव हैं जिस से हम लाभान्वित हो सकते हैं।
फिर भी अपने प्राइमरी टीचर -- पांचवी कक्षा के टीचर का नाम लेने की भी बहुत इच्छा हो रही है... लेकिन लिखूंगा नहीं....कारण आप दो मिनट में समझ जाएंगे, वे मुझे १९७३-७४ में पांचवी एवं छठी कक्षा में पढ़ाते थे। अच्छे से अपने विषयों को पढ़ने में रूचि उन की वजह से ही हुई।
This photograph is from the 1973 Magazine of DAV Multipurpose Higher Secondary School, Amritsar. |
मुझे याद है जब मैं छठी कक्षा में था तो मुझे बीजगणित में थोड़ी मुश्किल आने लगी....कुछ िदन मैंने देखा....एक दिन घर आकर रोने लगा.....मेरे पिता जी ने मेरे मास्टर जी को एक चिट्ठी लिखी थी उर्दू में......और उस दिन से मैं उन मास्टर साहब के पास कुछ महीने के लिए गणित की ट्यूशन रखी....महीने के अंत में मेरे पिता जी उन की ट्यूशन फीस एक लिफाफे में बंद कर के मेरे हाथ भेज दिया करते थे....पच्चीस रूपये महीना।
यह किसी टीचर को उस की फीस भेजने का सलाका भी मैंने उस १२ वर्ष की आयु में अपने पिता जी से ही सीखा....इस मायने में भी वे मेरे गुरू हुए.....अपने बच्चों के टीचरों को फीस खुले में कभी नहीं भेजे.....हमेशा बच्चे लिफाफा ही लेकर जाते रहे।
मैं अपने उस मास्टर जी से उन के अंत तक टच में रहा.....लगभग १५ वर्ष की बात है...... एक बार मैं उन्हें मिला उन के घर जाकर....किसी लेखक शिविर में गया हुआ था.....ढूंढते ढांढते पहुंच गया था उन के घर.. एक बहुत पुराना कंबल लपेटे हुए थे.... और यादाश्त खो चुके थे.....
एक बात लिखनी बड़ी घटिया लग रही है..... बहुत ही घटिया और ओछी सी लग रही है.....लेकिन केवल इसलिए लिख रहा हूं कि अपने टीचरों का हमें हमेशा सम्मान करते रहना चाहिए। वह बात यह है कि वे एक संयुक्त परिवार में रहते थे और मुझे उस दिन उन की स्थिति ऐसी लगी कि उन को भी जेबखर्च मिलना चाहिए।
मैं बड़ी विनम्रता पूर्वक उन्हें हर महीने ५०० रूपये मनीआर्डर करने शुरू कर दिए...... वे उस फार्म पर दस्तखत करने के भी लायक नहीं थे शायद, हमारे मास्टर साहब की श्रीमति जी के उस पर हस्ताक्षर हुआ करते थे। ओ ..हो...मुझे कितना अफसोस हुआ था पता है ...कुछ ही महीने बीतने पर फोन आया था कि मास्टर साहब नहीं रहे।
फिर एक घटिया और ओछी बात अपने बारे में कहता हूं. माफ़ करिएगा......लेकिन फिर भी इसलिए लिख रहा हूं कि पता नहीं कोई इस से प्रेरणा ले ले ........उन के स्वर्गवास के बाद मैंने उन की धर्मपत्नी को भी हर माह ५०० रूपये का मनीआर्डर करना जारी रखा..........लेकिन बेहद अफसोस जनक बात यही कि यह भी सिलसिला कुछ ही महीने चल पाया क्योंकि वे भी कुछ ही महीनों में चल बसीं। मुझे बहुत दुःख हुआ था उस दिन।
मास्टर साहब, से जुड़ी यादें........रौबीला व्यक्तित्व, मजाल कि क्लसा में कोई चूं भी कर जाए...... दोपहर के खाने के वक्त एक छात्र की ड्यूटी लगती कि जाओ बाहर दुकान से २५ पैसे का दही लेकर आओ (१९७३ के दिन) .....अपने खाने के डिब्बे में एक डिब्बा वह घर से दही के लिए खाली ही लाते थे...अच्छा लगता था उन के साथ स्कूल में दिन बिताना।
सब कुछ कल की ही बातें लगती हैं......... फिर स्कूल छोड़ने के बाद भी उन से मेल जोल बरकरार रहा... वह कभी कभी मेरे पिता जी से मिलने आ जाया करते थे.........और मैं बरसों तक उन से वैसे ही डरता था...एक तरह का सम्मान जिस का हम मान-सम्मान करते हैं.. उस से थोड़ा डर कर ही रहते हैं.........बस भाग कर बाज़ार से बिस्कुट, बरफी या समोसा लाना जब वे हमारे यहां आते थे तो अच्छा लगता था, बहुत अच्छा।
थैंक यू.........मास्टर जी।
उस के इस योगदान के बारे में मैंने छः वर्ष पहले उस का धन्यवाद किया तो था.......मुझे नेट पर हिंदी में लिखना किस ने सिखाया......
थैंक विशाल, once again, मेरा उस्ताद बनने के िलए.....अपनी पढ़ाई की कीमत चुका कर भी मेरे प्रश्नों के उत्तर ढूंढते रहने के लिए.... तुम हमेशा मेरे उस्ताद ही रहोगे.......थैंक गॉड, उस दिन मैं तुम्हारी बात मान कर अपनी मूंछों पर कालिख पोतने से बचा लिया... when you told me 2-3 years ago......"dad, why all this? It doesn't suit you, must learn to age gracefully." Quite right!!
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