अच्छा यार, ज्ञान की बातें बाद में करते हैं...पहले कुछ इधर उधर की बातें करते हैं। पिछले दो तीन दिन से कुछ ऐसी व्यस्तता रही कि सुबह साईक्लिंग करने नहीं जा सका...लिखने पढ़ने के चक्कर में रहा। करना पड़ता है, वह भी ज़रूरी है।
दो दिन पहले मैं एक दिन साईकिल पर शाम को रायबरेली रोड़ पर निकल गया.. मैं आप को बता नहीं सकता कि वह अनुभव कितना बुरा रहा। भारी ट्रैफिक और उतना ही प्रदूषण....ऊपर से उमस....ऐसा लग रहा था कि कहां आ गया...यही लगा कि साईक्लिंग आदि का शौक तो सुबह सवेरे के लिए ही बढ़िया है....एक दम नैसर्गिक वातावरण में। अचानक चलते चलते मैंने पेढ़ देखे ...मैं सैनिक कॉलोनी की तरफ़ मुड़ गया...इतने हरे-भरे पेढ़ कि मुझे लगा जैसे मैं एसी हाल में आ गया ...रूह खुश हो गई.
हां, तो ज्ञान की बातें आज चलेंगी ...यार, एक तो मैं व्हाट्सएप और फेसबुक पर यह ज्ञान से भरी बातों से बड़ा डरता हूं...परसों मैं इतना परेशान हो गया...इतने लंबे लंबे स्पैम मेसेज बार बार ..कभी एक ग्रुप से कभी दूसरे से.......अगर कुछ ग्रुप्स को म्यूट कर के भी रखें तो भी कभी तो बंदिश से तो मैसेज देखने ही पड़ते हैं...अब दोस्तो बंदिश से तो हम लोग अपने मास्टरों के काबू में नहीं आए....इसलिए इतनी ढ़ेर सारी ज्ञान की बातें देख देख कर मेरा तो भाई सिर दुःखने लगता है....अधिकतर तो मैं पढ़ता भी नहीं था, लेकिन स्क्रीन पर इन्हें स्क्रॉल करते करते ही वॉट लगती थी......किसी का मज़ाक उड़ाना अपने को बिल्कुल पसंद नहीं, अपनी ही मूर्खता पर हंसना ठीक लगता है....इसलिए मैं तो अधिकतर वाट्सएप ग्रुपों से बाहर निकल आया....अपने को इतना ज्ञान रास नहीं आता। बस, कुछ परिवार के एवं पुराने कालेज के दिनों के दोस्तों के ग्रुप में ही हाजिर हूं अभी......यार, ये सब कालेज के उन दिनों के जिगरी सहपाठी हैं जब हमें न बात करने की तहज़ीब थी, न ही पतलून डालने का ढंग आता था...हम सब एक ही तरह के थे....डरे सहमे से ....पता नहीं किस कमबख्त से.......इन पुराने बंदों के साथ नखरे नहीं चलते....इन सब को एक दूसरे की साईकिल की हालत तक तो पता रहती थी और वे आज भी याद करते हैं।
हां, अब ज्ञान की असली बात पर आते हैं...आज शाम को भी मैं आदत से मजबूर साईकिल पर घूमने निकल गया...रास्ते में मैंने देखा कि एक चौक पर कुछ लोग कुछ लिटरेचर बांट रहे थे...उन की वेशभूषा से मैं समझ गया कि यह आध्यात्मिक लिटरेचर बांट रहे हैं...मुझे इन्होंने आवाज दी तो मैं भी रूकने लगा....उस बंदे ने कहा कि सेवा है....किताबें मेरी तरफ़ कर के बोला कि सेवा है। साथ में उसने कहा कि सौ रूपये की सेवा है सारे सेट की। अब दोस्तो हम लोगों की मानसिकता है कि सेवा है तो फ्री ही होनी चाहिए....मैं आगे बढ़ गया....बिना इस बात की ज़हमत उठाए कि अकसर किताबें कौन सी हैं।
वापिसी पर फिर वही नज़ारा....बहुत से चार पहिया वाहनों वाले भी मैंने नोटिस किया कि अपने वाहनों की गति धीमी करें, शायद वे भी सौ रूपये वाली बात सुन कर झट से रफ्तार तेज़ कर के आगे निकल जाते। मैंने दो तीन मिनट यह सब देखा ....मैं भी आदत से मजबूर ...रहा नहीं गया. मैंने उनमें से एक बंदे से पूछ ही लिया कि आप इतनी मेहनत कर रहे हैं, कोई खरीदता भी है क्या इन किताबों को ! .. उसने बताया कि अगर सौ लोगों को कहते हैं तो १० या बीस लोग तो ले ही लेते हैं......बता रहे थे कि इन िकताबों में स्वामी प्रभुपाद जी की गीता की व्याख्या भी है। और भी दो तीन सनातन धर्म की किताबें......गीता तो अपने घर में कईं रखी हैं, दूसरी किताबों को देखने की मुझे जिज्ञासा ही नहीं हुई।
गीता घर में तो है....मेरी मां बताती हैं कि मेरे दादा जी गीता का अध्ययन किया करते थे...मेरे जन्म से तीन साल पहले ही वे चल बसे थे...मेरे जीजा भी गीता रोज़ पढ़ते हैं...मां भी अकसर गीता पढ़ती दिखती हैं..
मैंने भी आज से पंद्रह बीस साल पहले बंबई के भारतीय विद्या भवन जो चौपाटी एरिया में है...वहां पर छः महीने के लिए गीता पढ़ने का दाखिला लिया था...हर रविवार को दो घंटे कक्षा लगा करती थी.......पढ़ाते थे अच्छा ...लेकिन मैं तो दो तीन महीने में ही उस कोर्स से भाग निकला.....शायद एक महीना और .......अपने तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता था....मैंने जाना ही बंद कर दिया।
मुझे ऐसे लगता है ..लगता ही नहीं है, विश्वास है कि इस तरह का ईश्वरीय ज्ञान किसी योग्यता का मोहताज नहीं है, यह कृपा का विषय है, बख्शीश का विषय है....बस, यह समय के सत्गुरू के सनिध्य से ही मिल पाता है।
कबीर जी ने कितनी सरतला से कह दिया......पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ...पंडित भया न कोए.....ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होए।।...जितने भी साधु, संत, पीर, फकीर हुए उन्होंने बिल्कुल दो टूक शब्दों में ज्ञान को जन जन तक पहुंचाने का काम किया......उन सब को कोटि कोटि नमन।
ज्ञान चाहे ईश्वरीय हो या दुनियावी ....हम लोग ढीठ हैं.....हम इसे व्यवहार में नहीं लाते। आज दोपहर बाद विविध भारती पर एक पर्यावरण पर सुंदर चर्चा आ रही थी....मेहमान १९५० का दशक याद कर रहा था...उस के नाना नानी दिल्ली में रहते थे...पास की दुकान से कोई सामान लेने जाना होता था तो दुकानदार सामान को अखबार के एक टुकड़े में लपेट कर ऊपर से थोड़ा धागा (जो पास ही खूंटी से लटका रहता था) लपेट कर दे देता। घर आकार ...धागे को वापिस उस के नाना खूंटी पर टांग देते ...अखबार के टुकड़े को बेड़ के नीचे रख दिया जाता कि बाद में काम आ जाएगा...बता रहा था वह बंदा कि कहां गंदगी पैदा हुई और कहां उसने पर्यावरण को दूषित किया! अब देखें तो हर तरफ़ पालीथीन की गंदगी के अंबार लगे हुए हैं। अब आप किसी भी एटीएम मे देख लें, वहीं पर हर तरफ कागजों के ढेर लगे पड़े होते हैं.....शायद अब हम लोगों ने सोचना ही बंद कर दिया है।
स्थिति इतनी भी खराब नहीं है, कभी कभी कुछ अच्छा भी दिख जाता है.....दो दिन पहले हम लोग सब्जी खरीद रहे थे तो देखा कि एक दस वर्ष के करीब का लड़का भी सब्जी खरीदने आया हुआ था...साईकिल पर....जिस तरह से वह एक बड़े से खीरे को खाने का आनंद ले रहा था, देख कर अच्छा लगा....मैंने देखा जब वह एक रेहड़ी से सब्जी लेकर आगे जाने लगता तो अपने खीरे को साईकिल के कैरियर पर दबा देता। आज के मैकरोनी, नूडल्स, बर्गर, पिज़ा के दौर में एक बच्चे को ककड़ी-खाते देख कर बहुत अच्छा लगा......मुझे मौका नहीं मिला, बस मैं उसे इतना ही कहना चाहता था कि बस ककड़ी खीरे को खाने से पहले अच्छे से धो लेना चाहिए। कोई बात नहीं, यह ज्ञान उसे कहीं और से मिल ही जाएगा।
मैं वापिस लौट रहा था तो मुझे मेरे बेटे की पसंदीदा समोसे जलेबी की दुकान दिख गई...मैं लेने गया लेकिन उसने कहा कि आज सामान जल्दी बिक गया है....अभी टाइम लगेगा। मैंने सोचा यहां पर समोसे जलेबियां भी इस गुजिया की तरह ही बनती होंगी.....इतनी जंबो साइज की चासनी टपकाती गुजिया.....
ज्ञान बांटने वालों की कमी नहीं है, गीता के ज्ञान की बात चली तो मुझे रह रह कर आज शाम से यही गीत याद आ रहा था...यह है गीता का ज्ञान ....यह है गीता का ज्ञान ......आगे पीछे कुछ याद नहीं, यू-ट्यूब पर आखिर मिल ही गया......बड़ा रोचक गीत है....आप भी सुनिए......साठ-सत्तर-अस्सी के दशक का कोई हिंदी फिल्मी गीत हम से कैसे छुप सकता है.......और कुछ किया ही नहीं, बस ये गीत ही सुनते रहे ........वरना हम भी बंदे तो काम के..
चलिए, मैं अपनी बक बक बंद कर रहा हूं......आप पूरी तन्मयता से इसे सुनिए..
दो दिन पहले मैं एक दिन साईकिल पर शाम को रायबरेली रोड़ पर निकल गया.. मैं आप को बता नहीं सकता कि वह अनुभव कितना बुरा रहा। भारी ट्रैफिक और उतना ही प्रदूषण....ऊपर से उमस....ऐसा लग रहा था कि कहां आ गया...यही लगा कि साईक्लिंग आदि का शौक तो सुबह सवेरे के लिए ही बढ़िया है....एक दम नैसर्गिक वातावरण में। अचानक चलते चलते मैंने पेढ़ देखे ...मैं सैनिक कॉलोनी की तरफ़ मुड़ गया...इतने हरे-भरे पेढ़ कि मुझे लगा जैसे मैं एसी हाल में आ गया ...रूह खुश हो गई.
हां, तो ज्ञान की बातें आज चलेंगी ...यार, एक तो मैं व्हाट्सएप और फेसबुक पर यह ज्ञान से भरी बातों से बड़ा डरता हूं...परसों मैं इतना परेशान हो गया...इतने लंबे लंबे स्पैम मेसेज बार बार ..कभी एक ग्रुप से कभी दूसरे से.......अगर कुछ ग्रुप्स को म्यूट कर के भी रखें तो भी कभी तो बंदिश से तो मैसेज देखने ही पड़ते हैं...अब दोस्तो बंदिश से तो हम लोग अपने मास्टरों के काबू में नहीं आए....इसलिए इतनी ढ़ेर सारी ज्ञान की बातें देख देख कर मेरा तो भाई सिर दुःखने लगता है....अधिकतर तो मैं पढ़ता भी नहीं था, लेकिन स्क्रीन पर इन्हें स्क्रॉल करते करते ही वॉट लगती थी......किसी का मज़ाक उड़ाना अपने को बिल्कुल पसंद नहीं, अपनी ही मूर्खता पर हंसना ठीक लगता है....इसलिए मैं तो अधिकतर वाट्सएप ग्रुपों से बाहर निकल आया....अपने को इतना ज्ञान रास नहीं आता। बस, कुछ परिवार के एवं पुराने कालेज के दिनों के दोस्तों के ग्रुप में ही हाजिर हूं अभी......यार, ये सब कालेज के उन दिनों के जिगरी सहपाठी हैं जब हमें न बात करने की तहज़ीब थी, न ही पतलून डालने का ढंग आता था...हम सब एक ही तरह के थे....डरे सहमे से ....पता नहीं किस कमबख्त से.......इन पुराने बंदों के साथ नखरे नहीं चलते....इन सब को एक दूसरे की साईकिल की हालत तक तो पता रहती थी और वे आज भी याद करते हैं।
हां, अब ज्ञान की असली बात पर आते हैं...आज शाम को भी मैं आदत से मजबूर साईकिल पर घूमने निकल गया...रास्ते में मैंने देखा कि एक चौक पर कुछ लोग कुछ लिटरेचर बांट रहे थे...उन की वेशभूषा से मैं समझ गया कि यह आध्यात्मिक लिटरेचर बांट रहे हैं...मुझे इन्होंने आवाज दी तो मैं भी रूकने लगा....उस बंदे ने कहा कि सेवा है....किताबें मेरी तरफ़ कर के बोला कि सेवा है। साथ में उसने कहा कि सौ रूपये की सेवा है सारे सेट की। अब दोस्तो हम लोगों की मानसिकता है कि सेवा है तो फ्री ही होनी चाहिए....मैं आगे बढ़ गया....बिना इस बात की ज़हमत उठाए कि अकसर किताबें कौन सी हैं।
वापिसी पर फिर वही नज़ारा....बहुत से चार पहिया वाहनों वाले भी मैंने नोटिस किया कि अपने वाहनों की गति धीमी करें, शायद वे भी सौ रूपये वाली बात सुन कर झट से रफ्तार तेज़ कर के आगे निकल जाते। मैंने दो तीन मिनट यह सब देखा ....मैं भी आदत से मजबूर ...रहा नहीं गया. मैंने उनमें से एक बंदे से पूछ ही लिया कि आप इतनी मेहनत कर रहे हैं, कोई खरीदता भी है क्या इन किताबों को ! .. उसने बताया कि अगर सौ लोगों को कहते हैं तो १० या बीस लोग तो ले ही लेते हैं......बता रहे थे कि इन िकताबों में स्वामी प्रभुपाद जी की गीता की व्याख्या भी है। और भी दो तीन सनातन धर्म की किताबें......गीता तो अपने घर में कईं रखी हैं, दूसरी किताबों को देखने की मुझे जिज्ञासा ही नहीं हुई।
गीता घर में तो है....मेरी मां बताती हैं कि मेरे दादा जी गीता का अध्ययन किया करते थे...मेरे जन्म से तीन साल पहले ही वे चल बसे थे...मेरे जीजा भी गीता रोज़ पढ़ते हैं...मां भी अकसर गीता पढ़ती दिखती हैं..
मैंने भी आज से पंद्रह बीस साल पहले बंबई के भारतीय विद्या भवन जो चौपाटी एरिया में है...वहां पर छः महीने के लिए गीता पढ़ने का दाखिला लिया था...हर रविवार को दो घंटे कक्षा लगा करती थी.......पढ़ाते थे अच्छा ...लेकिन मैं तो दो तीन महीने में ही उस कोर्स से भाग निकला.....शायद एक महीना और .......अपने तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता था....मैंने जाना ही बंद कर दिया।
मुझे ऐसे लगता है ..लगता ही नहीं है, विश्वास है कि इस तरह का ईश्वरीय ज्ञान किसी योग्यता का मोहताज नहीं है, यह कृपा का विषय है, बख्शीश का विषय है....बस, यह समय के सत्गुरू के सनिध्य से ही मिल पाता है।
कबीर जी ने कितनी सरतला से कह दिया......पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ...पंडित भया न कोए.....ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होए।।...जितने भी साधु, संत, पीर, फकीर हुए उन्होंने बिल्कुल दो टूक शब्दों में ज्ञान को जन जन तक पहुंचाने का काम किया......उन सब को कोटि कोटि नमन।
ज्ञान चाहे ईश्वरीय हो या दुनियावी ....हम लोग ढीठ हैं.....हम इसे व्यवहार में नहीं लाते। आज दोपहर बाद विविध भारती पर एक पर्यावरण पर सुंदर चर्चा आ रही थी....मेहमान १९५० का दशक याद कर रहा था...उस के नाना नानी दिल्ली में रहते थे...पास की दुकान से कोई सामान लेने जाना होता था तो दुकानदार सामान को अखबार के एक टुकड़े में लपेट कर ऊपर से थोड़ा धागा (जो पास ही खूंटी से लटका रहता था) लपेट कर दे देता। घर आकार ...धागे को वापिस उस के नाना खूंटी पर टांग देते ...अखबार के टुकड़े को बेड़ के नीचे रख दिया जाता कि बाद में काम आ जाएगा...बता रहा था वह बंदा कि कहां गंदगी पैदा हुई और कहां उसने पर्यावरण को दूषित किया! अब देखें तो हर तरफ़ पालीथीन की गंदगी के अंबार लगे हुए हैं। अब आप किसी भी एटीएम मे देख लें, वहीं पर हर तरफ कागजों के ढेर लगे पड़े होते हैं.....शायद अब हम लोगों ने सोचना ही बंद कर दिया है।
स्थिति इतनी भी खराब नहीं है, कभी कभी कुछ अच्छा भी दिख जाता है.....दो दिन पहले हम लोग सब्जी खरीद रहे थे तो देखा कि एक दस वर्ष के करीब का लड़का भी सब्जी खरीदने आया हुआ था...साईकिल पर....जिस तरह से वह एक बड़े से खीरे को खाने का आनंद ले रहा था, देख कर अच्छा लगा....मैंने देखा जब वह एक रेहड़ी से सब्जी लेकर आगे जाने लगता तो अपने खीरे को साईकिल के कैरियर पर दबा देता। आज के मैकरोनी, नूडल्स, बर्गर, पिज़ा के दौर में एक बच्चे को ककड़ी-खाते देख कर बहुत अच्छा लगा......मुझे मौका नहीं मिला, बस मैं उसे इतना ही कहना चाहता था कि बस ककड़ी खीरे को खाने से पहले अच्छे से धो लेना चाहिए। कोई बात नहीं, यह ज्ञान उसे कहीं और से मिल ही जाएगा।
मैं वापिस लौट रहा था तो मुझे मेरे बेटे की पसंदीदा समोसे जलेबी की दुकान दिख गई...मैं लेने गया लेकिन उसने कहा कि आज सामान जल्दी बिक गया है....अभी टाइम लगेगा। मैंने सोचा यहां पर समोसे जलेबियां भी इस गुजिया की तरह ही बनती होंगी.....इतनी जंबो साइज की चासनी टपकाती गुजिया.....
ज्ञान बांटने वालों की कमी नहीं है, गीता के ज्ञान की बात चली तो मुझे रह रह कर आज शाम से यही गीत याद आ रहा था...यह है गीता का ज्ञान ....यह है गीता का ज्ञान ......आगे पीछे कुछ याद नहीं, यू-ट्यूब पर आखिर मिल ही गया......बड़ा रोचक गीत है....आप भी सुनिए......साठ-सत्तर-अस्सी के दशक का कोई हिंदी फिल्मी गीत हम से कैसे छुप सकता है.......और कुछ किया ही नहीं, बस ये गीत ही सुनते रहे ........वरना हम भी बंदे तो काम के..
चलिए, मैं अपनी बक बक बंद कर रहा हूं......आप पूरी तन्मयता से इसे सुनिए..