आज 14 नवंबर को विश्व मधुमेह दिवस के अवसर पर उत्तर रेलवे मंडल चिकित्सालय लखनऊ में समस्त स्टॉफ एवं मरीज़ों के लिए इस रोग से संबंधित जागरूकता बढ़ाने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया जिस की अध्यक्षता मुख्य चिकित्सा अधीक्षिका डा विश्वमोहिनी सिन्हा ने की और डा अमरेन्द्र कुमार एवं डा संदीप कुमार ने इस रोग से संबंधित बहुत सी जानकारी साझा करी।
डा संदीप कुमार, फ़िज़िशयन |
डा संदीप कुमार ने इस रोग की उत्पति के बारे में, इस के इतिहास के बारे में और इस के इलाज में इस्तेमाल होने वाली इंसुलिन दवाई के विकास के बारे में बताया ... और डा अमरेन्द्र ने भी इस रोग के लक्षणों, बचाव एवं उपचार के बारे में बहुत अच्छे से आम बोलचाल की भाषा में बताया जिस से सभी लाभान्वित हुए।
एक बात हम सोच लेते हैं कि आज के युग में ऐसे जागरूकता कार्यक्रमों का औचित्य क्या है, सब कुछ तो सोशल मीडिया पर हमें मिलता ही रहता है ... लेकिन जो जानकारी हमें सोशल मीडिया पर हासिल हो रही है उस की विश्वसनीयता के बारे में आप सब जानते ही हैं ....किस तरह से वे कुछ भी चमत्कारी इलाज को प्रोत्साहन देने लगते हैं ...आप ने भी तो कईं बार देखा होगा कि फलां फलां बीज पीस कर इतने दिन खा लीजिए, बस पुरानी से पुरानी डायबीटीज़ हमेशा के लिए ख़त्म....वास्तविकता यह है कि इन सब टोटकों से कुछ नहीं होता....बस, नीम हकीमों और झोलाछाप डाक्टर अपना उल्लू सीधा करते हैं और मरीज़ की हालत बद से बदतर हो जाती है ...इस लिए इस तरह के जागरूकता कार्यक्रमों की बहुत ज़रूरत होती है ...जहां पर ऐसे वरिष्ठ चिकित्सक जिन का बीसियों सालों का तजुर्बा रहता है ऐसे मरीज़ों के इलाज का ...जब वे एक घंटे के लिए अपने अनुभव साझा कर रहे होते हैं तो उन की हर बात को ध्यान से सुन कर गांठ बांध की ज़रूरत होती है।
डा अमरेन्द्र कुमार, चीफ़ फ़िज़िशियन |
इस जागरूकता कार्यक्रम में बहुत कुछ सुनने-समझने का मौका मिला ...उन सब को इस ब्लॉग पर समेटना संभव नहीं है ..लेकिन कुछ बहुत अहम् बिंदुओं की बात करते हैं जिन पर विशेष ज़ोर दिया गया ...
पंद्रह दिन में मधुमेह ख़त्म
अकसर इस तरह की बातें आपने सुनी होंगी कि फलां फलां बंदे को मधुमेह था, उसने पंद्रह दिन कोई देशी दवाई खाई - पता उसे भी नहीं होता कि उसने दवाई के नाम पर क्या खाया, लेकिन फिर उस की शूगर की बीमारी सदा के लिए ख़त्म हो गई। यह सब निराधार बाते हैं ...ऐसा कुछ नहीं होता ...यह असंभव है ... यह भोली भाली जनता को अपने जान में फांसने के तरीके हैं, और कुछ नहीं ...जहां पर इस तरह की बातें सुनें, उन का खंड़न करें और उन्हें प्रशिक्षित चिकित्सक से ही संपर्क करने को कहें।
अंग्रेज़ी दवाई एक बार ली तो सारी उम्र लेनी पड़ेगी
अकसर लोग को यह भी कहते हैं कि शूगर के इलाज के लिए अंग्रेज़ी दवाई एक बार लेनी शुरू कर दी तो फिर सारी उम्र लेनी पड़ेगी ...इसलिए कुछ लोग देशी टोटकों और नीम हकीमों के चक्कर में पड़ कर अपनी सेहत बिगाड़ लेते हैं। इन सब से कुछ नहीं होता, ऐसी कोई दवाई अभी तक नहीं बनी है जो इस रोग को जड़ से ख़त्म कर दे, लेकिन, हां, समुचित प्रशिक्षित चिकित्सक की देखरेख में होने वाले इलाज से इस रोग को कंट्रोल ज़रूर किया जा सकता है और इस के लिए मरीज़ को अपनी जीवनशैली को भी सुधारना होगा ....चाहे वे खाने पीने की आदते हैं या शारीरिक परिश्रम करने की आदतें हों।
शूगर का लेवल 500 से 200 आ गया तो चलता है
अकसर हम लोग देखते सुनते हैं कि जिन मरीज़ों का शूगर का स्तर पहले बहुत बड़ा हो जैसे की 400, 500 (मि.ग्रा %) और इलाज करने के बाद जब वह दो-ढ़ाई सौ तक आ जाए तो उन्हें लगता है कि इतना तो चलता है, कहां 500 थी पहले और अब तो नीचे आ ही गई है . ..ऐसे में वे अपनी दवाई की लापरवाही करने लगते हैं , बदपरहेजी होने लगती है ...लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि नहीं, 200 भी ज़्यादा है ....शूगर के इतने स्तर से भी इस रोग के टारगेट अंगों पर होने वाले बुरे असर निरंतर होते रहते हैं .... इस का मतलब यह है कि लक्ष्य पूरे कंट्रोल का होना चाहिए - जैसा कि इस कार्यक्रम में भी बताया गया।
इंसुलिन का टीका लगवाना तो झंझट है
लोगों में यह भ्रांति घर कर चुकी है कि शूगर के रोग के इलाज के लिए पहले तो खाने वाली गोलियों से काम चलाया जायेगा लेकिन अगर वे काम नहीं करेंगी तो ही इंसुलिन का टीका लेना होगा ...ऐसा नहीं है, ये सब फ़ैसले प्रशिक्षित चिकित्सक ने करने होते हैं ...यह काम उन का है, उन पर छोड़िए... हो सकता है कि मधुमेह के इलाज की शुरूआत ही इंसुलिन से हो और हो सकता है कि इसे बाद में इस्तेमाल किए जाने वाले विकल्प की तरह इस्तेमाल किया जाए। और एक बात यह कि अब तो इंसुलिन की दवाई के लिए लगने वाले टीके पेन की शेप में आने लगे हैं जिन को लगाते समय पता ही नहीं लगता।
रेलवे अस्पताल लखनऊ में सभी दवाईयां उपलब्ध
डा अमरेन्द्र ने कहा कि लोगों के मन में एक भ्रांति यह भी घर कर चुकी है कि सरकारी अस्पतालों में इस रोग की दवाईयां पता नहीं कैसी मिलती हों, कैसी न मिलती हों...लेकिन ऐसी बात नहीं है, उत्तर रेलवे के अस्पताल में वे सभी दवाईयां जो आज विश्व भर में इस रोग के लिए इस्तेमाल हो रही हैं, उपलब्ध है, श्रेष्ठ गुणवत्ता की हैं और पूर्णतयः कारगर हैं।
नियमित जांच जरूरी है
मधमेह की नियमित जांच के साथ साथ तीन महीने के अंतराल पर गलाईकोसेटिड हीमोग्लोबिन टेस्ट करवाना चाहिए ... हर छः महीने पर ईसीजी और हर साल इको-टेस्ट होना चाहिए, छःमहीने के बाद अपनी आंखों की जांच करवानी चाहिए, और गुर्दे की कार्य-प्रणाली की जांच हेतु भी ब्लड-यूरिया एवं सिरम क्रिएटिनिन जैसी जांचें करवानी ज़रूरी हैं। अपने पैरों की नियमित जांच करते रहें, आरामदेय जूता पहनें और नाखुन काटते वक्त ध्यान दें कि ज्यादा गहरे न काट दें...
डा अमरेन्द्र ने अपने व्यक्तव्य में इस बात पर जो़र दिया कि शूगर के रोगी का इलाज करना केवल डाक्टर के हाथ ही में नहीं होता ... उस के लिए पैरामैडीकल स्टॉफ, रोगी के परिवारीजन और उसे स्वयं इस में एक सक्रिय भूमिका निभाने की ज़रूरत है ....इस रोग की तरह लेकर मायूस न हुआ जाए ..बस, इस के लिए सहज रूप में अपनी जीवनशैली में बदलाव किए जाएं, दवाई को समय पर लिया जाए और समय समय पर विभिन्न जांचें करवाई जाएं।
मधुमेह नामक इस महामारी की व्यापकता का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जितने मरीज़ों को यह तकलीफ़ है, उतने ही लोगों को यह पता नहीं है कि उन्हें यह रोग नहीं है,..कहने का भाव यह है कि दो में से एक मरीज़ को ही पता है कि उसे यह रोग है। इसलिए इस तरह के जागरूकता कार्यक्रमों को नियमित आयोजित किया जाना नितांत ज़रूरी है ...और वैसे भी रेलवे में थोड़े थोड़े अंतराल के बाद चिकित्सा शिविर लगते रहते हैं जिस में लोगों की ब्लड-शूगर जांच भी की जाती है।
जागरूकता कार्यक्रम के समापन सत्र में मुख्य चिकित्सा अधीक्षिका डा. विश्व मोहिनी सिन्हा ने भी इंसुलिन की उत्पति के बारे में और इस के बारे में व्याप्त भ्रांतियों की तरफ़ इशारा किया.... उन्होंने कहा कि मीठा खाना मना है .......लेकिन मीठा बोलना बहुत ज़रूरी है ...उन्होंने सभी चिकित्साकर्मियों को प्रेरित किया कि वे अपने बोलचाल का लहज़ा नरम रखें, मृदुभाषी बनें जिस से की मरीज़ों का मनोबल बढ़े।
मुख्य चिकित्सा अधि. डा विश्व मोहिनी सिन्हा -समापन-सत्र के दौरान |
मैं वैसे अपने ब्लॉग में इतनी भारी भरकम बातें कम ही करता हूं ...आज मौका था, ऐसा करना ज़रूरी था.... चलिए, माहौल को थोड़ा हल्का करते हैं ...कुछ दिन पहले मैं एक पंजाबी विरासती मेले में था वहां पर मुझे मेरे गृह-नगर अमृतसर से आईं गुरमीत बावा और उन की बेटियों को सुनने का मौका मिला .... लो जी सुनते हैं उन के द्वारा पेश की गईं पंजाबी बोलियां .... गुरमीत बावा अब 75 साल की हैं, 53 साल से पंजाबी लोकगीत गा रही हैं ....और 50 साल से मैं इन्हें सुन रहा हूं, और इन की गायकी का मुरीद हूं ....बचपन में रेडियो पर, फिर टीवी पर ...उस के बाद जहां भी इन का कार्यक्रम होता, वहीं पहुंच जाता ....आप भी सुनिए....