दिन १७ फरवरी, २०१८ (इतवार)
१७ फरवरी इतवार के दिन हम लोग गु़ड़गांव में थे ...यह सूरज कुंड मेले का आखिरी दिन भी था...यह बहुत बड़ा मेला है उस एरिये का ...पिछले ३० बरसों से तमन्ना थी कि सूरज कुंड मेला देखने जाना है ...
उस दिन भी हमें गुड़गांव से निकलते निकलते दोपहर के एक बज गये ... मेट्रो रूट बडा़ आड़ा-तिरछा था ...इसलिए ऊबर कैब से सूरज कुंड के लिए निकले- पूरा एक घंटा लगा, और किराया? - 450 रूपये।
रास्ते में एक जगह कूडे़-कर्कट का इतना बडा़ पहाड़ था कि हैरानी हुई कि यह क्या है...यकीन मानिए कूड़े का इतना बड़ा पहाड़ मैंने पहली बार देखा था ...
और यह क्या...रास्ते में जगह जगह पहाड़ों के पत्थर कटे दिखे ..माइनिंग ... और पहाड़ों से पत्थर काट के कंकरीट के जंगल भी आस पास बनते दिखे जिन्हें देख कर ज़रा भी ख़ुशी नहीं हुई...और बहुत से पत्थर दीवारों में लगे दिखे ...ज़ाती तौर पर मुझे यह सब अजीब लगता है ....वही बात है, अगर मुझे ऐसा लगता है तो यह मेरा मसला है ... और क्या!
जैसे हम लोग सूरज कुंड मेले के एक गेट से अंदर गए, टिकट काउंटर की तरफ़ बढ़े ... टिकट के जो रेट लिखे हुए थे उन्हें देख कर ख़ासी हैरानी हुई हमें .. एक टिकट के १८० रूपये ...और सीनियर सिटिज़न के ९० रूपये ...कुछ लोगों के लिए मुफ्त थी एंट्री - जैसे कि युद्ध में शहीद हुई जवानों की बेवाओं के लिए....यह बात तो ठीक थी, लेकिन वैसे टिकट का रेट इतना ज़्यादा होने की बात अजीब सी लगी .... टिकट का इतना रेट होने के बावजूद भी काफी भीड़ थी वहां पर ...लेकिन मुझे लगता है कि शायद इतना रेट भी भीड़ कम करने के लिए ही रखा होगा ...मेरा ख्याल है ... लेकिन टिकट इतनी होनी चाहिए कि हर कोई आसानी से सहन कर सके ....और हां, जो लोग अपने मोबाइल पर आनलाईन टिकट खरीद रहे थे, उन्हें एक टिकट पर २० रूपये की छूट मिल रही थी ...और एंट्री में क्यू-ऑर कोड़ को स्कैन कर के ही एंट्री हो रही थी ...
सहन करने से बात याद आ गई ...कुछ दिन पहले मैं ट्रेन से यात्रा कर रहा था ..पास की सीट से एक समाज सेवक टाइप शख्स की बातें कानों में पड़ रही थी ...बड़ी लंबी लंबी हांक रहा था .... अपने साथी को कह रहा था कि फलां फलां लोगों का यह काम करवाता है, वह मदद करता है ...और इस के लिए कह रहा था कि मैं किसी के कुछ मांगता नहीं हूं....बस, जब काम हो जाए तो उस बंदे को कहता हूं कि मुझे तुम इतना दो कि तुम्हें भी न पता चले। मैं समझ गया कि यह भी कोई पहुंचा हुआ खिलाड़ी है ...
हां, तो सूरज कुंड मेले के अंदर जाने से पहले अच्छे से सिक्योरिटी जांच होती है ...लेड़ीज़ के पर्स तक खोल कर चैक किये जाते हैं...ज़रूरी है यह सब ....अंदर बिल्कुल गांव जैसा माहौल ....बिल्कुल वैसी दुकानें ...देश से और कुछ परदेस से भी आये लोगों ने दुकानें लगाई हुई थीं...सब कुछ बिक रहा था ...हैंडीक्राफ्टस, साडियां, सूट, कुरते....फर्नीचर ...कालीन-गलीचे ....सब कुछ जो हम लोग अकसर हम अपने अपने शहरों में मेलों में देखते हैं ..लेकिन यहां बहुत व्यापक स्तर पर ...
इस से पहले कि मैं भूल जाऊं ...यह भी दर्ज कर दूं कि मेले में पर्याप्त मात्रा में साफ़-सुथरे वॉश-रूम थे ....अच्छी लगी यह व्यवस्था ...और जो अपने से बिछुड़ गए थे उन के बारे में भी सूचना लाउड-स्पीकर पर सुनाई दे रही थी...
खाने-पीने की चीज़ें भी देश के अलग अलग हिस्सों से बिक रही थीं ..कुछ मॉड चीज़ें भी ...ज्यादा तो अपने पास वक्त नहीं था ..दो बजे तो पहुंचे ही थे और अंधेरा पड़ते ही निकलना ही था ...एक जगह पर एक अजीबोगरीब स्टाल दिख गया ... पोटैटो-टॉरनेडो (Potato Tornado) ....स्टाल वाला एक आलू के बारीक स्लाईस काट कर एक लकड़ी की डंडी (तीले) पर पिरो कर उन्हें आग पर सेंक कर (एक मॉड मशीन पर ), चटनी लगा कर १०० रूपये में बेच रहा था ...एक पूरे खानदान को इस पोटैटो-टॉरनेडो के ज़ायके से लुत्फ़ अंदोज़ होते देखा ...
और यह क्या, बड़ी अच्छी बीट्स आ रही थी .... बचपन के ज़माने से एक फेवरेट गीत जो अकसर गली-मोहल्लों पर लाउड-स्पीकरों पर, राम लीला के दिनों में राम लीला से पहले और अकसर रेडियो पर भी खूब बजा करता था ...दुनिया का मेला, मेले में लड़की...लड़की अकेली...शन्नो नाम उसका .....😆
इन लोक-कलाकारों की प्रस्तुति लोगों को बहुत आकर्षित कर रही थी ..और लोग अपनी खुशी से कुछ रूपये दे कर इन कलाकारों की हौंसलाफ़जाई भी कर रहे थे ...मैंने भी एक मिनट की वीडियो बनाई जिसे ऊपर एम्बेड किया है ...
और क्या क्या गिनाएं ....मेले में बहुत कुछ चल रहा था ... एक जगह पर बाइस्कोप वाला भी खड़ा था ...और साथ में एक गाना भी बज रहा था ...गाना उस से मेल नहीं खा रहा था...उस देखते ही हमें तो वही अपने ज़माने का सुपरहिट गाना ही याद आ गया ...देखो ..देखो ....देखो ..बाईस्कोप देखो, पुराने बहुत से गीतों की तरह यह गीत भी हमें बहुत पसंद है ...
अरे वाह, यह क्या ...बहुत से कट-आउट लगे हुए थे ...भारतीय नृत्य करने वाली महिलाओं की मुद्रा में ...लकड़ी के कट-आउट में से चेहरे वाली जगह काट रखी थी ..वहां पर महिलाएं बारी बारी से खड़ी होकर अपनी फोटू खिंचवा कर खुश हो रही थीं...
और हां, एक बात कि कईं जगह पर भारत की लोक-कलाओं का प्रदर्शन चल रहा था ...बहुत से स्टेज थे ...एक जगह मराठी नृत्य होने लगा तो शायद दिल्ली की ही रहने वाली एक मॉड-दिखने वाली लड़की ने अपने साथी को इशारा किया कि हो जाओ शुरू और रिकार्डिंग करें ....उसने भी उन लोक-नृत्य में उन कलाकारों के साथ जम कर डांस किया ...
मेला तो इतना फैला हुआ था कि हम लोग शायद १०-२० फ़ीसदी ही देख पाए होंगे ...आखिरी दिन था, इसलिए कोई रंगारंग कार्यक्रम नहीं था उस दिन ....लिस्ट देखी तो पता चला कि मेरा फेवरेट पंजाबी प्रोग्राम और रफ़ी साहब, किशोर और मुकेश के गीतों पर आधारित प्रोग्राम तो १३ तारीख को हो चुका है ....थोड़ा फ़ील हुआ ...
वैसे मैंने एक बात देखी मेले में कि ठीक है जश्न का माहौल होता है ...खाने पीने की मौज, खरीदारी के मौके ....लेकिन अकसर हम लोग किसी मेले में ऐसे जाते हैं जैसे मेले में जश्न मनाने नहीं आए ....बस, खरीदारी करना ही जैसे ध्येय हो ...वैसे यह तो ज़ाती मामला है ...लेकिन मैं अपनी बात कह रहा था कि मैं तो चाहूंगा कि इस तरह के मेले में पूरा दिन बिताऊं ...जहां मन करे बैठ जाऊं...जब मन करूं फिर से चल दूं...और मुझे ऐसे लगता है कि पंद्रह दिन चलने वाले इस मेले में कम से कम दो दिन तो ज़रूर आना ही चाहिए ..
इस तरह के मेले में आकर पता चलता है कि हमारे मुल्क में भी कितनी विविधता है ....इस के एक छोटे से अंश से ही हम वाक़िफ़ हैं ...बैंकाक, नियाग्रा, दुबई जाने से पहले काश हम अपने लोगों और उन के हुनर के बारे में जान कर मंत्रमुग्ध तो हो लें...
अब साढ़े छः बज रहे थे ...वापिस लौटने का वक्त हो चला था ...मेले का आखिरी दिन ...और साथ में इतवार ...खूब ट्रैफ़िक-जाम, और टैक्सी मिलना भी बहुत मुश्किल था ... किसी ने कहा कि वह देखिए बस गुड़गांव जा रही है ..हम लोग उस में बैठ गये, सीटें थीं. वह दिल्ली के रास्ते गुड़गांव के लिए चल पड़ी ...डेढ़ घंटे लगे उसे भी गुड़गांव पहुंचने में .... उस बस का दरवाजा नहीं था, इसलिए खूब़ ठंड़ी हवा लग रही थी ....एक यात्री की टिकट ३० रूपये !
पोस्ट को बंद करते वक्त एक गाना तो लगाना ही है ...उस को ही लगा देते हैं जिस की टयून पर वे लोक कलाकार नाच रहे थे ...दुनिया का मेला, मेले में लड़की .....लड़की अकेली...शन्नो नाम उस का!!
१७ फरवरी इतवार के दिन हम लोग गु़ड़गांव में थे ...यह सूरज कुंड मेले का आखिरी दिन भी था...यह बहुत बड़ा मेला है उस एरिये का ...पिछले ३० बरसों से तमन्ना थी कि सूरज कुंड मेला देखने जाना है ...
उस दिन भी हमें गुड़गांव से निकलते निकलते दोपहर के एक बज गये ... मेट्रो रूट बडा़ आड़ा-तिरछा था ...इसलिए ऊबर कैब से सूरज कुंड के लिए निकले- पूरा एक घंटा लगा, और किराया? - 450 रूपये।
रास्ते में एक जगह कूडे़-कर्कट का इतना बडा़ पहाड़ था कि हैरानी हुई कि यह क्या है...यकीन मानिए कूड़े का इतना बड़ा पहाड़ मैंने पहली बार देखा था ...
पत्थर पहाड़ों से काट कर ...दीवारों पर लगाये जा रहे हैं... |
जैसे हम लोग सूरज कुंड मेले के एक गेट से अंदर गए, टिकट काउंटर की तरफ़ बढ़े ... टिकट के जो रेट लिखे हुए थे उन्हें देख कर ख़ासी हैरानी हुई हमें .. एक टिकट के १८० रूपये ...और सीनियर सिटिज़न के ९० रूपये ...कुछ लोगों के लिए मुफ्त थी एंट्री - जैसे कि युद्ध में शहीद हुई जवानों की बेवाओं के लिए....यह बात तो ठीक थी, लेकिन वैसे टिकट का रेट इतना ज़्यादा होने की बात अजीब सी लगी .... टिकट का इतना रेट होने के बावजूद भी काफी भीड़ थी वहां पर ...लेकिन मुझे लगता है कि शायद इतना रेट भी भीड़ कम करने के लिए ही रखा होगा ...मेरा ख्याल है ... लेकिन टिकट इतनी होनी चाहिए कि हर कोई आसानी से सहन कर सके ....और हां, जो लोग अपने मोबाइल पर आनलाईन टिकट खरीद रहे थे, उन्हें एक टिकट पर २० रूपये की छूट मिल रही थी ...और एंट्री में क्यू-ऑर कोड़ को स्कैन कर के ही एंट्री हो रही थी ...
सहन करने से बात याद आ गई ...कुछ दिन पहले मैं ट्रेन से यात्रा कर रहा था ..पास की सीट से एक समाज सेवक टाइप शख्स की बातें कानों में पड़ रही थी ...बड़ी लंबी लंबी हांक रहा था .... अपने साथी को कह रहा था कि फलां फलां लोगों का यह काम करवाता है, वह मदद करता है ...और इस के लिए कह रहा था कि मैं किसी के कुछ मांगता नहीं हूं....बस, जब काम हो जाए तो उस बंदे को कहता हूं कि मुझे तुम इतना दो कि तुम्हें भी न पता चले। मैं समझ गया कि यह भी कोई पहुंचा हुआ खिलाड़ी है ...
हां, तो सूरज कुंड मेले के अंदर जाने से पहले अच्छे से सिक्योरिटी जांच होती है ...लेड़ीज़ के पर्स तक खोल कर चैक किये जाते हैं...ज़रूरी है यह सब ....अंदर बिल्कुल गांव जैसा माहौल ....बिल्कुल वैसी दुकानें ...देश से और कुछ परदेस से भी आये लोगों ने दुकानें लगाई हुई थीं...सब कुछ बिक रहा था ...हैंडीक्राफ्टस, साडियां, सूट, कुरते....फर्नीचर ...कालीन-गलीचे ....सब कुछ जो हम लोग अकसर हम अपने अपने शहरों में मेलों में देखते हैं ..लेकिन यहां बहुत व्यापक स्तर पर ...
इस से पहले कि मैं भूल जाऊं ...यह भी दर्ज कर दूं कि मेले में पर्याप्त मात्रा में साफ़-सुथरे वॉश-रूम थे ....अच्छी लगी यह व्यवस्था ...और जो अपने से बिछुड़ गए थे उन के बारे में भी सूचना लाउड-स्पीकर पर सुनाई दे रही थी...
खाने-पीने की चीज़ें भी देश के अलग अलग हिस्सों से बिक रही थीं ..कुछ मॉड चीज़ें भी ...ज्यादा तो अपने पास वक्त नहीं था ..दो बजे तो पहुंचे ही थे और अंधेरा पड़ते ही निकलना ही था ...एक जगह पर एक अजीबोगरीब स्टाल दिख गया ... पोटैटो-टॉरनेडो (Potato Tornado) ....स्टाल वाला एक आलू के बारीक स्लाईस काट कर एक लकड़ी की डंडी (तीले) पर पिरो कर उन्हें आग पर सेंक कर (एक मॉड मशीन पर ), चटनी लगा कर १०० रूपये में बेच रहा था ...एक पूरे खानदान को इस पोटैटो-टॉरनेडो के ज़ायके से लुत्फ़ अंदोज़ होते देखा ...
और यह क्या, बड़ी अच्छी बीट्स आ रही थी .... बचपन के ज़माने से एक फेवरेट गीत जो अकसर गली-मोहल्लों पर लाउड-स्पीकरों पर, राम लीला के दिनों में राम लीला से पहले और अकसर रेडियो पर भी खूब बजा करता था ...दुनिया का मेला, मेले में लड़की...लड़की अकेली...शन्नो नाम उसका .....😆
इन लोक-कलाकारों की प्रस्तुति लोगों को बहुत आकर्षित कर रही थी ..और लोग अपनी खुशी से कुछ रूपये दे कर इन कलाकारों की हौंसलाफ़जाई भी कर रहे थे ...मैंने भी एक मिनट की वीडियो बनाई जिसे ऊपर एम्बेड किया है ...
दिल्ली का कुतुब मीनार देखो... |
अरे वाह, यह क्या ...बहुत से कट-आउट लगे हुए थे ...भारतीय नृत्य करने वाली महिलाओं की मुद्रा में ...लकड़ी के कट-आउट में से चेहरे वाली जगह काट रखी थी ..वहां पर महिलाएं बारी बारी से खड़ी होकर अपनी फोटू खिंचवा कर खुश हो रही थीं...
और हां, एक बात कि कईं जगह पर भारत की लोक-कलाओं का प्रदर्शन चल रहा था ...बहुत से स्टेज थे ...एक जगह मराठी नृत्य होने लगा तो शायद दिल्ली की ही रहने वाली एक मॉड-दिखने वाली लड़की ने अपने साथी को इशारा किया कि हो जाओ शुरू और रिकार्डिंग करें ....उसने भी उन लोक-नृत्य में उन कलाकारों के साथ जम कर डांस किया ...
मेला तो इतना फैला हुआ था कि हम लोग शायद १०-२० फ़ीसदी ही देख पाए होंगे ...आखिरी दिन था, इसलिए कोई रंगारंग कार्यक्रम नहीं था उस दिन ....लिस्ट देखी तो पता चला कि मेरा फेवरेट पंजाबी प्रोग्राम और रफ़ी साहब, किशोर और मुकेश के गीतों पर आधारित प्रोग्राम तो १३ तारीख को हो चुका है ....थोड़ा फ़ील हुआ ...
मैंने सोचा कि एक फोटू तो मैं भी खिंचवा ही लूं... |
इस तरह के मेले में आकर पता चलता है कि हमारे मुल्क में भी कितनी विविधता है ....इस के एक छोटे से अंश से ही हम वाक़िफ़ हैं ...बैंकाक, नियाग्रा, दुबई जाने से पहले काश हम अपने लोगों और उन के हुनर के बारे में जान कर मंत्रमुग्ध तो हो लें...
अब साढ़े छः बज रहे थे ...वापिस लौटने का वक्त हो चला था ...मेले का आखिरी दिन ...और साथ में इतवार ...खूब ट्रैफ़िक-जाम, और टैक्सी मिलना भी बहुत मुश्किल था ... किसी ने कहा कि वह देखिए बस गुड़गांव जा रही है ..हम लोग उस में बैठ गये, सीटें थीं. वह दिल्ली के रास्ते गुड़गांव के लिए चल पड़ी ...डेढ़ घंटे लगे उसे भी गुड़गांव पहुंचने में .... उस बस का दरवाजा नहीं था, इसलिए खूब़ ठंड़ी हवा लग रही थी ....एक यात्री की टिकट ३० रूपये !
पोस्ट को बंद करते वक्त एक गाना तो लगाना ही है ...उस को ही लगा देते हैं जिस की टयून पर वे लोक कलाकार नाच रहे थे ...दुनिया का मेला, मेले में लड़की .....लड़की अकेली...शन्नो नाम उस का!!