अगर इस पोस्ट को पढ़ने वाले डाकखाने, बैंक, बिजली बोर्ड के दफ्तर या किसी की सरकारी कार्यालय में स्वयं जाते हैं तो वे मेरी बातों से अच्छे से रिलेट कर पाएंगे ..वरना जो सभी कामों के लिए अपने चपरासियों पर आश्रित हैं, वे कृपया इसे पढ़ने में अपना समय व्यर्थ न गवाएं...
बैंक से बात याद आई...कुछ साल पहले हमारे एक सीनियर ने हमें एक बार अच्छे से समझा दिया कि लोग अपने जिस चपरासी को अकसर अपनी बैंक का पास-बुक थमा देते हैं ...जाओ एंट्री करवा आओ, पैसे निकलवा लाओ...ऐसे लोग ही आप के लिए सब से बड़े विजिलेंस इंस्पैक्टर होते हैं ...उन दिनों पैसे भी ये चपरासी लोग ही निकलवा कर लाया करते थे...एटीएम चले नहीं थे...उन्होंने बताया कि आप की हर ट्रांजेक्शन पर हर एंट्री पर उन की नज़र होती है..
यार, बात तो डा मिट्टू साहब की मन को छू गई..और पल्ले बांध के गांठ बांध ली...
बैंक में अपना काम है तो ज़ाहिर सी बात है कि खुद ही जाना पड़ेगा... लेकिन बहुत बार कापी प्रिंट करने वाला बाबू नहीं होता, वह होता है तो प्रिंटर बीमार होता है , दोनों अपनी जगह पर तने हुए हैं तो नेटवर्क गायब होता है ...बेशक सिरदर्दी तो हो गई है ...लेेकिन कुछ तकलीफ़े सहने के लिए ही होती हैं..आप अपने पास ही खड़े ८० साल के बेबस बुज़ुर्ग को पसीना पोंछते देखते हैं तो आप को भी बिना किसी चूं-चपड़ के चुपचाप खड़े रहने की एक वजह मिलती है....मुझे आप का तो पता नहीं, लेकिन मेरे साथ ऐसा ही होता है...
डाकखाने में गये तो स्पीड पोस्ट खत उस समय बुक किया जाएगा या नहीं...वही समस्याएं अभी तो दूसरा काम फंसा हुआ है, प्रिंटर में दिक्कत, नेटवर्क लोचा, मुझे कईं बार यह अहसास होने लगता है जैसे कोई जुर्म तो नहीं कर दिया यहा आकर.....और यह सब बहुत बार होने लगा है ....
हर दफ्तर से संबंधित मेरे पास बहुत से तजुर्बे हैं ...क्योंकि मैं हर काम खुद करने में विश्वास रखता हूं ...वरना आदतें इतनी ज्यादा खराब हो जाती हैं ..देखते हैं हम कुछ सेवानिवृत्त लोगों को ...कि उन की ८० प्रतिशत तकलीफ़ें तो पुराने अच्छे दिनों को याद करने में ही गर्क हो जाती हैं..ये बातें हमें हमारे पिता जी ने ही बचपन में अच्छे से समझा दी थीं कि हमेशा अपना काम खुद करने की आदते डालो....वरना बाद में रिटायर दरोगा कि तरह परेशान होना पड़ेगा...
सही बात है ..रिटायरमैंट के बाद अकसर कौन किसी को पहचानता है ...अकसर ..लेकिन कुछ अच्छे लोगों को मिलने के लिए लोग तब भी आतुर रहते हैं ..कुछ तो हमेशा के लिए फिर कभी नज़र ही नहीं आते ..गधे की सींग की तरह....बात सोचने वाली यह है कि हम किसी से दिन में बीसियों बार सेल्यूट एक्सपैक्ट ही क्यों करें, कर रहें न सब अपनी अपनी ड्यूटी ....सफाई सेवक अपनी बेहतरीन सेवाएं दे रहा है, हमारे कमरों को टनाटन रखता है, मैं लोगों के दांतों को टनाटन रखता हूं ...वह एक दिन नहीं दिखेगा तो काम नहीं चलेगा...दांतों का तो लोग जो हाल कर रहे हैं, हम सब जानते ही हैं..
ओह माई गॉड , यह मैं किधर निकल गया....
हां, तो मुझे कुछ इस तरह के विचार आ रहे थे सुबह थे...बलराज साहनी साहब का एक लेख देख रहा था ..वे एक बार लाहौर गये अपने एक मित्र के निमंत्रण पर...वह उन्हें लाहौर स्टेशन रिसीव करने आए...साहनी साहब लिखते हैं कि उन की वजह से मेरी कोई भी सिरदर्दी कस्टम चैकिंग, और भी सामान खुलवा कर देखने की प्रक्रिया कुछ भी नहीं हुई...बस, दो मिनट में हम लोग फ्री हो गये ..और यही नहीं, उन दोनों को वहां के अफ़सरों ने चाय भी पिलाई ... लेकिन मजे की बात, साहनी साहब इस से खुश नहीं थे, वे लिखते हैं कि मैं तो लाहौर के एक एक प्लेटफार्म पर घूमना चाह रहा था....मैं उन की बात से इत्तेफाक रखता हूं क्योंकि अगर मैं अमृतसर जाऊं तो मैं भी वहां के प्लेटफार्मों पर भी बहुत सा समय बिताना चाहूंगा...
हां, तो पहचान की बात हो गई कि किस तरह से पहचान की वजह से हमारे काम आसान हो जाते हैं...
नोयडा में मेरा एक बैंक खाता है ... वहां से मुझे नया एटीएम कार्ड लेना हो, नई पासबुक इश्यू करवानी हो, या और भी कुछ काम हो तो मैं अपने एक मित्र को ज़रूर साथ ले लेता हूं ..क्योंकि उस की वहां पर अच्छी पहचान है, सारा स्टॉफ उस का सम्मान करता है, मुझे वहां कौन पहचाने, काम भी पांच मिनट से पहले हो जाता है और चाय की सेवा भी ...(जिस की मुझे बिल्कुल भी इच्छा नहीं होती..) -वैसे तो अपने अपने घटिया -बढ़िया जैसे भी हों, फंडें हैं...मेरा यह है कि कामकाज की जगह में आने वालों का चाय पानी नाश्ता खिलाना पिलाना या पूछना ही ठीक नही ंहै..हां, पानी तक ठीक है, वरना उस फार्मेलिटी के चक्कर में पब्लिक परेशान हो जाती है ....मैंने हमेशा से इसे फॉलो किया है ...अस्पताल में बैठे हैं यार, किसी रेस्टरां में तो नहीं, इतने ही संबंध प्रगाढ़ करने की फिक्र है तो बंदे को घर में बुला कर उस की टहल-सेवा कीजिए...यह मेरा अपना दकियानूसी नज़रिया हो सकता है, लेकिन मैं इसे कभी बदलने वाला नहीं...कभी किसी के लिए साल में शायद एक बार यह काम करना पड़ता है तो मुझे बड़ी तकलीफ होती है, सब से बड़ी तो यह कि जब तक चाय आ न जाए, कुछ और काम किया ही नहीं जा सकता, फिजूल की बातें करते जाइए और सुनते जाइए... सीधी सीधी बात है, अगर हम ने किसी का काम वह कर दिया जो वह करवाने आया है तो इसी में चाय, छाछ, मट्ठा, मिठाई सब कुछ आ जाता है ...वरना हमें भी मीठी गोलियों को स्टॉक भरपूर रखना पड़ता है ..
हां, मैं बैंक की बात कर रहा था कि दूसरे शहर में मैं वहां भी किसी सहारे के नहीं जाना चाहता ..सिर्फ़ इसलिए कि मुझे वहां चंद घंटे ही ठहरना होता है और पता नहीं बड़े बाबू का मूड कैसा हो, कैसा न हो..अगर अगली तारीख पड़ गई तो बड़ी दिक्कत हो जायेगी....
अब ज़रा पुलिस स्टेशन की बात कर लें... हमारे गृह-नगर में हमारे घर में चोरी हो गई कुछ साल पहले ...चोर सब कुछ ले गये ...क्या करें, वहां कोई रहता नहीं है, ताला लगा हुआ था..अब नौकरी करें या उसे संभालें...बहरहाल, मुझे यह तो पूरी उम्मीद थी कि कुछ भी वापिस मिलने वाला तो है नहीं, लेेकिन फार्मेलिटी के तौर पर रपट तो लिखवानी ही पड़ेगी...मैं पहली बात किसी थाने में गया था...उसने मेरी रपट नहीं लिखी... बस, एक सादे कागज़ पर मेरी तरफ़ से एक चिट्ठी लिखवा के रख ली...मुझे भी पता था कि इस को होना-हवाना कुछ नहीं है...अगले दिन आया वह दबंग दरोगा ...चोरी हुए सामान में दो-तीन तोले सोना और लगभग दो हज़ार की रकम भी शामिल हुई देख ...बड़ी लापरवाही से कहने लगा...आज कल सोना कौन घर में रखता है और पैसा भी कौन ऐसे रखता है ...लोग १००-२०० रूपया झट से एटीएम से ही निकलवाते हैं ..यह २००७ की बात है ...मैं तो सब समझ ही रहा था, वह वहां से दफ़ा हुआ तो मैंने शुक्र किया ... शायद रपट इसलिए नहीं लिखी गई क्योंकि मेरे साथ कोई रसूख वाला आदमी नहीं था...
अस्पतालों में ही देख लीजिए...वहां पर काम करने वाला कोई भी कर्मचारी जब अपने किसी परिचित मरीज़ के साथ डाक्टर के पास जाता है तो उस मरीज़ में एक आत्मविश्वास पैदा हो जाता है ...जब मेरे जैसे लोगों का खून बहुत गर्म होने की वजह से उछाले मारता है तो हम लोग उस दिन तो नहीं, अगले दिन उस मरीज़ को इतना ज़रूर कह दिया करते कि फलां फलां को साथ लाने की क्या ज़रूरत थी, क्या मेैं वैसे तु्म्हें न देखता, उसी के साथ लाने पर ही क्या देखता.... फिर धीरे धीरे समय बीतता गया, मैं भी आप सब की तरह अपने प्रोफेशन में घिसता चला गया...घिसते घिसते कुछ बातें समझ में आने लगीं....कि अगर मैं किसी अनजान जगह पर जाता हूं तो किसी पहचान को ढूंढता हूं ...छोटी से छोटी, बड़ी से बड़ी, काम बन पाए या न , वह अलग बात है.....लेकिन मैं ढूंढता तो हूं ही ... इसलिए अब यह हालत है कि कोई मरीज़ अगर किसी हमारे कर्मचारी को साथ लेकर आता है तो मरीज़ के सम्मान के साथ साथ मैं उस साथ आए हुए बंदे को भी अच्छे से एक्नालेज करता हूं... अगर कोई यूनियन नेता साथ होता है तो उसे भी आराम से मंत्री जी, प्रधान जी, कामरेड जी... इतना कहने में मेरा कुछ नहीं जाता, मरीज़ को अपने साथ चलने वाले बंदे के मार्फ़त मेरे में विश्वास हो जाता होगा....अब यह कितना हो पाता है या नहीं, पता नहीं, कभी इस के आगे जाने की कोशिश नहीं की, न ही फुर्सत थी कभी ....
लेकिन तिनके के सहारे वाली बात तो है एकदम पक्की ...अब जो है सो है... मुझे तिनके से यह बात याद आ गई...
बैंक से बात याद आई...कुछ साल पहले हमारे एक सीनियर ने हमें एक बार अच्छे से समझा दिया कि लोग अपने जिस चपरासी को अकसर अपनी बैंक का पास-बुक थमा देते हैं ...जाओ एंट्री करवा आओ, पैसे निकलवा लाओ...ऐसे लोग ही आप के लिए सब से बड़े विजिलेंस इंस्पैक्टर होते हैं ...उन दिनों पैसे भी ये चपरासी लोग ही निकलवा कर लाया करते थे...एटीएम चले नहीं थे...उन्होंने बताया कि आप की हर ट्रांजेक्शन पर हर एंट्री पर उन की नज़र होती है..
यार, बात तो डा मिट्टू साहब की मन को छू गई..और पल्ले बांध के गांठ बांध ली...
बैंक में अपना काम है तो ज़ाहिर सी बात है कि खुद ही जाना पड़ेगा... लेकिन बहुत बार कापी प्रिंट करने वाला बाबू नहीं होता, वह होता है तो प्रिंटर बीमार होता है , दोनों अपनी जगह पर तने हुए हैं तो नेटवर्क गायब होता है ...बेशक सिरदर्दी तो हो गई है ...लेेकिन कुछ तकलीफ़े सहने के लिए ही होती हैं..आप अपने पास ही खड़े ८० साल के बेबस बुज़ुर्ग को पसीना पोंछते देखते हैं तो आप को भी बिना किसी चूं-चपड़ के चुपचाप खड़े रहने की एक वजह मिलती है....मुझे आप का तो पता नहीं, लेकिन मेरे साथ ऐसा ही होता है...
डाकखाने में गये तो स्पीड पोस्ट खत उस समय बुक किया जाएगा या नहीं...वही समस्याएं अभी तो दूसरा काम फंसा हुआ है, प्रिंटर में दिक्कत, नेटवर्क लोचा, मुझे कईं बार यह अहसास होने लगता है जैसे कोई जुर्म तो नहीं कर दिया यहा आकर.....और यह सब बहुत बार होने लगा है ....
हर दफ्तर से संबंधित मेरे पास बहुत से तजुर्बे हैं ...क्योंकि मैं हर काम खुद करने में विश्वास रखता हूं ...वरना आदतें इतनी ज्यादा खराब हो जाती हैं ..देखते हैं हम कुछ सेवानिवृत्त लोगों को ...कि उन की ८० प्रतिशत तकलीफ़ें तो पुराने अच्छे दिनों को याद करने में ही गर्क हो जाती हैं..ये बातें हमें हमारे पिता जी ने ही बचपन में अच्छे से समझा दी थीं कि हमेशा अपना काम खुद करने की आदते डालो....वरना बाद में रिटायर दरोगा कि तरह परेशान होना पड़ेगा...
सही बात है ..रिटायरमैंट के बाद अकसर कौन किसी को पहचानता है ...अकसर ..लेकिन कुछ अच्छे लोगों को मिलने के लिए लोग तब भी आतुर रहते हैं ..कुछ तो हमेशा के लिए फिर कभी नज़र ही नहीं आते ..गधे की सींग की तरह....बात सोचने वाली यह है कि हम किसी से दिन में बीसियों बार सेल्यूट एक्सपैक्ट ही क्यों करें, कर रहें न सब अपनी अपनी ड्यूटी ....सफाई सेवक अपनी बेहतरीन सेवाएं दे रहा है, हमारे कमरों को टनाटन रखता है, मैं लोगों के दांतों को टनाटन रखता हूं ...वह एक दिन नहीं दिखेगा तो काम नहीं चलेगा...दांतों का तो लोग जो हाल कर रहे हैं, हम सब जानते ही हैं..
ओह माई गॉड , यह मैं किधर निकल गया....
हां, तो मुझे कुछ इस तरह के विचार आ रहे थे सुबह थे...बलराज साहनी साहब का एक लेख देख रहा था ..वे एक बार लाहौर गये अपने एक मित्र के निमंत्रण पर...वह उन्हें लाहौर स्टेशन रिसीव करने आए...साहनी साहब लिखते हैं कि उन की वजह से मेरी कोई भी सिरदर्दी कस्टम चैकिंग, और भी सामान खुलवा कर देखने की प्रक्रिया कुछ भी नहीं हुई...बस, दो मिनट में हम लोग फ्री हो गये ..और यही नहीं, उन दोनों को वहां के अफ़सरों ने चाय भी पिलाई ... लेकिन मजे की बात, साहनी साहब इस से खुश नहीं थे, वे लिखते हैं कि मैं तो लाहौर के एक एक प्लेटफार्म पर घूमना चाह रहा था....मैं उन की बात से इत्तेफाक रखता हूं क्योंकि अगर मैं अमृतसर जाऊं तो मैं भी वहां के प्लेटफार्मों पर भी बहुत सा समय बिताना चाहूंगा...
हां, तो पहचान की बात हो गई कि किस तरह से पहचान की वजह से हमारे काम आसान हो जाते हैं...
नोयडा में मेरा एक बैंक खाता है ... वहां से मुझे नया एटीएम कार्ड लेना हो, नई पासबुक इश्यू करवानी हो, या और भी कुछ काम हो तो मैं अपने एक मित्र को ज़रूर साथ ले लेता हूं ..क्योंकि उस की वहां पर अच्छी पहचान है, सारा स्टॉफ उस का सम्मान करता है, मुझे वहां कौन पहचाने, काम भी पांच मिनट से पहले हो जाता है और चाय की सेवा भी ...(जिस की मुझे बिल्कुल भी इच्छा नहीं होती..) -वैसे तो अपने अपने घटिया -बढ़िया जैसे भी हों, फंडें हैं...मेरा यह है कि कामकाज की जगह में आने वालों का चाय पानी नाश्ता खिलाना पिलाना या पूछना ही ठीक नही ंहै..हां, पानी तक ठीक है, वरना उस फार्मेलिटी के चक्कर में पब्लिक परेशान हो जाती है ....मैंने हमेशा से इसे फॉलो किया है ...अस्पताल में बैठे हैं यार, किसी रेस्टरां में तो नहीं, इतने ही संबंध प्रगाढ़ करने की फिक्र है तो बंदे को घर में बुला कर उस की टहल-सेवा कीजिए...यह मेरा अपना दकियानूसी नज़रिया हो सकता है, लेकिन मैं इसे कभी बदलने वाला नहीं...कभी किसी के लिए साल में शायद एक बार यह काम करना पड़ता है तो मुझे बड़ी तकलीफ होती है, सब से बड़ी तो यह कि जब तक चाय आ न जाए, कुछ और काम किया ही नहीं जा सकता, फिजूल की बातें करते जाइए और सुनते जाइए... सीधी सीधी बात है, अगर हम ने किसी का काम वह कर दिया जो वह करवाने आया है तो इसी में चाय, छाछ, मट्ठा, मिठाई सब कुछ आ जाता है ...वरना हमें भी मीठी गोलियों को स्टॉक भरपूर रखना पड़ता है ..
हां, मैं बैंक की बात कर रहा था कि दूसरे शहर में मैं वहां भी किसी सहारे के नहीं जाना चाहता ..सिर्फ़ इसलिए कि मुझे वहां चंद घंटे ही ठहरना होता है और पता नहीं बड़े बाबू का मूड कैसा हो, कैसा न हो..अगर अगली तारीख पड़ गई तो बड़ी दिक्कत हो जायेगी....
अब ज़रा पुलिस स्टेशन की बात कर लें... हमारे गृह-नगर में हमारे घर में चोरी हो गई कुछ साल पहले ...चोर सब कुछ ले गये ...क्या करें, वहां कोई रहता नहीं है, ताला लगा हुआ था..अब नौकरी करें या उसे संभालें...बहरहाल, मुझे यह तो पूरी उम्मीद थी कि कुछ भी वापिस मिलने वाला तो है नहीं, लेेकिन फार्मेलिटी के तौर पर रपट तो लिखवानी ही पड़ेगी...मैं पहली बात किसी थाने में गया था...उसने मेरी रपट नहीं लिखी... बस, एक सादे कागज़ पर मेरी तरफ़ से एक चिट्ठी लिखवा के रख ली...मुझे भी पता था कि इस को होना-हवाना कुछ नहीं है...अगले दिन आया वह दबंग दरोगा ...चोरी हुए सामान में दो-तीन तोले सोना और लगभग दो हज़ार की रकम भी शामिल हुई देख ...बड़ी लापरवाही से कहने लगा...आज कल सोना कौन घर में रखता है और पैसा भी कौन ऐसे रखता है ...लोग १००-२०० रूपया झट से एटीएम से ही निकलवाते हैं ..यह २००७ की बात है ...मैं तो सब समझ ही रहा था, वह वहां से दफ़ा हुआ तो मैंने शुक्र किया ... शायद रपट इसलिए नहीं लिखी गई क्योंकि मेरे साथ कोई रसूख वाला आदमी नहीं था...
अस्पतालों में ही देख लीजिए...वहां पर काम करने वाला कोई भी कर्मचारी जब अपने किसी परिचित मरीज़ के साथ डाक्टर के पास जाता है तो उस मरीज़ में एक आत्मविश्वास पैदा हो जाता है ...जब मेरे जैसे लोगों का खून बहुत गर्म होने की वजह से उछाले मारता है तो हम लोग उस दिन तो नहीं, अगले दिन उस मरीज़ को इतना ज़रूर कह दिया करते कि फलां फलां को साथ लाने की क्या ज़रूरत थी, क्या मेैं वैसे तु्म्हें न देखता, उसी के साथ लाने पर ही क्या देखता.... फिर धीरे धीरे समय बीतता गया, मैं भी आप सब की तरह अपने प्रोफेशन में घिसता चला गया...घिसते घिसते कुछ बातें समझ में आने लगीं....कि अगर मैं किसी अनजान जगह पर जाता हूं तो किसी पहचान को ढूंढता हूं ...छोटी से छोटी, बड़ी से बड़ी, काम बन पाए या न , वह अलग बात है.....लेकिन मैं ढूंढता तो हूं ही ... इसलिए अब यह हालत है कि कोई मरीज़ अगर किसी हमारे कर्मचारी को साथ लेकर आता है तो मरीज़ के सम्मान के साथ साथ मैं उस साथ आए हुए बंदे को भी अच्छे से एक्नालेज करता हूं... अगर कोई यूनियन नेता साथ होता है तो उसे भी आराम से मंत्री जी, प्रधान जी, कामरेड जी... इतना कहने में मेरा कुछ नहीं जाता, मरीज़ को अपने साथ चलने वाले बंदे के मार्फ़त मेरे में विश्वास हो जाता होगा....अब यह कितना हो पाता है या नहीं, पता नहीं, कभी इस के आगे जाने की कोशिश नहीं की, न ही फुर्सत थी कभी ....
लेकिन तिनके के सहारे वाली बात तो है एकदम पक्की ...अब जो है सो है... मुझे तिनके से यह बात याद आ गई...