शनिवार, 10 सितंबर 2016

अपनी मातृ-भाषा में लिखना बातें करने जैसा



आज से १५-१६ वर्ष पहले एक नवलेखक शिविर में एक उस्ताद जी ने हम लोगों को समझाया था कि अपनी मातृ-भाषा में भी ज़रूर लिखा करो ...

उन की बात कुछ कुछ समझ में आई..कुछ कुछ न आई..और शायद न ही समझने की कोशिश की ...बस, एक ही खुमारी चढ़ी हुई कि बस, हिंदी में ही लिखना है...

ठीक है, हिंदी में लिखना ठीक है, अपनी राष्ट्रभाषा है ....

लेकिन जिस तरह से हम लोग अपने आप को अपनी मातृ-भाषा (mother tongue) में एक्सप्रेस कर सकते हैं वह किसी दूसरी भाषा में हो ही नहीं सकता...

मैं इंगलिश ठीक ठाक लिख लेता हूं...हिंदी भी ठीक ठाक ही है ..(no bragging intended!) ... और इस के पीछे कम से कम बीस वर्ष की लिखने-पढ़ने की साधना है ...जिस के बारे में मैं अकसर लिखता रहता हूं..

लेकिन इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी जितना खुलापन मैं पंजाबी लिखते पढ़ते हुए महसूस करता हूं वह हिंदी लिखते हुए नहीं कर पाता हूं ...अंग्रेज़ी की तो बात ही क्या करें...और यह स्वभाविक भी है ...

मैं अकसर शेयर करता हूं कि मातृ-भाषा में लिखना, बात करना अपनी मां से बात करने जैसा है...जिस तरह से हम लोग जितनी बेतकल्लुफ़ी से अपनी मां से बात कर लेते हैं, उतना हम किसी दूसरे से शायद ही खुल पाते हों ..कुछ सोचना नहीं पड़ता, शायद बोलने से पहले तोलना भी नहीं पड़ता...क्योंकि शब्द अपने आप झड़ते हैं...

मैंने भी पंजाबी भाषा (गुरमुखी स्क्रिप्ट) में कुछ वर्ष लिखा ..जब तक हम लोग फिरोज़पुर में थे ...पंजाबी अखबारों में लेख भेजता था ..वे छपते भी थे..लेकिन बाद में वह लिखना छूट गया...लेकिन कभी कभी पंजाबी भाषा में कुछ भी पढ़ ज़रूर लेता हूं ..विशेषकर पंजाब शिक्षा शिक्षा बोर्ड द्वारा प्रकाशित पाठ्य-पुस्तकें ...इन में से कुछ तो मैंने कुछ साल पहले खरीदी थीं, जो नहीं हैं उस के लिए अपने एक सहपाठी मित्र को जो अमृतसर में अब शिक्षा विभाग में वरिष्ठ अधिकारी हैं, उन्हें भिजवाने के लिए कहा हुआ है..

आज सुबह मैंने एक ऐसी ही किताब उठाई ....अक्खी डिठ्ठी दुनिया...(हिंदी में इसे कहेंगे ..आंखों देखी दुनिया..) यह पंजाब की ११ वीं कक्षा की पाठ्य-पुस्तक है...इस में बड़े बड़े साहित्यकारों के लेख हैं...जैसा उन्होंने दुनिया को देखा ..

मैंने इस में बलराज साहनी जी का एक लेख पढ़ा... रज्जी-पुज्जी मिट्टी ...अब मैं आप को इस का मतलब समझाऊं...अच्छा, जब हम लोग अच्छे से खा पी लेते हैं ..तो एक संतुष्टि का अनुभव करते हैं न, उसे कहते हैं कि हम रज्ज-पुज्ज गये हैं...बलराज साहब ने इस बात को मिट्टी के साथ जोड़ा है ...


उन्होंने यह लेख पंजाबी में लिखा है ..पहले वे इंगलिश में लिखते थे, फिर हिंदी में लिखने लगे ..फिर कहीं जा कर पंजाबी की बारी है ...लेकिन इस लेख के बारे में मैं यह कहना चाहूंगा कि यह इतना बढ़िया लेख है कि मेरे पास इस की प्रशंसा करने के लिए शब्द ही नहीं हैं...मैं कोशिश करूंगा कि इस का हिंदी अनुवाद कहीं से ढूंढूं ..अगर नहीं भी मिला तो भी मैं इस का अनुवाद कर के आप से शेयर करूंगा...

इसमें साहनी साहब ने अपनी लाहौर यात्रा का वर्णन लिखा हुआ है ...बेहतरीन लिखा है ...इतनी ईमानदारी से लिखा कि क्या कहूं...