कल जब मैं अस्पताल से घर लौटने के लिए अपने रूम के बाहर बरामदे में था तो वह बुज़ुर्ग महिला मिल गईं...जी हां, ७५ के आस पास ज़रूर होंगी...प्रेम, वात्सल्य, करूणा, अनुकंपा की मूर्त जैसी ...वह मेरे साथ पहले अपने पति के साथ कईं बार आई हुई हैं...उन से भी चला नहीं जाता...कठिनाई से ही चल कर जैसे-तैसे अस्पताल में हर महीने अपनी दवाईयों को लेने आते हैं..
जैसा कि मैंने कहा कि यह बुज़ुर्ग मां बोलने में इतनी कोमल हैं कि मैं ब्यां नहीं सक सकता...इतने ठहराव से अपनी बात कहती हैं...कल भी जब हम दोनों ने एक दूसरे का अभिवादन किया तो बड़े ही आराम से कह दिया इन्होंने....आज काम नहीं करोगे क्या?
मैंने पूछा ..बताईए तो काम क्या है! कहने लगीं कि दांत काले काले से हो रहे हैं, अगर ठीक हो जाते तो अच्छा था..वहीं खड़े खड़े ही उन्होंने अपने आगे के दांत दिखाने चाहे। मैं समझ गया...लेिकन मुझे अचानक ध्यान आया कि जब यह अपने पति के साथ उन के इलाज के लिए आया करती थीं तो भी मैंने इन्हें इस कालेपन को दूर करने के लिए कहा था...तब तो यह थोड़ा झिझक कह लीजिए या कुछ ....ऐसे ही टाल गई थीं ...इतना कहते हुए.."अब इस उम्र में!"
मैंने अपने असिस्टैंट को आवाज़ दी ...खोलो यार रूम। इस तरह के मरीज़ों का अस्पताल तक पहुंचना ही एक दुर्गम काम होता है, ऐसा मैं सोचता हूं और अपने आसपास भी लोगों को इस के बारे में सेंसीटाइज़ करने की कोशिश करता हूं।
हम लोग अंदर आ ही रहे थे कि मेरे मुंह से एक गलत कहावत निकल गई ...मैंने अपने असिस्टेंट से कहा ...सामान लगाओ, मशीन चालू करो... आज न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी...वह इतनी सचेत थीं कि अपने नर्म अंदाज़ में कहने लगीं कि दांत उखाड़ोगे क्या! मैंने सोचा ..कहावत का इन्होंने यह मतलब ले लिया... नहीं, नहीं, कुछ नहीं, बस इन्हें चमका देंगे...तब कहीं जा कर उन्हंें कहीं इत्मीनान हुआ...
दरअसल मैं कहना तो चाह रहा था कि इस कालिख वाले कांटे को अभी दूर किए देते हैं..लेकिन कहां बांस और बांसुरी ... चलिए, कोई बात नहीं, पांच दस मिनट में यह मां अपने चमकते दांत देख कर खुश हो गईं...
इन्हें ब्रुश-पेस्ट के सही इस्तेमाल के बारे में तो मैं पहले ही बता चुका था...जाते जाते कहने लगीं कि मैं तो अभी भी इस कालिख को नहीं उतरवाती, लेिकन नाती-पोतों ने कुछ बार टोक दिया कि दादी, यह क्या, आप हंसती हो तो ....अच्छा नहीं लगता...बस, यही बात इन्हें छू गई।
एक बार इन्हें फिर से बुलाया है पॉलिशिंग के लिए... लेकिन इन्हें खुश देख कर मैं और मेरा असिस्टेंट भी बहुत खुश हुआ...पांच दस मिनट भी नहीं लगे होंगे...आज कल यह काम बिना किसी दर्द, परेशानी के अल्ट्रासानिक स्केलर से सहज ही हो जाता है .. काम पूरा होने के बाद मैंने इन्हें कहा आप चाहें तो आइने में देख लीजिए.....बड़े झिझकते हुए फिर कहने लगीं.....नहीं, ऐसा भी क्या......!!!!
कईं बार कुछ ऐसी बातें घट जाती हैं जो यही सिखाती हैं कि हम लोगों की बड़ी बड़ी खुशियां कितनी छोटी छोटी बातों में पड़ी-धरी रहती हैं।
यह तो एक डाक्टर और लेखक की बातें....अब कुछ बातें शुद्ध डाक्टरी की ...जिस तरह की तकलीफ़ इन्हें हैं, इन्हें तो केवल दांतों की अच्छे से सफाई न करने की वजह से यह थी, लेकिन अधिकतर पान, गुटखा खाने वाले में तो यह सब बहुत ही आम समस्या है ...लेिकन उन के केस में मैं इसे एक उपाय की तरह इस्तेमाल करता हूं कि पहले गुटखा, पान छोड़ो फिर इन दांतों को चमकवाओ...वरना, कुछ दिनों में तो फिर से यह सब कुछ इक्ट्ठा हो जायेगा... कुछ की समझ में बात आ जाती है और वे प्रेरित भी हो जाते हैं..गुटखे, पान, तंबाकू को हमेशा के लिए छोड़ने के लिए....क्या करें, लत छुड़वाने के लिए कईं जुगाड़ करने पड़ते हैं....बस, ये कंपनियां ही थोड़े न अपने हथकंड़ों से लोगों को इस लत का शिकार बनाती रहेंगी...
हां, एक बात और ...कईं बार इस तरह के टारटर की वजह से शायद किसी को इस के सिवा कोई तकलीफ नही हो सकती कि देखने में बुरा लगता है ..लेिकन फिर भी लोगबाग इस की परवाह कम ही करते हैं...लेिकन इस तरह के टॉरटर की वजह से मसूड़ों एवं उस के नीचे की हड़्ड़ी की परेशानी निरंतर बढ़ती ही रहती है ....इसे अच्छे से ठीक करवाने के बाद, बेकार की आदतों से निजात पा कर, अच्छे से रोज़ाना ब्रुश से दांतों की और जीभ की सफाई करने के अलावा कोई इस का क्विक-फिक्स उपाय है ही नहीं, न ही कभी होगा....कुछ भी खाने के बाद कुल्ला कर लिया करें तुरंत ..
लेकिन कईं बार कुल्ला नहीं हो पाता....कल दोपहर मैंने भी कहां किया!.....केसरबाग सर्कल की तरफ़ जाना था, उस की कचौड़ी देख कर रहा नहीं गया...दिल और दिमाग में जंग भी हुई कि मत खा, लेकिन दिल जीत गया और खा ली कचौड़ी ...खाने से ठीक पहले, एक पेपर बेचने वाला कहीं से सामने आया ..बड़े आहिस्ता से कहने लगा, पूड़ी दिलवाओगे, मैंने कहा ..हां, हां, आओ यार, खाओ.....उसे क्या पता कि यह तो वैसे भी हमारी फैमली का प्रण है ...बच्चों का भी, और मुझे यह बहुत अच्छा लगता है...बरसों पुराना वायदा अपने आप से कि जब बाज़ार में कोई भी कुछ भी खाने के लिए मांगेगा... परवाह नहीं उस समय हम क्या खा रहे हैं... तुरंत उस के पेट की आग शांत करना ही उस समय का सब से बड़ा धर्म है ...और उस समय चाहे बंदा एक हो या चार पांच दस हों, कभी टालना नहीं होता....क्या फर्क पड़ता है, मांगना बहुत मुश्किल होता है, पता नहीं उस समय कोई कितना मजबूर होता है ....यह लिखना बहुत ही हल्का लग रहा है ...फिर भी जानबूझ कर लिख रहा हूं, अगर सब कुछ दर्ज कर देने से किसी दूसरे का भला हो जाता है ...जिन लोगों ने अमृतसर के गोल्डन टेंपल -- दरबार साहब अमृतसर में लंगर छका है, वे मेरी बात समझते हैं..
मेरी तो कईं बार वहीं टिक जाने की इच्छा होती है ...पिछले दिनों मेरा असिस्टेंट पहली बार गोल्डन टेंपल के दर्शन कर के आया है, जब वह वहां के लंगर की बातें मुझ से साझी कर रहा था तो भावुक हो रहा था...इतनी सेवा, इतनी करूणा, इतना भव्य आयोजन......मैंने उसे गुरूनानक देव जी के सच्चे सौदे वाले एफ.डी की बात सुनाई. ..
मेरी तो कईं बार वहीं टिक जाने की इच्छा होती है ...पिछले दिनों मेरा असिस्टेंट पहली बार गोल्डन टेंपल के दर्शन कर के आया है, जब वह वहां के लंगर की बातें मुझ से साझी कर रहा था तो भावुक हो रहा था...इतनी सेवा, इतनी करूणा, इतना भव्य आयोजन......मैंने उसे गुरूनानक देव जी के सच्चे सौदे वाले एफ.डी की बात सुनाई. ..
किधर की बात कहां निकल जाती है ...अगर एग्ज़ाम होता तो मुझे पता चलता, हैडिंग कुछ और था, पोस्ट एक बुज़ुर्ग मां की खुशियां के बारे में और जाते जाते हरिमंदिर साहब गुरूद्वारा की याद निकल आई...लेकिन ब्लाग लिखने का यही तो मजा है, मन हल्का करने के लिए कुछ भी लिख लिया करते हैं..अपने बारे में ही बहुत सी बातें.... पहली डॉयरियां लिखनी पड़ती थीं, छुपा छुपा के रखनी पड़ती थीं, अब सब कुछ ओपन....ट्रांसपेरेंट एकदम।