कुछ दिन पहले गुड-फ्राय-डे वाले दिन मैं मुंबई की एक चर्च के बाहर खड़ा था...पास ही एक दुकान से ठक-ठक की आवाज़ आ रही थी।
उधर देखा तो यादव जी बड़ी तल्लीनता से एक पत्थर की धार लगाने में मस्त थे...यादव उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं...आठ दस से बंबई में हैं... बंबई में भी क्या हैं, बस पापी पेट के चक्कर में टिके रहते हैं वहां छःसात महीने...उस के बाद गांव लौट आते हैं...क्या बताया था नाम, शायद आजमगढ़ ...
मैं भी उन्हें उस पत्थर को तलाशते हुए देखने लगा...यादव जी एक चक्की चलाते हैं...यह भाड़े की दुकान है ... जिस का किराया ३० हज़ार रूपये महीना है ..बस इतनी ही जगह है जितनी आप इस तस्वीर में देख पा रहे हैं...
चक्की के पत्थर की कुछ दिनों के बाद धार लगानी होती है ...वरना आटा बारीक नहीं पिस पाता...यादव ने बताया...
मुझे किराये की रकम सुन कर बहुत हैरानगी हुई ..मैंने फिर से पूछा...मैंने पहली बार ठीक ही सुना था..तीस हज़ार...इस में बिजली का बिल भी शामिल है...और जब वे पांच महीने के लिए गांव कूच कर जाते हैं तो इस ठीये (अड्डे को...बंबईया भाषा) किराये पर उठा जाते हैं...बता रहे हैं यादव कि वे कुछ नहीं लेते उस से...उसे किराया भरना होता है और बाकी कमाई अपने पास रख सकता है जिसे वह यह दुकान आगे किराये पर उठा कर जाते हैं।
मुझे यह सोचना ही इतना कष्टदायक लग रहा था कि पहले तो बंदा महीने में तीस दिन काम करे ..बिना नागा...फिर रोज़ कमाई का पहला एक हज़ार भाड़े का निकाले...उस के बाद उस की कमाई की बात शुरू हो...बता रहे थे कि किराया निकालने के बाद भी दस-पंद्रह-बीस हज़ार बच ही जाते हैं.. यादव वही बता रहे थे कि रोज़ का फिक्स नहीं है, बारह सौ, पंद्रह सौ, दो हज़ार ..
बड़े शहरों में हम सब जानते ही हैं कि survival का प्रश्न होता है ....जैसे तैसे ज़िंदगी कट रही होती है ..लेकिन फिर भी ये लोग खुश दिखते हैं ... आप को क्या लगता है?
बिल्कुल छोटे छोटे काम धंधे करते हैं...गुज़ारा चलाते हैं ...एक ट्रैफिक सिग्नल पर यह बंदा गनेरियां (गन्ने के छोटे२ टुकड़े) प्लास्टिक की पन्नी में डाल कर बेचता हुआ दिखा..अच्छा है, अपना अपना जुगाड़ किए हुए हैं लोग...लेकिन उसी समय मेरा ध्यान उन बदकिस्मत किसानों की तरफ़ चला गया जो अपनी फसल की उचित कीमत न मिलने पर या अपना कर्ज़ न चुकता कर पाने की हालत में फंदे पर लटक जाते हैं ..लेिकन उन की मेहनत से दूसरे लोग पलते हैं....
चलिए यह गनेरियां वाला तो ठीक है...बच्चे पाल रहा है, लेकिन किसान के उगाये गेहूं का आटा कंपनियों द्वारा ४५-५० रूपये किलो. के हिसाब से बिकता है ....लेकिन कब से कह तो यही रहे हैं कि उस के भी अच्छे दिन आयेंगे......देखते हैं..
लोग हर शहर में हर तरफ़ हर समय मेहनत तो कर ही रहे होते हैं ..दो दिन पहले हम लोग लखनऊ के अमौसी एयरपोर्ट से रात में साढ़े बारह बजे आ रहे थे तो अचानक यह ट्रक दिख गया..इतना बड़ा ट्रक पहली बार दिखा था...टैक्सी ड्राईवर ने बताया कि इस के १२० पहिये हैं और यह मैट्रो रेल के ट्रैक को लाद कर ले जा रहा है ....हमने पहली बार इस तरह की माल-ढुलाई देखी थी... मैट्रो का सारा सामान इधर-उधर ले जाने का काम रात के उसी दौर में ही चलता है..
उधर देखा तो यादव जी बड़ी तल्लीनता से एक पत्थर की धार लगाने में मस्त थे...यादव उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं...आठ दस से बंबई में हैं... बंबई में भी क्या हैं, बस पापी पेट के चक्कर में टिके रहते हैं वहां छःसात महीने...उस के बाद गांव लौट आते हैं...क्या बताया था नाम, शायद आजमगढ़ ...
मैं भी उन्हें उस पत्थर को तलाशते हुए देखने लगा...यादव जी एक चक्की चलाते हैं...यह भाड़े की दुकान है ... जिस का किराया ३० हज़ार रूपये महीना है ..बस इतनी ही जगह है जितनी आप इस तस्वीर में देख पा रहे हैं...
चक्की के पत्थर की कुछ दिनों के बाद धार लगानी होती है ...वरना आटा बारीक नहीं पिस पाता...यादव ने बताया...
एक पत्थर की धार लगाने में तीन घंटे लग जाते हैं |
मुझे किराये की रकम सुन कर बहुत हैरानगी हुई ..मैंने फिर से पूछा...मैंने पहली बार ठीक ही सुना था..तीस हज़ार...इस में बिजली का बिल भी शामिल है...और जब वे पांच महीने के लिए गांव कूच कर जाते हैं तो इस ठीये (अड्डे को...बंबईया भाषा) किराये पर उठा जाते हैं...बता रहे हैं यादव कि वे कुछ नहीं लेते उस से...उसे किराया भरना होता है और बाकी कमाई अपने पास रख सकता है जिसे वह यह दुकान आगे किराये पर उठा कर जाते हैं।
मुझे यह सोचना ही इतना कष्टदायक लग रहा था कि पहले तो बंदा महीने में तीस दिन काम करे ..बिना नागा...फिर रोज़ कमाई का पहला एक हज़ार भाड़े का निकाले...उस के बाद उस की कमाई की बात शुरू हो...बता रहे थे कि किराया निकालने के बाद भी दस-पंद्रह-बीस हज़ार बच ही जाते हैं.. यादव वही बता रहे थे कि रोज़ का फिक्स नहीं है, बारह सौ, पंद्रह सौ, दो हज़ार ..
बड़े शहरों में हम सब जानते ही हैं कि survival का प्रश्न होता है ....जैसे तैसे ज़िंदगी कट रही होती है ..लेकिन फिर भी ये लोग खुश दिखते हैं ... आप को क्या लगता है?
बिल्कुल छोटे छोटे काम धंधे करते हैं...गुज़ारा चलाते हैं ...एक ट्रैफिक सिग्नल पर यह बंदा गनेरियां (गन्ने के छोटे२ टुकड़े) प्लास्टिक की पन्नी में डाल कर बेचता हुआ दिखा..अच्छा है, अपना अपना जुगाड़ किए हुए हैं लोग...लेकिन उसी समय मेरा ध्यान उन बदकिस्मत किसानों की तरफ़ चला गया जो अपनी फसल की उचित कीमत न मिलने पर या अपना कर्ज़ न चुकता कर पाने की हालत में फंदे पर लटक जाते हैं ..लेिकन उन की मेहनत से दूसरे लोग पलते हैं....
बंबई के ट्रैफिक सिग्नल पर बिकती गनेरियां |
लोग हर शहर में हर तरफ़ हर समय मेहनत तो कर ही रहे होते हैं ..दो दिन पहले हम लोग लखनऊ के अमौसी एयरपोर्ट से रात में साढ़े बारह बजे आ रहे थे तो अचानक यह ट्रक दिख गया..इतना बड़ा ट्रक पहली बार दिखा था...टैक्सी ड्राईवर ने बताया कि इस के १२० पहिये हैं और यह मैट्रो रेल के ट्रैक को लाद कर ले जा रहा है ....हमने पहली बार इस तरह की माल-ढुलाई देखी थी... मैट्रो का सारा सामान इधर-उधर ले जाने का काम रात के उसी दौर में ही चलता है..