मंगलवार, 29 मार्च 2016

जब सिर्फ़ साईकिल का ही सहारा रह जाता है ..

यह बात मैंने आज से दस साल पहले यमुनानगर में नोटिस की...हम किराये के एक मकान में रहते थे..पास ही एक बुज़ुर्ग ..बहुत बुज़ुर्ग ८०-८५ साल से ऊपर की उम्र होगी...साथ में कमर पूरी तरह से मुड़ी हुई थी...बहुत ही कमज़ोर, आंखों की रोशनी भी बहुत कम ...मैं अकसर उन्हें देखा करता था कि घर से साईकिल पर निकलते थे...कुछ भी सामान लाने के लिए..अपनी दिनभर की ज़रूरतों को स्वयं जा कर खरीदते थे..

मुझे कितने ही महीने लग गये यह नोटिस करने में यह महाशय साईकिल पर निकलते तो हैं लेिकन कभी साईकिल इन्हें चलाते तो देखा नहीं...मैं यह तो सोचा ही करता था कि यह साईकिल चला तो पाते नहीं होंगे, फिर इसे साथ लेकर निकलते क्यों हैं, फिर बात मेरी समझ में आ गई कि यह साईकिल को एक सहारे की तरह इस्तेमाल किया करते हैं...

एक बार यह बात समझ में आ गई तो फिर मुझे ऐसे बुज़ुर्ग बहुत सी जगहों पर दिखने लगे...यहां लखनऊ में भी मैंने देखा ..अपने अस्पताल के बाहर ही कईं मरीज़ों को जो साईकिल पर आते तो हैं, उस की सवारी कर के नहीं, बस उसे एक सहारे की तरह इस्तेमाल करते हुए...उम्र के हिसाब से किसी के घुटने नहीं चलते, किसी को चलने में दिक्कत है, किसी के पैर लड़खड़ाते हैं, किसी को िदखता कम है, किसी के शरीर में अब पैडल मारने की शक्ति नहीं है ...लेकिन साईकिल का सहारा लेकर वे धीरे धीरे अपनी मंज़िल की तरफ़ चल निकलते हैं। 

कल रात मुझे यह बुज़ुर्ग दिखे ..

कल रात मैं भी साईकिल पर ऐसे ही घूम रहा था...मैंने लखऩऊ एलडीए एरिया में एक बुज़ुर्ग को देखा तो मुझे पहले तो यही ध्यान आया कि यह पैदल क्यों चल रहे हैं, लेकिन फिर तुरंत ध्यान आ गया..कि यह भी अकेले बचे साईकिल के सहारे वाला ही केस है। 

बेशक ऐसे लोगों का मेरे मन में बहुत सम्मान है जो उम्र की किसी भी अवस्था में हार नहीं मानते..बस ईश्वर का शुक्रिया अदा करते हुए मस्त रहते हैं...यही ज़ज्बा है जो सब से ज़रूरी होता है उम्र के उस दौर में शायद ...फिर से एक थ्यूरेटिक बात कर रहा हूं शायद....पता नहीं। 

कईं बार हम सब ने नोटिस किया है कि सब कुछ होते हुए भी ...धन दौलत, सेहत ...रहने को अच्छा आशियाना..लेकिन फिर भी खुशी गायब होती है कुछ बुज़ुर्गों की ज़िंदगी से ...और कुछ इतने मस्त-मौला होते हैं कि बिल्कुल परवाह ही नहीं करते ...मुझे एक बात याद आ गई ...कुछ महीने पहले मेरे पास एक ८०वर्ष के करीब बुज़ुर्ग आए...मुंह में दो या तीन दांत ही बचे थे हिलते हुए....मुझे लगा कि इन्हें उखड़वाने आए होंगे...लेकिन नहीं, उन्हें तो बस उन में कभी कभी दर्द होता था..कोई मामूली सी दवा लेने आए थे...मैंने हैरान हो कर पूछा कि आप खाना कैसे खाते हैं?..उस बुज़ुर्ग ने मुझे निःशब्द कर दिया यह कह कर कि डाक्टर साहब, मैं तो कोई ऐसी चीज़ है ही नहीं जिसे खाता न होऊं...सब कुछ खाता हूं, मजे में हूं...कोई दिक्कत नहीं है। 

लेकिन मैं भी अपनी आदत से मजबूर ... मैंने पूछा कि आप भुने ही चने तो नहीं खा पाते होंगे...वह कहने लगे ...नहीं, खूब खाता हूं..ग्राईंडर में पिसवा लेता हूं। मुझे उन से मिल कर उस दिन बहुत खुशी हुई ..इतना सकारात्मक रवैया अपनी सिचुएशन के प्रति....यह बुज़ुर्ग मुझे हमेशा याद रहेंगे। 

कुछ दिन पहले अखबार में एक विज्ञापन देखा ....दो तीन बार देखा ...ऐसा लगा कि बुज़ुर्ग महिला का चेहरा जान पहचाना लग रहा है ...अनुमान लगाया कि शायद यह कामिनी कौशल हों, तुरंत गूगल बाबा से पूछा...अनुमान सही निकला....आप देखिए उम्र के इस पढ़ाव में भी किस तरह से काम में लगे हुए हैं...कामिनी कौशल सिनेजगत की एक जानी मानी हस्ती रही हैं... पारिवारिक, साफ-सुथरे मनोरंजन के लिए बहुत मशहूर नाम। 

तभी मुझे ध्यान आया कि यह तो प्रिंट मीडिया का विज्ञापन है ...शायद यू-ट्यूब पर भी कोई ऐसा विज्ञापन हो ...मिल गया, वहां भी ....और उस को मैं यहां एम्बेड कर रहा हूं....भाषा शायद कोई और है, लेकिन उस से क्या, हमें मैसेज तो पहुंच ही रहा है...मैं इन विज्ञापन बनाने वालों से बहुत मुतासिर हूं...विशेषकर जब वे  'Slice of life' टाइप के विज्ञापन हमें परोसते हैं...सर्फ के ही इतने बेहतरीन विज्ञापन हमें याद हैं...दाग अच्छे हैं वाला विज्ञापन जब बच्चे दोस्त बन जाते हैं कीचड़ में खेलते खेलते. ...और एक वह वाला जिस में एक टीचर के डॉगी की डेथ हो जाती है, बहुत उदास हैं, स्कूल नहीं आतीं और शाम के वक्त उस का एक नन्हा सा छात्र कीचड़ में लथपथ उस की खोज-खबर लेने पहुंच जाता है ...उसे देख कर टीचर जी हंस पड़ती है...


जीवन में प्रेरणा ज़रूरी नहीं कि हमें बड़े बड़े लोगों की बातों से ही मिले....हम अपने आस पास ही से प्रेरणा लेते हैं...मुझे भी कल ध्यान आ रहा था कि रिटायरमैंट के बाद जिस भी शहर में रहने का अवसर मिलेगा...वहां पर तीन चार अस्पताल में निःशुल्क सेवा किया करूंगा...बड़ी तमन्ना है...आगे आगे देखते हैं होता है क्या!...लेकिन रिटायरमेंट के बाद करना कुछ ऐसा ही है। वैसे भी जितनी भी जान मार लूंगा ...एक करोड़ से ज़्यादा तो क्या इक्ट्ठा कर पाऊंगा रिटायरमेंट के बाद ...और इतने में एक ढंग का फ्लैट भी नहीं मिलता...फिर इतनी सिरदर्दी मोल ही क्यों ली जाए...मैं तो यही सोच कर शांत हो जाता हूं। 

सक्रिय रहने के इस ज़ज्बे को सलाम 
जो लोग विशेषकर बुज़ुर्ग हार नहीं मानते उन्हें देखना ही अपने आप में एक प्रेरणा है ... कुछ दिन पहले मैंने गोवा के एक बाज़ार में एक बहुत व्यस्त रोड़ पर एक बहुत ही बुज़ुर्ग महिला को देखा ...होगी ज़रूर ९० वर्ष के करीब की होगी...हाथ में लाठी और टार्च....और समुद्री तट पर एक ९० वर्ष की औरत भी मिली जो रोज़ाना दूर से टहलने आती हैं...अपने पति के साथ...

ज़्यादा क्या लिखना है दोस्तो, आप सब समझते ही हैं....दुनिया बड़ी तेज़ी से बदल रही है, हमारा सब कुछ बदल रहा है...पहले हम लोग डबल स्टैंडर्डस की बात किया करते थे, अब तो भई multi-standards की बात करनी चाहिए...जहां तक हो सके, खुश रहें और सब को खुश रखें, हर हालात में ईश्वर का शुक्रिया अदा करते रहें, किसी आध्यात्मिक सत्संग से जुड़िए...कुछ न कुछ असर तो देर सवेर हो ही जाएगा... 

और एक काम की बात....एक बहुत पापुलर गीत है ..तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो...तुम को अपने आप ही सहारा मिल जाएगा... बस, अब के लिए इतना ही आज का विचार....वैसे इस तरह की विचार मुझे आज से चार वर्ष पहले भी आया था...जिसे मैं यहां दर्ज कर दिया था... तुम बेसहारा हो तो