रविवार, 26 अप्रैल 2015

गधे और घोड़े में तो भेद हो नहीं पाता!

एनबीटी का मैसेज भी आया था कि आज आप साईक्लिंग इवेंट के लिए गोमती नगर आएं...बस, ऐसे ही आज साईक्लिंग जाने की इच्छा ही नहीं हुई। वैसे भी इस तरह की हाई-फाई नौटंकियों से दूर ही रहना अच्छा लगता है।

अभी सोचा कि कल की साईकिल यात्रा का वृत्तांत तो लिखा ही नहीं, चलिए उसे ही आप से शेयर करते हैं। 

कल जब मैंने अपनी यात्रा शुरू की तो मेरी नज़र इस घोड़े पर पड़ गई....इस की सुस्ती देख कर लगा ही नहीं कि यह घोड़ा है, एक बार तो लगा कि गधा ही होगा। 

जब मैं एक गांव की तरफ़ निकल गया तो मुझे यह गधा दिख गया...आप को भी गधा लग रहा है न! 


अकसर कईं बार गधा और घोड़ा देख मैं पशोपेश में पड़ जाता हूं कि यार यह घोड़ा है, घोड़ी है या फिर खोता है (गधे का पंजाबी शब्द खोता). ..



कईं बार मैं थोड़ा बहुत कद-काठी से घोड़े- घोड़ी का अनुमान तो लगा लेता हूं ...और कईं बार.............हा हा हा हा हा (समझ गए!!) 

अब लगने लगा है कि जो कहावत नौकरीपेशा लोग अकसर दोहराते रहते हैं कि गधे और घोड़े को एक ही चाबुक से हांका जाता है, ठीक ही होगी.....जब हम जैसे घूमने-फिरने वाले लोगों को  ही घोड़े और गधे में अंतर करने के लिए इतनी मशक्कत करनी पड़ती है, तो फिर सरकारी तंत्र तो ठहरा सरकारी!


वैसे तो सेहत एक ऐसा मुद्दा है जिस पर शायद हमारा वश किसी सीमा तक ही होता है...यह किसी भी तरह से उपहास का कारण नहीं है लेकिन फिर भी मैंने पिछले रविवार को जब एक पुलिसकर्मी को कुछ बेबस अवस्था में देखा तो मुझे बहुत महसूस हुआ। यह सिपाही बीमार लग रहा था ..जिस तरह से लाठी की टेक लगा लगा कर चल रहा था और इस की पन्नी में लौकी का जूस भी इस की हालत ब्यां कर रहा था....इस की सेहत पर कोई और टिप्पणी नहीं। 

बस, उस वक्त यही ध्यान आ रहा था...कि सब के दिन एक समान नहीं रहते ...कभी कभी किसी निर्दोष पर ताबड़तोड़ लाठी भांजते हुए अगर पुलिसकर्मी यह याद कर लें कि कभी हमें भी लाठी का इस्तेमाल इस तरह से टेक लगाने के लिए भी करना पड़ सकता है, तो कानून और व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर इन के द्वारा किये जा रहे इंतज़ामों में भी मानवीय दृष्टिकोण शामिल हो ही जाएगा। ईश्वर इसे स्वस्थ करे .....और अपनी लाठी अपने "असली अंदाज़" में पकड़ पाए। 

हम लोग अकसर कभी कभी आकाश में उड़ते हुए हवा से बातें करने लगते हैं, कुछ लोगों को हिकारत भरी निगाहों से देखने की बहुत बड़ी भूल भी करते रहते हैं....लेकिन समय से डर कर रहना चाहिए....."वक्त" फिल्म ने हमें बहुत बरसों पहले चेता दिया था ...कल के भूपंक के झटकों ने एक बार फिर से याद दिला दी......हमारे फ्रेजाईल अस्तित्व पर .....प्रकृति जब चाहे चंद लम्हों में सब कुछ उल्टा-पुल्टा कर दे। 
 कल मुझे सूर्य महाराज के दर्शन इस प्रकार से हुए
कल मैंने अपनी यात्रा के दौरान इन स्कूल के बच्चों को देखा तो मेरा ध्यान हमारा आरक्षण पालिसी की तरफ गया....यह जो साईकिल चलाने वाला लड़का है, यह किसी दूर गांव से शहर पढ़ने जा रहा है। देश में सभी मां-बाप की संवेदनाएं एक सी होती हैं...हम लोग अपने बच्चों को उन की बस में बिठाने जाते हैं..और लौटने पर रिसीव करने के लिए भी खड़े होते हैं अकसर...लेकिन ये बच्चे अपने आप ही बहुत से संभ्रांत परिवारों से कहीं ज़्यादा सुसंस्कृत और लाइव-स्किल्स सीख जाते हैं...अपने आप ही चलते चलते......वैसे भी संभ्रांतम् स्कूलों के कारनामें हम आए दिन अखबारों में पढ़ते ही हैं...़

जिस रोड पर यह स्कूली छात्र साईकिल चला रहा था वहां पर साढ़े सात बजे के करीब ट्रकों और अन्य वाहनों का खूब आना जाना शुरू हो चुका था। 

और ये बच्चियां देखिए किस तरह से खुशी खुशी सरकार के सर्वशिक्षा अभियान को सफल करने में जुटी हुई हैं......मुझे इस तरह उमंग से स्कूल जाते बच्चों को देखना बहुत खुशी देता है। 

लेकिन इन बच्चों को देखते ही मेरे मन में देश की आरक्षण नीति के बारे में बहुत से विचार कौंदने लगते हैं। सरकारी नीति है, टिप्पणी करनी वैसे तो बनती नहीं, लेकिन फिर भी अब देखादेखी हमभी मन की बात कहना सीख रहे हैं। अकसर देखा है कि सरकारी आरक्षण का फायदा संभ्रांत लोग और उच्च पदों पर आसीन लोगों के बच्चे ही ले पाते हैं......यह बहुत बड़ा मुद्दा है .....सोचने की बात है कि कितने इस तरह के बच्चों को आरक्षण का फायदा मिल पाता है.....आप भी इस के बारे में सोचिए......मैंने तो देखा है अधिकारियों के बच्चे ही इस तरह के लाभ अधिकतर उठा पाते हैं....आरक्षण का मतलब तो यही है कि इस का लाभ पंक्ति के आखिर में खड़े इंसान तक भी पहुंचे.....एक बार किसी को आरक्षण का फायदा मिल गया....वह कोई अफसरी या नौकरी पा गया तो अब आरक्षण किसी दूसरे परिवार को उठाने के लिए इस्तेमाल हो तो बात है!...वरना सारी रेवडियां चंद परिवार ही खाते चले जाएं तो कैसा लगता है!  यह विचार तो अकसर आते रहते हैं...खाली पीली ख्याली पुलाव हैं, मैं जानता हूं...कुछ भी बदलने वाला भी नहीं, क्योंकि नियम में बदलाव कर पाने वाले स्तर के लोग क्या ऐसा बदलाव करना चाहेँगे!
प्रकृति की गोद में.....Far from the madding crowd!
यह धावक यह प्रेरणा देता दिख गया कि हर काम में लगन चाहिए
इमारतों का यह सीमेंट जैसे कलर बहुत बढ़िया लगता है..
भट्ठी वाली माई से जुड़ी मीठी यादें
कल गांव की इस तोरई की सब्जी खा कर तबीयत इन के जैसे ही हरी हो गई.
आप इस दबंग को भी देख लें.. (possibly inspired by Bollywood) 
हम लोगों ने जहां दबंगई दिखाऩी होती है हम अपने आप को सलमान खा समझ लेते हैं......ऐसा ही एक दबंग मैंने सड़क पर देखा जो झट से अपनी कार से उतरा और एक ट्रक ड्राईवर से कुछ इस तरह से पेश आने लगा......मुझे लगा कि उस ड्राईव की सीट पर बैठा कोई सवा सेर किस्म का होगा, जो यह शहरी फूले पेट वाला दबंग वापिस लौट आया। 
किसी भी भीमकाय घने छायादार पेड़ पर कब्जा करने के मामले में भी हम बहुत दबंग हैं..
किसी सिरफिरे दबंग का शिकार बनी बच्चों की प्यारी यह बिल्ली मौसी 
एक जगह और हमारी दबंगई चल जाती है... मासूम निर्दोष जानवरों पर ...अकसर सड़कों पर कुत्ते इस तरह की बेमौत मरते दिख जाते हैं....लेकिन कल पता नहीं यह बिल्ली किस दबंग की बदहवासी का शिकार बन गई....देख कर मन दुःखी हुआ। 

और क्या लिखें, बस अपने आप से इतना ही कह रहा हूं कि काश! हम बंदे बन जाएं....बस......हमारे सत्संग का भी यही मिशन है......कुछ भी बनो मुबारक है, पहले तुम इंसान बनो। 

हां, एक बात और...कल की साईकिल यात्रा के दौरान यह पोस्टर भी दिख गया जो लोगों को चेता रहा था कि राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप लोकतंत्र के लिए खतरा है। धन्यवाद....याद दिलाने के लिए। 

अभी अभी एफ एम पर हमारी पसंद का यह गीत बज रहा था तो बेटा कहता है कि पापा, इन्हें हमारी पसंद का कैसे पता चल जाता है...