कुछ दिन पहले मेरे बेटा जब परीक्षा देकर आया तो उसे एक अंक के एक प्रश्न के गलत होने का बड़ा अफसोस हो रहा था..प्रश्न था...कि विटामिन बी १२ की कमी से कौन सा रोग होता है?..मल्टीपल च्वाईस वाला प्रश्न था..इस का सही उत्तर है परनिशियस एनीमिया....बेटा किसी अन्य विक्लप को चुन आया था।
जब मैंने उसे इस के बारे में परेशान होते देखा तो सहज ही मेरे मुंह से निकल गया...राघव, आस पास से पूछ लेते यार। वह उस एक अंक का गम तो तुरंत भूल गया और मेरे मुंह की तरफ़ देख कर बोला...क्या कह रहे हो पापा?....और वह ठहाके लगाने लगा। आगे कहने लगा कि पापा, फ्लाईंग स्कवेड पकड़ ले तो कईं साल तक पीछा नहीं छूटता।
कहने लगा कि पापा, यह काम बड़ा रिस्की है। मैंने भी उसे एक सुझाव दे दिया कि फाईनल परीक्षा का कोई भी पेपर देकर जब लौटते हैं तो उसे चुपचाप किसी अलमारी में छिपा देना चाहिए....जो लिख दिया, वह बदला नहीं जायेगा, ऐसे में क्यों मूड खराब किया जाए।
कहने लगा कि पापा, यह काम बड़ा रिस्की है। मैंने भी उसे एक सुझाव दे दिया कि फाईनल परीक्षा का कोई भी पेपर देकर जब लौटते हैं तो उसे चुपचाप किसी अलमारी में छिपा देना चाहिए....जो लिख दिया, वह बदला नहीं जायेगा, ऐसे में क्यों मूड खराब किया जाए।
उस के बाद मैंने उस से अपने जमाने की नकल की बातें शेयर कीं...सुन कर हंसता रहा....उसे बड़ी हैरानगी होती है कि मैं भी किसी जमाने में नकल किया करता था।
वही बातें आप से भी आज शेयर करता हूं।
१९७४ के दिन ...छठी कक्षा में पढ़ते हुए स्कूल की छःमाही परीक्षाएं...अमृतसर का डीएवी स्कूल...पढ़ाई की कोई दिक्कत थी ही नहीं....उस दिन परीक्षा लिखते लिखते मेरी आगे और पीछे वाली सीट वाले लड़कों का आपस में थोड़ा वार्तालाप हुआ...और एक छोटी सी पर्ची मेरे बेंच के पास उन से गिर गई...सामने से अध्यापक आया ..उस ने कुछ न देखा...बिना कुछ पूछे मुझे एक इतने ज़ोर का चांटा मारा कि मेरा सिर घूम गया...मेरे से कुछ पूछा नहीं...इंगलिश का पेपर था..मैं ९५-९६ नंबर का तो कर चुका था...मेरे से पेपर छीन लिया...बिना किसी कसूर के ...और मैं सहमा सा घर आ पहुंचा।
हम लोग स्कूल की सभी बातें घर में शेयर किया करते थे...मुझे इतना शॉक पहुंचा कि मुझे बुखार हो गया....वह मास्टर जिस ने मेरे को चांटा जड़ा था...मुझे पता था कि अमृतसर के पुतलीघर एरिया में उन का अपना एक स्कूल है और घर भी उस के अंदर ही है।
दोस्तो, वह ही ऐसा दिन था जब मैंने अपने घर में एक मास्टर के प्रति थोड़ा आक्रोश देखा...वरना दोस्तो हम लोगों को अपने टीचरों को सदैव आदर सत्कार करने के बेहतरीन संस्कार मिले...हम आज भी उन्हें निभा रहे हैं...और बच्चे भी अपने टीचरों के प्रति हमेशा कृतज्ञ रहते हैं....होता है, शुरू शुरू में ...जब प्राइमरी कक्षा होती है तो बच्चे आ कर कहते थे ...पापा, वह टीचर ऐसा, वह ऐसा......हम लोग उन्हें तुरंत प्यार से समझा दिया करते कि देखो भाई, घर में मां बाप दो बच्चों को नहीं संभाल पाते, नहीं संभाल पाते ना!..... और उन्होंने तो ६०-६० बच्चों को संभालना भी है और उन्हें सिखाना भी है ...और साथ में हम उन्हें हमेशा सेंसेटाइज़ किया करते कि पता नहीं बेटा, किसी की क्या व्यक्तिगत समस्याएं हैं, किसी दिन कैसे मूड है...इसलिए कुछ भी हो, हम लोगों की जगह ,बेटा, मास्टरों के चरणों में ही है।
हां, उस चांटा मारने वाले मास्टर की बात हो रही थी....उसी दिन मेरा मूड बहुत ज़्यादा खराब था ..मैं अपने पापा के साईकिल पर बैठ कर उन मास्टर साहब के घर पहुंच गया... उन के यहां हम ने चाय पानी पिया ...मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है मेरे पापा ने वहां कुछ खास कहा ही नहीं, बिल्कुल अच्छे से याद है, तकरार की तो कोई बात ही नहीं, मुझे वहां जाकर ऐसे लगा जैसे मेरे तसल्ली के लिए ही पापा मुझे यहां लाए हों...और एक बात, ताज़ी ताज़ी सुबह ही तो बात थी, मास्टर जी को भी सब याद था और शायद गल्ती का एहसास था....मुझे इस बात का इत्मीनान था कि मेरा पेपर रद्द नहीं होगा.... पूरे सम्मान के साथ मैंने बस इतना कहा था कि मास्टर जी, मैं सारा पेपर फिर से दोबारा कर सकता हूं..मुझे सारा आता था। खैर, वह बात तो आई-गई हो गई ...
सातवीं आठवीं कक्षा में था तो नकल की पर्चीयां चलने लगी थीं.... या तो किसी कुंजी के पेज ही फाड़ कर लड़के साथ लेकर जाने लगे थे ...या फिर हाथ से लिख कर पर्चीयां तैयार के ले जाते ... मुझे यह बड़ा अजीब सा लगता था क्योंकि पढ़ाई में कभी कोई दिक्कत ही नहीं थी, सब कुछ अच्छे से आता था, याद होता था, रोज़ का रोज़ पढ़ना अपनी आदत में शुमार था...बिल्कुल कोई दिक्कत नहीं।
लेकिन वह कहावत है ना कि खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है ... मुझे हिस्ट्री-ज्योग्राफी से बेहद नफरत थी ... आज भी है.. इस का भी श्रेय मैं अपने बोरिंग मास्टर को देता हूं जो कभी इस विषय में रूचि उत्पन्न ही नहीं कर पाया ...उसे पीटने में ही लगता था ज़्यादा मजा आता था...मैंने भी दो तीन बार उस से पिटाई खाई....
इसलिए औरों की देखा देखी मुझे भी एक बार चाह हुई कि मैं भी नकल की मदद ले लूं... मुझे यही लगता था कि हिस्ट्री-ज्योग्राफी के हैडिंग ही मेरे को पता हों तो मैं आगे क्या लिखना है, संभाल लूंगा.... इतना कान्फिडेंस तो था .. यह भी सुन लिया था कि इस पेपर को तो चेक करने वाले गिट्ठां माप माप के चैक करते हैं (गिट्ठ पंजाबी का शब्द है, मतलब है जब हाथ के पंजे को फैलाते हैं तो उसे एक गिट्ठ कहा जाता है) ...
हां जी मैंने भी एक बार किताब के कुछ पन्ने फाड़े और उन्हें यूरिनल के ऊपर लगी टंकी के पीछे छुपा दिया कि बीच में मौका लगते ही आऊंगा तो पढ़ लूंगा।
याद है उस दिन मैं बीच में बाहर आया भी ... लेकिन मुझे उस फ्लश की लोहे की टंकी के पीछे से वे पर्चे निकाल कर पढ़ने की कल्पना से ही इतना डर लगा कि मैं वह काम कर ही न सका.......मुझे लगा कि अभी मुझे कोई पकड़ लेगा।
फिर कभी कभी मैं ये हैडिंग रूमाल के किसी कोने में लिख कर भी चला जाता... ऐसे ही लगता कि कभी दो चार अंकों का फायदा हो जाएगा..लेकिन उस रूमाल के चक्कर में ..उस मुसीबत को तीन घंटे अपने पास रखे रखने की मजबूरी के चलते मैं अपने बाकी के प्रश्नों की तरफ़ भी अच्छे से ध्यान न दे पाता....डर बहुत बुरी चीज है। विज्ञापन में सुनना ही ठीक लगता है ....डर के आगे जीत है।
हां, पर्चीयों की डिस्पोजल की बात करें तो बच्चे उस दौरान भी शातिर कम नहीं थे.....कागज की छोटी छोटी पर्चियां खा लिया करते थे ..फ्लाईंग स्कवेड के आने पर।
अपनी तो बस यही छुटपुट छटांक भर रूमाल पर लिखे हैडिंग के रूप में ही कभी कभी दो चार नंबर की नकल हो जाती.....लेकिन उस चक्कर में अपने ९६ नंबर के पेपर की वाट लग जाती ..इसलिए दो एक साल में वह भी बंद कर दिया....रूमाल पर भी घर में छुप कर लिखना.....अगर कोई घर ही में पकड़ लेता तो रूमाल ही छीन लेता.....बस, पिटाई विटाई तो क्या होनी थी, दोस्तो, घर में हमारी पिटाई एक बार भी हुई नहीं....कसम वाली बात है.....हमें कभी किसी ने घर में झिड़की तक दी...
हां, एक बात अपने एक कज़िन के बारे में शेयर करनी है.. वह मेरी नानी के पास रहता था, पढ़ने में ज़्यादा ध्यान नहीं लगाता था, लाड़ला था, कईं बार तो पेपर से एक दिन पहले किसी विषय की कुंजी लाता.......मुझे अच्छे से याद है नानी उस के बारे में बताते हुए कितना हंसा करती थी ...दोस्तो, १९७० के जमाने में आप को याद होगा जब लड़कियां स्लेक्स पहना करती थीं...लड़के नाईलोन की निक्करें पहना करते थे ..इलास्टिक वाली .. तो यह कज़िन पप्पू क्या किया करता था ..कि अपनी बड़ी मेहनत से अपनी जांघ पर नकल का मैटिरियल लिख लिया करता और वह स्ट्रेचएबल निक्कर तो उस लिखे को कवर कर ही लिया करती थी।
मेरी नानी उसे प्यार से झिड़की देते अकसर कहा करती कि जितनी मेहनत तू यह सब करने में करता है, उतने समय में पढ़ ही लिया कर पप्पू.......लेकिन पप्पू कहां सुनने वाला था, कर गया ऐसे ही बीए......लेिकन वही बात है कि बी ए किया एम ए किया.......लगता है सब कुछ ऐवें किया..
यह नकल पुरान तो खूब लंबा खिंच रहा है, लगता है बाकी की बातें फिर कभी ...... अपने अंदर कैद सारे राज़ एक ही दिन थोड़े ही खोल दूंगा!
वैसे पढ़ाई में मैं बहुत अच्छा था...इसके प्रूफ के रूप में मैंने वह १९७३-७४ की पांचवी कक्षा की अमृतसर जिले की योग्यता छात्रवृत्ति की डीएवी स्कूल के मैगजीन में छपी वह तस्वीर ऊपर पेस्ट कर दी है... तीन साल तक हर महीन १० रूपये की छात्रवृति में जो आनंद था वह तो दोस्तो आज सैलरी का चेक मिलने पर भी नहीं होता.....बॉय गॉड, आय स्वेयर। इस छात्रवृति के िलए हमारे मास्टर साहब हमारी बड़ी तैयारी करवाया करते थे।
वैसे पढ़ाई में मैं बहुत अच्छा था...इसके प्रूफ के रूप में मैंने वह १९७३-७४ की पांचवी कक्षा की अमृतसर जिले की योग्यता छात्रवृत्ति की डीएवी स्कूल के मैगजीन में छपी वह तस्वीर ऊपर पेस्ट कर दी है... तीन साल तक हर महीन १० रूपये की छात्रवृति में जो आनंद था वह तो दोस्तो आज सैलरी का चेक मिलने पर भी नहीं होता.....बॉय गॉड, आय स्वेयर। इस छात्रवृति के िलए हमारे मास्टर साहब हमारी बड़ी तैयारी करवाया करते थे।
बी ए एम की बात हुई तो उन्हीं दिनों का यह गीत याद आ गया..सारी बातें आज ही की लग रही हैं...