अभी मैं घर से बाहर निकला तो ये गुलाब के फूल मेरा स्वागत करते दिखे...फिर अचानक ३१ मार्च का दिन याद आ गया...मेरे िलेए विशेष महत्व का दिन..बचपन में हम लोगों का रिजल्ट इस दिन आता था...और हम लोग उस दिन फूलों की माला घर में तैयार की हुई अवश्य लेकर जाया करते थे।
मुझे इस दिन मेरी वह पोस्ट भी याद आती है जो मैंने आठ साल पहले इसी दिन लिखी थी ...आप इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं...३१ मार्च का दिन ..मेरी बड़ी बहन और ढेर सारे गुलाब।
जितनी उमंग, लगन और चाव से मैं ३१ मार्च के दिन अपनी बड़ी बहन को वह गुलाब के फूलों की माला अपने हाथों से सूईं धागे से तैयार करते देखा करता ...वह शिद्दत मैंने फिर अनुभव नहीं की... अब वह स्वयं विश्वविद्यालय में प्रोफैसर हैं और एक आदर्श टीचर हैं।
बात दोस्तो फूलों की माला की नहीं है...बात भावनाओं की है...अब हम लोग बड़े मौकापरस्त से हो गये हैं... है कि नहीं ?...पहले लोग बड़े मासूम से थे, बिल्कुल मासूम ...अब हमने चालाकियां सीख लीं....पैसा फैंक तमाशा देख वाली बात हो गई है....जैसी सामने वाली औकात है उसी के हिसाब से बुके तैयार करवाए जाते हैं...मुझे बुके पर एक रूपया भी खर्च करना बेवकूफी लगती है......उस की बजाए मंदिर के बाहर बैठे लोगों का कुछ भी जश्न करवा देना चाहिए।
अपने टीचर के गले में फूलों का वह हार डालते हुए जो झनझनाहट महसूस की उन दिनों ...वह फिर कभी महसूस न हुई....बाकी सब जगह रस्म अदायगी ही दिखती है।
एक तरह से ये जो बुके वुके हैं ...इन में फूल तो होते हैं ...सुंदर से सुंदर...बाज़ार है...लेिकन शायद खुशबू इन में बहुत पहले से गायब हो चुकी है.......वह मासूमियत की, स्नेह की , कृतज्ञ भाव की ...अपनेपन की .......अब तो जो बुके वुके दिये और लिये जाते हैं उन के बारे में चुप ही रहूं तो ज़्यादा ठीक रहेगा...
जाते जाते आज की पीढ़ी को एक छोटी सी सीख.....अपने गुरूओं का सारी उम्र सम्मान करते रहिए....कृपा आती रहेगी ....यह किसी बाबा का टुच्चा नुस्खा नहीं है जो कहता है कि गुलाब जामुन खाने से भी रूकी हुई कृपा फिर से बरसने लगेगी.........यह गुरू वाली कृपा हमें सारी उम्र मिलती रहेगी अगर हमारे मन में उन का आदर-सत्कार सदैव बना रहेगा।
अच्छा, आप बताएं क्या आप ने इस दौरान अपने प्राइमरी के टीचर को याद किया?
फूलों से ध्यान आया....कुदरत तो यार हर तरफ़ हर पल संभावनाओं से भरी पड़ी है और हम फिर कैसे निराशात्मक रवैया कभी कभी अपना लेते हैं...
मुझे इस दिन मेरी वह पोस्ट भी याद आती है जो मैंने आठ साल पहले इसी दिन लिखी थी ...आप इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं...३१ मार्च का दिन ..मेरी बड़ी बहन और ढेर सारे गुलाब।
जितनी उमंग, लगन और चाव से मैं ३१ मार्च के दिन अपनी बड़ी बहन को वह गुलाब के फूलों की माला अपने हाथों से सूईं धागे से तैयार करते देखा करता ...वह शिद्दत मैंने फिर अनुभव नहीं की... अब वह स्वयं विश्वविद्यालय में प्रोफैसर हैं और एक आदर्श टीचर हैं।
बात दोस्तो फूलों की माला की नहीं है...बात भावनाओं की है...अब हम लोग बड़े मौकापरस्त से हो गये हैं... है कि नहीं ?...पहले लोग बड़े मासूम से थे, बिल्कुल मासूम ...अब हमने चालाकियां सीख लीं....पैसा फैंक तमाशा देख वाली बात हो गई है....जैसी सामने वाली औकात है उसी के हिसाब से बुके तैयार करवाए जाते हैं...मुझे बुके पर एक रूपया भी खर्च करना बेवकूफी लगती है......उस की बजाए मंदिर के बाहर बैठे लोगों का कुछ भी जश्न करवा देना चाहिए।
अपने टीचर के गले में फूलों का वह हार डालते हुए जो झनझनाहट महसूस की उन दिनों ...वह फिर कभी महसूस न हुई....बाकी सब जगह रस्म अदायगी ही दिखती है।
यह फूल भी अभी दिखा... |
जाते जाते आज की पीढ़ी को एक छोटी सी सीख.....अपने गुरूओं का सारी उम्र सम्मान करते रहिए....कृपा आती रहेगी ....यह किसी बाबा का टुच्चा नुस्खा नहीं है जो कहता है कि गुलाब जामुन खाने से भी रूकी हुई कृपा फिर से बरसने लगेगी.........यह गुरू वाली कृपा हमें सारी उम्र मिलती रहेगी अगर हमारे मन में उन का आदर-सत्कार सदैव बना रहेगा।
अच्छा, आप बताएं क्या आप ने इस दौरान अपने प्राइमरी के टीचर को याद किया?
फूलों से ध्यान आया....कुदरत तो यार हर तरफ़ हर पल संभावनाओं से भरी पड़ी है और हम फिर कैसे निराशात्मक रवैया कभी कभी अपना लेते हैं...