जब कभी मैं ओपीडी में आई किसी महिला से पूछ लेता हूं कि आप क्या करती हैं?..क्या आप सर्विस करती हैं?...और बहुत बार मुझे जब यह जवाब मिलता कि नहीं जी, बस घर में ही, बस हाउस-वाईफ ...मुझे यह सुन कर बहुत बुरा लगता है।
अब आप सोच रहे होंगे कि जो महिला होम-मेकर है, उसने तुम्हें बता दिया कि वह हाउस-वाईफ है तो इसमें मुझे इतना बुरा लगने वाला है क्या!
है, दोस्तो, यह हाउस-वाईफ या बस घर ही में ...शब्द बोलते जो अधिकतर महिलाओं के चेहरे के भाव मैंने पढ़े हैं ...वह देख कर अच्छा नहीं लगता। सीधे सीधे बात करूं तो मुझे यही अनुभव होता है कि इन्हें यह कहते हुए अपने आप में किसी कमी का अहसास हो रहा है।
लेिकन सच्चाई इस से बिल्कुल अलग है...हम सब जानते हैं कि एक गृहिणी का एक घर में कितना अहम् योगदान है...सारे घर की क्या, पूरे संयुक्त परिवार की धुरी होती है एक गृहिणी। कोई शक?
हां, आज गृहिणी की बात कैसे चल पड़ी.... आज सुबह वाट्सएप पर एक फारवर्डेड मैसेज दिखा....चेतन भगत ने कामकाजी पत्नी की बहुत प्रशंसा की थी..उसने लिखा था कि उस की मां भी ४० वर्ष तक सर्विस में रही हैं। ठीक है, अच्छा लगा उस के विचार पढ़ कर...
यकीनन् दोस्तो इस में दो राय हो ही नहीं सकती कि कामकाजी महिलाएं दोहरी भूमिका निभाती हैं...हम लोग चाहे जितनी भी जेंडर सेंसेटाईज़ेशन की बातें हांकते रहें, लेकिन ज़मीनी हकीकत से हम सब वाकिफ़ हैं कि किस तरह से अधिकतर कामकाजी महिलाएं घर और काम के चक्कर में पिसती रहती हैं। सभी कामकाजी महिलाओं के इस जज्बे को हम सब का सलाम..
यह तो थी बात कामकाजी महिलाओं की लेकिन जब कामकाजी महिलाओं की बात चलती है और उस के साथ ही गृहिणियों की बात न की जाए तो बिल्कुल अधूरी सी लगती है बात, दोस्तो, कामकाजी महिलाएं की संख्या तो आज भी शायद आटे में नमक जैसे अनुपात में होगी...शायद इस से थोड़ी ज़्यादा, लेकिन दोस्तो देश की करोड़ों गृहिणियों का दिन भी तो सुबह काम से शुरू होता है और रात में सोने तक यही सिलसिला चलता रहता है।
मुझे ऐसा लगता है कि जब भी कामकाजी महिलाओं की दोहरी भूमिका के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाए तो गैर-कामकाजी (वैसे तो मुझे इस शब्द से ही आपत्ति है, क्या सुबह से रात तक घर को संभालना कामकाज नहीं है!) ..महिलाओं के कामकाज के लिए भी प्रशंसा के दो शब्द कहे जाएं।
और सब से बड़ी बात...मुझे आज लगा कि चेतन भगत ने कामकाजी महिलाओं की तारीफ़ के पुल बांध दिए...लेकिन अगर इसी बहाने हम ने अगर उन सैंकड़ों गैर-कामकाजी (!!)महिलाओं को आज याद न किया जिन्हें हम बचपन से देखते रहें....हमारी नानी, दादी, फूफी, मौसी, मामी, चाची, ताई, भाभी, मां, बहन.....और हां, जहां जहां भी हम लोग रहे उस के अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं के संघर्षमय जीवन को देखा, लहरों के विपरीत उन के चलने की हिम्मत देखी..
और बहुत सी बहुत कम पढ़ी लिखी महिलाएं भी देखीं ...कुछ अनपढ़ भी देखीं....(पंजाबी में एक कहावत है, वह पढ़ा नहीं है गुढ़ा है)...लेिकन जीवन की परीक्षा में अच्छे से सफल.....हर तरह से.....हर तरह से घर की आर्थिक, सामाजिक प्रतिष्ठा बनाए रखने में पूरी तरह से सक्षम...
टॉिपक आज गलत चुन लिया गया है.......लिखते कुछ बन नहीं रहा......समाज में गैरकामकाजी महिलाओं के योगदान पर ग्रंथ िलखे जा सकते हैं...अपनी अधिकतर इच्छाओं और ज़रूरतों को दबाते हुए अपने घर-परिवार की मर्यादा के लिए इन के त्याग की गाथाएं लिखने लगेंगे तो ग्रंथ तैयार हो जाएंगे। हर घर में इन पर कईं कईं नावल लिखे जा सकते हैं।
डर लगता है आज की गैरकामकाजी महिलाओं की भूमिका को इतना ग्लोरीफाई करते हुए....डर लगता है कि यह भी हम पुरूषों की मानसिकता तो नहीं बन गई...ताकि लकीर की फकीरी ज्यों की त्यों बनी रहे।
नहीं दोस्तो ऐसा नहीं है, बदलाव की हवाएं चल निकली हैं....खुशामदीद, स्वागत है, हरेक को खुले में सांस लेने का, प्रश्न पूछने का, कम से कम अपने फैसले स्वयं करने का हक तो है ही!
इन्हीं बदलती हवाएं को हवा देती हुई जब कोई फिल्म आती है ना तो बहुत सुखद अनुभव होता है.....आज भी दोपहर में एक चैनल पर बेटे ने हिंदी फिल्म डोर लगाई हुई थी.....कह रहा था कि अब यह बहुत बार रिपीट हो रही है....मुझे इस फिल्म को बार बार देखना अच्छा लगता है, यह एक दबी हुई महिला के सिर उठाने की दास्तां है, सड़ी गली कुछ पुरानी दकियानूसी प्रथाओं की जंजीरों को तोड़ने की संभावनाएं टटोलते हुए... .... अगर आपने अभी तक नहीं देखी, तो ज़रूर देखिएगा... मुझे इस का यह गीत बेहद पसंद है...मैं कईं बार सुबह सुबह किसी भक्ति-वक्ति गीत की जगह इस तरह के गीत ही सुनना पसंद करता हूं....
अब आप सोच रहे होंगे कि जो महिला होम-मेकर है, उसने तुम्हें बता दिया कि वह हाउस-वाईफ है तो इसमें मुझे इतना बुरा लगने वाला है क्या!
है, दोस्तो, यह हाउस-वाईफ या बस घर ही में ...शब्द बोलते जो अधिकतर महिलाओं के चेहरे के भाव मैंने पढ़े हैं ...वह देख कर अच्छा नहीं लगता। सीधे सीधे बात करूं तो मुझे यही अनुभव होता है कि इन्हें यह कहते हुए अपने आप में किसी कमी का अहसास हो रहा है।
लेिकन सच्चाई इस से बिल्कुल अलग है...हम सब जानते हैं कि एक गृहिणी का एक घर में कितना अहम् योगदान है...सारे घर की क्या, पूरे संयुक्त परिवार की धुरी होती है एक गृहिणी। कोई शक?
हां, आज गृहिणी की बात कैसे चल पड़ी.... आज सुबह वाट्सएप पर एक फारवर्डेड मैसेज दिखा....चेतन भगत ने कामकाजी पत्नी की बहुत प्रशंसा की थी..उसने लिखा था कि उस की मां भी ४० वर्ष तक सर्विस में रही हैं। ठीक है, अच्छा लगा उस के विचार पढ़ कर...
यकीनन् दोस्तो इस में दो राय हो ही नहीं सकती कि कामकाजी महिलाएं दोहरी भूमिका निभाती हैं...हम लोग चाहे जितनी भी जेंडर सेंसेटाईज़ेशन की बातें हांकते रहें, लेकिन ज़मीनी हकीकत से हम सब वाकिफ़ हैं कि किस तरह से अधिकतर कामकाजी महिलाएं घर और काम के चक्कर में पिसती रहती हैं। सभी कामकाजी महिलाओं के इस जज्बे को हम सब का सलाम..
यह तो थी बात कामकाजी महिलाओं की लेकिन जब कामकाजी महिलाओं की बात चलती है और उस के साथ ही गृहिणियों की बात न की जाए तो बिल्कुल अधूरी सी लगती है बात, दोस्तो, कामकाजी महिलाएं की संख्या तो आज भी शायद आटे में नमक जैसे अनुपात में होगी...शायद इस से थोड़ी ज़्यादा, लेकिन दोस्तो देश की करोड़ों गृहिणियों का दिन भी तो सुबह काम से शुरू होता है और रात में सोने तक यही सिलसिला चलता रहता है।
मुझे ऐसा लगता है कि जब भी कामकाजी महिलाओं की दोहरी भूमिका के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाए तो गैर-कामकाजी (वैसे तो मुझे इस शब्द से ही आपत्ति है, क्या सुबह से रात तक घर को संभालना कामकाज नहीं है!) ..महिलाओं के कामकाज के लिए भी प्रशंसा के दो शब्द कहे जाएं।
और सब से बड़ी बात...मुझे आज लगा कि चेतन भगत ने कामकाजी महिलाओं की तारीफ़ के पुल बांध दिए...लेकिन अगर इसी बहाने हम ने अगर उन सैंकड़ों गैर-कामकाजी (!!)महिलाओं को आज याद न किया जिन्हें हम बचपन से देखते रहें....हमारी नानी, दादी, फूफी, मौसी, मामी, चाची, ताई, भाभी, मां, बहन.....और हां, जहां जहां भी हम लोग रहे उस के अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं के संघर्षमय जीवन को देखा, लहरों के विपरीत उन के चलने की हिम्मत देखी..
और बहुत सी बहुत कम पढ़ी लिखी महिलाएं भी देखीं ...कुछ अनपढ़ भी देखीं....(पंजाबी में एक कहावत है, वह पढ़ा नहीं है गुढ़ा है)...लेिकन जीवन की परीक्षा में अच्छे से सफल.....हर तरह से.....हर तरह से घर की आर्थिक, सामाजिक प्रतिष्ठा बनाए रखने में पूरी तरह से सक्षम...
टॉिपक आज गलत चुन लिया गया है.......लिखते कुछ बन नहीं रहा......समाज में गैरकामकाजी महिलाओं के योगदान पर ग्रंथ िलखे जा सकते हैं...अपनी अधिकतर इच्छाओं और ज़रूरतों को दबाते हुए अपने घर-परिवार की मर्यादा के लिए इन के त्याग की गाथाएं लिखने लगेंगे तो ग्रंथ तैयार हो जाएंगे। हर घर में इन पर कईं कईं नावल लिखे जा सकते हैं।
डर लगता है आज की गैरकामकाजी महिलाओं की भूमिका को इतना ग्लोरीफाई करते हुए....डर लगता है कि यह भी हम पुरूषों की मानसिकता तो नहीं बन गई...ताकि लकीर की फकीरी ज्यों की त्यों बनी रहे।
नहीं दोस्तो ऐसा नहीं है, बदलाव की हवाएं चल निकली हैं....खुशामदीद, स्वागत है, हरेक को खुले में सांस लेने का, प्रश्न पूछने का, कम से कम अपने फैसले स्वयं करने का हक तो है ही!
इन्हीं बदलती हवाएं को हवा देती हुई जब कोई फिल्म आती है ना तो बहुत सुखद अनुभव होता है.....आज भी दोपहर में एक चैनल पर बेटे ने हिंदी फिल्म डोर लगाई हुई थी.....कह रहा था कि अब यह बहुत बार रिपीट हो रही है....मुझे इस फिल्म को बार बार देखना अच्छा लगता है, यह एक दबी हुई महिला के सिर उठाने की दास्तां है, सड़ी गली कुछ पुरानी दकियानूसी प्रथाओं की जंजीरों को तोड़ने की संभावनाएं टटोलते हुए... .... अगर आपने अभी तक नहीं देखी, तो ज़रूर देखिएगा... मुझे इस का यह गीत बेहद पसंद है...मैं कईं बार सुबह सुबह किसी भक्ति-वक्ति गीत की जगह इस तरह के गीत ही सुनना पसंद करता हूं....